Friday 2 October 2020

पिताजी की कमीज़

पिताजी की कमीज़ -02.10.2020
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मैं बचपन में कई बार
अपने पिता की कमीज पहनकर
आइने के सामने खड़ा हो जाता था

सर से पांव तक 
लगभग पूरा बदन ढंक जाता था
मैं समा जाता था  
लगभग पूरा-पूरा पिता की कमीज़ में

अब मैं ख़ुद पिता बन गया हूँ
अब अक़्सर मेरे बच्चे पहनने लगे हैं मेरी कमीज़

जब मैं गठरी की तरह सिमटे
अपने पिताजी को देखता हूँ 
तब बिलकुल बच्चे-से लगते हैं मेरे पिता

मैंने पढ़ी है प्रेमचंद की 'बूढ़ी काकी' कहानी
कहानी की वह पहली पंक्ति--
"बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है।"

मैंने अपने पिता के बचपन को नहीं देखा है
पर पिताजी के बुढ़ापे में अक़्सर
देख लेता हूँ उनका रेंगता,तुतलाता
बात-बात पर चिढ़ता
किसी बात पर हँसता, गुस्साता उनका वह अनदेखा बचपन

हाँ,मैंने प्रेमचंद की उस पंक्ति को 
प्रत्यक्ष होते देखी है अपने पिता में।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

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