Friday 2 October 2020

पिताजी की कमीज़

पिताजी की कमीज़ -02.10.2020
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मैं बचपन में कई बार
अपने पिता की कमीज पहनकर
आइने के सामने खड़ा हो जाता था

सर से पांव तक 
लगभग पूरा बदन ढंक जाता था
मैं समा जाता था  
लगभग पूरा-पूरा पिता की कमीज़ में

अब मैं ख़ुद पिता बन गया हूँ
अब अक़्सर मेरे बच्चे पहनने लगे हैं मेरी कमीज़

जब मैं गठरी की तरह सिमटे
अपने पिताजी को देखता हूँ 
तब बिलकुल बच्चे-से लगते हैं मेरे पिता

मैंने पढ़ी है प्रेमचंद की 'बूढ़ी काकी' कहानी
कहानी की वह पहली पंक्ति--
"बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है।"

मैंने अपने पिता के बचपन को नहीं देखा है
पर पिताजी के बुढ़ापे में अक़्सर
देख लेता हूँ उनका रेंगता,तुतलाता
बात-बात पर चिढ़ता
किसी बात पर हँसता, गुस्साता उनका वह अनदेखा बचपन

हाँ,मैंने प्रेमचंद की उस पंक्ति को 
प्रत्यक्ष होते देखी है अपने पिता में।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

मानवतावाद बनाम विस्तारवाद

मानवतावाद बनाम विस्तारवाद 
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            1.
प्रेम में थोड़ा और प्रेम 
जोड़ देने का समय है
करुणा में थोड़ी और करुणा
भर देने का समय है

हम नाक-नक्शे से मनुष्य तो हैं
मग़र थोड़ा और मनुष्य होने की जरूरत है

अपने इस सुंदर से नाक-नक्शे में
प्रेम,करुणा से आप्लावित
मनुष्यता की अब सबसे ज़्यादा ज़रूरत है
          2.
चाहत है थोड़े और पैसे जोड़ लेने की
चाहत है थोड़ी और ज़मीन बढ़ा लेने की
चाहत है अपनी सीमाएं बढ़ा लेने की

अपने विस्तारवादी सोच से हमने
कमाए पैसे,बढ़ाई जमीनें और सीमाएं
साथ ही साथ हमारे भीतर
अपने आप बढ़ती रही ईर्ष्या
लालचें कई और हिमालय-सा हमारा अहम

अब विस्तारवाद के आगे
दिन ब दिन बौनी होती जा रही है हमारी मनुष्यता

मानवतावाद को ठेंगा दिखाते
हमारे सामने तनकर खड़ा है हमारा विस्तारवाद

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

जो होना था बहरे हुआ !

जो होना था वही हुआ !      01.10.2020
(हाथरस में हुए गैंगरेप की घटना के बाद)
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कैसे कहूँ जो नहीं होना चाहिए
वही हुआ तुम्हारे साथ..

तुम सभ्य समाज का हिस्सा नहीं थी
तुम्हारे साथ जो हुआ
वह तो होना ही था

तुम सुरक्षित नहीं रही तो क्या हुआ !
सांविधानिक बातें संविधान में सुरक्षित है अब भी

अक्सर काँटों की तरह चुभते रहते हैं
लोकतंत्र के लिए गढ़े गए
स्वतंत्रता, समानता, एकता और बंधुता जैसे सारे आदर्शात्मक शब्द

गरीब होना तो अभिशाप है इस देश में
और फिर तुम कुलीन भी नहीं दलित थी

सरेआम तुम्हारी अस्मत का लुट जाना
तुम्हें मौत के घाट उतार देना
ये कोई बड़ी घटना नहीं सामान्य बात है
तुम्हारे मरने का समाचार
टी वी चैनलों का टी आर पी  नहीं बढ़ा सकता

तुम कोई मंदिर या मस्ज़िद भी नहीं हो
तुम फ़िल्मी सितारे सुशांत सिंग भी नहीं हो
तुम कोई दलबदलू नेता भी नहीं जो अपनी पार्टी बदला हो
तुम कोई खूँखार अपराधी भी नहीं हो
तुम महज़ एक पीड़िता हो
तुम इस लायक कतई नहीं हो
कि तुम्हें समाचार की तरह दिखाया जा सके

धर्म और समाज के ठेकेदारों द्वारा
तुम्हारी नियति पहले ही गढ़ी जा चुकी थी
तथाकथित व्यवस्थादार घटना की लीपापोती में व्यस्त हैं
तुम भला कैसे बच सकती थी
बनी-बनाई,सोची-समझी नियति के उस दुष्चक्र से

तुम्हारे दुःख इतने भी बड़े नहीं 
कि तुम्हारी व्यथा सुन धरती फट जाए

तुम्हारे पक्ष में वकालत के लिए वकील भी कहाँ मिलेंगे..?
उन्हें सच को सच साबित करने भी नहीं आता
पैसे की ख़ुराक पर ही चलती है उनकी बुद्धि
वे सच को झूठ और झूठ को सच करने में होते हैं माहिर

दरअसल 'न्याय' तुम्हारे हिस्से की चीज़ ही नहीं
यह मैं कैसे कहूँ कि जो नहीं होना था वह हुआ
आख़िर तुम्हारे हिस्से जो होना था वही हुआ
हाँ यही सच है कि जो होना था वही हुआ ।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

बस घसीटते रहे......

