Saturday 27 June 2020

दो कविताएँ 1.सपनों में... 2.मेरी मेहनत

दो छोटी-छोटी कविताएँ :--

1.सपनों में...
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सपनों में
आती है नींद
आती है हँसी और ख़ुशी
सपनों में ही प्यार,इज़हार और मिलन
सपनों में ही एकांत और सुखद अहसास
सपनों में ही आते हैं अपने सारे संबंधी
और भी बहुत कुछ....
जो बहुत पहले ही
जा चुकी हैं
हमारी असल जिंदगी से।

2.मेरी मेहनत
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मेरी मेहनत
उगेगी,दौड़ेगी, खिलखिलाएगी
दूर से चमकेगी आँखों में
खूबसूरत लड़की की तरह
चर्चा में होगी मेरी मेहनत।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

Friday 26 June 2020

अपने ही सामने


अपने ही सामने…28.06.2000 (लंबी कविता)
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बोथराए कुल्हाड़ी की भाँति
अपने ही सामने नतमस्तक खड़ा हूँ
हथियार डाल दिया हूँ
जिससे अब तक संकल्पों का खून होता रहा है
चेहरे वही
भीतर से कुछ बदला हुआ
अपना ली है एक तर्ज-
‘पुरानी बोतल में नयी शराब’
सोचकर संकल्प आनंदित है
खूनी चल बसा-हत्यारा मर गया
जो संकल्पों का था दुश्मन कल तक।
अचानक ठोकर !
धीरे-धीरे निष्क्रीय,संकल्पहीन,
जीवन भर कुछ पाने के लिए
खो दिया सब कुछ
जिन्दा रहा अमृर्त्य तृष्णा….
फिर विचारमग्न है,शोकाकुल है
एक चिंतित लाश
आखिर कब तक
फिर वही-फिर वही
नाटक खेलते रहोगे
संकल्प लिए सुधारों के नाम पर
अंतर्मन से घोषणाएँ भी हुई
पर नाटक अंतहीन
एक भाग शेष रहता ही है
लगता है मंचन होता रहेगा जीवन भर,
ज़रा सा विचार
क्षणभर का आत्मबोध
मानव स्वतंत्र है
गुलामी थोपकर
उसे दोषी क्यों बनाते हो?
चिह्नित परिपाटी और तथाकथित नियमों की
बेड़ियाँ क्यों पहनाते हो?
पिंजरा लोहे की है या सोने की
कैदी तो सिर्फ कैदी है।
सच्चाई किसी अवरोध के अंदर नहीं होता
मृत्यु को किसी ने बाँधा?
ऎ मानव !
सीमाओं से बाहर आओ
पराक्रम की कोई पराकाष्ठा नहीं होती,
यह जानकर भी विक्षुब्ध हूँ
परिस्थितियों में में जिता हूँ
डरता हूँ पहियों में दबने से
सीमित करता हूँ निज विचारों को
कल्पनाओं की उड़ान
और अरमानों की पोटली
हर पल संजोता हूँ
अचानक हकीकत की जमीं पर पड़ा पाता हूँ
दीवारों के घेरे में उम्मीदों के साथ जिता हूँ
एक अज़ीब-सा डर,एक संदेह,एक भरोसा
क्या मेरी कल्पना साकार होगी?
एक ही रफ़्तार
कोई आगे कोई पीछे
मैं खड़ा मौन देखता हूँ
भागती हुई भीड़ को
मन करता है पीछे हो लूँ
पैदा हुआ एक देह लेकर
