Monday 31 August 2020

आख़िर कैसे दाता हो तुम ..?

आख़िर कैसे दाता हो तुम .?- 27.08.2020
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बेहाल होकर 
मौन में 
पुकारा था उसने

जितनी थी ज़रूरत
बस उतनी ही तो
मांगी थी उसने

भूख के लिए 
थोड़ी-सी रोटी 
तन के लिए
थोड़े-से कपड़े
सिर के लिए 
थोड़ी-सी छाँह

उसने ज़रूरत भर मांगा पानी
तुमने सैलाब दे दी
उसने मांगी ज़रूरत भर हवा
तुमने दे दी आँधी
उसने मांगी ज़रूरत भर गुनगुनी धूप
तुमने शोले बरसा दिए

तुमने दिए इतना कि
उनकी भूख तो ज़रा भी मिटी नहीं
पर मिट गए सारे भूखे

बताओ ! क्यों नहीं समझ पाए तुम
उसकी थोड़ी-सी ज़रूरत
आख़िर कैसे दाता हो तुम ..?

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

बस लिखते जाना है

बस लिखते ही जाना है -31.08.2020
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जो भी जैसे भी भाव या विचार
आएंगे जब भी 
कलम उठा 
लिखूँगा हर बार

सोचूँगा नहीं शब्दों के बारे में
वाक्यों के बारे में
व्याकरण के बारे में भी नहीं

जो भी जैसे भी लिखूंगा
वही होगी मेरी असली कविता

उन्हीं शब्दों में उन्हीं वाक्यों में
दिखेंगे महसूस होंगे मेरे सारे भाव

मेरे भीतर प्रवाहित प्रेम और करूणा
भोगे और महसूसे हुए सारे दुख-दर्द
प्रतिकार स्वरूप भीतर उट्ठे हुए आक्रोश
बस ज्यों का त्यों दर्ज कर सके 
लिख्खे हुए सारे शब्द मेरे
बस इतना ही तो चाहता हूँ मैं

वैसे भी आलोचकों की कमी नहीं
घिरा हूँ आलोचकों से चारों ओर
मुझे कतई चिंता नहीं व्याकरण की
सुधार ही लेंगे वे व्याकरण और रचना के सारे दोष

मैंने तो इतना ही ठाना है
शब्दों के फेर में तनिक भी पड़े बिना
बस लिखते ही जाना है...
बस लिखते ही जाना है...।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

Thursday 27 August 2020

तुम्हारी नसीहतें

तुम्हारी नसीहतें 25.8.2020
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मुझे दौड़ते-हाँफते देख
इशारा कर तुम्हीं ने 
डांटते हुए कहा था--
इतना भी दौड़ना ठीक नहीं
मत निकलो समय से आगे
फिर एक दिन
धीरे-धीरे चलते देख
इशारा कर रोकते हुए कहा था--
इतना भी धीरे चलना ठीक नहीं
मत रहो समय से पीछे
तब बिलकुल समझ नहीं पाया था
तुम्हारी विरोधाभास भरी बातों में छुपी हुई नसीहतें
तुम नहीं हो अब
पर साथ है तुम्हारी नसीहतें
शुक्रिया !
अब न आगे हूँ न पीछे
समय के समानांतर चलना
सीख लिया है मैंने।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

Monday 24 August 2020

चार कविताएँ : पक्षधर

चार कविताएँ : पक्षधर - 24.08.2020
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1.शांति के पक्षधर
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वे शांति के पक्षधर हैं
शांति चाहिए उन्हें 
किसी भी कीमत पर

उनका कहना है कि
बेहद जरूरी है समाज में शांति
शांति के बिना कोई भी समाज
दरअसल समाज ही नहीं होता

वे और उनके सारे लोग
जो हैं शांति के कट्टर अनुयायी
समाज में शांति स्थापित करने के लिए
जा सकते हैं किसी भी हद तक
चाहे किसी की हत्या ही क्यों न करना पड़े

समाज में शांति के लिए
बड़े ही लगनशील एवं तत्पर हैं वे
शांति के लिए कोई भी समझौता नहीं करेंगे वे।


2.धर्म के पक्षधर
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वे बड़े ही धार्मिक व्यक्ति हैं
उन्हें अधर्मी लोग कतई पसंद नहीं है

जो भी उनका कहा
नहीं मानता
उनकी नजरों में
वे सारे अधर्मी हैं

वे अपने धर्म स्थापित करने के लिए
किसी भी हद तक जा सकते हैं
चाहे जानें ही क्यों न लेना पड़े

उनका मानना है--
आदमी-औरत,पेंड़-पौधे और पशु भी
केवल धर्म के लिए है
इस दुनियाँ में धर्म से बड़ा कुछ भी नहीं होता

धर्म के लिए बड़े श्रद्धावान हैं वे
धर्म के लिए कोई भी समझौता नहीं करेंगे वे।



3.अहिंसा के पक्षधर
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वे सिद्धांतः अहिंसक हैं
जीवों की हत्या को पाप समझते हैं वे
पर
जब-जब उन्हें
अपना बर्चस्व कायम करना होता है
'हिंसा' ही काम आता है

वे स्वयं को कभी
तर्कों से सच साबित नहीं कर सकते
आखिर थक हारकर
हिंसा का दामन थामना ही पड़ता है उन्हें

