Monday 18 November 2019

मेरी कविताएं









माँ की याद में....47(17.11.19)
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 1
सारा घर
घर के सारे कमरे
अंदर-बाहर सब
खुशबुओं से लिपटा रहता था
तुम्हारे जाने के बाद
बाग है वीरान-सा
खुशबू सब चली गई 
तुम खुशबू थी माँ ।
    2
आंगन के एक कोने पर
तुम चावल से कंकड़ निमारती
तुम्हारे पास ही बाबूजी
पुस्तक लिए कुछ पढ़ रहे होते थे

आंगन के उस कोने पर
बाबूजी आज भी पढ़ते हैं
तुम चली गई
सूपे में रखा है चावल

खाने में जब-जब कंकड़ आता है
तुम याद आती हो माँ ।
      3
तुम्हें सोने के जेवरों से बेहद प्यार था
मेरे सामने ही तुम्हारे देह से
सारे जेवर उतारे जा रहे थे
तुम चुप क्यों थी ?
मना क्यों नहीं की माँ ?
    4
भाई-बहनों में तीसरा हूँ
सबसे छोटा नहीं
फिर भी मुझे 
पूरे घर में 'छोटू' कहा जाता है
काश मैं बड़ा होता
पहले पैदा हुआ होता
तुम्हारा साथ मुझे ज्यादा मिला होता माँ ।
    5
तेरह साल बाद दशहरे में आया था गांव
इस बार भाइयों में कोई नहीं थे
अकेला ही था माँ के पास 

दशहरे की शाम 
पीढ़े पर खड़ाकर
दही का तिलक लगाकर
तूने उतारी थी मेरी आरती
विजय पर्व पर 
छुए थे मैंने तुम्हारे पांव
विजय का दी थी आशीर्वाद
और पाँच सौ के दो नोट

न तुम्हें पता था
न मुझे पता था
कि दशहरे के तीसरे दिन 
तुम चली जाओगी

तुम चली गई
पर विजय कामना और असीस रूप में
साथ रहती हो हमेशा माँ ।
    6
तुम्हारे मृत देह को
चूमा था कई बार
तुम निस्पंद थी

घर के पास 
बाड़ी के पीछे
खेत के मेढ़ पर
अग्नि दी गई थी तुम्हें

तुम राख हो चुकी थी
तीसरे दिन राख के ढेर से
तुम्हारी अस्थियों को बीना था
भीतर भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा था
बह रहे थे आँसू मेरे
विश्वास नहीं हो रहा था
कि तुम नहीं हो अब

विश्वास तो अब भी नहीं होता
याद कर उस दिन को
आँखे अब भी भर आती है

जब भी जाता हूँ घर
मेरे कदम ख़ुद ब ख़ुद
चल पड़ते हैं उस जगह
जहां तुम्हारी चिता बनाई गई थी
जहां अग्नि दी गई थी तुम्हें
वहां खड़ा होकर तुम्हें याद करना
तुम्हें महसूस करना अच्छा लगता है माँ ।
---- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      9755852479
  
पहले की तरह अब नहीं होता हमसे  -- 46(16.11.19)
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पहले की तरह अब नहीं होता हमसे
जमीन पर फिसलना,लड़खड़ाना,सो जाना
बार-बार गिरने के बाद फिर उठ जाना
बिना थके-बिना रुके अकारण दौड़ते रहना
वज़ह समझे बिना मुस्करा देना
अक्सर रो लेना और आँसूओं का आ जाना

फिसलते हैं तो संभल नहीं पाते अब
ज़मीन भी साथ नहीं देती 
गिरने के बाद उठ नहीं पाते
बस पड़े रह जाते हैं किसी सहारे की ताक में
रोजमर्रा की दौड़ में बुझे-बुझे, थके-थके
लगभग खो चुके हैं चेहरे पर मुस्कान का अस्तित्व
तकरीबन सूख से गए हैं आँसूओं के सारे स्रोत
मानवीय क्रियाओं से 
करीब-करीब बाहर हो चुके हैं रोने और मुस्कराने की क्रिया

तब मतलब के फेर में नहीं होते थे हम
किसी के बुलाने पर चले जाते थे
नहीं होते थे मन में कोई सवाल,कोई भय या आशंका 
तब होते थे बड़े ही निच्छल और निर्द्वंद्व 
होनी और अनहोनी से परे एकदम बेपरवाह

अब किसी न किसी मतलब में ही उठते हैं सारे कदम
अब तो कोई बुलाते भी नहीं हमें
लगभग दफ़न हो चुकी हैं सारी यादें
तमाम भय,आशंकाओं और सवालों से भरे मन में
अब प्रेम भरे इशारे भी नहीं होते

अब बेवज़ह किसी से मिलना
रूककर बातें करना,मुस्कराना या हँसना
पहले की तरह अब नहीं होता हमसे।
---- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
       9755852479













दिये जलते हैं   -- 45  (11.11.19)   
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दिये जलते हैं  
रिकार्ड बनते हैं

जो दीये के साथ चलते हैं
वो अँधेरे में पलते हैं

जो दीये के साथ चलते हैं
वो अभावों में जलते हैं

जो दीये के साथ चलते हैं
वो केवल हाथ मलते हैं

अँधेरे में पलते हैं
अभावों में जलते हैं
केवल हाथ मलते हैं
फिर भी जीवन भर
दीये के साथ चलते हैं...

दिये जलते हैं
रिकार्ड बनते हैं।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479




जिनके हिस्से में आती है भड़ास -  44 (10.11.19)
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पुलिस के मन में
ठूस-ठूसके भरी हुई थी
ख़ाकी वाली गरमी

खिसियानी बिल्ली-सी
भटक रही थी पुलिस

मौका पाते ही
नोंच-नोंचकर
निकाल डाली
अपनी सारी भड़ास

खंभा-सा वह आदमी
खड़ा रहा मौन
तुम्हें पता है
था वह कौन ?

वह था
अंत्योदय की पंक्ति में खड़ा
वह आख़िरी व्यक्ति
जिसके पास
विकास की योजनाएं
नहीं पहुँच पाती

जो हर पल
उम्मीदों में जिता है
लेकिन 
छला जाता है बार-बार

जिनके हिस्से में आती है
नेता,अफसर, पुलिस,
सरकारी बाबू
और 
ज़माने भर की भड़ास..।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      9755852479










न जाने कितने बार संयम तोड़ने के बाद
थोड़ा संयम बरतना सीखा है मैंने

इस थोड़े से के लिए
कितनी बार कसमें खाई
ख़ुद से कितने वादे किए
पर हर बार
तोड़े हैं वादे,तोड़ी है कसमें
झुँझलाकर कई बार दी हैं गालियां
धिक्कारा है और कोसा है बार-बार
डायरी में लिखी हैं प्रतिज्ञाएं कई-कई बार

बड़ी मुश्किल से
संयम के राह पर चलते हुए
दो दिन,चार दिन या आठ दिन हुए होंगे
फिर वही पतन,टूटन, हताशा
फिर वही अधूरी शपथ
न गिरने, दृढ़ होकर चलते रहने की वही पुरानी सौगंध
जिसे अब तक दुहराता रहा हूँ बार-बार

महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ी 
संतों,महात्माओं के प्रेरक प्रसंग सुनें 













हम सबके ख़्वाब हो तुम -- 43(08.11.19)
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तुम किसी के ख्वाब में थे
ख़्वाब बनकर पैदा हुए
ख़्वाब बनकर ख़्वाब के लिए जिते रहे
ख़्वाब सबके किए पूरे
फिर ख्वाबों की दुनियां में
तुम ख़्वाब हो गए
रहेगा हमेशा इंतिजार...
तुम आना फिर...
हम सबके ख़्वाब हो तुम।


ख़्वाब टूटने से पहले --42(8.11.19)
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कोई कह रहा था
फ़र्ज़ अदा किया है
कोई कह रहा था
स्वर्ग मिलेगा उसे
कोई कह रहा था
हुआ शहीद
कोई कह रहा था....

