Thursday 24 March 2022

बेखबर स्त्रियां-25.03.22

बेखबर स्त्रियां-25.03.22
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स्त्रियों के सौंदर्य का 
अलंकृत भाषा में 
नख से शिख तक मांसल चित्रण किए गए
श्रृंगार रस में डूबे 
सौंदर्य प्रेमी पुरुषों ने जोर-जोर से तालियां बजाई
मगर तालियों की अनुगूंज में 
स्त्रियों की चित्कार
कभी नहीं सुनी गईं

कविताओं में स्त्रियां 
खूब पढ़ी गई और खूब सुनी गई
मगर आदि काल से अब तक
कविताओं से बाहर 
यथार्थ के धरातल पर
स्त्रियां ना तो पढ़ी गईं और ना ही कभी सुनी गईं

स्त्रियों पर कई-कई गोष्ठियां हुईं
स्त्री विमर्श पर चिंतन परक लेख लिखे गए 
स्त्री उत्पीड़न की घटनाओं पर  शाब्दिक दुख प्रगट किए गए 
टीवी चैनलों पर बहसें हुईं
अखबारों पर मोटे मोटे अक्षरों से सुर्खियां लगाई गईं
स्त्रियां खबरों पर छाई रहीं

पर घटनाओं से पहले 
और घटनाओं के बाद बेखबर रही स्त्रियां।

--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

मुफ्त की चीजों से..19.03.22

मुफ्त की चीजों से..19.03.22
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हमारी आदत सी हो गई है
कि हमें सब कुछ मुफ्त में चाहिए
भिखारियों की तरह हम मांगते ही रहते हैं
राशन पानी बिजली कपड़ा मकान रोजगार मोबाइल और मुफ्त का वाईफाई कनेक्शन

मुफ्त की चीजों से
बदलने लगे हैं हमारे खून की तासीर
हम कमाना नहीं चाहते अमरबेल की तरह फैलना चाहते हैं

मुफ्त की चीजों से
घटती जा रही है श्रम की ताकत और हमारे स्वाभिमान

मुफ्त की चीजों से
शून्य होता जा रहा है 
विरोध में बोलने और खड़े होने का साहस

मुफ्त की चीजों से
हम भरते जा रहे हैं
गहरे आत्म संतोष और निकम्मेपन से
जो सबसे जरूरी है उनके लिए

वह हमें कुछ भी नहीं दे रहे हैं
वरन बस ले रहे हैं हमसे हमारी हैसियत
छीन रहे हैं हमारा वजूद
और हम हैं की बड़े खुश हो रहे हैं
कि वे हमें सब कुछ मुफ्त में दे रहे हैं

उनका मुफ्त में देना
एक गहरा षड्यंत्र है
हमें लगता है 
कि मुफ्त की चीजों से हमारी जिंदगी भर गई है
मगर मुफ़्त लेने के एवज में
हमारी असली जिंदगी हमसे छीन गई है।

--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
  9755852479

डरावना सवाल -12.03.22

डरावना सवाल -12.03.22
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मैंने एक दिन पक्षियों से पूछा 
उनके देश के बारे में 
और पूछा क्या कभी आपस में लड़ते हो
अपने देश की सीमाओं के लिए..?

बिना कोई जवाब दिए 
वे बस उड़ते रहे
जैसे मेरा सवाल ही फिजूल हो
और जैसे कह रहे हों
उड़ सकते हैं हम जहां जहां
सब देश है हमारा

मैंने एक दिन तितलियों से पूछा 
कि कौन सा रंग पसंदीदा है तुम्हारे
हरा नीला सफेद केसरिया..?

और पूछा अलग-अलग पसंद के रंगों के लिए क्या कभी तुम आपस में लड़ते हो..?

वे मेरी बातों को अनसुनी करतीं
फूलों पर जा-जा मंडराती रहीं
बिना कोई जवाब दिए

जैसे मेरा रंगों का सवाल ही बेरंग हो
और जैसे कह रहे हों
रंग बिरंगी हमारी दुनियां
रंग बिरंगे सारे फूल
हमें पसंद हैं दुनिया के सारे रंग

मैंने एक दिन पशुओं से पूछा
कि बताओ ज़रा अपनी जाति धर्म और झंडों के बारे में

वे मेरी बातों पर अपना वक्त जाया ना करते हुए
बस उछलते कूदते रहे
झुंड में चरते रहे
एक दूसरे को चाटते रहे
जैसे मेरे सवाल
उनके लिए है ही नहीं

एक दिन पशु-पक्षियों की संयुक्त बैठक में फिर पहुंचा और कहा
तुम सब मिलजुल कर आपस में रहते हो
ना तुम्हारे कोई राष्ट्र हैं
न सीमाएं,न झंडे
ना कोई जाति ना कोई धर्म
आखिर तुम सब किस ईश्वर को मानते हो..?

इतना सुनते ही सारे पक्षी उड़ गए
जानवर सभी भाग खड़े हुए
जैसे मैंने उनसे कोई डरावना सवाल पूछ दिया हो।
--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
  9755852479

Friday 4 March 2022

हिंदी के वारिस 21.01.22

हिंदी के वारिस 21.01.22
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जब कोई धड़ल्ले से अंग्रेजी में अपनी बातें कह रहा होता है
मंच के सामने बैठे कुछ लोग कुढ़ रहे होते हैं

कुढ़ने वाले होते हैं तथाकथित हिंदी प्रेमी
उन्हें अंग्रेजी नहीं आती
वे अंग्रेजी सीखना भी नहीं चाहते
वे अपना समय अंग्रेजी सीखने में नहीं
अंग्रेजी से नफरत करने में लगाते हैं

मजे की बात तो यह है 
उनसे ठीक से हिंदी भी नहीं बोला जाता
मगर वे हिंदी बोले जाने की लड़ाई लड़ते हैं
वे अपनी नाकामी देशभक्ति से जोड़ लेते हैं
जोर-जोर से चिल्लाते हैं
हिंदी हमारी माता है
हिंदी हमारी भाषा है
हिंदी हमारी पहचान है
हिंदी हमारी आन है अभिमान है
उन्हें ठीक से हिंदी लिखने भी नहीं आता
हिंदी वर्णों का क्रम भी उन्हें नहीं पता
मगर हिंदी के वारिस होने का ढिंढोरा पीटते रहे हैं हमेशा।
--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
  9755852479

बातों को उबारने की कोशिश-21.01.22

बातों को उबारने की कोशिश-21.01.22
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किसी के पास कुछ भी नहीं है कहने को
या फिर कह नहीं पाते जो कहना चाहते हैं

दुनिया में कहने को तो बहुत कुछ है
बहुत कुछ कहे जा चुके हैं
बहुत कुछ कहे जा रहे हैं
बहुत कुछ कहे जाते रहेंगे

कितनों का कहा बिल्कुल समझ नहीं आया
कितनों का कहा कुछ कुछ समझ आया

वही वही बातें कितनी बार कहे गए
कहने के तरीकों में होती हैं 'बातें'
गर कहने के तरीके ना हो तो शब्दों में रह जाती हैं 'बातें'

शब्दों के फंदों में 
ना जाने कितनी बातें 
फंसकर रह गई होंगी
शुक्रगुजार हैं हम उनके लिए
जिन्होंने शब्दों के जाल से बातों को उबारने की ईमानदार कोशिश की है।
-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479