वे न्याय और अन्याय का फ़ैसला
स्वयं करते हैं
उनके लिए न्याय का एकमात्र रास्ता है 'हिंसा'

अहिंसा के  प्रबल समर्थक हैं वे
समाज में अहिंसा के लिए
'हिंसा' से कभी कोई भी समझौता नहीं करेंगे वे।


4.प्रेम के पक्षधर
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वे सभी सच्चे प्रेमी हैं
प्रेम को ईश्वर की तरह मानते हैं
प्रेम की पूजा करते हैं वे

वे प्रेम से ही सब कुछ पाना चाहते हैं
अगर न मिले 'प्रेम' तो बौखला जाते हैं 
हिंसा पर उतारू हो जाते हैं वे

उनका कहना है--
जिससे वे प्रेम करते हैं
वो भी उनसे प्रेम करे
वे चाहते हैं सब कुछ उनके ही मनमाफ़िक हो

प्रेम न मिलने पर 
किसी भी हद तक जा सकते हैं वे
प्रेम के लिए 
हत्या का विकल्प होते हैं उनके पास

वे सच्चे प्रेमी हैं
उनसे प्रेम न करने वाला
घृणा का पात्र होता है

प्रेम के पक्षधर हैं वे
प्रेम में कभी कोई भी समझौता नहीं करेंगे वे।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

Saturday 22 August 2020

अस्मिता के पक्ष में विडम्बनाओं से लड़ती कविताएँ : नगाड़े की तरह बजते शब्द 20.08.2020

