Tuesday 23 November 2021

धन्यवाद के पल (लघु कथा)

धन्यवाद के पल         (लघु कथा)
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                      -1-
जब शाम पांच बजे दीपेश स्कूल बस से घर पहुंचा तो रोज की तरह उसके दादाजी अपने हमउम्र साथियों के साथ कांपते हुए हाथों से कैरम खेलते हुए मिले। दीपेश अपने दादाजी को देखते ही बड़े प्यार से चहककर बोला - "हेलो दादा जी मैं ही स्कूल से आ गया !"
दादा जी ने भी बड़े ही प्यार से पूछा - "और दीपू बेटा आज कैसा रहा तुम्हारा स्कूल..?"
दीपू ज्यादा कुछ नहीं बोला बस इतना कहा -"आता हूं दादा"
कुछ देर बाद अपने हाथ पांव धोकर रोज की तरह दीपू अपने दादा के कमरे में आया तब तक उनके दादा के सारे साथी जा चुके थे। दीपू को जैसे अपने दादा से कुछ बताने की जल्दी थी उसने जल्दी जल्दी बोलना शुरू किया-"दादाजी दादाजी पता है आज स्कूल में क्या हुआ ?
तुम्हारे स्कूल में क्या हुआ भला मुझे कैसे पता रहेगा तुम बताओगे तभी तो पता चलेगा - दादा ने कहा।
हां मैं वई बता रहा हूं-"आज तीन बजे स्पोर्ट पीरियड में मैं दोस्तों के साथ क्रिकेट खेल रहा था तभी एक रन लेने के चक्कर में जोर से गिर गया था, मेरे घुटने में चोट लगी थी और मैं बेहोश हो गया था।"
"अरे इतना कुछ हो गया था और तुम्हारे स्कूल वाले हमें बताए भी नहीं।"दादा ने पूछा
"ऐसा नहीं है दादा जी जब मुझे होश आया तो पता चला मेरे हिंदी टीचर सत्येंद्र सर ने मुझे अपने कार से पास के ही जॉर्ज हॉस्पिटल ले आए थे और मैं एकदम ठीक हो गया ।"
सर बता रहे थे कि- "हम तुम्हारी मम्मी को तुम्हारी चोट के बारे में सब कुछ बता चुके हैं।"
यह सब बताने के बाद दीपू थोड़ा भावुक होकर अपने दादा से फिर कहने लगा-"दादा सत्येंद्र सर कितने अच्छे हैं अगर आज वो नहीं होते तो....
दादा दीपू को प्यार से समझाते हुए कहने लगे-"बेटा यदि हम किसी की मदद करते हैं तो मुश्किल वक्त आने पर हमारा मदद करने वाला भी कोई न कोई जरूर आ जाता है।"
                       -2-
रविवार का दिन था दीपू अपने दादाजी के साथ फल दुकान कुछ फल खरीदने के लिए साथ में गया हुआ था। तभी दीपू की नजर अपने हिंदी सर सत्येंद्र पर पड़ी। वह भी फल दुकान के सामने फल खरीदने के लिए खड़ा हुआ था। दीपू अपने प्रिय सर को देखते ही बोला-"सर नमस्ते आप भी यहां...!
सत्येंद्र ने कहा- "हां बेटा कुछ फल खरीदना था इसीलिए शाम को बस यूं ही निकला था।"
दीपू अपने दादा जी को बताते हुए कहने लगा-"दादाजी ये मेरे सर हैं वही सर जो मुझे हॉस्पिटल ले गए थे।"
"अच्छा अच्छा तो आप है सत्येंद्र जी !आप यहां कब से है पढ़ा रहे हैं ?" दादा जी ने पूछा
दीपू के दादा को देखते ही जैसे उनका चेहरा उन्हें जाना पहचाना सा जान पड़ा। वह सोचने लगा कि मैं इस व्यक्ति से कभी कहीं ना कहीं जरूर मिला हूं। वह अपने मस्तिष्क पर जोर देते हुए जैसे पुरानी बातों को याद करने की कोशिश कर रहा था। फिर वर्तमान पर लौटते हुए कहा- "जी अंकल मैं पिछले तीन साल से यहां पढ़ा रहा हूं।"
सत्येंद्र को अचानक जैसे सारी बातें याद आ गई हो उसने दीपू के दादा से पूछा- "अंकल यदि मैं गलत नहीं हूं तो आप शायद गणेश पाटिल जी तो नहीं है..?"
दीपू के दादा को कुछ भी याद नहीं था, वह समझ भी नहीं पा रहे थे। उसने थोड़े विस्मित भाव से सत्येंद्र से पूछा- "हां, मैं गणेश पाटिल हूं पर आप मुझे कैसे जानते हैं..?
सत्येंद्र ने सोलह साल पुरानी बातें दीपू के दादाजी को पूरी तफसील से बताया - "जब वह 2004 में केंद्रीय विद्यालय में भर्ती के लिए पीजीटी हिंदी परीक्षा देने जबलपुर आया था तब सिटी बस में इधर से उधर घूमने के बाद परीक्षा सेंटर से दो किलोमीटर पहले ही उतार दिया गया था। वह हड़बड़ा कर अंजान शहर में सहायता के लिए अपेक्षा भरी नजरों से इधर-उधर ताक रहा था तभी उनकी नजर एक मकान के सामने कैरम खेल रहे लोगों पर पड़ी थी। जब मैं अपनी स्थिति बताते हुए प्रवेश पत्र दिखाया तो वह आप ही थे जो मुझे मेरे परीक्षा केंद्र तक छोड़ कर आए थे। और मैं उसी परीक्षा के परिणाम स्वरूप आज आपके सामने हूं।"
सत्येंद्र बड़ी कृतज्ञता भरे शब्दों में कहने लगे- "अंकल आप मेरे भगवान हो यदि आप उस दिन मेरी मदद नहीं की होती तो आज मैं इस मुकाम पर शायद नहीं होता।"सत्येंद्र भावुक होते हुए दीपू के दादा जी के पैर छू लिए। दीपू के दादा ने भी दीपू के मदद के लिए सत्येंद्र को हृदय से धन्यवाद दिया।यह कितना अद्भुत क्षण था कि इस समय मदद पाने वाला और मदद करने वाला दोनों ही सत्येंद्र था। धन्यवाद पाने और धन्य होने का यह क्षण सत्येंद्र को हमेशा याद रहा।
--नरेंद्र कुमार कुलमित्र