पर
जो एक ख़्वाब देखी थी बूढ़ी आँखों ने
टूटने से पहले
कई अनगिनत जवान आँखों में ख़्वाब बो गए।







तथाकथित है यह धर्म --
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मैं दर्शन का विद्यार्थी रहा हूँ
बहुत कुछ तार्किक होते हैं मेरे विचार 
लेकिन मुझे
आत्मा-परमात्मा
धर्म-ईश्वर आदि
आस्थापरक विचार
संवेदित या अभिभूत नहीं करते

इन विचारों के प्रति
मेरे मन में कोई भय नहीं
कोई सम्मान भी नहीं
न दुराग्रह भाव
न ही कोई पूर्वाग्रह
रहता हूँ तटस्थ अक़्सर
पर जब-जब
अंधविश्वास जनित विकार
निगल लेता है कोई जिती-जागती जिंदगी
तब-तब मेरी ख़ामोशी टूट जाती है
चीत्कार जाता है मेरा मौन
मेरे भीतर से
उठने लगता है प्रतिरोध का स्वर

मुझे गहरी आस्था है जीवन से
जीवन से जुड़े लोगों से
मेरी सारी आस्था 
अटूट जुड़ी होती है
जीवित देवताओं के संग
कर्मलीन मेहनतकश जनों की भावनाओं के साथ
टिकी होती है मेरी सम्पूर्ण आस्तिकता
दृश्यमान जगत से परे
किसी अदृश्य लोक पर आस्थावान नहीं हो पाता

तथाकथित आस्तिकों,आस्थावानों से
रहता हूँ दूर-दूर
जब भी वे मिलते हैं
बरसने लगते हैं धर्म-कर्म की बातों से
मुझ पर थोपने लगते हैं अपने विचार
नित्य पूजा-पाठ की देते हैं सुझाव

मैं उनकी नजरों में
समाज का जीव नहीं
वे कहने लगे हैं मुझे पापी,अधर्मी,नास्तिक
वे चाहते हैं-
उनके कहे अनुसार ही करूँ या चलूँ
उनके लिए धार्मिक होने का अर्थ
मंदिर जाऊँ,फूल चढाऊँ, अगरबत्ती जलाऊँ, 
नारियल तोड़ूँ,मूर्ति और पुजारी को टेकूँ माथा
जैसे उनमें हैं धर्मिकों के सारे लक्षण
मुझमें नहीं, सो मैं धार्मिक नहीं

भले हों अनैतिक, अपराधी, व्यभिचारी
पर हैं बड़े स्वांगधारी 
यानी दिखने में हैं पक्के भक्त
आप उनके खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोल सकते
बोले अगर तो--
आस्तिकों की नज़र में
दोषी ठहराए जाओगे तुम
सामाजिक बहिष्कार होगा तुम्हारा
धर्मभ्रष्ट,झूठे,घमंडी और दुरात्मा समझेंगे लोग

यह जो धर्म है तथाकथित है
बुरा न माने
पचाएं इस कटु-सत्य को
हो गए है धर्म के नए प्रतिमान,परिभाषा नई
निकम्मों का रोज़गार है धर्म
चंदा लेने का ज़रिया है धर्म
वेश्यावृत्ति ढकने के लिए पर्दा है धर्म
अय्याशी का सुरक्षित अड्डा है धर्म
ईश्वर के नाम पर महज़ छलावा है धर्म
दुनियां में फ़साद का जड़ है धर्म
अधर्मियों का पनाह है धर्म
शिकार के लिए बना एक जाल है धर्म
जहां में फैले आतंक का बीज है धर्म

धार्मिक हूँ इसलिए कि लोगों से प्रेम है मुझ
धार्मिक हूँ इसलिए कि 


उनका धर्म निभाने दो  --41  (5.11.19)
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उन्हें मंदिर जाना है जल्दी
जाने दो
अनुष्ठान का मुहूर्त है आज

उनके नमाज़ का वक्त हो गया
जाने दो उन्हें भी

आज कुछ मत बोलो उन्हें
बच्चे के लिए खिलौने कल लेगा
ऑफिस का काम कल देखेगा
बूढ़ी माँ का इलाज कल कराएगा
मजदूरों का भुगतान कल करेगा
सब कल...

आज मंदिर ही जाना है
आज अनुष्ठान का मुहूर्त है
काम का कोई मुहूर्त नहीं होता
काम कभी भी हो सकता है
काम अनुष्ठान नहीं

अब नमाज ही ज़रूरी है
नमाज़ अपने वक़्त में होता है
काम कभी भी हो सकता है
काम नमाज़ नहीं है

धर्म 'काम' से बहुत बड़ा होता है
आज कोई मत रोको उन्हें
बड़े धार्मिक हैं वे
आज उन्हें उनका धर्म निभाने दो।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
       9755852479


जन्म लेती है कविता- 40 (03.11.19)
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सूरज-सा चिरती निगाहें
संवेदनाओं से भरी दूरदर्शी निगाहें
अहर्निश हर पल
घूमती रहती है चारों ओर

दृश्यमान जगत के
दृश्य-भाव अनेक
सुंदर-कुरूप,अच्छे-बुरे,
अमीरी-गरीबी, और भी रंग सारे

भावों की आत्मा
शब्दों की देह धरकर
जन्म लेती है कविता।


अचानक  दीखे गौरैया
#####@@@##@#
ज़ाहिल था
गाँव की तमाम गालियां बकता था
गाँव के सारे खेल आते थे
घर और स्कूल दोनों जगह जमके पिटाई होती थी
नफरत थी पढ़ने-लिखने से
स्कूल का मायने विद्यालय नहीं था
स्कूल एक जगह था जहां जाते और आते थे बस
@@@#########


एक पिंजरा दे दो मुझे--39(02.11.19)
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एक दिन
सुबह-सुबह
डरा-सहमा 
छटपटाता 
चिचिआता हुआ एक पंछी
खुले आसमान से
मेरे घर के आंगन में आ गिरा

मैंने उसे सहलाया
पुचकारा-बहलाया
दवाई दी-खाना दिया
कुछेक दिन में चंगा हो गया वह

आसमान की ओर इशारा करते हुए
मैंने उसे छोड़ना चाहा
वह पंछी
अपने पंजों से कसकर
मुझे पकड़ लिया
सुनी मैंने
उसकी मूक याचना
कह रहा था वह--
'एक पिंजरा दे दो मुझे।'




इक निकम्मी चाह...       38   29.10.19
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मरने के किए अगर मोहलत मिलती
फ़ुरसत में दो पल मर लेता
मरने के हैं वास्ते दो--
एक है लालच थोड़े से सुकूँन के
दूसरी है चाहत हमदर्दों को देखने की

मेरे पास न मोहलत है
न ही मरने की फ़ुरसत
कितने निकम्मे होते होंगे वे
जिनके पास मरने के मोहलत और फ़ुरसत दोनों है..।
--नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479








माफ करना ऐ रहीम!      37    29.10.19
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पानी में घुल जाते हैं सब 
मीठे और खारे स्वाद 
रंगहीन होकर ख़ुद
बना देता है रंगीन सब कुछ 
जिंदगी की तपीश में
मिटता नहीं ख़ुद कभी 
भाप में बदल लेता है अपना शक़्ल 
आख़िर तक जिंदा रखता है अपना वजूद
बनकर बारिशों में बूँदे
या ज़मीन के तहों से छनकर 
लेता है अवतार हर बार नया-नया 
इतना-इतना तरल 
कि सारे बर्तनों में ढाल लेता है अपना आकार
पानी के लिए दम तोड़ देते हैं कई लोग
कई लोग पानी में दम तोड़ देते हैं
पानी निगल लेता है सब कुच्छ
जमीन,आबोहवा और उनमें फली-फूली संस्कृति
'रहिमन पानी राखिए' यह कहने से
बड़ा डर लगता है
माफ़ करना ऐ रहीम !
--नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479






सब जिएं
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शायद मौत इतनी तकलीफ़देह नहीं होती
जिंदगी जितनी देती है
व्यक्ति को यादगार बना देती है मौत
जिसे जिंदा रहने पर ख़ास तरज़ीह नहीं देते
मौत के बाद अक़्सर सताती है उनकी यादें




तुम नहीं तो सब कुछ अधूरा है माँ !  - 36 (25.10.19)
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माँ मैं गांव आया हूँ
दीवाली की छुट्टी में
जैसे आता था हर बरस
माँ तुम्हारी बरसी भी हो चुकी है
यह दूसरा साल है 
जब दिवाली तुम्हारे बिना होगी

तुम प्रतीक्षारत बैठी होती थी
मेरे आते ही तुम्हारी कमज़ोर आंखें चमक जाती थी
खिल जाता था तुम्हारा चेहरा
मेरे करीब बैठकर बातें करते-करते
अनायास मेरे पीठ
मेरे हाथ और सिर पर
फेरने लगती थी अपने हाथ
मेरे पूरे देह पर हाथ फेरकर
तुम मेरी सेहत जांच लेती थी
शुरूआती चंद बातों में ही
मेरी समस्याओं को भाँप लेती थी
तुम्हारे सवालों में 
मेरे भविष्य की चिंता समाई होती थी
तुम्हारी झिड़कियों में भी
अद्भुत लालित्य होता था
वैदिक मंत्र थे तुम्हारे सारे शब्द
तुम्हारी बद्दुआओं में भी आशीष होता था
तुम्हारी हँसी 
मेरी हँसी की प्रत्युत्तर-सी लगती थी

माँ तुम घर में नहीं हो
पर मुझमें हैं तुम्हारी जीवंत यादें
चारों ओर उदासी-सी पसरी हुई है 
घर में वो सारी चीजें अब भी हैं जो पहले थीं
घर से और घर की चीजों से लगाव अब भी है
पर 
कुछ कुछ कमी-सी
कुछ कुछ अधूरा-सा
लगता है सारा घर
जिधर भी मेरी नजरें जाती है
जिधर भी रखता हूँ अपने पाँव
रसोई-कमरे-आँगन-बाड़ी
सब खाली-खाली और अधूरे-अधूरे से लगते हैं
इस जहां में
तुम नहीं तो सब कुछ अधूरा है माँ !

