बस घसीटते रहे.....
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लूटने वाले जी-भरके लूटते रहे।
हम भीतर ही भीतर घुटते रहे।1।
भले ही कहने को हम आदमी हैं
मग़र काँच की तरह टूटते रहे।2।
उन्हें जब पड़ी हमारी जरूरत
हम भीड़ बनकर जुटते रहे।3।
उनकी सियासत की बिसात पर
प्यादे की तरह हम पीटते रहे।4।
उम्र भर लोकतंत्र की तलाश में
यहाँ से वहाँ बस घसीटते रहे।5।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
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