दुर्ग की एक दिवसीय यात्रा 19.11.21

दुर्ग की एक दिवसीय यात्रा 19.11.21
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1.शुक्रवार 19 नवंबर को स्थानीय साहित्यिक मित्रों के साथ दुर्ग जाना हुआ। दुर्ग जाने का मकसद श्री प्रकाशन के कर्ताधर्ता एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री महावीर अग्रवाल जी से मिलना था। अपने शैक्षणिक जीवन में वाणिज्य विषय के अध्ययन और अध्यापन में जुटे श्री महावीर अग्रवाल जी ने हिंदी साहित्य के लेखन एवं संपादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है। साहित्य कर्म में जुटे श्री अग्रवाल जी भले ही 76 वर्ष के बुजुर्ग हो गए हैं मगर अध्ययन और लेखन के प्रति उनका उत्साह जरा भी कम नहीं हुआ है। A14 आदर्श नगर दुर्ग के उनके निवास में हिंदी साहित्य के लेखकों कवियों की असंख्य पुस्तकों एवं तमाम पत्र-पत्रिकाओं की समृद्ध लाइब्रेरी मौजूद है। वे हमसे बड़ी ही सहजता से मिले,हमारी खातिरदारी की और चार घंटे तक बड़ी लगन के साथ अपनी लाइब्रेरी की तमाम किताबों से रूबरू कराते रहे। हालांकि उनकी बूढ़ी आंखों में उम्र के साथ चमक थोड़ी कम हो गई है मगर साहित्य प्रेमियों को समझने एवं परखने की पर्याप्त चमक अभी विद्यमान है। वे पिछले 30 वर्षों से साहित्यिक पत्रिका सापेक्ष का लगातार प्रकाशन करते चले आ रहे हैं। वह हमें पिछले 30 वर्षों में हिंदी के नामचीन रचनाकारों से अपनी हुई मुलाकातों के बारे में बताते रहे। कथा शिल्पी कमलेश्वर जी एवं समकालीन हिंदी काव्य के पुरोधा कवि मुक्तिबोध जी से जुड़े रोचक संस्मरण भी सुनाए। उन्होंने अपने संपादित पुस्तकों से कुछ महत्वपूर्ण अंशों को पढ़कर भी सुनाया। हम सभी मित्रों ने उनकी लाइब्रेरी से कुछ दुर्लभ और महत्वपूर्ण किताबों की खरीददारी की। 4 घंटा बिताने के बाद जब हम उनसे विदा लेने लगे तब वह हमें आप सभी का मुझे 15 मिनट और चाहिए कहकर आदर्श चौक दुर्ग तक छोड़ने आए ,हम सभी को नाश्ता करवाएं , जूस पीने के लिए ऑफर किए मगर हम ने मना कर दिया। हम सभी ने बहुत जल्दी फिर से मिलने के वादे के साथ उनसे विदा लिए। हम सभी मित्र घर वापस आते समय श्री अग्रवाल जी के व्यक्तित्व और उनकी साहित्यिक अवदान और साहित्य प्रेम की चर्चा करते रहे ।
2. इस एक दिवसीय यात्रा के दौरान हमने कुछ ऐतिहासिक स्थलों का भी भ्रमण किया। दुर्ग जाने के समय बेमेतरा दुर्ग मार्ग पर ऐतिहासिक स्थल देवरबीजा गए जहां 12 वीं शताब्दी में कलचुरी राजाओं के द्वारा सीता देवी  का मंदिर निर्मित किया गया है। यह मंदिर शिव जी को समर्पित है तथा इसका मुख्य द्वार पूर्व दिशा में है। इस के प्रवेश द्वार के दाएं एवं बाएं में क्रमशः यमुना और गंगा का अंकन हुआ है। मंदिर के वाह्य दीवारों पर मध्यप्रदेश के खजुराहो एवं छत्तीसगढ़ के भोरमदेव मंदिर के दीवारों की तरह कुछ मिथुनरत प्रतिमाएं भी उत्कीर्ण है। बलुआ पत्थर से निर्मित इस भव्य मंदिर के सम्मुख वृक्षों के बीच एक सुंदर जलाशय बनाया गया है। मंदिर के पीछे विशाल पीपल वृक्ष पर प्रवासी पक्षियों का झुंड दृश्य को और भी मनमोहक बना देता है। मंदिर के आसपास का शांत वातावरण मन की शांति के लिए बड़ा ही अनुकूल लगा।
              देवर बीजा से दुर्ग के लिए आगे बढ़ते हुए हम देवघर में जाकर रुके। बेमेतरा से 30 किलोमीटर की दूरी पर यह गांव स्थित है। यहां पर ऐतिहासिक घूघुस राजा का मंदिर स्थित है। किवदंती के अनुसार घुघुस राजा आदिवासियों का नेतृत्वकर्ता था मगर मंदिर के गर्भ गृह में नृसिह की मूर्ति स्थापित है जिसका मुख वर्तमान में घिस चुका है इस मूर्ति को ही लोग घुघूस राजा के रूप में मानते आ रहे हैं। इस मंदिर के निर्माण का समय संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग छत्तीसगढ़ के बोर्ड में 17 -18 वीं शताब्दी का बताया गया है। यहां पर एक और मंदिर स्थित है जिसमें हनुमान जी की मूर्ति स्थापित है। यहां की एक और खास बात यह है कि मंदिर परिसर में ही सोलह सती स्तंभ हैं जिसमें से एक स्तंभ में कुछ अभिलेख भी उत्कीर्ण देखे गए।
                साहित्यकार श्री अग्रवाल जी से मुलाकात करके वापस आते समय शाम होने लगी थी। हमारी योजना में एक और ऐतिहासिक स्थल देवबलोदा जाने की थी जोकि दुर्ग से महज 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मन में संशय था कि हम वहां पहुंचे और कहीं वहां ताला ना लगा हो। मगर जय हो गूगल माता की जिससे मंदिर 8:00 बजे तक खुले रहने की जानकारी मिली। देवबलोदा पहुंचते-पहुंचते अंधेरा व्याप्त हो चुका था। मंदिर परिसर के सामने गेट खुला देखकर हमें बड़ी खुशी हुई। गांव होने के बावजूद देवबलोदा गांव में एवं मंदिर परिसर में लाइटिंग की अच्छी व्यवस्था देखी गई। आखिरकार हम सभी देवबलोदा के ऐतिहासिक 'महादेव मंदिर' के सामने थे। मध्य छत्तीसगढ़ के ज्यादातर मंदिर कलचुरी राजाओं द्वारा ही बनवाए गए हैं। यह मंदिर भी 13 वीं शताब्दी में कलचुरियों द्वारा ही बनवाया गया था। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व दिशा में है ,मंदिर बलुआ पत्थर से निर्मित है। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। कोरोना का काल के बाद अभी तक इसके मुख्य द्वार नहीं खोले गए हैं। मंदिर के बाई ओर कुंड स्थित है जिसे बाद में बनवाया गया है। भोरमदेव के मंदिरों की तरह इस मंदिर के गर्भ गृह के सामने भी बड़े-बड़े प्रस्तर स्तंभों से मंडप बनाया गया है जिसे नवरंग मंडप कहा जाता है। वर्तमान में इस मंदिर के ऊपर से शिखर गायब नजर आया। जानकार मानते हैं कि मंदिर में भव्य नागर शैली में शिखर जरूर रहा होगा। वैसे भी मंदिर बिना शिखर के अकल्पनीय लगता है। इस मंदिर के सुसज्जित द्वार शाखाओं पर शिव के अनुचरों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। मुख्य द्वार के ऊपर बिंब पर गणेश की प्रतिमा अंकित है। नवरंग मंडप के स्तंभों पर उत्कीर्णित प्रतिमाओं में भैरव, महिषासुरमर्दिनी, त्रिपुरान्तक शिव,विष्णु आदि की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। इसके बाह्य दीवारों पर हिंदू देवी देवताओं की प्रतिमाओं के अतिरिक्त वाद्य यंत्रों के साथ नृत्यरत संगीत मंडलियों की प्रतिमाएं आकर्षक रूप से उत्कीर्ण हैं। साहित्य और इतिहास की तमाम छवियों एवं यादों को संजोए हुए हम सभी मित्र रात 10:00 बजे अपने अपने निवास पहुंचे।

Thursday 9 September 2021

प्रेम और युद्ध -- 10.09.21

प्रेम और युद्ध -- 10.09.21

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प्रेम और युद्ध में अद्भुत समानता है


दोनों के होने के लिए मुहूर्त  की ज़रूरत नहीं होती


दोनों विजय की कामना से लड़े जाते हैं

मगर परिणाम की विशेष चिंता नहीं होती


दोनों में केवल खोना पड़ता है

बचता कुछ भी नहीं


दोनों ही याद किए जाते हैं

प्रेम सुगंध की तरह

युद्ध बुरे सपने की तरह


सबसे बड़ी बात

प्रेम और युद्ध 

कभी ख़त्म नहीं होते


प्रेम और युद्ध में गहरी असमानता भी है


अहम की संतुष्टि के लिए युद्ध होता है

जबकि अहम के मिट जाने से प्रेम होता है


प्रेम के लिए युद्ध करना महानता है

मगर युद्ध से प्रेम करना महा विनाशक है


प्रेम सदा सराहे जाते हैं

युद्ध की सदा भर्त्सना की जाती है


प्रेम में युद्ध और युद्ध में प्रेम नहीं होता


प्रेम,युद्ध है

मगर युद्ध केवल युद्ध है।


--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

     9755852479

Sunday 5 September 2021

समय को लिखना - 06.09.21

समय को लिखना - 06.09.21
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अपने लिए 
किसी समय का 
इंतजार किए बिना
बस अपने समय को 
लिखते जाना

तुम्हारे लिखे में ही
बोलेगा तुम्हारा समय

समय को इतना लिखना
कि एक दिन
खुद, तुम्हें लिखेगा समय ।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 
   9755852479

Friday 3 September 2021

ऐतिहासिक इमारतों को देखने के बाद -04.09.21

ऐतिहासिक इमारतों को देखने के बाद -04.09.21
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जब जब ऐतिहासिक इमारतों को देखता हूं
अनगिनत सवाल और अनगिनत खयाल
उमड़ने लगते हैं मेरे भीतर

जैसे जैसे उसकी पुरानी सीढ़ियों से नीचे उतरते जाता हूं
वही सीढियां धीरे धीरे मुझमें उतरने लगती हैं

ईमारत की मजबूत गहरी नींव
उतनी ही सख्ती से जमने लगती है
मेरे हृदय तल की गहराई तक 

ईमारत पर उत्कीर्ण कलाकृतियां
उत्कीर्ण होने लगती हैं हुबहू
मेरे मानस पटल पर

उसके प्राचीरों स्तंभों गुंबदों और कलशों की भव्यता देख
अव्यक्त लालित्य भाव से भर जाता है मेरा मन 

पर कुछ टूटने सा लगता है मेरे भीतर 
जब देखता हूं 
ईमारत के भग्नावशेषों को
फिर भी जितना प्रविष्ट होता हूं उसके भीतर
वह उतना ही प्रविष्ट होते जाता है मेरे भीतर

उससे बाहर आने को जी नहीं चाहता
पर बाहर आने के बाद भी
वह रह जाता है मेरे भीतर..।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 
     9755852479

Tuesday 24 August 2021

कविता का आना - 25.08.21

कविता का आना - 25.08.21
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कविता है कि फुर्सत के पल में आती नहीं
जब- जब किसी कामों में रहता हूं एकदम व्यस्त
जब - जब होता हूं दुखी या एकदम बेचैन
या फिर किसी पार्टी में मस्ती में डूबा हुआ
खुशी से नाच रहा होता हूं
या किसी अनिवार्य दैनिक क्रियाओं में लगा होता हूं
मसलन नहाते हुए खाते हुए
रास्ते में कहीं जाते हुए गाड़ी चलाते हुए
या फिर गहरी रात में नींद के बीच
अचानक आ धमकती है कविता

कविता का आना भी गज़ब है
वह कभी मेरी सहूलियतों में नहीं आती
जब आराम से बैठा होता हूं एकदम खाली

सहूलियतों में लिखी गईं सारी बातें
केवल शाब्दिक ताने बाने लगती है
वो कुछ और भले हो जाए
पर कविता हरगीज नहीं होती

हां ये अजीब तो है 
कि अक्सर बेचैनियों में ही आती है कविता
और हम हैं कि 
कविता लिखने के लिए वक्त ढूंढते रहते हैं
सोचते रहते हैं कि 
 कोई फुर्सत का पल मिले और कविता लिख लें।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

Thursday 19 August 2021

चुनौती- 23.07.21

चुनौती- 23.07.21
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आप नहीं जानते
कि आपको कौन-कौन देख रहा है ?
आपको कौन-कौन सुन रहा है ?