अस्मिता के पक्ष में विडम्बनाओं से लड़ती कविताएँ : नगाड़े की तरह बजते शब्द - 20.08.2020
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'नगाड़े की तरह बजते शब्द' सुप्रसिद्ध संथाली कवयित्री, लेखिका और सोशल एक्टिविस्ट निर्मला पुतुल जी का बहुचर्चित काव्यसंग्रह है।इनकी अन्य प्रमुख कृतियों में'अपने घर की तलाश में'; 'बांस'; 'अब आदमी को नसीब नहीं होता आम'; 'फूटेगा एक नया विद्रोह'; 'मैंने अपने आँगन में गुलाब लगाए'; 'बाघ'; 'एक बार फिर'; 'अपनी जमीन तलाशती बेचैन स्त्री'; आदि शामिल है।इनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी, नेपाली आदि भाषाओं में हो चुका है।पुतुल जी सामाजिक विकास,मानवाधिकार और आदिवासी महिलाओं के उत्थान के लिए लगातार कार्य कर रहीं है।इन्हें राज्य एवं राष्ट्र स्तरीय अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुका है।इस काव्य संग्रह में पुतुल जी की कुल 38 कविताएँ संकलित हैं।काव्यसंग्रह में संकलित उनकी सभी कविताएँ देश के नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
              इस काव्यसंग्रह पर अपने विचार प्रगट करते हुए सुप्रसिद्ध कवि श्री अरुण कमल जी ने सटीक टिप्पड़ी दी है जो कि पुस्तक के कव्हर पेज़ के अंदर पहली एवं आखिरी पृष्ठ पर दर्ज है।वे लिखते हैं-"मूलतः संथाली भाषा में लिखी सुश्री निर्मला पुतुल की कविताएँ एक ऐसे आदिम लोक की पुनर्रचना है जो आज सर्वग्रासी वैश्विक सभ्यता में विलीन हो जाने के कगार पर है।आदिवासी जीवन, विशेषकर स्त्रियों का सुख-दुख अपनी पूरी गरिमा और ऐश्वर्य के साथ यहाँ व्यक्त हुआ है।आज की हिंदी कविता के प्रचलित मुहावरों से कई बार समानता के बावजूद कुछ ऐसा तत्व है इन कविताओं में,संगीत की ऐसी आहट और गहरा आर्तनाद है,जो अन्यत्र दुर्लभ है।"1 श्री अरुण कमल जी निर्मला पुतुल के काव्यसंग्रह में संकलित कविताओं की भावभूमि और कविताओं में निहित दुनियाँ के बारे में लिखते हैं कि-" इन कविताओं की दुनियाँ बाहामुनी, चुड़का सोरेन, सरोजनी किस्कू और ढेपचा कई दुनिया है,फूलों-पत्रों-मादल और पलाश से सज्जित एक ऐसी कठोर, निर्मम दुनियाँ जहाँ रात के सन्नाटे में अँधेरे से मुँह ढाँप रोती है दुनियाँ।यह दुनियाँ सिद्धू कानू और बिरसा के महान वंशजो की भी दुनियाँ है,पहाड़ पर अपनी कुल्हाड़ी पिजाती दुनिया।यह ऐसी कविता है जिसमें एक साथ आदिवासी लोकगीतों की सांद्र मादकता,आधुनिक भावबोध की रुक्षता और प्रतिरोध की गंभीर वाणी गुंफित है।"2
                  निर्मला पुतुल जी का काव्यसंग्रह 'नगाड़े की तरह बजते शब्द' की कविताओं में मुझे तीन तरह की चिन्तनधारा दिखाई पड़ती है--
1.स्त्री विमर्श की चिन्तनधारा 
2.आदिवासी विमर्श की चिन्तनधारा
3.पर्यावरणीय विमर्श की चिन्तनधारा
आज यद्यपि स्त्री उत्पीड़न, आदिवासी उत्पीड़न और पर्यावरण के गिरते स्वास्थ्य पर अनेक लेख लिखे जा रहे हैं।विचार गोष्ठियाँ आयोजित की जा रही है तथापि स्त्री एवं आदिवासी उत्पीड़न तथा पर्यावरण ह्रास के समाचार समानांतर रूप से देखने -सुनने को मिलते रहे हैं।आदिवासियों के विकास के नाम पर सरकार द्वारा नित नई-नई योजनाएँ बनाई जाती है पर सच्चाई यह है कि इन योजनाओं के आड़ में बिचौलिए न केवल आदिवासियों के जल,जंगल, जमीन का दोहन करते हैं बल्कि आदिवासी स्त्रियाँ भी उनके शोषण के शिकार होते रहे हैं।झारखंड के संथाल आदिवासी परिवार में जन्मी,पली-बढ़ी निर्मला अपने बचपन से आदिवासियों की समस्याओं को देखी ही नहीं बल्कि स्वयं महसूस भी की है,झेली है।पुतुल जी अपनी कविताओं में यह मानती है कि आदिवासी अपनी समस्याओं के लिए स्वयं भी जिम्मेदार हैं मगर मूल समस्या व्यवस्थादारों द्वारा थोपी गई हैं।
1.स्त्री विमर्श की चिन्तनधारा :--- 'क्या तुम जानते हो ' कविता में पुरूष प्रधान के पुरुषों से सवाल करती हुई दिखती है।कहने को तो समाज रूपी गाड़ी को चलाने के लिए स्त्री-पुरूष रूपी दो पहियों की जरूरत होती है।मग़र पुरुष प्रधान समाज में स्त्री अपने ही घर में अपनी वजूद तलाशती रह जाती है।समाज में गढ़े गए सारे मान-मर्यादा ,नियम,शर्तें सभी कुछ केवल स्त्रियों पर लागू होती है।स्त्री स्वयं रोज़ टूटती और विखरती है लेकिन रिश्तों की बुनियाद को मजबूती प्रदान कर उसे कभी विखरने नहीं देती।वह कविता में कहती है--
"बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को उसके घर का पता
सपनों में भागती एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में
अपने आप से लड़ते?
तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के मन की गांठें खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास
अगर नहीं !
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में...?"3
'आदिवासी स्त्रियाँ कविता'  में  भोली-भाली आदिवासी स्त्रियों की संकुचित सी दुनियाँ को चित्रित करती है।यद्यपि आदिवासी स्त्रियाँ अपनी दुनियाँ तक सीमित होती है पर आश्चर्य होता है कि कैसे वे और उनकी चीजें राजधानी तक पहुंच जाती हैं।आख़िर इन साजिशों के पीछे कौन है? वह इशारों ही इशारों में ही सब कुछ कह देती हैं--
" उनकी आँखों की पहुँच तक ही
सीमित होती उनकी दुनियाँ
वे नहीं जानती कि
कैसे पहुँच जाती है उनकी चीजें दिल्ली
तस्वीरें कैसे पहुँच जाती हैं उनकी महानगर
नहीं जानती वे ! नहीं जानती !!"4
'बिटिया मुर्मू के लिए' कविता के माध्यम से पूरी नारी जाति को सचेत करती हुई उनके ख़िलाफ़ हो रहे साजिशों के विरुद्ध खड़े होने के लिए प्रेरित करती है।यह सच है कि स्त्री उत्पीड़न के कारणों में उनकी चुप्पी महत्वपूर्ण कारण है।स्त्रियों  पर सहनशील होने का ठप्पा लगाकर पुरुष हमेशा से उन पर अत्याचार करते आया है।कवयित्री स्त्रियों को अपनी चुप्पी तोड़ने और बवंडर की तरह अत्याचारों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने के लिए कहती है--
"उठो कि अपने अँधेरे के ख़िलाफ़ उठो
उठो अपने पीछे चल रही साजिश के ख़िलाफ़
उठो, कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो
जैसे तूफान से बवंडर उठता है
उठती है जैसी राख में दबी चिनगारी।"5
विकास के नाम पर आदिवासियों के बीच आए शहरी पाखंडियो की  बुरी नियत आदिवासी स्त्रियों पर होती है।वे सीधी-सादी ,भोली-भाली आदिवासी लड़कियों को नौकरियों और सुख-सुविधाओं का सब्ज़बाग दिखाकर किस तरह उनका दैहिक शोषण करते हैं, इसी बात की ओर संकेत करते हुए 'चुड़का सोरेन' कविता में चुड़का सोरेन को आगाह करती है--
"कहाँ गया वह परदेशी जो शादी का ढोंग रचाकर
तुम्हारे ही घर में तुम्हारी बहन के साथ 
साल दो साल रहकर अचानक गायब हो गया ?
उस दिलावर सिंह को मिलकर ढूंढों चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी ही बस्ती की रीता कुजूर को