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479


शांति के ओ पुजारी ! -35 (22.10.19)
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हम कैसे लोग हैं
कहते हैं---
हमें ये नहीं करना चाहिए
और वही करते हैं
वही करने के लिए सोचते हैं
आने वाली हमारी पीढियां भी
वही करने के लिए ख़्वाहिशमंद रहती है
जैसे नशा
जैसे झूठ
जैसे अश्लील विचार और सेक्स
जैसे ईर्ष्या-द्वेष
जैसे युद्ध और हत्याएं
ऐसे ही और कई-कई वर्जनाओं की चाह

हम नकार की संस्कृति में पैदा हुए हैं
हमें नकार सीखाया जाता है
हमारे संस्कार नकार में गढ़े गए हैं
हम उस तोते की तरह हैं
जो जाल में फंसा हुआ भी
कहता है जाल में नहीं फँसना चाहिए
हमारा ज्ञान, हमारी विद्या,हमारे सीख या तालीम
सब तोता रटंत है,थोथा है,खोखला है
सच को स्वीकार करना हमने नहीं सीखा
जितने शिक्षित हैं हम
हमारी कथनी और करनी के फ़ासले उतने अधिक हैं
हम पढ़े-लिखे तो हैं
पर कतई 
कबीर नहीं हो सकते

युद्धोन्माद से भरे हुए कौरवों के वंशज
युद्ध को समाधान मानते हैं
उन्हें लगता है
युद्ध से ही शांति मिलेगी
युद्ध करके अपनी सीमाओं का विस्तार चाहते हैं
उन्हें नहीं पता कि
युद्ध विस्तार-नाशक है
युद्ध सारा विस्तार शून्य कर देता है
युद्ध एक गर्भपात है
जिससे विकास के सारे भ्रूण स्खलित हो जाते हैं
समय बौना हो जाता है
इतिहास लँगड़ा हो जाता है
और भविष्य अँधा हो जाता है

अब
हास्यास्पद लगते हैं विश्व शान्ति के सारे संदेश
मजाक-सा लगता है
सत्य और अहिंसा को अस्त्र मान लेना
अब
नोबेल शांति का हकदार वही है
जो परमाणु बंम इस्तेमाल का माद्दा रखते हैं
अब
लगता है कई बार
धनबल और बाहुबल के इस विस्तार में
आत्मबल से भरे हुए उसी अवतार में
फिर आ जाओ इक बार
शांति के ओ पुजारी !

---- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      97558t2479




1.टूटना
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मुझे टूटने और टूटकर गिरने से कभी डर नहीं लगता
मुझे विश्वास है अपने वजूद पर
अगर टूट कर बिखर भी जाऊं
तो मिट्टी में दबे बीज की तरह एक दिन फिर अंकुरित हो जाऊंगा

वक़्त से मैंने पूछा- 34 (20.10.19)
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वक़्त से मैंने पूछा
क्या थोड़ी देर तुम रुकोगे ?
वक़्त ने मुस्कराया
और
प्रतिप्रश्न करते हुए
क्या तुम मेरे साथ चलोगे?
आगे बढ़ गया...।

वक़्त रुकने के लिए विवश नहीं था
चलना उसकी आदत में रहा है 
सो वह चला गया
तमाम विवशताओं से घिरा 
मैं चुपचाप बैठा रहा
वक्त के साथ नहीं चला
पर
वक्त के जाने के बाद
उसे हर पल कोसता रहा
बार-बार लांक्षन और दोषारोपण लगाता रहा
यह कि--
वक्त ने साथ नहीं दिया
वक्त ने धोखा दिया
वक्त बड़ा निष्ठुर था,पल भर रुक न सका

लंबे वक्त गुजर जाने के बाद
वक्त का वंशज कोई मिला
वक्त के लिए रोते देखकर
मुझे प्यार से समझाया
अरे भाई!
वक्त किसी का नहीं होता
फिर तुम्हारा कैसे होता?
तुम एक बार वक्त का होकर देखो
फिर हर वक्त तुम्हारा ही होगा।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

तुम नहीं होती तब-तब...(33)  13.10.19
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तुम नहीं होती तब-तब 
चादर के सलवटों में
बेतरतीब बिखरे कपड़ों में
उलटे पड़े जूतों में
केले और मूंगफली के छिलकों में
लिखे,अधलिखे और अलिखे 
मुड़े-तुड़े कागज़ के टुकडों में 
खुद बिखरा-बिखरा-सा पड़ा होता हूँ


मेरे सिरहाने के इर्द-गिर्द
एक के बाद एक 
डायरी,दैनिक अख़बारों,पत्रिकाओं,
कविताओं, गजलों
और कहानियों की कई पुस्तकें
इकट्ठी हो होकर
ढेर बन जाती हैं


अनगिनत भाव और विचार
एक साथ उपजते रहते हैं
चिंतन की प्रक्रिया लगातार
चलती रहती है
कई भाव 
उपजते हैं विकसते हैं और शब्द बन जाते हैं
कई भाव
उपजते हैं और विलोपित हो जाते हैं


विचारों में डूबे-डूबे
कभी हँस लेता हूँ
कभी रो लेता हूँ
कभी बातें करता हूँ
गाली या शाबाशी के शब्द
निकल जाते हैं कई बार
बस इसी तरह रोज
विचार और रात दोनों गहरे होते जाते हैं


सो जाता हूँ पर 
नींद में भी कई विचार पलते रहते हैं
अमूमन ऐसे ही कटते हैं मेरे दिन
जब-जब तुम नहीं होती....।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र


तुम्हारे जाने के बाद 
तुमसे जुड़ी
कुछ रोचक और धुंधली
तुम्हारी अनगिनत यादें
कभी भी कहीं भी
यकायक तैर जाती है
तुम बीमार हुए
इलाज चलता रहा
तुमसे मिलने
तुम्हारा हालचाल जानने
लोग आते-जाते रहे
कोई आँसू बहाकर 
कोई 'चू-चू' की ध्वनि निकालकर
दुख जताते और चले जाते

मुझे याद है
तुम्हारे जाने से
बस एक दो दिन पहले
तुम्हारे पेट और छाती पर हाथ फेर रहा था
मुझे तुम्हारे मौत करीब होने का आभास हो रहा था
तुम बोल नहीं पा रहे थे
केवल एकटक देख रहे थे 
तुम महसूस कर रहे थे
मेरे हाथ के स्पर्श से मेरे हिस्से का प्यार
और अपने करीब आती मौत की आहट
हम दोनों निःशब्द थे
बस बोलती हुई आँसूओं की धाराएं
बही जा रही थी
तुम्हारी आँखों की शून्यता देखकर
मेरे भीतर का प्रेम और भय
सघन से सघनतर होते जा रहा था
स्पष्ट देख पा रहा था
धीरे-धीरे 
तुम शून्य में उतरने लगे थे
शून्य में समा गए
और शून्य हो गए आख़िरकार

उम्र में बड़ा था
देखा है मैंने करीब से
तुम्हें शून्य से शून्य तक सफर करते हुए
उदय और अस्त होते हुए
कितना कठिन होता है वह वक्त
जब अपने किसी अजीज़ को
रोकना चाहते हैं पर रोक नहीं पाते







नहीं होता है प्यार...
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प्यार कभी थकता नहीं
थकते हैं लोग
थकता है शरीर
थकता है मन 
मगर 
लोगों के बिना
शरीर के बिना
मन के बिना
नहीं होता है प्यार..।


माँ सुन लेती है  32-(25.09.19)
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माँ सुन लेती है
मेरी सारी बातें
मेरे कहने से पहले ही
जब भी कुछ बातें कहता हूँ
वो कहती है ---
हाँ मुझे पता है बेटा
मैं समझ नहीं पाता
अबूझ वह तंत्र
वह सूत्र
जो मुझसे जुड़ा हुआ होता है

मेरी पीड़ा..
मेरी उदासी..
मेरी चाहत ..
मेरी खुशी..
मेरी सारी भावनाओं से..
आख़िर कैसे जुड़ी होती है माँ !