ऐसे में
बिना देखे
अनदेखा करना
और
बिना सुने
अनसुना करना

आपके लिए सबसे बडी चुनौती है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

लोकतंत्र कायम है ! 30.07.21

लोकतंत्र कायम है !  30.07.21
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आप निश्चिंत रहिए
अब औपनिवेशिक  ताक़त ख़त्म हो चुकी है
आप पर कोई बाहरी हमला नहीं होगा

आप गरीबी बेकारी भूख और महंगाई की मार से
सुरक्षित मारे जावोगे

अब देश में लोकतंत्र क़ायम है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

दानिश सिद्दीकी - 17.07.21

(भारतीय पत्रकार एवं फ़ोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी की हत्या के बाद )

दानिश सिद्दीकी - 17.07.21
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दानिश तुम एक सच्चे पत्रकार थे
तुम उत्तम पत्रकारिता के लिए
बेपरवाह होकर अपनी जान जोख़िम में डालते रहे

तुमने अपनी मेहनत और जुनून से
ख़ूब नाम कमाया शोहरत हासिल की

तुमने अपने काम से
केवल पुलित्जर ही नहीं जीता
करोड़ों भारतीय दिलों को भी जीत लिया

अंतिम साँस तक अपने काम में डटे हुए
आखिरकार तुम अपने प्राण त्याग दिए

पत्रकारों को ही नहीं 
अनगिनत तुम्हारे चाहने वालों को भी फ़क्र है
तुम्हारे जज़्बे और जुनून पर

तालिबानी आतंक को कैमरे में कैद करते हुए
ख़ुद हमेशा के लिए कैमरे में कैद हो गए

अपने हाथों पर कैमरा थामे हुए
खतरनाक मोर्चों पर खुद को डालकर
कभी रोहङ्ग्या मुसलमानों का सच
कभी मोसुल की जंग कभी नेपाल का भूकंप
कभी दिल्ली के दंगे तो कभी कोरोना का कहर
बेख़ौफ़ होकर अपने कैमरे में सहेजते रहे

सारी दुनियाँ के सामने
पर्दे के पीछे का सच लाते रहे

सचमुच तुम्हारी खींची तस्वीरों में
ख़बरें बोलती थीं

पत्रकारिता ही तुम्हारा मज़हब था
तुम अपने मज़हब के लिए कुर्बान हो गए

तुम खबरों को कैप्चर करते करते
ख़ुद एक ख़बर बन गए

सच्चे लेंस वारियर तुम्हें सलाम
सचमुच बड़ा दुःखद है
ख़बरों की दुनियाँ से 
तुम्हारे चले जाने का यह ख़बर।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

कार्यकर्ता -01.07.21

कार्यकर्ता -01.07.21
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सब देखने के बाद 
बोलेंगे कि
नहीं देखे हैं

सब बोलने के बाद 
फिर बोलेंगे कि
नहीं बोले हैं

हम सब कुछ अनसुना कर देंगे
उतना ही सुनेंगे
जितना कि सुनने कहा जाएगा

हालांकि देखेंगे हम
बोलेंगे हम
सुनेंगे हम

पर 
देखना बोलना सुनना
कुछ भी हमारा नहीं होगा।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

अंगूठा देखती पीढ़ियां- 28.06.21

अंगूठा देखती पीढ़ियां- 28.06.21
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अक़्सर गहरी साज़िश के साथ
होती हैं भावनात्मक अपीलें

उनके क्रूर चालों में फँसकर
उन पर लुटाते रहे हैं
अपनी सारी काबिलियत और सारे अधिकार

गुरूभक्ति के नाम पर
अँधेरे में ढकेले जाते रहे हैं
अनगिनत एकलव्य और उनके भविष्य

एकलव्यों ज़रा समझो
जिन्हें गुरूदक्षिणा के नाम पर
कभी अपना अंगूठा दे दिए थे
वही तुम्हारी पीढ़ियों को 
अपना अंगूठा दिखाते आ रहे हैं।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    975585249

ये कैसी हवा है ! 23.06.21

ये कैसी हवा है ! 23.06.21
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हवा न बह रही है
न चल रही है
कील की तरह
कंठ पर अटक गई है

न जाने क्यों और कैसे..?
अचानक अपना रुख़ बदल ली है

जिंदगी देने वाली हवा
जिंदगी छीन रही है

अब तक हम भटके थे
अब हवा भी भटक गई है।

-- नरेन्द्र

पिछले कुछ दिनों से.. 07.06.21

पिछले कुछ दिनों से..  07.06.21
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पिछले कुछ दिनों से
मैंने नहीं देखा है रोशनी वाला सूरज
ताज़गी वाली हवा
खुला आसमान
खिले हुए फूल
हँसते-खिलखिलाते लोग

एक-एक दिन 
देह में होने का ख़ैर मनाती आ रही है
देह के किसी कोने में
डरी-सहमी एक आत्मा

किसी भी तरह जीवन बचाने की जद्दोजेहद में
उत्थान और विकास जैसे
जीवन के सारे जद्दोजहद
भूलने लगे हैं लोग

पढ़ने-लिखने
चार पैसा कमाने 
ख़ाली वक्त में राजनीति और
देश-विदेश की बातें करने 
जैसे सब बातें भूलने लगे हैं लोग

दुनियाँ में शामिल
खूबसूरत रंग-विरंगे शोरगुल और हलचल
धीरे-धीरे तब्दील होते जा रहा है
एक भयानक वीराने में

तमाम ख़बरों से भरी
विविध रंगी यह दुनियाँ
सिमटकर थम गई है
केवल एक ही ख़बर पर

भावनाओं के स्रोतों से
भावनाएँ फूट नहीं रही
खूबसूरत भावनाओं से भरा हृदय
अब किसी अनजान भय से 
भरा-भरा लगता है

पिछले कुछ दिनों से
शब्दों और कविताओं से
उतर नहीं रहे हैं कोई अर्थ
पर इतनी उम्मीद अब भी बाकी है
कि शब्दों और कविताओं के ज़रिए ही
फिर से लौट आएगी खूबसूरत दुनियाँ।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

कोरोना बुखार में...

कोरोना बुखार में...
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शरीर की कोशिकाओं में अजीब सी कसमसाहट होती रहती है
लगता है जैसे दस बीस लोगों की बेचैनी एक साथ शरीर में समा गई हो
लगता है जैसे चींटियों की कतार लगातार चल रही हो नाँक के भीतर
लगता है जैसे आलसी आत्माओं ने शरीर पर अपना डेरा बसा लिया हो

मस्तिष्क पर धप-धप की हलचल लगातार होती रहती है
जैसे निहाई पर हथौड़े लगातार मारे जा रहे हों
खुले आसमान पर नाचती हुई सी कुछ धुँधली आकृतियां दिखाई देती है
लगता है जीभ से स्वाद और नाक से खुशबुओं ने अपना नाता तोड़ ली हों  
घुटने और टखने का जोड़ हड्डी से नहीं दर्द से ही बना लगता है
लगता है कि पूरे शरीर में  रक्त नहीं पीड़ा दौड़ रही हो..

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

बुरा दौर है इन दिनों... 01.05.21

बुरा दौर है इन दिनों... 01.05.21
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बड़ा अजीब सा महसूस होने लगा है इन दिनों
घर घर-सा और बाहर बाहर-सा नहीं लग रहा है इन दिनों
बहुतों के मन से दवाओं और दुआवों से विश्वास उठने लगा है इन दिनों
हवाओं में शामिल अदृश्य ज़हर धीरे-धीरे  घुलते जा रहा है लोगों के शरीर में इन दिनों

धीरे-धीरे अविश्वास का जंग लगने लगा है आत्मविश्वास के लोहे पर
दिन ब दिन घटते जा रहा है अपनापन और बढ़ती जा रही है दूरियाँ
घर बाज़ार दुकान ऑफिस चौंक चौराहे पर 
संदेह से भरे हुए लगने लगे हैं अपने लोग

अविश्वास से भरे इस माहौल में 
हम एक अपरिचित खालीपन और सूनेपन से घिरते जा रहे हैं

हवाएं अपनी ताज़गी खोती जा रही है
दिशाओं में पसरने लगा है अव्यक्त भय और सन्नाटा

कड़वे यथार्थ के साथ-साथ सपने भी गुदगुदाने के बजाय डराने लगे हैं अब

आशंकित मन में भविष्य को लेकर कोई योजना भी नहीं बची है

ब्लैक होल की तरह हम अदृश्य शत्रु के फैलाए जाल में
धीरे-धीरे फंसते चले जा रहे हैं

अपने ज्ञान और बुद्धि पर इतराने वाला मनुष्य
केवल निरुपाय और बेबस नज़र आ रहा है

पर इतनी विषम परिस्थितियों में लाचार मनुष्य के पास
एक झीनी-सी उम्मीद अब भी जिंदा है
कि ट्रैक से उतरी जिंदगी की गाड़ी
फिर दौड़ने लगेगी सरपट अपनी ट्रैक पर

तब हर बुरे दौर की तरह बहुत पीछे छूट चुका होगा
आज का यह बुरा दौर भी।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

रह जाती है कविता में लिखे जाने की दरकार .. 27.04.21

रह जाती है कविता में लिखे जाने की दरकार .. 27.04.21
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जब भी अपनी लिखी हुई कविताओं को कुछ समय अंतराल के बाद पढ़ता हूँ
आधी अधूरी-सी जान पड़ती है मुझे मेरी ही लिखी कविताएं

कभी किसी चीज़ों को देखने पर 
या घटनाओं को अपनी आँखों के सामने घटते देखे जाने पर
बुलबुलों की तरह एक साथ अनेक भाव और विचार
उभरते और मिटते चले जाते हैं
उभरे भावों को क्रमबद्ध यथावत लिखा जाना बड़ी मुश्किल होती है 

बहुत सारी चीज़ों और बहुत सारी घटनाओं पर 
कवियों द्वारा लिखी जाती हैं बहुत सारी बातें
कई बार कविताओं में गड्ड-मड्ड रह जाती हैं सारी भावनाएं

अमूमन दुख पर लिखी कविताओं में सारे दुख नहीं आ पाते
और खुशियों के लिए लिखी कविताओं में सारी खुशियाँ नहीं आ पाती