पढ़ाने-लिखाने का सपना दिखाकर दिल्ली ले भागा
और आंनद भोगियों के साथ बेच दिया।"6
स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी खाप पंचायत तथा धर्म, जाति एवं समाज के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा फैसले लेकर
स्त्रियों के साथ दण्डनीय बर्ताव किया जाता है।स्त्रियों पर हो रहे अत्याचारों को दूर करने में आज भी हमारे सांविधानिक निकाय लाचार दिखाई पड़ते हैं।'कुछ मत कहो सरोजनी किस्कू' कविता में कुछ इसी तरह की घटना के बारे में लिखती हैं---
"हक की बात न करो मेरी बहन
मत माँगो पिता की संपत्ति पर अधिकार
ज़िक्र मत करो पत्थरों और जंगलों की अवैध कटाई का
सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की
चर्चा न करो बहन
अपने मगजहीन पति द्वारा
भरी पंचायत में डायन करार दंडित की जावोगी
इन गूँगे-बहरों की बस्ती में
किसे पुकार रही हो सरोजनी किस्कू..?"7
'क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए' कविता में पुरूष प्रधान समाज के पुरुषों से सवाल करते हुए पूछती है कि तुम बताओ तो सहीं
आख़िर एक स्त्री तुम्हारे लिए क्या मायने रखती है ? वह अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहती है कि मेरा वजूद तुम्हारे लिए महज़ इस्तेमाल कर फेंक दिए जाने वाली चीजों (यूज एन्ड थ्रो) से अधिक नहीं है --
"क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
एक तकिया
कि कहीं से थका मांदा आया
और सिर टिका दिया
कोई डायरी 
कि जब चाहा 
कुछ न कुछ लिख दिया
ख़ामोश खड़ी दीवार
कि जब जहाँ चाहा
कील ठोंक दी
कोई गेंद
कि जब तब
जकीसे चाहा उछाल दी
या कोई चादर
कि जब जहाँ जैसे-तैसे
ओढ़-बिछा ली ?
चुप क्यों हो !
कहो न, क्या हूँ मैं
तुम्हारे लिए ??"8
दरअसल एक स्त्री घर,परिवार और समाज में निरंतर अपना अस्तित्व तलाशती रहती है।इसे स्त्री होने की विडम्बना कहें या अभिशाप उसे समाज में कहीं भी अपना अस्तित्व नज़र नहीं आता।'अपने घर की तलाश में' कविता के माध्यम से कवयित्री ने एक स्त्री के इसी दर्द को रेखांकित किया है--
"अंदर समेटे पूरा का पूरा घर
मैं बिखरी हूँ पूरे घर में
पर यह घर मेरा नहीं है
घर के बाहर लगी नेमप्लेट मेरे पति की है
मैं धरती नहीं पूरी धरती होती है मेरे अंदर
पर यह नहीं होती मेरे लिए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुठ्ठी भर सवाल लिए मैं
दौड़ती-हांफती-भागती
तलाश रही हूँ सदियों से 
निरंतर अपनी ज़मीन अपना घर
अपने होने का अर्थ !"9
तमाम बंदिशों और वर्जनाओं के बावजूद एक स्त्री चुपचाप मशीन की तरह खटती रहती है।स्त्री भले ही खुश न हों पर घर परिवार के सभी सदस्यों की खुशी के लिए झोंक देती है
अपनी खुशी।'पहाड़ी स्त्री' कविता का यह दृश्य दृष्टव्य है--
"पहाड़ी स्त्री
अभी अभी जाएगी बाज़ार
और बेचकर सारी लकड़ियाँ
बुझाएगी घरभर के पेट की आग
चादर में बच्चे को पीठ पर लटकाए
धान रोपती पहाड़ी स्त्री
रोप रही है अपना पहाड़-से दुख
सुख की एक लहलहाती फ़सल के लिए।"10
'ढेपचा के बाबू' कविता के माध्यम से यह बताया गया है कि पति के बाहर कमाने चले जाने के बाद घर में अकेली स्त्री को
मनचलों द्वारा बुरी नज़र से देखा जाता है।आज भी महिलाएँ अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित नज़र आती हैं।चिता का कारण है पुरुषों का कलुषित चरित्र।कुछ अनहोनी घटनाएँ घट जाने पर आज भी दोषी ठहराई जाती हैं तो केवल स्त्रियाँ। जमाने भर की तोहमत, लानत और बेवफ़ाई के बावजूद स्त्री ही है जो पुरुषों के सारे अपराधों के लिए क्षमा कर देती है और एकमेव समर्पण दर्शाती है अपने पति के प्रति।कविता की पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"गांव-घर का हाल जानते ही हो
जिसका मरद साथ नहीं होता
उसे कैसे-कैसे सताते हैं
गोतिया भाय आस पड़ोस के लोग।"
"वह जो तुम्हारे साथ आता-जाता था
ईंट भट्ठे वाला
अभी भी आ जाता है अनचाहे
करता है तुम्हें लेकर भद्दा मज़ाक
उसकी नियत कुछ ठीक नहीं लगती मुझे।"
"इतनी दुख तकलीफ़ काटी
तोड़ा नहीं तुम्हारा विश्वास
तुम्हारी याद में भूली नहीं खोंसना रोज़
खोपा में कपूरमुली के फूल।"11
कवयित्री पुरुषों की स्याह मानसिकता और बदनीयत को अपनी कविता 'मैं वो नहीं हूँ जो तुम समझते हो' में ज़ोरदार जवाब देती हैं।वे इस कविता के माध्यम से दैहिक आकर्षण से उपजे दिखावे के प्रेम और सहानुभूति का पर्दाफाश करती है।काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"मैं जानती हूँ कि तुम क्या सोच रहे हो मेरे बारे में
वही जो एक पुरूष एक स्त्री के बारे में सोचता है
अभी-अभी जब मैं तुमसे बतिया रही हूँ
संभव है मेरी बातों में
महसूसते देह-गंध रोमांचित हो रहे हो तुम।"
"अनचाहे जब कर रहे होते हो मदद
दे रहे होते हो बिन माँगी सलाह 
मैं समझ रही होती हूँ तुम्हारी अनबोली मंशा।"12
कहते है स्त्रियाँ अपने लिए तारीफ़ सुनना बहुत पसंद करती है।पुरुषों ने स्त्रियों की प्रशंसा सुनने की चाह में छिपे मनोविज्ञान को भलीभांति समझकर ख़ूब भुनाया है।अपनी 'सुगिया' शीर्षक कविता में कवयित्री यह स्पष्ट की है कि पुरुषों द्वारा स्त्री के लिए किए जाने वाला प्रशंसा आंतरिक न होकर मांसल केंद्रित होता है।जो की उसकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा होता है।काव्य पंक्तियाँ प्रस्तुत है--
"तुम्हारे होठ सुग्गा जैसे हैं 
तुम्हारी बड़ी-बड़ी आँखें
बड़ी खूबसूरत है सुगिया
बिलकुल हिरणी के माफ़िक।"
"सुबह से शाम तक
दिनभर मरती खटती सुगिया
सोचती है अक़्सर--
यहाँ हर पाँचवां आदमी उससे
उसकी देह की भाषा में क्यों बतियाता है।"13
इसी तरह इस काव्यसंग्रह की हर पाँचवी-छठवीं कविता स्त्री
विमर्श पर लिखी गई है।पुतुल जी कविता के माध्यम से स्त्रियों के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करती हुई लगती है।
2.आदिवासी विमर्श की चिन्तनधारा :--- निर्मला पुतुल जी की इस काव्यसंग्रह में संकलित कविताओं में आदिवासी विमर्श के अंतर्गत आदिवासियों की मूलभूत समस्याओं के चित्रण के साथ-साथ विकास के नाम पर स्वार्थी तत्वों के द्वारा हो रहे शोषण का जीवंत चित्रण भी मिलता है।कविता के बहाने कवयित्री ने आदिवासियों की पीड़ा और उसके मूल कारणों को यथावत चित्रित करती हैं।आदिवासी जन-जीवन का जो दुख दर्द उनकी कविताओं में है,वह केवल आँखों देखी नहीं बल्कि स्व-अनुभूत दुखदर्द है।'बाहामुनी' कविता में जहाँ एक ओर आदिवासी स्त्री के निश्छल रूल को चित्रित करती है तो दूसरी ओर उसके जीवन के विडम्बनाओं को भी उकेरती है।विडम्बना भी ऐसी कि मेहनत के बाद भी भरपेट खाना नसीब नहीं हो पाता ।काव्य पंक्तियां देखिए---
"इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते
कितनी सीधी हो बाहामुनी
कितनी भोली हो तुम
कि जहाँ तक जाते है तुम्हारी नज़र