बस इतना ही जानता हूँ---
कि जितनी सरल होती है माँ
उतना ही कठीन होता है 
माँ का दर्शन समझना...।



मजदूर
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अस्थियों पर चिपका 
मेरा चर्म
व्यथा मेरी
इक मर्म।


आभास
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पास नहीं था
खास था
महज़ आभास था।


तथाकथित आस्तिकों के नजर में
नास्तिक हूँ मैं
इसलिए कि ...
सुबह ईश्वर का नाम लेते हुए
नहीं उठता
नहा धोकर
फूल नहीं चढ़ाता
अगरबत्ती नहीं जलाता
बस इन्हीं वाह्य पैमानों पर
उनकी नजरों में
खरा नहीं उतर पाता

क्या हुआ कि वह मन्दिर जाता है
क्या हुआ कि वह घण्टी बजाता है
क्या हुआ कि वह अज़ान लगाता है
क्या हुआ कि वह इबादत-सा होंठ हिलाता है
माला फेरता है
तिलक लगाता है
क्या हुआ कि वह रोजा या उपवास रखता है













मेरे गांव का बरगद  - 31(21.09.19 )
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मेरे गाँव का बरगद
आज भी 
वैसे ही खड़ा है
जैसे बचपन में देखा करता था
जब से मैंने होश संभाला है
अविचल
वैसे ही पाया है

हम बचपन में 
उनकी लटों से झूला करते थे
उनकी मोटी-मोटी शाखाओं
के इर्द-गिर्द छुप जाया करते थे
धूप हो या बारिश
उसके नीचे
घर-सा
निश्चिंत होते थे 

तब हम लड़खड़ाते थे
अब खड़े हो गए
तब हम बच्चे थे
अब बड़े हो गए
तब हम तुतलाते थे 
अब बोलना सीख गए
तब हम अबोध थे
अब समझदार हो गए
तब अवलंबित थे
अब आत्मनिर्भर हो गए
तब हम बेपरवाह थे
अब जिम्मेदार हो गए
तब पास-पास थे
अब कितने दूर-दूर हो गए

बरगद आज भी
वैसा ही खड़ा है 
अपनी आँखों से
न जाने कितनी पीढियां देखी होगी
न जाने कितने
उतार-चढ़ाव झेले होंगे
अपने भीतर
न जाने कितने
अनगिनत
यादों को सहेजे होंगे
पर अब
एकदम उदास-सा
अकेला खड़ा होता है
जैसे किसी के इंतिजार में हो...
अब कोई नहीं होते
उनके आसपास
न चिड़ियाँ, न बच्चे, न बूढ़े
न कलरव, न कोलाहल, न हँसी...

साल में एक या दो बार
जब जाता हूँ गाँव
बरगद के करीब से 
अज़नबी की तरह गुजर जाता हूँ
कभी-कभी लगता है
ये बड़प्पन
ये समझदारी
ये आत्मनिर्भरता
ये जिम्मेदारी
और ये दूरी...
आख़िर किस काम के
जो अपनों को अज़नबी बना दे
हम रोज़मर्रा में 
इतने मशगूल हो गए
कि हमारे पास इतना भी वक्त नहीं
कि मधुर यादों को 
याद कर सके ,जी सकें...

हमारे गाँव में
न जाने कितने लोग
हमारी मधुर यादों से जुड़े हुए
करते होंगे हमें याद...
हमारा इंतिजार...
पर 
हम 'काम' के मारे हैं
उनके अकेलेपन और उदासी के लिए
हमारे पास वक्त नहीं
तुम्हें हमारी यादों के सहारे
अकेले ही जीना होगा
हे! मेरे गाँव के बरगद...।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र


















प्रेमचंद के लिये...1
---------------------------
हे जन-जन के रचनाकार
युगद्रष्टा
कथासंम्राट
मुंशीजी
आज आपकी 138 वीं जयंती है
आपने दलितों, पीड़ितों, वंचितों 
गरीब किसानों और मजदूरों के
दुखदर्दों को हृदय में समेटा था
आततायी हुकूमत
निष्ठुर जमींदारों
भ्रष्ट प्रशासन और
पुलिस की ज़ुल्म ज्यादतियों को
शब्दों के शिकंजे में लपेटा था 
 कोढ़ से ग्रसित
जातिवादी
अन्धविश्वासी
विसंगतियों से भरे समाज को
जीभरके लताड़ा था
हे नवाबराय!
आप जैसे थे
वैसे ही दिखते थे
और वैसे ही लिखते थे
इसीलिए आप रचना संसार में
नवाबों के नवाब थे
आपके पास धन तो  नहीं थे
फिर भी धनपतराय थे
क्योंकि आप
उदातभावों के धनी थे
हे साहित्य के पुरोधा!
आज वक़्त आगे बढ़ गया है
जमाना बदल गया है
पर जिन विसंगतियों को
आपने तरेरा था
भ्रष्टाचार
नारी उत्पीड़न
जातिवाद आदि आदि
आज भी मुँह बाए खड़ी है
बुद्धिजीवी कलमकार
सत्ता के दास हैं
उनकी लेखनी बेबस है
हे गरीबों के पक्षकार!
महामना हृदय उदार
आज तुम बहुत याद आते हो
जब मजलूमों को
प्रेम करने वाले
चंद भी नहीं मिलते
तुम कहाँ हो प्रेमचंद जी !
तुम कहाँ हो ?
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)

ये भीड़तंत्र है-2
--------------------------
यहाँ मना है
बच्चों से प्यार करना
उसे पुचकारना
उसे हँसाना
बच्चों के साथ मिलकर
बच्चा हो जाना
न जाने कब,कौन, कहाँ ?
कोई शंकालु निर्दयी
कलुषित पापात्मा
आपको बच्चा चोर क़रार दे
पीट पीटकर हत्या के लिए आमादा हो जाए
या हत्या को अंजाम दे दे
आप बेमौत मारे जाए
भाई साहब !
ये लोकतंत्र नहीं
ये भीड़तंत्र है
उन्मादी भीड़ जब चाहे
गोमांस, बच्चा चोरी और
वर्जित प्रेम के नाम पर
संक्रमित हो जाती है
कानून अपने हाथ ले लेती है
संविधान के नियम और कायदे
सरेआम रौंद डालती है
महज़ अफ़वाह और शक के बिना पर
सारे फैसले ख़ुद ही ले लेती है
सोशल मीडिया का वायरल मैसेज
तथाकथित समाजसेवकों, धार्मिकों, देशभक्तों को
आक्रोशित कर एंटी सोशल बना देता है
इनके अमानवीय कृत्य
कितने नामों को बेनाम कर जाता है
दूसरे दिन मौत के सौदागरों पर
हम संपादकीय पढ़ते हैं
फ़िर....
अगली घटना तक मौन हो जाते हैं
यहाँ मना है
खुलेआम प्यार का इज़हार करना
मोहब्बत की बातें करना
क्योंकि
इस देश में
चोरी छिपे चुपके-चुपके
प्रेम करने का रिवाज़ है
ये अलग बात है सिवाय प्रेम के
खुलेआम सब कुछ स्वीकार है
आख़िर कब तक....?
हम यूं ही
वर्जनाओं, बंदिशों और प्रतिबंधों की संस्कृति को ढोते रहेंगे
आख़िर कब तक....?
बस यूं ही
लोकतंत्र में
भीड़तंत्र फ़ैसले लेते रहेंगे ।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)