बस घसीटते रहे.....
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लूटने वाले जी-भरके लूटते रहे।
हम भीतर ही भीतर घुटते रहे।1।

भले ही कहने को हम आदमी हैं
मग़र काँच की तरह टूटते रहे।2।

उन्हें जब पड़ी  हमारी जरूरत 
हम भीड़ बनकर  जुटते रहे।3।

उनकी सियासत की बिसात पर 
प्यादे की तरह हम पीटते रहे।4।

उम्र भर लोकतंत्र की तलाश में 
यहाँ से वहाँ बस घसीटते रहे।5।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

नाम के धरती पुत्र !

नाम के धरती पुत्र !  25.09.2020
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अरे नाम के धरती पुत्र !
तू बता धरती कहाँ है तेरे पास..?
अरे अभागा !
तेरी मेहनत और पसीने की कमाई सबको मिलती है
बस तुम्हे ही नहीं मिलती
तू खुद को धरती का बेटा मानता है
तू इस धरती का वारिस भी नहीं फिर बेटा कैसा..?

ठेकेदारों की निलामी में
बिचौलियों से भरे बाज़ार में
तुम्हारी फसलें नहीं बिकती
बल्कि सरेआम नीलाम होती है तुम्हारी मेहनत
और तेरी खून-पसीने की कमाई

राजस्व वसूली और कानूनी पचड़ों के तंग रास्तों में
ख़त्म हो जाती है तुम्हारी किंचित जमा पूँजी
ताउम्र कर्ज़ के पहाड़ में दबते-दबते
चकनाचूर हो जाते हैं तुम्हारे खूबसूरत सँजोए सपने

तुम बंज़र धरती पर लहलहाती फसलें तो उगा लेते हो
पर अपना बंज़र भाग्य क्यूँ नहीं सँवार पाते..?

तुम अपने कर्मठ हाथों से
खेतों पर लगातार हल चला लेते हो
अपने फ़ौलादी कंधों से
पत्थर तोड़कर पानी निकाल लेते हो
पर अपनी भूख की विकट समस्या को हल क्यूँ नहीं कर पाते..?

सदियों से तुम ठगे जाते रहे हो
तुम्हारी सरकारें अच्छे दिन के सपने दिखाकर
अपनी वोट की फसलें काट ले जाते हैं
अभावों के आँगन में तुम महज़ जिंदा तो रहते हो
पर कभी फलते-फूलते क्यों नहीं..?

तुमने इनके उनके सबके शासन को देखा है
तेरे हिस्से में आज तलक
झूठे आश्वासन और झुठी सहानुभूति ही मिलती रही है

दरअसल बिडम्बना है तेरे जीवन की
जिनके पैरों पर धूल के कण भी नहीं लगते
वही बनाते हैं तुम्हारी भलाई के लिए कानून

जिन्हें एलर्जी है धूप से
वही बैठकर एयर कंडीशनर कमरों में
तुम्हारे भाग्य के लिए गढ़ते हैं योजनाएं

आज़ादी से पहले भी तुम्हारे पूर्वजों ने
इज़ारेदारी,जमीदारी,रैयतवाड़ी और महालवाड़ी
जैसी अनेक व्यवस्थाएं देखी है
पर तमाम व्यवस्थाओं में कभी किसान नहीं दिखे

कर्ज़ के गुलाम तब भी थे और आज भी हो
देश की आज़ादी के बाद भी तुम आज़ाद नहीं हुए
बताओ ! तुम इस देश के हो या नहीं..?

कवि पंत को तुम्हारी आँखों में
स्वाभिमान तब भी नहीं दिखा था
वह मुझे अब भी नहीं दिख रहा
दारूण दीनता और कठिन दुखों से
तुम्हारा पुराना नाता रहा है
तुम अपने अधिकारों के लिए
कभी संगठित क्यों नहीं हो पाते..?

किसान नेता कहलाने वाले तुम्हारे नेतृत्वकर्ता
क्या सचमुच किसान होते हैं..?

सरकारें जब भी तुम्हारे हित कानून बनाती हैं
उनमें तुम्हारी आत्मनिर्भरता की बात होती है
तुम्हारी आय दोगुना करने की बात होती है
बिचौलियों से तुम्हारी मुक्ति की बात होती है

विपक्ष उसी कानून को किसान विरोधी बताकर
सदन में हंगामा खड़ा करता है
प्रस्तुत विधेयक का कागज़ फाड़ता है
किसानों के पक्ष में देशव्यापी आंदोलन की बात करता है

मग़र सच्चाई तो यह है कि
शतरंज खिलाड़ी की तरह ये राजनेता
राजनीति के बिसात पर
तुम्हें मोहरे बनाकर मनचाहा खेलते हैं
और हर बार तुम प्यादे की तरह पीटे जाते हो

अरे अभागा ! तेरे पास धरती का एक टुकड़ा भी नहीं है
अब तू ही बता तुम्हें कैसे कहूँ धरती-पुत्र..?

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479