वहीं तक समझती हो अपनी दुनियां।"
"तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हजारों
पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट।"14
'आदिवासी लड़कियों के बारे में' कविता के माध्यम से ईर्ष्या, राग-द्वेष भावों से अनभिज्ञ भोली-भाली आदिवासी लड़कियों का सुंदर चित्र उकेरी है--
"ऊपर से काली
भीतर से अपने चमकते दांतों 
की तरह शांत धवल होती हैं वे।"
जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ
जब नाचती हैं कतारबद्ध
मांदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसंत।"15
'चुड़का सोरेन' कविता सहीं मायने में आदिवासी अस्मिता को
बचाने के लिए ख़तरों से आगाह करती,सचेत करती कविता है।कविता के माध्यम से चुड़का सोरेन के बहाने समूचे आदिवासी पुरूष जाति को हड़िया (शराब) पीने की बुरी लत से बचने के लिए कहती है।दरअसल शराब पीने की लत वह कमज़ोरी है जिससे व्यक्ति अपना घर-द्वार,इज्ज़त-मान सब कुछ दांव पर लगा देता है।उनकी इसी कमज़ोरी को स्वार्थी ताकतें हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं।काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं--
"तुम्हारे पिता ने कितनी शराब पी यह तो मैं नहीं जानती
पर शराब उसे पी गई यह जानता है सारा गाँव
इससे बचो चुड़का सोरेन !
बचाओ इसमें डूबने से अपनी बस्तियों को
देखो तुम्हारे ही आँगन में बैठ
तुम्हारे हाथों बना हड़िया तुम्हें पिलाकर
कोई कर रहा है तुम्हारी बहनों से ठिठोली
बीड़ी सुलगाने के बहाने बार-बार उठकर रसोई में जाने
उस आदमी की मंशा पहचानों चुड़का सोरेन।"16
'संथाल परगना' कविता के माध्यम से संथाल परगना की
भौगोलिक, सांस्कृतिक पहचान मिटती जा रही है,इस पर गहरी चिंता व्यक्त की गई है।जहाँ एक ओर बाज़ारवाद के गिरफ्त में इनके प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट हो रहे हैं, पेड़ काटे जा रहे हैं,हवा प्रदूषित होने लगी है,नदियाँ अपवित्र होने लगी है,पहाड़ वीरान होने लगे हैं तो दूसरी ओर इनकी वेशभूषा, खान-पान,रहन-सहन,भाषा-बोली,नाच-गान, तीर-धनुष,मांदल जैसे संस्कृतिगत पहचान ख़त्म होते जा रहे हैं।काव्य पंक्तियाँ दर्शनीय है--
"संथाल परगना 
अब नहीं रह गया संथाल परगना
बहुत कम बचे रह गए हैं
अपनी भाषा और वेषभूषा में यहाँ के लोग।"
"बाज़ार की तरफ़ भागते
सब कुछ गड्ड मड्ड हो गया है इन दिनों यहां
उखड़ गए हैं बड़े-बड़े पेड़
और कंक्रीट के पसरते जंगल में 
खो गई है इसकी पहचान।"17
कवयित्री ने अपनी अलग-अलग कविताओं के माध्यम से 
आदिवासियों में होती ठण्डी दिनचर्या के लिए शहरी अपसंस्कृति को जिम्मेदार मानती है।साथ ही अपने आदिवासी भाई-बहनों से दिखावे वाली शहरी संस्कृति से बचने की गुहार लगाती है।उनकी कविता 'मेरे बिना मेरा घर' ; 'मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में' ; 'आओ मिलकर बचाएँ' आदि में शहरी संस्कृति के दुष्प्रभावों पर चिंता प्रगट की है।काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"चूहों की बिलों ली और संकेत करता बताता है
कि किस तरह अंदर ही अंदर कुतर रहे हैं
कुछ शहरी चूहे
हमारे घरेलू रिश्तों की बुनियाद।"18
"वे घृणा करते है हमसे
हमारे कालेपन से
मज़ाक उड़ाते है हमारी भाषा का
उनका तर्क है कि
सभ्य होने के लिए ज़रूरी है उनकी भाषा सीखना
उनकी तरह बोलना-बतियाना
उठना-बैठना
ज़रूरी है सभ्य होने के लिए उनकी तरह पहनना-ओढ़ना।19
"अपनी बस्तियों को 
नंगी होने से 
शहर की आबोहवा से बचाएँ उसे
ठंडी होती दिनचर्या में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन
भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी।20
3.पर्यावरणीय विमर्श की चिन्तनधारा :-- एक सजग रचनाकार अपने आसपास के भौगोलिक परिवेश से अछूता नहीं रह सकता।साहित्यकार प्रायः प्रकृति प्रेमी होते हैं और यह स्वाभाविक है कि उनकी रचनाओं में प्रकृति और पर्यावरण कभी सायास तो कभी अनायास आ ही जाते हैं।कवयित्री पुतुल जी कविताओं में प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण न होकर उसके नैसर्गिक स्वरूप शहरी हस्तक्षेप की कारण हो रहे बदलावों की चिंता है।विकास के नाम पर बढ़ते औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण के कारण जल,जंगल और जमीन आदि प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता पूर्वक दोहन किया जा रहा है।आज आदिवासियों के प्राकृतिक आवासों पर शहरीकरण के निशान(दंश) देखे जा सकते हैं।'बाहामुनी' कविता की ये पंक्तियां दर्शनीय है--
"जिन घरों के लिए बनाती हो झाड़ू
उन्हीं से आते हैं कचरे तुम्हारी बस्तियों में।"-21
विकास के रथ पर सवार स्वार्थी मनुष्य अपने अनधिकृत हस्तक्षेप से धरती की प्राकृतिक संतुलन बिगड़ डाला है।इसी बात की चिंता दिखाई पड़ती है 'बूढ़ी पृथ्वी का दुख' कविता में--
"क्या तुमने कभी सुना है
सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से 
पेड़ों की चीत्कार ?
सुना है कभी
रात के सन्नाटे में अँधेरे से मुँह ढाँप
किस कदर रोती हैं नदियाँ ?
थोड़ा सा वक्त चुराकर बतियाया है कभी
कभी शिकायत न करने वाली
गुमसुम बूढ़ी पृथ्वी से उसका दुख ?
अगर नहीं तो क्षमा करना !
मुझे तुम्हारे आदमी होने पर संदेह है !!22
'उतनी दूर मत ब्याहना बाबा' कविता के माध्यम से हमारे जीवन के लिए पेंड़ कितना ज़रूरी है,इसका संकेत करती हुई लिखती है--
"और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाए।"23
मानव द्वारा उत्पन्न तमाम प्राकृतिक संकटों के बाद भी जहाँ आदिवासी रहते हैं उस परिवेश में हवा में ताज़गी, नदियों में निर्मलता, मिट्टी में सोंधापन, पहाड़ों में शांति आज भी विद्यमान हैं।कवयित्री प्रकृति प्रदत्त इन उपादानों को समय रहते उसके मूल स्वरूप में बचाने की गुहार लगाती है।उनकी कविता'आओ मिलकर बचाएँ' की पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"जंगल की ताज़ा हवा
नदियों की निर्मलता
पहाड़ों का मौन
मिट्टी का सोंधापन
फ़सलों की लहलहाहट
आओ मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा है,अब भी हमारे पास।"24
निर्मला पुतुल जी के इस काव्यसंग्रह में संकलित कविताएँ जहाँ एक ओर संकटों के लिए चिंता व्यक्त करती है तो दूसरी ओर उन संकटों के लिए जिम्मेदार लोगों को चुनौती भी देती है।कविताओं के मूल में खूबसूरत आदिवासी संस्कृति और प्रकृति को बचाए रखने की अपील है।संग्रह की कविताएं अत्यंत पठनीय ,प्रशंसनीय और चिंतनीय है।
कविता संग्रह -- 'नगाड़े की तरह बजते शब्द'
      कवयित्री -- निर्मला पुतुल    
      प्रकाशक -- भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली 110003
           मूल्य  -- 40 रुपए ; पृष्ठ -- 95 
प्रकाशन वर्ष  --  2005 दूसरा संस्करण