हे मेरे प्यारे बादल ! -3
-------------------------
हे बादल !
महाकवि निराला ने
तुम्हें संबोधित करते हुए
अरे वर्ष के हर्ष !
सिंधु के अश्रु !
इन्द्र धनुर्धर !
हे विप्लव के वीर !
हे जीवन के पारावार !
जैसे संबोधनों से
महिमामंडित किया है
इस महिमामंडन के योग्य
बेशक तुम हो
कवि ने तुम्हें
'मेरे पागल बादल !'
भी कहा है
पर मेरी गुज़ारिश इतनी है
तुम पागल मत हो जाना
मूसलाधार मत बरसना
फट मत जाना
ज़रा संभल-संभलकर बरसना
मेरे देश के गांवों
और शहरों की दशा
तुम तो जानते हो
तुम बरसे नहीं कि
सड़कें नदियाँ बन जाती हैं
मैदान तालाब बन जाते हैं
लोग गोताखोर बन जाते हैं
झोपड़ियां तबाह हो जाती हैं
फसलें चौपट हो जाती हैं
मुद्दे पर
विपक्ष आरोप लगाता है
सरकार मौन साधे बैठे रहती है
प्रशासन राहत कार्य का नाटक खेलता है
तुम बरसकर चले जाते हो
लोग संकट में रह जाते हैं
जनता रोती रहती है
सरकार सोती रहती है
इसीलिए.....
हे बादल !
तुम जब भी बरसो
इतना भी न बरसो
ज़रा देखकर बरसो
ज़रा थमकर बरसो
ज़रा समझकर बरसो
ज़रा संभलकर बरसो
हे मेरे प्यारे बादल !
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)





आज मन बहुत उदास है.......4
----------------------------------------
संकट की घड़ी में पक्ष-विपक्ष एक हो गए सारे
जन-मन में बसते,ऐसे थे अटल दुलारे
तबियत अचानक हुई नासाज़ है
आज मन बहुत उदास है।
मरते दम तक हर मुश्किलों में जो अटल रहे
उनके अंतिम प्रयाण पर सबके दृग सजल हुए
असह्य दुख की इस बेला में भीगे-भीगे जज्बात हैं
आज मन बहुत उदास है।
अस्त हो गया विस्तृत नभ का देदीप्यमान वह तारा
जो था जन-जन का रहनुमा और अतिशय प्यारा
जाने के बाद भी लगते आसपास हैं
आज मन बहुत उदास है।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र) 

बच्चे की फ़िक्र-5
--------------------------
बच्चा सोया है
बेफिक्र
सपनों से परे
राग-द्वेष
विकारों से निर्लिप्त
फिर
हम ही
जगाते हैं
फ़िक्रवान बनाते हैं
ठूंसते हैं
सपने रंग-विरंगे
सिखाते हैं
दुनियादारी
फिर
हम ही कहते हैं
अब
बच्चा बड़ा हो गया है।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)


मेरे लिए शब्द..-6
-------------------------------------
मेरे लिए शब्द है
पका पकाया सुपाच्य अन्न
शब्दों की स्वादिष्ट खुराक पाकर
पेट नहीं
मन भरता है
आत्मा अघाती है
मेरे जिस्म के रगों में
रस-लोहू दौड़ने लगता है
हर दूसरे दिन
नई भूख
और
नए-नए शब्दों की नई तलाश
शिल्प के नए-नए मसाले
पकाने (रचने) के नए-नए अंदाज
कभी धीमे कभी तेज़
होती है भावनाओं की लौ
परिस्थितियों की आंच
शब्दों के दानों को
पका-पकाकर
और भी
स्वादिष्ट (खरा) बना देती है
इस तरह
बढ़ती ही जाती है
शब्दों की भूख
और
मेरे शब्दों की ख़ुराक...।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 14.11.18)


वो रास्ते..-7
----------------------------------------
वो रास्ते
तुम्हारे रास्तों से अलग है
वो और उसी तरह के लोग
चलते हैं उन रास्तों पर
तुम चलना नहीं चाहते
या
चलने से डरते हो
ऐसे रास्तों पर
बड़े ही खुरदुरे
ऊबड़-खाबड़
तीखे-उभरे
सख़्त
कहीं-कहीं पर
फ़िसलन भरे
काई जमे
एकदम महीन
चिकने तह वाले
कूड़ों से पटे
धुओं से भरे
गूंजते--
मच्छरों की धुनें
सुवरों की आवाजें
और-
भौंकते कुत्तों
गंधाते नालों से
गुजरते हैं वो रास्ते
तुम्हें नहीं पता
संघर्ष भरे
उन रास्तों में
विद्यमान होती है
देश के कोने-कोने तक फैलती
उनके
खून और पसीने की
मिश्रित महक
इन्हीं रास्तों से ही
निकलती है
श्रम की गङ्गा
सिरजते-विकसते
वो रास्ते
अलग है
तुम्हारे रास्तों से।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 14.11.18)

मेरे शब्द...-8
----------------------------------
मैं सैनिक नहीं
पर
सीमा पर डटे
जवानों की ओर से
देशभक्ति पर इठलाते
और दुश्मनों को ललकारते हैं
मेरे शब्द..
मैं समाज का ठेकेदार नहीं
पर
हर समाजसेवी के भावुक स्पर्श में
बहलाते-सहलाते
समर्पित भाव होते हैं
मेरे शब्द..
मैं हादसों का चश्मदीद नहीं
पर
लुटती, चीखती, कराहती
पीड़ित आत्मा के संग
हरक्षण
चीखते और कराहते हैं
मेरे शब्द..
मैं कृषक नहीं
पर
कर्मरत
हल चलाते
लहलहाते फ़सले देख हर्षाते
चौपट फ़सलों पर अश्रु बहाते
किसानों की
खुशी और ग़म के आँसू बन छलकते हैं
मेरे शब्द..
मैं मजदूर नहीं
पर
दिन-रात का फ़र्क भूल
ख़ून-पसीना बहाते
अभावों में जीते
श्रमरत मजदूरों की आह बन निकलते हैं
मेरे शब्द..
मैं कानून का पहरेदार नहीं
पर
देश को एकता के सूत्र में पिरोते
आतंकित जन-मन को भयमुक्त करते
राक्षसी ताक़तों के ख़िलाफ़ खड़े  होते हैं
मेरे शब्द..
मैं कवि हूँ
जब-जब जीवन की
विडंबनाओं
विवशताओं
अभावों और विसंगतियों को
अपने भीतर महसूसता हूँ
तब-तब अन्तर्मन के भावों को
समाज में परोसते हैं
मेरे शब्द..
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 16.11.18)

हे आत्मीय !  -9
---------------------
हे आत्मीय !
मैं चला जाऊँगा
एक दिन
हमेशा के लिए
क्या तुम याद करोगे ?
जैसे
तुम अपने लिए
आज मुझे याद करते हो।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 18.11.18)

चुने किसे?  -10
-------------------------
झण्डे अलग-अलग
रंग अलग-अलग
छाप अलग-अलग
चाहत एक
राहत एक
लालच एक
अल्फ़ाज अलग-अलग
राह अलग-अलग
लक्ष्य एक
सत्ता एक
वादे अनेक
चमचे अनेक
शोर अनेक
जालसाजी अनेक
बेबस जनता
आवाक जनता
भ्रमित जनता
आखिर चुने किसे?
भीतर से
सब एक
चेहरे अनेक ।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 20.11.18)

वह लड़की थी। -11
-------------------------------
जन्म से पहले
अस्तित्व के लिए
जूझती
अछूता-सी
घर-परिवार-समाज में
वजूद के लिए
लड़ती
धीर-उदार
सुनती
सहती
वसुधा-सी
सहमी-सहमी
स्निग्ध-कोमल
कांटों बीच
फूल-सी
चुभती
सिसकती
तितली-सी
नाज़ुक-कोमल
सपोलों को
सुलाने
नागों को
बहलाने
थिरकती
सुमधुर गाती
धनकुबेरों(खरीददारों)
के वास्ते
लक्ष्मी थी
उसके गात
सौगात थे
उसका
कोई मोल न था
वह अनमोल थी
युगों-युगों से
शापित
वह लड़की थी।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 20.11.18)

कैसे,कब बीती वह रात..!  -12
--------------------------------------
उस रात
नहीं थी
फूलों की सेज़
नहीं थे घर
थीं केवल दीवारें
खुला आसमान
खुले तारे
इन्हीं गवाहों बीच
मिले हम
खुले हम
बतियाए हम
एक-दूसरे में 
खो गए हम
एक-दूसरे के
हो गए हम
अजब थी वह रात
नहीं पता
कैसे,कब बीती
हमारी वह पहली रात..!
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 20.11.18)