लगता है कि कविता कभी पूर्ण ही नहीं होती
सुख दुख,सफ़लता असफलता,जीवन की खूबसूरती और विद्रूपताओं को व्यक्त करने के बाद भी
कविता में अव्यक्त रह जाती हैं बहुत सारी बातें

आधी अधूरी इस दुनियाँ में
हालांकि पूर्णता की तलाश करती है कविता
पर कविता प्रारंभ होने से पहले
और कविता समाप्त होने के बाद  
कुछ न कुछ हमेशा रह जाती है कविता में लिखे जाने की दरकार..।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

कविता की पौष्टिकता - 19.04.21

कविता की पौष्टिकता - 19.04.21
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खाना बनाना बड़ा कठिन काम होता है
खाना बनाने के वक्त बहुत सारी बातों का ध्यान रखना पड़ता है एक साथ

कितने चावल में कितना पानी डालना है
कौन कौन से मसाले कब कब डालना है
चूल्हे में मध्यम, कम या तेज़ आँच कब कब करना है
कुकर में बज रहे सीटी का अर्थ कब क्या समझना है
ऐसे ही बहुत सारे सवाल खड़े होते रहते हैं 

आप लगातार कोशिश करके इतना ठीकठाक खाना बना ही सकते हैं कि खुद खा सको

सतर्कता न होने या लगन की कमी होने पर 
बर्तन के नीचे से कई कई बार भात चिपक जाता है
कई कई बार जल जाती है सब्ज़ी या दाल

किसी ख़ास ट्रेनिंग की मदद से 
आप ला सकते हैं अपने व्यजंनों में विविधता
और बदल या बढ़ा सकते हैं अपने खाने का ज़ायका

लाख हुनर होने के बावजूद 
अच्छा खाना बनाने के लिए
ज़रूरी होता है नियमित अभ्यास 

अक़्सर खाने वालों में हंगामे खड़े हो जाते हैं 
खाने में नमक या मिर्च ज़रूरत से ज़्यादा होने पर

मुझे लगता है जितना कठिन होता है
रसोइये के लिए सुस्वादु और पौष्टिक खाना बनाना 
उससे कहीं ज़्यादा कठिन और जोख़िम भरा होता है 
कवि के लिए कविता लिखना

कठिन होता है कविता में
चुन चुनकर एक एक शब्दों को रखना
अर्थों को भावनाओं की आँच पर पकाना 
पकी पुकाई कविता को बड़ी निष्ठा के साथ लोगों को परोसना
और सबसे कठिन होता है कविता में कविता की पौष्टिकता को बनाए रखना।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

बुजुर्गों की हैसियत - 17.04.21

बुजुर्गों की हैसियत - 17.04.21
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समाज में बुजुर्गों की हैसियत
पुराने पाँच सौ और हज़ार के नोट की तरह होती है

जिसकी क़ीमत बहुत पहले बहुत ज़्यादा मानी जाती थी
अब उसकी क़ीमत आंकी भी नहीं जाती

अब केवल किसी फ़ाइल की कव्हर में या टेबल पर काँच के नीचे दबे हुए देखे जा सकते हैं

दबे हुए नोट पर कभी किसी की नज़र पड़ने पर
बस इतना कहा जाता है--
अरे ! यह तो पाँच सौ और हज़ार के बहुत पुराने नोट है
इसका चलन बहुत पहले था अब ख़त्म हो चुका है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852478

बंद तालों की बात - 16.04.21

बंद तालों की बात - 16.04.21
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कहीं जाने पर  हम घर पर लगा देते हैं ताला
लगे तालों के साथ ही जड़ा होता है हमारा विश्वास

हमारे न होने पर  घर के लिए बेहद  ज़रूरी होता है ताला

जब घर अकेलेपन से भरा होता है
केवल ताला ही होता है जो घर को अकेलेपन में साथ देता है

जैसे हम अंजान लोगो के सामने कभी मुँह नहीं खोलते
ताले भी नहीं खुलते कभी अंजान चाबियों से

गेट पर लगे बंद तालों को देखकर 
फेरीवाले कभी नहीं रुकते घर के सामने
बंद ताले देखकर भिखारी भी 
दरवाजों के पास कभी नहीं रुकते
चुपचाप बढ़ जाते हैं आगे

आपके घर की सुरक्षा के लिए नियत चौकीदार
कभी थककर सो सकता है
कभी नशे में धुत्त अपना फ़र्ज़ भूल सकता है
कभी विश्वासघात कर सकता है
मग़र तालों से कभी कोई कोताही नहीं होती
निर्विकार भाव से घर की सुरक्षा में रहते हैं तैनात

चोर आँखों पर हमेशा खटकते रहते हैं घर पर लगे ताले

चोरों को बड़ी चिढ़ होती है
सूनेघरों में लटके सख़्त बंद तालों से

उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाते ये बंद ताले

चोर मौका देखकर अक़्सर आते हैं रात के अंधेरों में
बंद तालों की अकड़ को चुनौती देने

घर में लगे बंद तालों के टूट जाने से
तालों के साथ ही टूट जाते हैं हमारे मन में पलते विश्वास

सुरक्षा के लिहाज़ से घर पर ताले लगाना जितना ज़रूरी है
उतना ही ज़रूरी है इस परिवेश में जीने के लिए अपनी अक़्ल के ताले को खुला रखना

असुरक्षा से भरे इस माहौल में हम ताले लगाने के इतने आदी हो चुके हैं
कि सहीं को सहीं और ग़लत को ग़लत कहने के अवसरों पर भी 
अक़्सर मुँह पर ताले लगा लेते हैं सुरक्षा के ध्यान में।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

नदी होती है कविता - 15.04.21

नदी होती है कविता - 15.04.21
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बहती हुई नदी होती है कविता

प्रवाह को रोकने की कोशिशों पर
ज़लज़ला बन कहर बरपाती है कविता

कभी रुकती नहीं कभी थमती नहीं 
बस बहती जाती है कविता
नदी होती है कविता

-- नरेन्द्र

माँ - 14.04.21

माँ  - 14.04.21
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तुम कभी किसी को उदासी में शामिल नहीं करती 
उदासी की पूरी जगह 
तुम अकेले ही ले लेती हो

मग़र खुशियों में सबको इतना शामिल करती हो
कि ख़ुशी की पूरी जगह भर जाती है
खुशियों में थोड़ी जगह 
अपने लिए क्यों नहीं बचाती हो..?

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9655852479

ज़रा संभलकर रहिए ! - 14.04.21

ज़रा संभलकर रहिए ! - 14.04.21
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कोरोना को भीड़ पसंद है
भीड़ में ख़ूब फलता फूलता है कोरोना
भीड़ पाकर खुशी से भर जाता है कोरोना

उसे केवल भीड़ चाहिए
चाहे भीड़ धार्मिक हो या अधार्मिक
हिन्दू वाली हो या मुस्लिम वाली
चुनावी हो या गैर चुनावी

भीड़ और भेंड़ दोनों की तासीर समान होती है

वैसे भी भेड़तंत्र और भीड़तंत्र का नाम ही लोकतंत्र है

भीड़ों वाली और भेड़ों वाली देश से 
ज़रा संभलकर रहिए ज़नाब !

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479
ज़रा संभलकर रहिए ! - 14.04.21
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कोरोना को भीड़ पसंद है
भीड़ में ख़ूब फलता फूलता है कोरोना
भीड़ पाकर खुशी से भर जाता है कोरोना

उसे केवल भीड़ चाहिए
चाहे भीड़ धार्मिक हो या अधार्मिक
हिन्दू वाली हो या मुस्लिम वाली
चुनावी हो या गैर चुनावी

भीड़ और भेंड़ दोनों की तासीर समान होती है

वैसे भी भेड़तंत्र और भीड़तंत्र का नाम ही लोकतंत्र है

भीड़ों वाली और भेड़ों वाली देश से 
ज़रा संभलकर रहिए ज़नाब !

दुश्मन लौट आया है ! -11.04.21

दुश्मन लौट आया है !  -11.04.21
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दुश्मन चार कदम पीछे क्या हटा
हम उसके हार जाने की खुशी में डूब गए
मशगूल इतने हो गए कि दुश्मन को पूरी तरह से भूल गए

हमने दुश्मन को भूलने की सबसे बड़ी भूल की
और दबे पांव दुश्मन पांव पसारता रहा

बड़ी अच्छी बात होती है 
दुश्मन को हराने की उम्मीदों में जीना
पर उतना ही खतरनाक होता है दुश्मन को कमज़ोर समझकर मुगालते में जीना

हम यह क्यों भूल गए 
कि सालभर पहले ही अदृश्य दुश्मन ने किया था हम पर सबसे बड़ा हमला

देखते ही देखते थम गई थी हमारी ज़िंदगी
हमारे रोज़गार शिक्षा व्यापार त्योहार
हमारी भावनाएं हमारा प्यार हमारा रफ़्तार
सब कुछ सिमटकर शून्य होने लगा था दुश्मन की जद में

एक बार फिर दुगनी ताक़त के साथ 
फिर से वही मनहूसियत भरे दिन लेकर लौट आया है हमारा दुश्मन
एक बार फिर गलियों और सड़कों से रौनक छीनकर
सन्नाटे को बिछा देना चाहता है धरती की गोद पर

हमें नहीं भूलना चाहिए कि
दुश्मन अदृश्य तो है
मगर है बड़ा ही ख़तरनाक  !