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची :--
  1. पुतुल, निर्मला,नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, सामने कव्हर पृष्ठ
  2. वही,सामने कव्हर पृष्ठ
  3. पुतुल, निर्मला,नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली,क्या तुम जानते हो ; पृ. सं.-7,8
  4. वही, आदिवासी स्त्रियाँ ; पृ. सं.-11
  5. वही, बिटिया मुर्मू के लिए ; पृ. सं.-14
  6. वही,चुड़का सोरेन से  ; पृ. सं.-21
  7. वही, कुछ मत कहो सरोजनी किस्कू ; पृ. सं.-24
  8. वही, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए ; पृ. सं.-28,29
  9. वही, अपने घर की तलाश में ; पृ. सं.-30
  10. वही, पहाड़ी स्त्री ; पृ. सं.-36
  11. वही, ढेपचा के बाबू ; पृ. सं.-41,42,45
  12. वही, मैं वो नहीं जो तुम समझते हो ; पृ. सं.-55
  13. वही, सुगिया ; पृ. सं.-80,81
  14. वही, बाहामुनी ; पृ. सं.-12
  15. वही, आदिवासी लड़कियों के बारे में  ; पृ. सं.-17
  16. वही,चुड़का सोरेन से  ; पृ. सं.-19
  17. वही,संथाल परगना  ; पृ. सं.-26
  18. वही, मेरे बिना घर ; पृ. सं.-69
  19. वही, मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में ; पृ. सं.-72,73
  20. वही,आओ मिलकर बचाएँ  ; पृ. सं.-76
  21. वही, बाहामुनी ; पृ. सं.-12
  22. वही, बूढ़ी पृथ्वी का दुख ; पृ. सं.-31,32
  23. वही,उतनी दूर मत ब्याहना बाबा  ; पृ. सं.-50
  24. वही, आओ मिलकर बचाएँ ; पृ. सं.-77              --- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र,सहायक प्राध्यापक, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कवर्धा,छत्तीसगढ़ मो.9755852479