मौत।  -12
--------------
एक सीमा रेखा इसलोक और परलोक की
शक़्ल मिटा देती आदमी की
बोटी-बोटी मांस के टुकडों में फैला देती
क्षण में निर्वाक कर देती हँसी-बोली-ठिठोली
रिश्तों को रौंदती
द्रुतगति
फिर से जरूर आने का वादा करती
अलविदा कहती
असमय और शीघ्र
बढ़ जाती है आगे
हम प्रतीक्षा नहीं करते
पर आती है जरूर
वादे की पक्की मौत।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 24.11.18)
_____________________________________________
हवा बदली।  -13
------------------------
हम बदले
हवा नहीं बदली
हम फिर बदले
हवा नहीं बदली
हम फिर-फिर बदले
हवा नहीं बदली
हम बदलते ही रहे
हवा नहीं बदली
आख़िर..
हवा बदली
हम नहीं बदल पाए
हम हवा...!
हवा हम...!
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 3.12.18)
________________________________________

हमारा जनप्रतिनिधि !    14
------------------------------
गुण्डे पैदा नहीं होते
हमारे द्वारा बनाए जाते हैं गुण्डे
हर गुण्डे की 
गुण्डे होने से पहले की पहली हरकत
हमारी शाबाशी और वाहवाही पाकर
रोपित हो जाता है
उसके मानस खेत पर 
गुंडेपन की बीज की तरह
देखकर बदस्तूर उनकी करतूतें
हमारा मूक दर्शक हो जाना
लहलहा देता है दुःसाहस के पन्नों को
अनमने अंजाने में
हमारे द्वारा बोया गया गुंडा-बीज
अंकुरण पाकर
विशाल वृक्ष बन लहलहाते हैं
अपनी आतंक छाया में
ढक  लेता है संसार
बेजुबानों की तरह हम 
उनके कुकृत्यों पर मौन साधे
हाथ बांधे
अपने साथ होते तक
सन्तुष्ट बैठे रहते हैं
कभी भी-कहीं भी
हजारों की भीड़ के बीच
अपने मंसूबों को अंजाम देता हुआ
सीना फुलाए निकल जाता है
बेबस लाचार हम खड़े रह जाते हैं
उसके जाने के बाद
रस्म अदायगी के लिए
पहुँचती है पुलिस
पूछती है-अनुत्तरित घिसे-पिटे प्रश्न
मुँह में ताले लगाए हम
चले जाते हैं अपने-अपने कामों में
उनके पक्ष में होते हैं--
पैसे-धमकी-गवाह-न्यायाधीश और फ़ैसले
हमारे हिस्से होते हैं--
बासी समाचार-दर्द-कानाफूसी-डर और सदमें
आख़िरकार
न्यायालय से निर्दोष साबित होकर
और अधिक आँखे दिखाता 
हाथ उठाता 
वसूली करता 
दहशत फैलाता
वह गुण्डा
बन जाता है हमारा भाग्य विधाता
हमारा जनप्रतिनिधि !


वो कौन है...?
-----------------------------/
1.
मिट्टी की मटियाली रंग लेकर
लाल पीले गुलाबी 
हरे नीले सफेद
रंगों को 
फूलों में पिरोता 
वो कौन है...?
मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू लेकर
 मोंगरा रजनीगंधा सेवती
केवड़ा गुलाब के फूलों में
खुशबुओं  को पिरोता 
वो कौन है....?
मिट्टी की मटियाली स्वाद लेकर 
मीठा तीखा कसैला स्वादों को
फलों में भर देता
वो कौन है...?

रहता हूँ अक़्सर ख़ामोश 15
----------------------------------------
रहता हूँ अक़्सर ख़ामोश
मेरी ख़ामोशी पर 
हँसते हैं लोग
उड़ाते हैं मजाक
कहते है नकारा
समझते हैं घमंडी
ख़ता मेरी इतनी सी है 
जब वे
एक साथ मिलकर
किसी गैर का 
उड़ाते हैं मजाक
करते हैं छींटाकशी
फ़िजूल बातों पर 
लगाते हैं क़हक़हे
चुगली करने में
होते हैं मशगूल
मैं उनसे दूर
अलग-थलग
रहता हूँ अक़्सर ख़ामोश।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 07.03.19)


बेचते हैं वे 
-------------------/
बड़े ही 
समझदार हैं वे
'सपने' बेच बेचकर
मौज मनाते हैं।
पर कितने
बुद्धू हैं हम
'अपने' बेच बेचकर 
गुजारा चलाते हैं।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 12.03.19)


पत्ते रहो नित हरे
------------------------------/
पत्ते !
बेसहारा सिर के लिए
हरे रहो-तने रहो
धूप,ठंड और बारिश में
छत बनकर जमे रहो
इसलिए कि
        वो न तपे
        वो न ठिठुरे
        वो न हो गीले
पत्ते बनी रहे 
तुम्हारी छत्रछाया
यूं ही छत बनकर जमे रहो
न हो कभी पीले
रहो नित हरे।


क्षणिकाएं
-------------------- 
1.धर्म
-----------
थोपा गया
भरमाया गया
जीवन भर 
ढोया गया ।

2.ईमान
-------------
दिया तो किया
नहीं दिया
तो नहीं किया।


3.साहब
--------------
तरेरता है
धौंसता है
गाली देता है
लेकर........
चुप हो जाता है।

4.उसका प्यार
---------------------
वह मुझे
याद करता है हमेशा
उसको जब-जब
जरूरत होती है मेरी।

5.पिता
----------------
पैदा किया
पाला-पोसा
फिर कोसा।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)


वह शहीद हुआ (27.06.18)
--------------------------------
वह चुपचाप
करता रहा अपना काम
खुद के लिए
परिवार के लिए
समाज के लिए
देश के लिए
पर वह
टी वी में नहीं दिखा
अखबारों में नहीं छपा
विज्ञापनों से रहा दूर
लोग जानते भी नहीं उसे
बस मर गया वह
पर....
वह शहीद हुआ।


समय बीत रहा 14 (26.06.18)
------------------------------------
जन्मा
था छोटा बच्चा
सोचा बड़ा होऊँगा
हुआ बड़ा
सोचा काश बच्चा होता
आखिर...
वर्तमान रीत रहा..।
समय बीत रहा....।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)


आत्मा का सवाल 15 (29.07.18)
---------------------------------
आत्मा पुचकारती है
प्रेरित करती है
कुछ करने के लिए
पर हम नहीं करते
आत्मा दुत्कारती है
रोकती है
कुछ नहीं करने के लिए
पर...
हम वही करते हैं
आख़िर
आत्मा का सवाल है
अपनी सहूलियतों से
बड़ा नहीं होता।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)


ओ मेरी नम आँखे 16 (22.07.18)
-----------------------------------------
देखकर 
सब कुछ
तुम सहना
अडिग रहना
आएंगे काम 
तुम्हारे आँसू
मत बहना
मत ढहना
मत छलकना
ओ मेरी नम आँखें !


उसका अहम  17 (22.07.18)
------------------------------------
वह कुछ भी
देखता नहीं 
सुनता नहीं 
सोचता भी नहीं 
सिर्फ बोलता है
और
वह चाहता है
हम चुप रहें
सिर्फ़ सुनें
हर प्रतिक्रिया पर उसकी
खामोश रहें
हां में सिर हिलाए
और
वह खुश रहे ।

ओ प्यारी चिड़िया !  (29.07.18)
----------------------------------
झांक लो
चाह भरी आँखों से
पींजरे के इस पार
लेकिन
अब 
उड़ने के लिए 
मयस्सर कहाँ
मुठ्ठीभर आसमान
ओ प्यारी चिड़िया !

स्वीकारोक्ति 18  (27.06.18)
---------------------------------------
मैंने पूछा
यहाँ गंदगी किसने की?
लोग ख़ामोश थे।
मैंने पूछा
चोरी किसने की?
लोग ख़ामोश थे।
मैंने पूछा
बलात्कारी कौन है?
लोग ख़ामोश थे।
मैंने पूछा
ये हत्या किसने की?
लोग ख़ामोश थे।
मैंने पूछा 
ये आगजनी किसने की?
लोग खामोश ही रहे।
मैंने पूछा
ये नोटों के बंडल
जो मैंने पाएं हैं
किसके हैं?
लोगों की नजरें उठी
लोगों के हाथ उठे
लोगों की आवाजें उठीं
मेरे हैं.. मेरे हैं.. मेरे हैं..।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)

ज्ञानी-ढोंगी (28.05.18)
----------------------------------
वैदिक ज्ञानों
शास्त्रीय तर्कों
पौराणिक कथाओं पर
प्रवचन देता रहा
धर्म की आड़ में
छलता रहा
भोग-विलास में 
आकण्ठ डूबा हुआ
मासूम भावनाओं के साथ
खेलता रहा-खेलता रहा
हम अंधश्रद्धा में लीन
देवतुल्य
उन्हें पूजते रहे
बस पूजते ही रहे।

पड़ोसी 19  (12.06.18)
--------------------------------
मैं जैसा हूँ
वैसा
तुम मुझे देख न सके
तुम जैसा हो
वैसा
मैं तुम्हें देख न सका
हम दिखे
हम मिले
पर
दिखे कहाँ..?
पर
मिले कहाँ..?