भीतर कोई बैठा रहा चुपचाप
देखकर कभी चिल्लाता था ज़ोरदार
पर रहा बेअसर
सुनकर भी बहरा बना रहा
बेहुदगियाँ बदस्तूर चलती रही..
जो भीतर बैठा था…..?
केवल देह रह गया
देह के लिए होड़
जिते लाशों की दौड़
कहाँ गया वो प्रकाश ?
घोर तम का घर बन गया
चिनगारियाँ लुप्त हो गईं
ब्याधियों के गुलाम हो गए
भाई वाह क्या हिदायत है
अपनों को-‘ प्रवेश वर्जित है ’
दूर खड़ा ताकता है ‘ज्ञान’
अपेक्षा की नज़रों से
पर हाय ! उसका नाम ही नहीं है
खुद को देता है सांत्वना-
“..असफलता,अभाव,दुःख,पीड़ा
जीवन के अंग हैं
धैर्यता के साथ जीवन के आनंद भी मिलेंगे
उत्साही कभी पराजित नहीं होते..।”
उम्र दर उम्र पीढ़ी आगे बढती है
पर व्यवस्था स्थिर,अचल,अपरिवर्तनशील
हमारे कर्णधार
शपथ,संकल्प और प्रतिज्ञायें लेते रहे
मापते रहे-खर्चते रहे
हादसे होते रहे
परिवर्तन की योजना बनती रही
बदलने के लिए जेहाद छेड़ते रहे
दरार आती रही
सुधारों की कसमें खाते रहे
पर..वही आज भी
कभी और नीचे,गिरे हुए
कलुषित,बदतर,दयनीय,घृणास्पद और विभत्समय
अवस्था में पाता हुआ
वचनवीर बने रहे।
जाने दो मुझे क्या ?
आज फिर हीनता से ग्रसित हूँ
आत्मग्लानि से लबालब हूँ
न दोष है व्यवस्था का
और न व्यवस्थादारों का
मुझे स्वयं लड़ना है
फिर एक क्षण की आत्म जागृति
विडंबना है संयमहीनता की
कई कोशिशे ना कामयाब
आखिर संकल्पहीन पुनरावृत्ति कब तक चलता रहेगा?
अब तक दृष्ट है-पराजय और असफलता
आखिर स्वयं से न जीत सका
बहुत देखा,परखा,तौला,आजमाया
पर बाँध न सका स्वयं को
छोड़ चुका हूँ हद से ज्यादा
मेरी प्रवृति बेलगाम होकर अपने कायदे भूल जाते हैं
एक अज़ीब नशे में धूत रहता हूँ
ज़माने की सारी शिक्षाएँ दुश्मन बन जाते हैं
उस बदरंग पायदान से मेरे पैर नहीं हटते
और भी जमते जाते हैं सख़्त
क्षण भर के लिए असह्‍य,ग्लानि ,जागृति
फिर पराजय की एक और चोंट
भीतर से फिर एक धिक्कार
चिल्लाता है दिव्य पुरुष बार-बार
अरे ओ ! स्वद्रोही ज़रा होश में आ
आखिर कब तक इस दुष्कलेवर और कलुषित मन को ढोता रहेगा ?
न दृढ हुए न मजबूत रीढ हुए
जिते रहे बिना पेंदे की बर्तन की तरह
कौन कहता है कि तू पैदा हुआ है
जिते लाश की तरह भटकते रहे हो
न कोई चुनौती न कोई संकल्प
न कोई कर्तव्य न कोई विकल्प
समय रुकता कब है ?
पर हम रुके रहे
पत्थरवत्‍ स्थिर बने रहे
क्षण भर जागे भी तो कभी
पर क्या हुआ
हाय तन हाय तन रटते रहे
यह मेरा वह तेरा का हिसाब लगाते रहे
कौन कहता है कि तू पैदा हुआ है
जिते लाश की तरह भटकते रहे ।
          