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

बचपन' से सीखने की बातें - 13.03.21

'बचपन' से सीखने की बातें - 13.03.21
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मुझे अच्छी तरह याद है अपनी बचपन की बातें
तब मैं कितना बेधड़क हुआ करता था
अब तो कभी भी कहीं भी अचानक धड़कनें तेज़ कर देने वाली घटनाएँ होती रहती है

मुझे धूल मिट्टी बारिश धूप और हवा से डर नहीं लगता था
तब बड़ा अच्छा लगता था इन सबसे खेलना
अब तो धूल धूल नहीं लगती
मिट्टी मिट्टी नहीं लगती
बारिश बारिश नहीं लगती
धूप और हवा 
धूप और हवा नहीं लगती
इन चीज़ों से बड़ी शीघ्रता से खोते जा रहा है क़ुदरती आकर्षण

तालाबों में तैरना ऊँचे-ऊँचे पेड़ों पर चढ़ना उतरना 
दोपहर की गरमी में खाली पैर घूमना 
जोख़िम भरे जगहों पर आना जाना
तब मेरे लिए ये सारे आसान काम थे

कभी कभी तो समझदार होना नासमझ होने से ज़्यादा खतरनाक लगता है
दरअसल समझदारी से पहले कोई भी खतरनाक चीजें ख़तरनाक नहीं होती

कोई भी ख़तरनाक काम करने के समय बिलकुल खतरनाक नहीं होता
काम ख़तरनाक करने से पहले या करने के बाद केवल विचारों में होता है

आज सुविधाएं बहुत है
पर हमारे पास सुविधाओं में इत्मीनान से जीने की सुविधा नहीं है
हमारी सुविधाओं ने ही असुविधाओं से भर दी हमारी ज़िंदगी

जिनसे हमें प्रेम होना चाहिए
मसलन धूल मिट्टी नदियाँ दोस्त-यार रिश्ते परिवार समाज
हम डरे सहमे दूर भागने लगे हैं इन सबसे
लोगों और चीजों के प्रति हम दिन ब दिन अविश्वास से भरते जा रहे हैं

वह भी क्या समय था
जीवन के मोह से बेख़बर थे और जीवन बड़ा खूबसूरत था
अब तो बचे खुचे जीवन को बचाने की चिंता में
हमने बची खुची ज़िन्दगी को भी जीना ही छोड़ दिया है

निडर हुए बिना जोख़िम उठाए बिना हम सीखते कहाँ है !

बच्चे बेधड़क बिना डरे चलाते हैं मोबाइल कम्प्यूटर बाइक और कारें
वे कभी नहीं सोचते क्या होगा और क्या नहीं होगा
वे सब कुछ सीख जाते हैं हमसे पहले और हमसे ज़्यादा
कहीं गड़बड़ न हो जाए कहीं ऐसा न हो जाए कहीं वैसा न हो जाए..
हम इधर उधर के तमाम डरावने सवालों से भरे रह जाते हैं
हम समझदारों को यह तो समझना ही चाहिए कि
कुछ सीखने के लिए बच्चा होना जरूरी होता है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

वसुधैव कुटुम्बकम 08.04.21

वसुधैव कुटुम्बकम की दुहाई देने वाले ज्यादातर लोग
बड़े ही जिद्दी और परायेपन से भरे होते हैं

वे अक़्सर अपनी जाति, अपना धर्म, अपने लोग और अपने समाज की बात करते हैं
सीमित अपनों से ही घिरी होती है उनकी प्रेम की परिधि

अपनी जाति,अपने समाज और अपने धर्म की सीमा से परे लांघकर कोई करना चाहता है प्रेम
नफ़रतों से भर जाते हैं पूरी धरती को परिवार मानने वाले वही लोग 

जब-जब धरती पर सीमाओं से परे प्रेम सहन नहीं किए जाते
तब-तब धरती को काँटे की नोंक की तरह चुभती है वसुधैव कुटुम्बकम का मंत्र।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

बदलाव के लिए..07.04.21

बदलाव के लिए..07.04.21
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जब आप किसी गलत के ख़िलाफ़ लिखने की हिम्मत जुटाते हैं
अपने आप आपके भीतर हिम्मत भरे शब्द फूटने लगते हैं
हिम्मत के साथ लिखी गई कविता  लोगों में हमेशा हिम्मत जगाती है
हिम्मत भरी कविता से तैयार होते हैं हिम्मत भरे लोग
बदलाव के लिए हमेशा ज़रूरी होता है
हिम्मत से भरे कवि
हिम्मत से भरे शब्द
हिम्मत से भरी कविता
और हिम्मत से भरे लोग...

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    975585249

इक्कीसवीं सदी का बदलाव - 02.04.21

इक्कीसवीं सदी का बदलाव -  02.04.21
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कल सुबह-सुबह मॉर्निंग वॉक पर जा रहा था
मेरे बिलकुल ठीक पीछे तीन बुजुर्ग चल रहे थे
उनमें से एक को कहते सुना कि आज भी लोग उन्हें सड़सठ के उम्र का कोई नहीं मानते
यह बताते हुए बड़ी सन्तुष्टि की चमक दिखाई दे रही थी उसके चेहरे पर 

हमने यह सुन रखा है कि महिलाओं से कभी उसकी उम्र के बारे में नहीं पूछना चाहिए
और पुरुषों से कभी नहीं पूछना चाहिए उसकी तनख्वाह के बारे में
कहा जाता है कि महिलाएं अपनी उम्र छिपाती हैं और पुरुष अपनी तनख्वाह

इक्कीसवीं सदी में अब कितना कुछ बदल गया है
पुरूष अपनी उम्र छिपाते फिरते हैं और महिला अपनी तनख्वाह।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    975585247

कानून की बात - 02.04.21

कानून की बात - 02.04.21
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वे बनाएंगे कानून गेंद की तरह गोल गोल
ताकि कभी भी खेल सके अपने बनाए कानून से 
शातिर खिलाड़ी की तरह

वे बनाएंगे कानून चलनी की तरह
ताकि कभी भी बाहर निकल सके उसके महीन छेदों से
अनाज में मिले कंकड़ की तरह

वे बनाएंगे कानून मंहगे और इतने मंहगे
ताकि जब चाहे राह चलते ख़रीद सके अपने बनाए कानून को
मुँहमाँगा पैसे देकर साग भाजी की तरह

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

तमाम लोग - 31.03.21

तमाम लोग - 31.03.21
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कुछ लोगों की गिनती तमाम लोगों में होती है
वे तमाम लोग सुविधाविहीन होते हुए भी कुछ लोगों के लिए सुविधा जुटाने में लगे होते हैं

वे तमाम लोग हमेशा गैरज़रूरी होते हैं
यद्यपि पाँच साल में केवल एक बार उन तमाम लोगों की अनिवार्यता सिद्ध की जाती है
उनकी महत्ता आंकी जाती है सबसे ऊपर 
उन्हें घोषित किया जाता है महान लोकतंत्र का निर्माता और नियंता

इस देश के वासी होने पर बड़ा फक्र करते हैं वे तमाम लोग
सच भी है कि उन्हीं तमाम लोगों से बनता है यह देश
पर यह देश कभी उन तमाम लोगों के लिए नहीं होता

देश की खुशहाली के लिए तमाम कामों में लगे होते हैं वे तमाम लोग
ये अलग बात कि काम करते करते उनकी खुशहाली हमेशा तमाम हो जाती है

वे तमाम लोग धर्म और राजनीति की बातें बिलकुल भी नहीं जानते
मगर धर्म और राजनीति के गिरफ्त में बड़ी शिद्दत से जुते होते हैं वे तमाम लोग

अब तक मिट चुकी है उनकी अनेक पीढियां मगर बार बार मिटने के बाद भी कभी मिटते नहीं वे तमाम लोग

ये और बात है कि वे तमाम लोग इतिहास में कभी दर्ज नहीं होते 
मगर इतिहास बदलना और गढ़ना बख़ूबी जानते हैं वे तमाम लोग।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

ढिंढोरा-- 29.03.21

मुझे तकलीफ़ इस बात की नहीं है
कि तुम हर बार जनता को बरगलाने में सफल हो जाते हो
और सत्ता पर काबिज हो जाते हो

मुझे तकलीफ तो इस बात से है
कि तुम जनता से धरम जाति और क्षेत्र के नाम पर वोट लेते हो
और तुम अपने जीत के लिए अपने राष्ट्रवादी और देशभक्त होने का ढिंढोरा पीटते हो।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

कविताओं के ज़रिए... 30.03.21

कविताओं के ज़रिए... 30.03.21
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दुनियाँ में चिड़िया रहे या न रहे 
कविताओं में हमेशा सुरक्षित बची रहेंगी चिड़ियाँ
पर केवल कविता प्रेमी ही सुन सकेंगे चिड़ियों के गान 


दुनियाँ में प्रेम रहे या न रहे
कविताओं में हमेशा सुरक्षित बचा रहेगा प्रेम
पर केवल कविता प्रेमी ही समझ सकेंगे प्रेम का मर्म

दुनियाँ में उजास रहे या न रहे
कविताओं में हमेशा सुरक्षित बचा रहेगा उजास
पर केवल कविता प्रेमी ही जी सकेंगे उजास भरी जिंदगी

दुनियाँ में सच रहे या न रहे
कविताओं में हमेशा सुरक्षित बचा रहेगा सच
पर केवल कविता प्रेमी ही सच को अनावृत कर सकेंगे

दुनियाँ में क्रांति रहे या न रहे
कविताओं में हमेशा सुरक्षित बची रहेगी क्रांति
पर केवल कविता प्रेमी ही फिर से ला पाएंगे क्रांति

चिड़ियों का कलरव
मनुष्य के लिए प्रेम
जीने के लिए उजास
बोलने के लिए सच
और
विरोध के लिए क्रांति
कविताओं में सुरक्षित बची रहेगी हमेशा।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

दुखों का रंग - 29.03.21

दुखों का रंग - 29.03.21
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दुख जो कल था
अब उतना नहीं है

समय प्रवाह में धीरे-धीरे धुलकर 
फ़ीका पड़ जाता है दुखों का चटक रंग

हम अपने जीवन के 
महान पीड़ादायक अहसासों के बारे में
कभी साधारण घटना की तरह बात करते हैं।
-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