Tuesday 18 August 2020

तोड़े हुए रंग विरंगे फूल

तोड़े हुए रंग-विरंगे फूल 18.08.2020
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टीप-टीप बरसता पानी
छतरी ओढ़े
सुबह-सुबह चहलकदमी करते
घर से दूर सड़कों तक जा निकला
देखा--
सड़क के किनारे
लगे हैं फूलदार पौधे कई
पौधों पर निकली हैं कलियाँ कई
मग़र कहीं भी
दूर-दूर तक पौधों पर 
खिले हुए फूल एक भी नहीं
सहसा नजरें गई
नहाए न धोए
फूल चुन रहे पौधों से 
महिला-पुरुष कई-कई
वही जो कहलाते आस्तिक जन
रखे हुए हैं झिल्ली में 
तोड़े हुए रंग-विरंगे फूल 
देखा मैंने--
कलियाँ थी सहमी-सहमी
पौधे भी थे सहमे-सहमे
याद हो आया तत्क्षण मुझे
अज्ञेय की कविता
"सम्राज्ञी का नैवेद्य दान''
फूलों को डाली से न विलगाना
महाबुद्ध के समक्ष
सम्राज्ञी का रीते हाथ आना
सोचा फिर--
मैले,अपवित्र हाथों से अर्पित
तोड़े हुए निस्तेज फूलों से
भला कैसे प्रसन्न होते होंगे
अक्षर-अखण्ड देव ! प्रभु !!

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

Monday 17 August 2020

तुममें कुछ तो बात रही होगी राहत !

तुममें कुछ तो बात रही होगी राहत ! 18.08.2020
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वह जो चला गया
मेरी नज़रों में  एक शायर ही तो था
उनकी शायरी,गज़लें और नज़्में
अनायास उतर जाता था
मेरे मन के भीतरी छोर तक

उसने कभी ग़द्दारी नहीं की
उसने कभी किसी की अस्मत नहीं लूटी
वह हत्यारा भी तो नहीं था

उसने जो भी देखा-महसूसा
बस लफ़्ज़ों में पिरोता रहा

मैंने उस अज़ीम शायर के इंतकाल पर
चंद शब्दों से
बस श्रद्धांजलि ही तो दी थी

उनके प्रति प्रगट मेरे भावभीनी शब्द
कुछ लोगों को जाने क्यूँ
चुभने लगे थे शूल की तरह
मेरी भावनाओं में राष्ट्रद्रोह की गंध-सी
आने लगी थी उन्हें
उन्हें मेरे शब्दों के अर्थ
धर्म,जाति और राष्ट्र के ख़िलाफ़ लगने लगे