चलते फिरते अचानक
अपने ही सामने खड़ा हो जाता हूँ
स्याह,बोथराया चेहरा
कभी नकारता हूँ
कभी सहर्ष स्वीकारता हूँ
कभी देता हूँ शाबासी
कभी धिक्कार देता हूँ
एक पल के लिए होती है जागृति
हर बार की तरह रुदन और पश्‍चाताप
पर मैं ठोस न हो सका पानी
बढता हूँ आगे बढती है कहानी
बीते और आगत स्वार्थों के लिए
‘काल’ को खण्डों में बांटता रहा
बंद मंजूषा के ढक्कन किसी आहत से खुलते हैं
झरते हैं ज्ञान अनुराग
तत्क्षण आत्मानुभूति-एक दर्द
आता हूँ बाहर चार दीवारों के
मनमोहक कोलाहल से आक्रांत होकर
विस्मृति के गोद में चला जाता हूँ
अब मत खींचो मुझे
छोड़ दो मेरे इसी अपने हाल में
उत्कर्ष की कहानी मत सुनाओ
मुझे ‘विस्तार’ नहीं चाहिए
शब्द और आंकड़े किताबों में रहने दो
एक परिस्थिति जिस पर हम फेंके गए हैं
खुद को समेटकर जीना मेरा बड़प्पन नहीं है
मैं कोई योगी परिव्राजक भी नहीं
अभावों का मारा एक दरिद्र हूँ
मेरा संयम महज़ एक दिखावा है
मज़बूरी की आत्मकथा है
पर मत भूलो मेरे अभावों की ताकत
ये ऎतिहासिक भवन,सड़क,कारखाने
और न जाने क्या-क्या
मेरे अभावों के मिसाल हैं
मैं सृष्टि की आदि हूँ अंत हूँ
मेरी कोई परिधी नहीं अमर हूँ अनंत हूँ
मैं सब देख रहा हूँ –
खून से लथपथ मानवता
डरी और सहमी हुई भागती जा रही है
मुझसे ओझल होने तक
भागती जा रही है भागती जा रही है
किञ्चित प्रश्‍नों से घिरा हुआ
दूर जाती मानवता को निर्निमेश,निर्वाक देख रहा हूँ
‘मानवता’आखिर दर-दर क्यों भटक रही है ?
समाज से निर्वासित क्यों हो गई है ?
क्यों रुष्ठ हो गई है हमसे हमारी मानवता ?
अब मानवता कहाँ रहेगी ?
उसे मनाएगा कौन अपनाएगा कौन ?
क्या खत्म हो जाएगी मानवता ?
क्या मानवता के लिए कहीं जगह नहीं बचा ?
मुझे भी हड़बड़ी है
सोचने की क्या पड़ी है
बढता हूँ आगे ज़माने की हरकतों के साथ
पर भीतर बैठा मूक दृष्टा
मेरी मूर्खता पर करता है अट्टहास
भाई वाह क्या परिवर्तन है इस सदी में
नेकी का बदी में
परिभाषा बदल गए
खोंटे सिक्के चल गए
प्लास्टिक की तितली घर के दीवारों पर सज गए
करिश्मायी रंग पूते हैं
पोस्टर पर हरी पत्ति के
जंगल उपवन सब घिर गए दीवारों के घेरे में
बेजान सौंदर्य और मुर्दायी संस्कृति
चारों ओर पसर गए हैं
पर यह क्या
फिर वही गोल-गोल प्रश्‍नों के छल्ले
मेरे सिर के ऊपर नाच रहे हैं
क्या मैं ही बचा हूँ दुनियाँ में इन प्रश्‍नों के लिए
देश और समाज,प्रकृति और संस्कृति की सारी चिंता
क्या सिर्फ मेरे हिस्से में हैं ?
आखिर ये प्रश्न मुझे ही क्यों सताते हैं ?
नहीं मैं कोई अपवाद नहीं हूँ,ठेकेदार नहीं हूँ
हम सब के लिए है ये प्रश्न
तो आओ इन प्रश्नों को बांटे
आपस में मिलकर निपटाएँ
समस्या का समाधान निकालें
पर बहरों और अंधों के समाज में
सुनने और देखने वाले कौन हैं ?
कहने को सभी के पास सुनहरे सपने हैं
पर यथार्थ में कुछ भी अपने नहीं हैं
आज तक अरमानों पर बनता रहा-मिटता रहा
कुछ पाया – पर खोया ज्यादा
कर्तव्य को कर्तव्य के लिए न कर सका
उफनते धाराओं के माद में
तैरता रहा स्वार्थों के झाग बनकर
यह तेरा-वह मेरा
बस इसी फेर में
कभी ज़ल्दी-कभी देर में
अपने कदमों को विस्तार देता रहा
अपने ही बल पर
कल के लिए दौड़ गए चंद्रमा के तल पर
कुछ पाया – पर खोया ज्यादा
आज मानवता विहीन
चीर संस्कृति से लुटे हुए
खड़े हैं एक चौराहे पर
हम और तुम
दिशाहीन भटके हुए खड़े हैं
अनुत्तरित अंजान पथ पर
कुछ भी निश्चित नहीं
किधर चलूँ
किधर न चलूँ ?
     