दुखी हूँ.....29.03.21

दुखी हूँ.....29.03.21
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तुम पर हुए अत्याचार के लिए  मैं दुखी हूँ
तुम्हारे परिवार के तबाह हो जाने से भी दुखी हूँ
तुम्हारी बहन बेटियों  के साथ हुए अनाचार के  लिए भी दुखी हूँ
बिना रोज़गार के रोज़गार तलाशते तुम्हारे बेटे के लिए भी दुखी है
भूख से बिलबिलाते तुम्हारे बच्चे और तुम्हारी फटेहाली पर भी दुखी हूँ

पर तुम्हारे लिए सबसे ज़्यादा दुखी हूँ
अपने अभावों और ज़ुल्मों के लिए ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ खड़ा न होने से
और चुपचाप सहन किए जाने बिलकुल भी ज़ुबान न खोले जाने के तुम्हारी रवायत से।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

जरूरतें - 27.03.21

जरूरतें - 27.03.21
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हमें हमारी जरूरतों को पूरी करने के लिए ये भी चाहिए वो भी चाहिए
समय के साथ बहुत सी जरूरतें पूरी होती जाती है
जैसे जैसे जरूरतें पूरी होती है जरूरतें और बढ़ती जाती है

जरूरतें दूर दूर तक दिखाई देती हैं क्षितिज की तरह
जिन्हें हम देख सकते है पर वहाँ पहुँच नहीं पाते
कभी मानते नहीं पाने की चाहत में बढ़ते जाते हैं आगे
हमसे और आगे बढ़ती जाती है हमारी जरूरतें

विवाद है कि हमारी उम्र घटती है या बढ़ती है
पर जरूरतें बढ़ती ही जाती है उम्र के थम जाने तक

तमाम जरूरतों से भरी इस दुनियां में,जरूरतों की फ़िक्र में
उम्रभर अनगिनत चाहतों से भरे हुए दुनियां से ही गुज़र जाते हैं हम।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

हिटलर की याद में.. 24.03.21

हिटलर की याद में.. 24.03.21
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उन्हें पसंद नहीं  हमारी बातें हमारा काम
उन्हें पसंद नहीं हमारा यूं खुली हवा में सांस लेना
उन्हें पसंद नहीं  कि हम प्यार  भरी नज़रों से किसी को देखें
उन्हें पसंद नहीं  कि हम कहीं भी जाएं बेरोकटोक

वे चाहते हैं कि हम कुछ भी करें, कहीं भी जाएं सब उनकी निगाहों में हो
पर उनकी निगाहों को यह मंजूर नहीं कि हम हँसते हुए दिखें
उन्हें शक है कि हम हँसेंगे तो उनके ख़िलाफ़ हँसेंगे
हम बोलेंगे तो उनके ख़िलाफ़ बोलेंगे
हम कहीं जाएंगे तो उनके ख़िलाफ़ जाएंगे
इसीलिए वे चाहते हैं सब कुछ उनकी निगाहों के सामने हों

उन्हें पसंद नहीं  हमारा पढ़ना-लिखना और अपने विचारों को अपने विचारों के अनुसार कहना
उन्हें पसंद नहीं  हमारा नाम उपनाम और हमारा पता
वे चाहते हैं कि हमारा नाम उपनाम और पता बदल जाए उनके कहे अनुसार
उनका कहना है कि हमारा नाम उपनाम इस देश के लायक नहीं
हमारे नाम और उपनाम से ग़द्दारी की बू आती है उन्हें
उनका मानना है कि इस तरह के नाम और उपनाम में देशभक्ति हो ही नहीं सकती
उनका मानना है कि हमारा उठना बैठना 
हमारा खानपान रहन सहन इस देश के लायक बिलकुल नहीं

उनकी कोशिशें जारी है हमे तोड़ने की हमे बदलने की
उनकी कोशिशें जारी है हमे अपने रंग में रंग लेने की
उनकी कोशिशें जारी है हमारी पहचान मिटाने की
उनकी कोशिशें जारी है कि हम उनकी बातों को अपनी ज़बान से उनके लिए कहें

वे धमकाते हैं अपनी तीखी नज़रों से
वे धमकाते हैं कभी उंगलियों से कभी गालियों से
वे धमकाते हैं ख़तरनाक संकेतों कहावतों और मुहावरों से
वे धमकाते हैं कि रहना है इस दुनियाँ में तो उनके अनुसार ही रहना होगा

उनका कहना है वे इस बड़े तालाब के मगर हैं 
उनसे बैर साधना हमारे लिए कतई ठीक नहीं
हमें हर हाल में ख़ुद को ढालना होगा उनके कहे अनुसार 
वरना छोड़नी पड़ेगी यह दुनियां
यहाँ केवल वे ही बोलेंगे और हम बस सुनेंगे
वे चाहते हैं कि हम उन्हें सलाम करें और करते रहें
वे चाहते हैं हम चुपचाप झुक जाएं उनकी जिद्द के सामने 
वरना हमे वे कतई नहीं बख्शेंगे

वे चाहते हैं कि यहाँ रहना है तो हमें बदल लेना चाहिए
रस्मों रिवाज़, रहने का सलीक़ा, बोलने का ढंग और अपना चेहरा उन्हीं की तरह।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

सफाई कर्मी औरतें - 16.03.21

सफाई कर्मी औरतें - 16.03.21
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साढ़े सात से आठ बजे के बीच
तमाम मोहल्लों की गलियों से गुज़रती हुई
सुबह-सुबह वे आती हैं रोज

कड़कती ठंड में भरी गर्मी में रिमझीम बरसात में भी
सोमवार में शनिवार में रविवार में भी
तीज में त्योहार में राष्ट्रीय उत्सवों में भी
प्रसन्नता में खिन्नता में विवशता में बीमार में भी
घड़ी की सुइयों की तरह लगातार घूमते रहते हैं उनकी गाड़ी के पहिए

हम रोज़ इन्तिज़ार करते हैं उनके आने का
बड़े परेशान हो जाते हैं हम
एक दिन भी उनकी सीटी की आवाज़ सुने बिना

वे हमारे घरों से कचरों को नहीं 
हमारे तनावों को भरकर ले जाते हैं रोज़ सुबह सुबह।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

मुकर्रर दिन - 14.03.21

मुकर्रर दिन - 14.03.21
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हम कई बार उस दिन का
इन्तिज़ार करते हैं
जो है बहुत दूर जिसे अभी आना बाकी है

हम किसी काम या लक्ष्य के लिए मुकर्रर कर लेते हैं आनेवाला कोई एक दिन
जब मुकर्रर करते हैं कोई दिन
हमारे भीतर बड़ी बेक़रारी होती है उस दिन की

बहुत जल्दी गुज़रने लगते हैं पल
शीघ्रता से बदलने लगते हैं दिन और तारीखें

वक़्त के साथ-साथ हम भूलने लगते हैं मुकर्रर दिन
धीरे-धीरे कम होते-होते ख़त्म हो जाती है बेक़रारी
और हमें पता भी नहीं होता जब आता है
हमारा मुकर्रर किया हुआ वह दिन

आखिरकार ख़त्म हुआ सारा इन्तिज़ार 
ख़त्म हुई सारी बेक़रारी
गुज़र गए मुकर्रर किए गए वो दिन
काम कुछ भी हुए नहीं 
लक्ष्य का अता पता भी नहीं 

हम हर बार की तरह एक बार फ़िर
आज को भूलकर 
काम के लिए फिर मुकर्रर करने लगे एक 'नया दिन'।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

कुत्ते से प्यार - 08.03.21

कुत्ते से प्यार - 08.03.21
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मैं जहाँ रहता हूँ उस मोहल्ले में घर के आसपास
अक़्सर दिख जाता है कुत्ते का एक सुखी परिवार
एक कुतिया एक कुत्ता और प्यारा-सा बच्चा एक

वह कुत्ता जिसके पैर मुड़े हुए हैं
जो बिलकुल नाटा और जिसका शरीर गठीला है
गेट के बाहर कभी बांए कभी दांए बैठा रहता है चुपचाप
उसने कभी मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ा
फिर भी उससे चिढ़ता था न जाने क्यों.!

गेट के खुले होने पर अब तक कई कई बार
बैठक में भूखा सांड घुसकर खा चुका था
रखे हुए अख़बार,नोट्स और पुस्तकों के कई पन्ने
मैं मेरी पत्नी और मेरे बच्चे बड़े परेशान थे सांड के हरकतों से

एक दिन जब मैं कॉलेज से घर आया
देखा कि वही काला नाटा कुत्ता
एक मोटे तगड़े बड़े से सांड को
भूँके जा रहा है भूँके जा रहा है

अपना सिर हिला-हिलाकर बेबस खड़ा वह सांड
रह-रहकर अंदर घुसने की कोशिश करता
पर कुत्ता उसका रास्ता रोके गेट के बीचोंबीच खड़ा रहा अडिग
बीच-बीच में मुझे देख अपना पूछ हिला-हिला करता है कूँ कूँ की आवाज़

कुत्ते के लिए सांड को रोके रहना अंदर घुसने न देना
बड़ी अहम बात रही होगी
पर मेरे लिए अहम बात थी कुत्ते की वफ़ादारी

कुत्ते के लिए मेरी सारी चिढ़ प्यार में बदल गया

मैंने इस पूरी घटना से  एक बात बड़ी शिद्दत से समझ पाया
कि जानवर हो या फिर हो कोई आदमी
उसका काम ही लोगों में प्यार जगाता है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

बाबूजी का फोन कॉल - 06.03.21

बाबूजी का फोन कॉल  - 06.03.21
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लगभग रोज़ या एक दो दिन के अंतराल में
आ ही जाता है बाबूजी का फोन कॉल
वे फ़ोन पर बात की शुरूआत 
कभी 'हैलो' बोलकर नहीं करते
" हाँ छोटू क्या चल रहा है तुम्हारा।"
यही होता है उनका पहला वाक्य या पहला बोल

जब दो दिन तक लगातार बाबूजी का फोन नहीं आता
मेरा मन थोड़ी आशंका से भर जाता है
उठने लगते हैं कुछ डरावने से सवाल
बाबूजी आख़िर कॉल क्यों नहीं किए.?
कहीं उनकी तबीयत खराब तो नहीं हो गई.?