मैं बच्चा हो जाता हूँ 20  (20.01.18)
-------------------------------------------
चालीस पार हो गया हूँ 
दो बच्चे हैं मेरे
चौराहों, मोहल्लों और दुकानों पर
बच्चे सारे
अंकल कहने लगे हैं
'अंकल'सम्बोधन सुनकर
भीतर ही भीतर
झेप जाता हूँ
धीरे-धीरे
सुनने की आदत 
बनती जा रही है
हर सुबह
नहाने के बाद
आईने के सामने
अपनी आँखों के नीचे काले घेरे
चेहरे की झाइयां
और
माथे की झुर्रियां देख
सहम जाता हूँ
अंकल होने के 
उक्त सारे प्रमाण
सारी सच्चाइयां
स्वीकारना कठीन होता है 
पर...
जब-जब  छुट्टियों में
घर जाता हूँ
चार दिन-पाँच दिन लगातार 
मेरी माँ 
बेटा कहकर बुलाती है
मैं फिर से बच्चा हो जाता हूँ
जब तक मेरी माँ है
बच्चा होने का अहसास मुझसे
कोई नहीं छीन सकता।


हर बार की तरह....21..(06.03.19)
--------------------------------
हर बार की तरह
जिस्म का वह कोढ़
फैल जाता है
पूरे समाज में
पहले पहल 
बड़े ही लुभावने और मनोहर शब्दों से
मासूम, भावुक दिलों में
बनाते हैं माकूल जगह
टॉफी, चाकलेट,खिलौनों से
शुरू होता है उपहार का सिलसिला
आते-जाते
मुस्कराते
बेवजह हँसी हँसते हैं
उसके भीतर बैठा क्रूर राक्षस
करता है बेसब्री से
शिकार का इंतिजार
हमेशा करता है वह
फेसबुक के तस्वीरों पर
लाइक एवं आकर्षक कमेंट
रोज भेजता है
अच्छे कपड़ों में
सैर सपाटे करता
अलग-अलग कोणों और मुद्राओं में
बेहतरीन पिक्स
जानबूझकर
बुद्धिमान लोगों के बीच घुसकर
खींचा हुआ सेल्फी
किसी बड़े नेता के साथ
मंच पर खड़ा हुआ
अपना राजनीतिक पहुँच बतलाता फोटो
एक असहाय बुढ़िया को
सड़क पार कराता हुआ
दयावान जताता फोटो
लगातार जारी है
उसकी कोशिशें
मुस्कान की,प्यार की,उपहार की
या कहें
षडयंत्र की,साज़िश की,शिकार की
उसका छद्म रूप,छद्म व्यवहार, छद्म प्यार
मासूम दिलों में
यथार्थ की तरह उतरकर
बना लेता है अपना घर
बातें बढ़ती है आगे
भोलापन से
दीवानापन होते हुए
पागलपन तक
वापस न होने वाला सफ़र
होता है शुरू
माता-पिता से
लड़की कराती है परिचय
दरिंदा वह
आने-जाने लगा है रोज
बड़े अदब से 
छूने लगा है अंकल-आंटी के पाँव
अब दोनों
एकांतवादियों में
मिलने लगे हैं हर दिन
आइसक्रीम खाते
कभी शहर के दूसरे छोर वाले उद्यान में
फ़िल्म देखते हुए
कभी सिनेमाघरों में
लजीज़ खाने का लुफ्त उठाते
कभी रेस्तराओं में
एक-दूसरे पर गलबहियां डाले
कभी ऐतिहासिक भग्न मंदिर के पीछे
चट्टानी कुर्सी पर बैठे
परस्पर घूरते 
कभी नदी के किनारे
खोए-खोए
मशगूल एक-दूसरे में
देखे जाते हैं दोनों अक़्सर
पर किसे था पता ?
हर बार की तरह
वो अनहोनी शाम
एक बार फिर
लूटेगी-कराहेगी
काली-हैवानी रात से गुजरती
लिपटी हुई सिसकियाँ
दूसरे दिन
हर दरवाजे पर 
'ख़बर' बनकर दस्तक़ देगी
बेदिल,बेजान दुनियां के सामने
बेबस रह जाएगी
'गुडमार्निंग'की चाहत भरी औपचारिकता
महज उदास सुबह बनकर रह जाएगी
पर यह सबको पता था
कि हम फिर अपना फर्ज निभाएंगे
जैसे निभाते चले आ रहे हैं
हर बार की तरह-----
कुछ घड़ियाली आँसू बहाएंगे
हुजूम के साथ मौन रैली निकालेंगे
विकृत मानसिकता को फटकारते 
सम्पादकीय लिखेंगे
मोमबत्तियां जलाने की रस्म अदायगी करेंगे
आरोपी पर कठोर कार्यवाही के वादे होंगे
थूकेंगे
पुतले जलाएंगे
जी-भरकर
संस्कार को,समाज को,देश को कोसेंगे
एक बार फिर
हर बार की तरह।


पता नहीं कितने बार..22 (15.06.18)
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पता नहीं कितने बार
जीने के लिए
हमें मरना पड़ता है
तब भी 
क्या हम जी पाते है?
जी नहीं पाए
जीने के लिए मरे
मरते ही रहे जीने के लिए
मरने को ही जीना समझते रहे
मरे और मरते रहे
क्या खूब जिया समझते रहे
जीने के लिए झूठ बोला
बुद्धि को लहुलुहान किया
अनैतिक हुआ
आत्महंता बना
तोड़ी मर्यादाएं
स्वविवेक रौंद डाला
मुख मोड़ा अन्याय से
संवेदनाओं को कुचल डाला
मदमस्त बना रहा
वजूद मिटा डाला
जीने के लिए मरता रहा 
पर जीने के लिए कुछ न बचा
हो गया मृत!
मरने से पहले 
जीने के लिए
मरा..! मरा..!! मरा..!!!
जीवन भर
पता नहीं कितने बार..।


मैंने देखा है.. 23 (27.10.18)
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माँ के दिवंगत होने के बाद
एकदम अकेले
भीतरी तूफानों से जूझते
खुद से प्रश्न पूछते
अनुत्तरित होते
बाबूजी को
मैंने देखा है..
माँ के दिवंगत होने के बाद
चुपचाप बैठे कोने पर
खुद से बातें करते
अक्सर बड़बड़ाते
बाबूजी को
मैंने देखा है..
माँ के दिवंगत होने के बाद
दुखों से आक्रांत
पर बाहर से शांत
मौन में तड़पते
चुप में चीखते
बाबूजी को
मैंने देखा है..
माँ के दिवंगत होने के बाद
गाँठों-से उलझे हुए
अन्तर्मन से बुझे हुए
नींद में जागते
बिना आँसू के रोते
बाबूजी को
मैंने देखा है..
माँ के दिवंगत होने के बाद
पुस्तकों के पृष्ठ पलटते
मन की छवि को ढूँढते
अक्सर यादों में खोए-खोए
माँ के साथ
हँसते और बातें करते
बाबूजी को 
मैंने देखा है..।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)


कविता बुलबुले नहीं होती। 24  (29.03.18)
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मेरे भीतर अक्सर
भावनाओं के बुलबुले उठते हैं
आते-जाते
खाते-पीते
नींद में उनींदे
कोई दृश्य
कोई घटना
होनी-अनहोनी
देखते-देखते
एक-दो 
फिर अनगिनत
भावनाओं के बुलबुले
लगातार निकलने लगते हैं
मैं लगभग हड़बड़ा-सा जाता हूँ
ढूंढता हूँ कलम यहाँ वहाँ
तत्क्षण
चाहता हूँ लिखना
उन बुलबुलों को बुलबुलों की तरह
पर लिख नहीं पाता
केवल महसूस कर पाता हूँ
आज तक संभव नहीं हुआ
कि बुलबुलों को रोक लूँ
कविता लिखे जाने तक
बेहद क्षणिक
द्रुत गतिमान और नश्वर होते है
भावों के बुलबुले
बुलबुलों के नष्ट हो जाने के बाद
बुलबुलों को याद कर
वैसे ही लिखना चाहता हूँ
लिखने की कोशिश करता हूँ
बुलबुलों को मैं नहीं लिख पाता
बुलबुलों की तरह
बुलबुलों की छाया है मेरी कविता
पर कोई भी कविता बुलबुले नहीं होती।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)