मुझे ग़लत साबित करने के लिए
वे गढ़ने लगे थे कई-कई तर्क
मुझे गुनाहगार मान
लिखने लगे थे धिक्कार भरे शब्द
कुछ तो लामबंद होकर ट्रोलिंग करने पर हो गए थे आमादा

मेरे देश के 'दर्शन' में
पाप-पुण्य से परे होती है आत्मा
कहते हैं प्राण निकल जाने के बाद
निर्दोष हो जाता है मृत शरीर
फिर
राग-द्वेष से परे निर्दोष,पवित्र
मृतात्मा की श्रद्धांजलि पर
इतना चिल्लम चों आखिर क्यों..?

राहत तुम इस दुनियाँ से तो चले गए
पर जाते-जाते तुमने
अपने पसंद करने वालों
और
नापसंद करने वालों को आहत कर गए

तुममें कुछ तो बात रही होगी राहत !

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

Saturday 8 August 2020

आस्तिक और नास्तिक

आस्तिक और नास्तिक - 6.08.2020
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नदी मझधार में
बहते जा रहा था एक आदमी
लगभग डूबते हुए
बड़ी मुश्किल से
चिल्ला पाया था एक बार-'बचाओ'

नदी किनारे 
एक सच्चा आस्तिक
जिसे था अपने ईश्वर पर अटूट विश्वास
डूबते हुए आदमी के लिए
हाथ जोड़कर-आँख बंदकर
पारंपरिक प्रार्थना की मुद्रा में
निवेदन करते हुए कहा--
"हे सर्वज्ञाता,सर्वशक्तिमान
सर्वदृष्टा, सर्व विराजमान 
हे कृपालु ईश्वर !
इस असहाय डूबते हुए
आदमी की रक्षा करें।"

नदी के दूसरे किनारे पर
खड़ा था एक नास्तिक
जिन्हें ख़ुद पर था भरोसा
जीवन मूल्यों पर था अटूट विश्वास 
कर्मकांड नहीं करता था
पर था कर्मनिष्ठ

जो आस्तिकों द्वारा हमेशा
हिक़ारत भरी नज़रों से देखा जाता था
जो शंकास्पद और उपेक्षित नज़रों से था घायल

हाँ वही बिलकुल वही
डूबते आदमी को देखते ही
नदी में लगा दिया था छलांग

खींचते मझधार से
ले आया नदी किनारे
बचा ली थी उसकी जान

बेहोश आदमी के इर्दगिर्द
आस्तिकों की लग गई थी भींड़
कहे जा रहे थे सभी--
ईश्वर सबके लिए है
ईश्वर कृपालु है
देखो ! ईश्वर ने 
डूबते हुए आदमी की जान बचा ली है

होश आने पर
उसी समय
डूबते हुए आदमी ने
उस नास्तिक को
बड़े कृतज्ञ होते हुए कहा --
"भैया बहुत-बहुत धन्यवाद
आप ही मेरे भगवान हो।"

पता नहीं क्यों..?
क्या हुआ..? 
पर...
नाँक-मुँह सिकोड़ने लगे थे सभी आस्तिक-जन।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

वह अनपढ़ लड़की

वह अनपढ़ लड़की - 30.07.20
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गाँव के बाज़ार में
गाँव की एक अनपढ़ लड़की
मनिहारी के दुकान से
माँगती है एक चुक्क लाल फीता

लड़की को लाल फीता
दिखाते हुए
कहता है मनिहारी--
ये लो डेढ़ का है एक

लड़की फीता देखते हुए
कहती है--
''हाय कितना मंहगा है यह फीता
देना है तो बताओ
डेढ़ में नहीं ढाई में लूँगी।"

मनिहार बड़ा बेमन-सा
कहता है--
ठीक है ला ढाई ही दे दे

अनपढ़ लड़की
दो रुपए आठ आने देकर
चली जाती है खुशी-खुशी

फीता खरीदने के उमंग में
उछलती-कूदती
उसके चेहरे पर चमक ऐसी कि
मनिहार को ठग के जा रही हो जैसे

मुझे आज तक नहीं पता कि
डेढ़ रुपए का मतलब
आखिर कितना समझती थी
वह अनपढ़ लड़की।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

कहाँ है विकास!

कहाँ है विकास..? 29.07.2020
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उनके हिस्से की
धरती
आकाश
जंगल 
हवा
पानी
विकास के शर्त पर ले लिए गए

उनके हिस्से में अब
न धरती है न आकाश
न जंगल न हवा-पानी

शर्त के मुताबिक़
आप पूछेंगे
कहाँ है विकास..?

मैं इतना ही कहूँगा--
कहीं दिखे तो बता देना।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

सुनियोजित भाग्य

सुनियोजित भाग्य -29.07.2020
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उनके भाग्य में
दाने-दाने पर लिखा होता है 
खाने वालों का नाम

इनके भाग्य में
हरेक गोली पर लिखा होता है
खाने वालों का नाम

आपके भाग्य में
अनाज के दाने हों
या बंदूक की गोली
मिलेगा वही--
जो 
'सुनियोजित भाग्य' में लिखा जाएगा।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479