उनके दो दिन तक फोन न आने पर
मैं ख़ुद फोन लगाने के लिए सोचने लग जाता हूँ
सोचता हूँ मॉर्निंग वॉक से आने के बाद फोन लगाऊँगा
योग कर लेने के बाद फोन लगाऊँगा
अखबार पढ़ लेने के बाद फोन लगाऊँगा
नहाने के बाद,नाश्ता के बाद,कॉलेज जाने से पहले या फिर कॉलेज में ख़ाली पीरियड होने पर लगा लूँगा
कई बार बस ऐसे ही सोचते-सोचते निकल जाता है एक दो दिन
और तीसरे दिन सुबह आ ही जाती है बाबूजी की कॉल

वे हमेशा मुझसे बात करने के बाद पूछते हैं-कहाँ है अस्मि.?
मेरी छोटी बेटी अस्मि से बात करने पर बड़ी राहत मिलती है उन्हें
सबसे पहले अस्मि से बोलवाते हैं तीन बार लंबे-लंबे ॐकार का उच्चारण
फिर कहते हैं कुछ मंत्र सुनाओ अस्मि
फिर तो बेटी धड़धड़-धड़धड़  बोलने लगती है रटे हुए सारे मंत्र
गायत्री मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र,गीता के पाँच छः श्लोक, सर्वे भवन्तु सुखिनः और आख़िर में तीन बार ॐ शांति शांति शांति

कई बार मैं अपने एकांत में सोचता हूँ 
हर बार फोन बाबूजी ही लगाते हैं
मेरे पास उनके लिए जितना प्यार और वक्त है
कहीं उससे ज़्यादा प्यार और वक़्त मेरे लिए बाबूजी के पास है।

पर यह भी सच है कि जब-जब देखता हूँ
मोबाईल स्क्रीन पर कॉलिंग बाबूजी
साथ ही उनकी काली घनी मूँछों वाली 
कॉलेज के ज़माने की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर
मैं सहसा धड़क जाता हूँ
मेरा पेपर पढ़ना,कविता लिखना,नाश्ता करना,क्लास लेना,मीटिंग पर होना या खाना खाना
सबकुछ जैसे ग़ैरज़रूरी हो जाता है
मेरे लिए बाबूजी से बात करना दुनियाँ की सबसे जरूरी बात हो जाती है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

अच्छा होता है नासमझ होना 28.02.21

अच्छा होता है नासमझ होना 28.02.21
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तब मैं बहुत छोटा था
इतना छोटा कि जाति-पाँति छुआछूत ऊँच-नीच के भेदभाव नहीं जानता था
घरवाले और लोगों की नज़रों में बिलकुल नासमझ था

तब मैं आदमी को केवल आदमी ही मानता था
आदमी को आदमी से अलग करना नहीं सीखा था

उन्हीं दिनों मेरे मस्तिष्क की ज़मीन पर असमानता के बीज बोए गए
लोगों ने कहा ये ऊँची जाति के हैं
हमारे पूज्यनीय हैं
प्रणाम करना इन्हें
मैंने मान लिया
लोगों ने कहा ये निम्न जाति के हैं
हमारे लिए अछूत हैं
हमेशा दूर रहना इनसे
मैंने मान लिया

बहुत दिनों तक जिसने जैसा कहा उसे वैसा मानता रहा
जब भी मैंने जिज्ञासा बस उनसे सवाल किया
निम्न जाति या उच्च जाति क्या है ?
वे पूज्यनीय क्यों और वे भला अछूत क्यों है ?
मुझे तार्किक उत्तरों से शांत कराने के बजाय
अपनी खीझ भरी फटकारों से चुप कराते रहे

आज पढा-लिखा हूँ
आदमियों के बीच के जातिगत ऊँच-नीच भेदभाव को समझने लगा हूँ
जितने ढंग हो सकते हैं समाज में विभेद के सबकुछ जानने लगा हूँ
अब यह भी समझने लगा हूँ कि
सामाजिक भेदभावों वाली समझदारी से कहीं अच्छा होता है नासमझ रह जाना।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

सवाल और बवाल - 17.08.21

जनता के द्वारा 
जनता के लिए
चुनी हुई सरकार
जनता के सवालों से
दूर भागती है

जब तक जनता
सवाल नहीं करती
बवाल नहीं करती
सरकार बडी कामयाब होती है

जबकि लोकतंत्र के कामयाबी के लिए
जनता का सवाल और बवाल
दोनों ज़रूरी होता है।

स्मृति में वो पल -17.08.21

मैं कांपते हुए हाथों से
सहला रहा था उसके छाती को

मैं एकदम ख़ामोश था और वह भी
बस दोनों की आँखें डबडबाई हुई थी

मेरे हाथों के स्पर्श के ज़रिए
उसकी धड़कनें मेरी धड़कनों से संवाद कर रही थी

उसकी धड़कनों में था -
दुनियां से चले जाने का डर
मेरे हिस्से का प्यार
बिछड़ने का अहसास और दर्द

हम दोनों नि:शब्द रो रहे थे
मैं निरूपाय
इसी दुनिया में 
बाद में आए छोटे भाई को
पहले जाते हुए देख रहा था।
 

Saturday 27 February 2021

गिला 27.02.21



गिला - 27.02.21
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चाहा 

मिला

नहीं कोई गिला।

नहीं चाहा

नहीं मिला

है बहुत

गिला..गिला..गिला।

क्यों चिढ़ता हूँ बेटी से..? 27.02.21
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पाँच साल की बेटी मेरी
अपने हमउम्र तीन-चार सहेलियों के साथ
गुड्डा-गुड़िया,टैडी वियर, डॉक्टर सेट,किचन सेट जैसे तमाम प्रकार के खिलौनों को बिखराए
आने-जाने के रस्ते को घेरे हुए
अपने खेल में रहती है मशगूल

वह अपनी माँ के पुकारे जाने की आवाज़ नहीं सुनती
वह आने-जानेवाले किसी को देखती भी नहीं
उसे बिलकुल भी चिंता नही है किसी काम की
उसे समय के गुज़र जाने का डर नहीं
उसे आगे बढ़ती घड़ी की सुइयाँ परेशान नहीं करती
उसे कहीं वक़्त पर पहुँचने की जल्दी नहीं
उसके आँखों में सपने या फिर कोई हसीन खयाल भी नहीं 

वह जब खेलती है तो बस खेल में ही रहती है
और हम हैं कि एक काम करते हुए कई कामों में बंटे होते हैं
हम एक समय में एक काम में नहीं होते
और एक काम भी ठीक से नहीं कर पाते
हम सबका देखते हैं सुनते हैं पर अपना कभी देख सुन नहीं पाते

मुझे अक़्सर चिढ़ा जाती है
मेरी बेटी की बेपरवाह बातें और उसकी मासूमियत भरी हँसी।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479


वह आएगा - 25.02.21
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तमाम मुश्किलों से गुजरते
मंझधार में फंसी छोटी सी पत्ती की तरह डूबते-उतराते
अत्याचारी तूफानों से लड़ते-जूझते
खत्म कर देने के ख़तरनाक साजिशों में भी
अपने भीतर सपनों के कुछ बीज बचाकर
वह आएगा,जरूर एक दिन आएगा..

इस ख़ूबसूरत बहुरंगी दुनियाँ की हिफाज़त के लिए
दम घुट रहे बेचैन आत्माओं की राहत के लिए
स्वतंत्रता और समानता के गीत गाते
सुविधाचारियों के लजीज़ खानों में 'कंकड़' की तरह
वह आएगा,जरूर एक दिन आएगा..

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

थूकना सीखें !  24.02.21
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रोज सुबह घूमने जाता हूँ
उजाला होने पर
सड़क की ओर कभी नज़रें झुकाकर नहीं चलता
नज़रें झुकाने से पूरी सड़क भर
दिखाई पड़ जाते हैं विभत्समय खखारें और थूकें

थूकना किसी बीमारी के लक्षण हो सकते हैं
मगर मेरे देश में थूकना ही एक बीमारी है

जीवन में थूकने के अनेक अवसर आते हैं हमारे पास
पर जहाँ थूकना चाहिए हम थूक नहीं पाते

निकृष्ट से निकृष्ट और वीभत्स से विभत्स घटनाओं और दृश्यों को देखकर
हम चुपचाप अपना थूक पी जाते हैं।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479



1. गांधी जी के तीन बंदर -20.02.21
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गांधी जी के तीन बंदरों से 
बड़े प्रभावित हैं वे
लोगों को भले ही बुरा दिन दिखाते रहे
पर अपने साथ बुरा होते
कभी नहीं देख सकते 
उनका मानना है कि कभी बुरा नहीं देखना चाहिए

आप अपनी समस्याओं पर
गलाफाड़ चिल्लाते रहें
उनके कानों में कभी जूँ नहीं रेंगती
उनका फलसफा है कि कभी बुरा नहीं सुनना चाहिए

वे बोलेंगे
रैलियों और जुलूसों में लगातार बोलेंगे
आपको उनकी बातें बुरी लगे तो लगे
उनका मानना कि वे हमेशा भले के लिए ही बोलते हैं।

2. गांधीवादी
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वे अपने चुनाव प्रचार में
जी भरके नोट बांटते हैं
उन्हें लगता है
नोटों में छपे गांधी के फोटो देखकर
जनता उन्हें 'गांधीवादी' समझेंगे।

3. गांधी के गाल
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एक गाल पर तमाचा मारने से
गांधी जी अपना दूसरा गाल आगे बढ़ा देते थे
गांधीवादियों के पास भी दो गाल है
पर इनके गाल तमाचा खाने के लिए नहीं
केवल 'गाल बजाने'के लिए है इनके गाल।

4. गांधी के नाम
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वे पक्के राष्ट्रवादी हैं
उनके राष्ट्र निर्माण में 
गांधी का होना बिलकुल जरूरी नहीं है
उन्हें आगे बढ़ने के लिए
बस गांधी का नाम ही काफी है।

5.सम्मति
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गांधी जी अपनी प्रार्थना में कहते रहे-
" ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम
सबको सम्मति दे भगवान।"
गांधी जी की प्रार्थना उन्हें रास नहीं आया
वे बुरा मान गए
गांधी की हत्या कर दी उसने
पता नहीं 
उन्हें ईश्वर ने कैसी सम्मति दी. .?