निर्वासित समाज।  25  (02.04.19)
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कहते हैं वे
कि हम देह व्यापार करते हैं
पैसों के लिए
बेच देते हैं
तन और इज्ज़त अपनी
कितने दोगले हैं वे
समाज में अपने
धर्म-जाति
मान-सम्मान
संस्कार और आत्मा की 
दुहाई देने वाले
हैसियत पर अपनी
घमंड से इतराने वाले
हवस की आग बुझाने खातिर
अपनी आत्मा के साथ-साथ
बेच देते है सब कुछ
गिड़गिड़ाते हैं
हो जाते हैं नतमस्तक
और फिर
अपने समाज में जाने के बाद
एक बार फिर
दुत्कारतें हैं
कोसते हैं हमें
कहते हैं----
हमसे दूर रहने की बात
उनके नजरों में हम होते हैं--
समाज का कलंक, कोढ़, पाप....
हमारे लिए सदा
बंद होते हैं उनके दरवाजे
कुछ दिन बाद
हर बार की तरह
वे आते हैं फिर
प्यास बुझाने
अपनी हिकारत भरी नज़रों में
हवस घोले हुए
अहर्निश खुले
हमारे दरवाजे तक
सभ्य समाज के उस
निष्कलंक, निष्पाप
सम्मानित, संस्कारी व्यक्ति को
अपने निर्वासित समाज में
अपना लेते हैं
करते हैं सन्तुष्ट 
एक बार फिर...।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)

पूरा
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चाहिए मुझे पूरा
इस आधी-अधूरी दुनिया में
सभी को चाहिए पूरा-पूरा
घर, अस्पताल, बाजार, मेला
सभी जगह पूरा पा लेने की तलाश
आधे-अधूरे लोगों के द्वारा
आधे-अधूरे लोगों से पूर्णता की तलाश

आख़िर तुम चले गए.....  26
(दिनांक 26.06.19 को छोटे भाई सनत के निधन पर)
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ओ मेरे भाई !
बीमारी से लड़ते-लड़ते
जिंदगी और मौत से जूझते-जूझते
जिंदगी से हारकर
हम सबको छोड़कर
आख़िर तुम चले गए.....।1।
ओ मेरे भाई !
न जाने कितने सपने संजोए थे तुमने
सुनहरी फसलों के बीज बोए थे तुमने
चुपके से रोशनी चुराकर
हमें यूं अंधेरे में डुबाकर
आख़िर तुम चले गए.....।2।
ओ मेरे भाई !
टूट गए तुम्हारे सपने सभी
था जो तुम्हारा सब छूट गए यहीं
खूबसूरत सपने दिखाकर
अपनों को यूं मंझधार में छोड़कर
आख़िर तुम चले गए.....।3।
ओ मेरे भाई !
अरमान जीने का रहा होगा
शैतान की मार कैसे सहा होगा?
खुशियां इस तरह छीनकर
हमें यूं गमों में डुबाकर
आख़िर तुम चले गए.....।4।
ओ मेरे भाई !
सोच-सोचकर मन हताश है
जीवन तेरा आज इतिहास है
रिश्तों भरी दुनियां बसाकर
अपनों से दामन छुड़ाकर
आख़िर तुम चले गए.....।5।
ओ मेरे भाई !
कैंसर से लड़ते-लड़ते पस्त हो गए
विखेरकर अपनी चमक अस्त हो गए
जिंदगी के कुछ लम्हें बिताकर
अपनों पर अपनी खुशियां लुटाकर
आख़िर तुम चले गए.....।6।
---नरेन्द्र कुमार कुलमित्र


आखिरी बार...27 (15.09.19)
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पहली बार...
माँ मुझे देखी होगी 
उनकी निगाहों की भाषा
अलिखित और मौन रही होगी
मेरी आँखें मुंदी रही होगी
वह अपनी आंखों से लगातार बोलती रही होगी
मैं मौन होकर भी सब कुछ 
सुनता रहा होऊँगा।

माँ का शरीर मृत पड़ा था
मैं देख रहा था उनको 
एकटक निगाहों से
तड़प-तड़पकर रो रहा था
उनकी आँखें मुंदी हुई थी
बहुत कुछ कहना चाहता था
कह भी रहा था
वह एकदम मौन थी
मौन होकर
क्या वह सुनती रही होगी
मेरी बातें
आखिरी बार......


पिता होना....28 (17.09.19)
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दो बच्चों का पिता हूँ
मेरे बच्चे अक्सर रात में
ओढ़ाए हुए चादर फेंक देते है
ओढ़ाता हूँ फिर-फिर
वे फिर-फिर फेंकते जाते हैं

उन्हें ओढ़ाए बिना...
मानता ही नहीं मेरा मन
वे होते है गहरी नींद में
उनके लिए 
अक्सर टूट जाती हैं
मेरी नींदें...

एक दिन 
गया था गाँव
रात के शायद एक या दो बजे हों
गरमी-सी लग रही थी मुझे
नहीं ओढ़ा था चादर
मेरी आँखें मुंदी हुई थी
पर मैं जाग रहा था...

रात के अन्धेरे में
किसी हाथ ने ओढ़ा दिए चादर
उनकी पास आती साँसों को टटोला
पता चला वे मेरे पिता थे

गरमी थी
मगर मैंने चादर नहीं फेंकी
चुपचाप ओढ़े रहा
मैं महसूस कर रहा था
बच्चा होने का सुख...
और
पिता होने की जिम्मेदारी...
दोनों साथ-साथ..।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र


रोना हमारा-तुम्हारा...29 (20.09.19)
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तुम जो रोना रोते हो
कि तुम्हारे पास
बंगला,गाड़ी और एशोआराम नहीं है
तुम्हारे रोने के दायरे
बहुत बड़े है
तुम यदा-कदा
रोते ही रहते हो
तुम्हारे रोने में होते हैं
बहुत सारे शब्द
तुम्हारे रोने के पीछे होते हैं
अनगिनत ख़्वाब
तुम्हारे मिथ्या रुदन का कभी
अंत नहीं होता

हम सीमित हैं
हमारा रोना भी सीमित है
रोने के दायरे भी सीमित है
हम रोते हैं
अपनों के लिए...
न कि सपनों के लिए
हमारे रोने में होते हैं
असहनीय दर्द और आँसू 
हमारी सच्चाई
अकारण लगता है तुम्हें
हमारा रोना
हमें रोते देख 
तुम्हें हँसी आती है
ये भी कोई रोना होता है

हम रोकर चुप हो जाते हैं
एक नए दर्द के आने तक
तुम्हारी तरह हर पल रोना
हमें नहीं आता
सच कहूँ---
तुम्हारे रोने में रोना नहीं होता
हमारी तरह...
--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

होने का अहसास...30. (20.09.18)
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तुम आसपास नहीं होते
मगर 
आसपास होते हैं
तुम्हारे होने का अहसास

मन -मस्तिष्क में संचित
तुम्हारी आवाज
तुम्हारी छवि
अक़्सर
हूबहू
वैसी-ही
बाहर सुनाई देती है
दिखाई देती है
तत्क्षण
तुम्हारे होने के अहसास से भर जाता हूँ
धड़क जाता हूँ
कई बार खिड़की के पर्दे हटाकर
बाहर देखने लग जाता हूँ
यह सच है 
कि तुम नहीं होते
पर
पलभर के लिए
तुम्हारे होने जैसा लग जाता है

लोगों ने बताया
यह अमूमन 
सब के साथ होता है
किसी के न होने पर भी
उसके होने का अहसास...











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बेरोजगारी के दौर में
रोजगार का पहला आधार बना नवोदय
इसके पहले
मेरे पास डिग्री थी
शायद काबिलियत भी 
पर अब गुजरना ही था 
जीवन के जद्दोजहद से
एक रोजगार के लिए
जिंदगी से दो-चार करना
मजबूरी और जरूरत दोनो थी
जब राज्य में 
रोजगार के स्रोत सूख-से गए थे
शिक्षाकर्मी ही एक रास्ता बचा था
जिसका वेतन दैनिक मजदूरी से कम था
पर उसमें भी नाकाम साबित हुआ