6. गांधी के विचार
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वे गांधी से बहुत प्रेम करते हैं
युगों-युगों तक
गांधी को जीवित रखना चाहते हैं
स्मारकों में,मूर्तियों में,नोटों में, तस्वीरों में
पर वे कतई नहीं चाहते
गांधी जी जिंदा रहे उनके विचारों में
वे बेहद परेशान हो जाते हैं
पल भर गांधी के विचार आने मात्र से।

नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479


लौट आओ बसंत..! - 02.02.21
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न खिले फूल न मंडराई तितलियाँ
न बौराए आम न मंडराए भौंरे
न दिखे सरसों पर पीले फूल
आख़िर बसंत आया कब..?

पूछने पर कहते हैं--
आकर चला गया बसंत !
मेरे मन में रह जाते हैं कुछ सवाल
कब आया और कब चला गया बसंत ?
कितने दिन तक रहा बसंत ?
दिखने में कैसा था वह बसंत ?

कोई उल्लास में दिखे नहीं
कोई उमंग में झूमे नहीं
न प्रेम पगी रातें हुई
न कोई बहकी बहकी बातें हुई

मस्ती और मादकता सब भूल गए
न जाने कितने होश वाले और समझदार हो गए

अरे छोड़ो भी इतनी समझदारी ठीक नहीं
कहीं सूख न जाए हमारी संवेदनाओं की धरती

प्रेम से मिले हम खिले हम महके हम
मुरझाए से जीवन में फिर से बसंत उतारे हम ।

नरेंद्र कुमार कुलमित्र
9755852479

तेरे बिना 11.01.21
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तेरे बिना रहना
देह के बिना गहना
निस्सीम दुखों को
सहना-सहना-सहना
-- नरेन्द्र

रिश्ते -10.01.21
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रिश्ते छत की तरह होते हैं
रिश्ते बने रहे तो छाया मिलती है
अगर रिश्तों में छेद हो जाए 
तो वह छत की तरह रिसने लगता है

रिसते हुए रिश्ते जल्द ही टूटकर बिखर जाते हैं
फिर रिश्तों के बोझ में दबकर दफ़्न हो जाते हैं।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479


पुराने की चाहत-10.01.21
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मैं अब भी गाँव जाता हूँ
मग़र वह गाँव वही गाँव नहीं होता है
गाँव में अब भी हैं बहुत सारे लोग
मग़र वे लोग वही लोग नहीं होते है
गाँव में जब तक रहता हूँ
अब वह गाँव मेरा गाँव नहीं लगता है

जब छोटा था
खुद को बदलना चाहता था
अपने गाँव को बदलते देखना चाहता था

अब जबकि ख़ुद बदल चुका हूँ
मेरा गाँव पूरा बदल चुका है
जाने क्यूँ मेरा मन फिर से
वही पुराना हो जाना चाहता है
मेरा मन फिर से उसी पुराने गाँव में रहना चाहता है।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479


आइए....09.01.21
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आइए....
अगर हमारे भीतर कहीं शर्म बची हो
ढूँढे उसे 
ताकि दुनियां को शर्मसार कर देने वाली घटनाओं पर
थोड़ा शर्म कर सकें

आइए....
अगर हमारे भीतर थोड़ी संवेदनाएं बची हो
तलाशें उसे
ताकि दिल दहला देने वाली निर्मम घटनाओं पर
थोड़ा पसीज सकें

आइए....
अगर हमारे भीतर कहीं आक्रोश बचा हो
टटोलें उसे
ताकि बर्बरता और दरिंदगी के ख़िलाफ़
थोड़ा रोष प्रगट कर सकें

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

जब माँ मिट्टी हो गई- 08.01.21
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मैंने रोया था उस दिन जीभरके
जब निकली थी घर से तुम्हारी अर्थी
लोग मेरे आँसू पोछते रहे
ढाँढस बंधाते रहे
समझाते रहे कि
चुप हो जा बेटा
आखिर जाना ही पड़ता है एक दिन सबको
मिट्टी की इस काया को मिट्टी में मिलना ही है

मैंने पुस्तकों में पढ़ा था
पाँच तत्वों से मिलकर बना नश्वर है यह शरीर
मग़र मुझे उस मृत देह में 
मिट्टी नहीं केवल माँ नज़र आती थी

मुझे बचपन में माँ समझाती थी कि
मिट्टी माँ होती है
वही हमें पालती-पोसती है
रोज सुबह मिट्टी को प्रणाम किया करो

मिट्टी माँ होती है
इस दर्शन को तब नहीं समझ सका था
सोचता था मिट्टी और माँ में भला कैसा साम्य..?
समझा उस दिन 
जब माँ सचमुच मिट्टी हो गई।

--नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

शब्द -08.01.21
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जब-जब गिरता हूँ
बड़े प्यार से संभालकर
बिल्कुल माँ की तरह
मुझे उठा लेते हैं
मेरे शब्द   
-- नरेन्द्र

दो टूक - 05.01.21
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तुम आग से खेलो
मैं मिट्टी में जन्मा
मिट्टी से खेलूँगा
मिट्टी में जीऊँगा
मिट्टी में मिल जाऊँगा

मेरे रग-रग में
मिट्टी की है खुश्बू
मिट्टी ही कर्म
और मिट्टी ही सनातन धर्म है मेरा

तुम करते रहो आसमानी बातें
मैं धरती को छोड़कर
कभी आसमान की बातें नहीं करूँगा

मैं कोई सौदेबाज नहीं
सौदा मुझे आता भी नहीं
मानता हूँ तेरी सरकार है
पर मिट्टी का मुझे अधिकार है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

केवल शब्दों की बात..! 14.12.20
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जब भी कोई ख़ुद को कवि मानकर
लिखना शुरू करता है
वह अक़्सर शब्दों की भीड़ में घिर जाता है
उन्हें सारे शब्दों की आवाज़
एक साथ सुनाई देने लगती है
ऐसे में वह कुछ भी तय नहीं कर पाता

बड़ी मुश्किल हो जाती है 
भीड़ में से किसी एक शब्द को चुनना

शब्दों के शोर में डूबा कवि
बड़ी मेहनत से चुन पाता है कुछ शब्द
जो कवि की दृष्टि में 
बड़े ही आकर्षक और भारी-भरकम होते हैं 

आकर्षक इतना कि आप चमत्कृत हो जाएं
भारी-भरकम इतना कि कविता का दम ही घुट जाए

फिर तो आप कवि महोदय से 
केवल शब्दों की बात कर सकते हैं
शब्दों में कविता की बात बिल्कुल नहीं कर सकते।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

विश्वास के रंग - 13.12.2020
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कितने दिनों से नहीं गया सुबह की सैर
नहीं गया गाँव
नहीं गया कोई दूसरा शहर
नहीं हुई दोस्तों से मुक़म्मल मुलाकात

इस बीच न जाने कितने मौसम बदले
कितनी ऋतुएँ आईं और चली गईं
गर्मी बरसात और सर्दी
दरवाजे पर दस्तक़ देकर
अपनी-अपनी तासीर बताती रहीं

वही सुबह,वही गाँव, वही शहर,वही सारे दोस्त
मौसम और ऋतुएँ भी वही
बस थोड़ा-सा इंतिजार करना होगा
अविश्वास के रंग पर विश्वास के रंग चढ़ने तक।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479


अनाज के एक-एक दानों में मौजूद रहता है किसान

अनाज के साथ-साथ
किसान भी पकता है 
किसान भी पिसा जाता है

आनाज में ताउम्र किसान रहता है
पर किसान के लिए अनाज नहीं होता।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

दुनियां से मिट जाएंगे सारे जज़्बात- 06.12.20
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जज्बातों की कद्र नहीं अब
फ़ैशन हो चुका है अब जज़्बातों से खेलना
कभी अपनों से  कभी परायों से
फुटबॉल की तरह 
किक मारकर खेले जा रहे हैं जज़्बात

जज्बातों को पहचानने वाला अब कोई नहीं
अनाथ की तरह 
बेघर-बेसहारा भटकते रहते हैं जज़्बात

रेतीले शुष्क दिलों में
अब नहीं फूटते जज्बातों के अंकुर

अब बिल्कुल भी नहीं सुने जाते
गरीबों, किसानों, मजदूरों और मातहतों के
उपेक्षित, अपमानित,दबे-कुचले जज़्बात

अहम के बुलडोजर से सरेआम
धनकुबेरों द्वारा रौंदे जाते हैं अक़्सर
पीड़ितों और जरूरतमंदों के कोमल जज़्बात

नफ़रतों की तेज़ आँच से 
भाप बनकर उड़ते ही जा रहे हैं
नमी की तरह दिलों में भरे हुए सारे जज़्बात

जज्बातों से खेले जा रहे हैं
जज़्बात रौंदे जा रहे हैं
लुप्तप्राय होते-होते
लगता है जल्द ही
दुनियां से मिट जाएंगे सारे जज़्बात।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479