विशाल जन सैलाब
चिहरती-भागती भीड़
संगीत सरिता में मगन महफिल
सभा-सम्मेलन में विचार संगोष्ठी
पर एक अछूता अनदेखा बिलकुल निर्वेद
इसी नभ और धरा के बीच में
हतप्रभ निगाहों से
महफिल को देखता है
कोलाहल को सुनता है
एकदम अकेला अंजाना होते हुए
अपने भीतर विराट को समेटा रहता है
विगत और आगत के द्वंद में
‘वसुधैव कुटुम्बकम्‍’  के छंद में
खोया-सा उलझा हुआ रहता है
अपनों के बीच में परायेपन को जिता है
समय असमय विप्लव का संदेश लाता है
पर अकेले चने का भाण्ड फोड़ना
हर बार संभव नहीं होता
जब बाकी सब बैठें हो खामोश
सहजता से स्वीकार लिए हों परिस्थितियों को
सीख लिए हों अभावों में जीना
जीने का मकसद भूल अब जीना ही मकसद बन गया है
इसीलिए दम उखड़  गया
जुटा न सका हौसला
करता रहा सलाम
स्वीकार लिया कदमों की चुंबन
और भाग्य पर इठलाने वाले
फ़ैशनपरस्त-अकर्मण्य-ऎश्वर्यवादी के सामने झुक गया
कल्पित भाग्य  के लेखे पर स्वयं को झोंक दिया
खो दिया दिया अस्तित्व, बन गए गुलाम
कयामत के इंतिजार में अचल हो गया
न मर सका, न आगे बढ़ सका
दमित कछुआयी संस्कृति को ढोता रहा
युगों-युगों से होता रहा प्रहार
झेलता रहा आघातों की मार
कया करूँ किससे कहूँ –
मानता नहीं कोई
आखिर माने कौन जाने कौन --?
लिए अपने-अपने तराजू
मानवता को तौलने की साजिश में लगें हैं
मानता ही नहीं कोई
मैनें देखा है
निर्वस्त्र लहू चूते
मानवता को लुटी हुई, बिलखती-भटकती हुई ।
किससे कहूँ
किस जाति,धर्म या संप्रदाय से पूछूँ ?
कि मानवता हमसे दूर क्यों जा रही है ?
भ्रमित हैं सब लोग
आखिर माने कौन –जाने कौन ?
अरे ! यह क्या
जलसा किस बात की है
पूछता हूँ किस जात की है
फिर वही साजिश धोखा छल
मानवता के नाम पर  ढ़ॊग
भाई वाह साधन जुटाए हैं खूब
देखूँ मानवता हैं कहाँ समाज में
क्या सबूत है क्या प्रमाण है ?
प्रमाणों के घेरे में हैं लोग
मानता नहीं कोई किससे पूछूँ
आखिर माने कौन –जाने कौन ?

_ नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

Tuesday 23 June 2020

रायपुर सेंट्रल जेल में

रायपुर सेंट्रल जेल में    23.06.2020
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रायपुर में पढ़ता था मैं 
पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय
था दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी
जन्मभूमि सा प्यारा था आज़ाद छात्रावास

गाँव वालों की नज़रों में 
था बड़ा पढन्ता
मेरे बारे में कहते थे वे--
"रइपुर में पढ़ता है पटाइल का नाती।"

मेरे गाँव के पास का एक गाँव
जहाँ रहती थी मेरी फुफेरी दीदी
फुफेरा जीजा था जो हत्यारा
खेती के झगड़े में कर दिया था 
किसी का ख़ून
उम्र क़ैद की सज़ा भोग रहा था
रायपुर सेंट्रल जेल में

दीदी के गुजारिश पर
एक बार गया था उससे मिलने
साथ ले गया था
उसकी फरमाइश की सामानें
मेघना बीड़ी का आधा पुड़ा
पांच डिब्बा गुड़ाखू तोता छाप
और साथ में माचिस,मिक्चर भी

बड़ा अजीब लग रहा था मुझे
सोच रहा था कोई दोस्त न मिले रस्ते में
गर किसी को बताना पड़े
कि मैं जा रहा हूँ कहाँ..?
तो वे क्या सोचेंगे मेरे बारे में
यही कि मैं हूँ अपराधी का संबंधी
शून्य से नीचे था मेरा आत्मविश्वास
मुँह पर रूमाल बाँधकर
दोस्तों से नजरे चुराता
निकला था विश्विद्यालय कैंपस से
सेंट्रल जेल रायपुर के लिए

जेल परिसर में 
कैदियों से मिलने वालों की लगी थी भींड़
एक आरक्षक नोट कर रहा था
आगन्तुकों का नाम,पता और क़ैदी से उसका रिश्ता
मुझे नाम पता के साथ
बताना पड़ा था साला होने का संबंध
कैदी से अपना संबंध ऊफ !
भर गया था मैं गहरे अपराध बोध से
मन ही मन उस अपराधी जीजा को दिया था गाली
साssलाss जीजा

मैं इन्तिजार करता रहा
दो घंटे बाद भी नहीं पुकारा गया मेरा नाम
चुपचाप देख रहा था पूरा माज़रा
मुझसे बाद आए कितने
और मिलकर चले भी गए
पहले मिलने के लिए
पुलिस को देना पड़ता था सौ-पचास के नोट
अपराध को रोकने वाले
ख़ुद खेल रहे थे अपराध का खेल

गुस्से में सहसा मैं फूट पड़ा था
चिल्लाया था ज़ोरदार
ये सब क्या हो रहा है..?
मुझे मिलने क्यों नहीं दे रहे हो..?
बाद में आए वो कैसे मिल लिए..?
पुलिसवाले ने गुर्राया था मुझ पर
" ऐ चिल्लाओ मत नहीं तो डाल दूँगा तुम्हें भी जेल में।"

देखते ही देखते
मेरी तरह के पीड़ित दो-चार लोग
शामिल हो गए थे मेरे साथ
जेल प्रशासन के ख़िलाफ़
हम लोग मिलकर करने लगे थे शोरगुल

मेरे शाब्दिक हमले से 
सकपका गया था पुलिसवाला
फिर तो जल्दी ही पुकारा गया था मेरा नाम
एक लंबे इन्तिजार के बाद आई थी मेरी बारी
मैं देख पा रहा था
उसका जालीदार चेहरा
लगभग अस्पष्ट-सा जाली के उस पार
जो था अपराधी,हत्यारा और जीजा 
जो भोग रहा था उम्र कैद की सज़ा
रायपुर सेंट्रल जेल में 

आज दिनभर की यही कमाई थी मेरी
आखिरकार अनचाहे ही सहीं
खुद को एक अच्छा भाई साबित कर दिया था।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

Sunday 21 June 2020

'जूठन' आत्मकथा की समीक्षा

असह्य आत्मिक पीड़ा की यथार्थ अभिव्यक्ति : जूठन
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सहृदय रचनाकार जहाँ एक ओर अपने परिवेश को लेकर संवेदनशील होता है तो दूसरी ओर निजी संवेदनाओं की आत्माभिव्यक्ति भी करता है।साहित्यकारों का समाज के साथ सरोकार होने के कारण वह अपने साहित्य में सामाजिक कुरीतियों को यानी सामाजिक ,धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी पहलुओं को कृतिबद्ध करना शुरू करता है।दलित साहित्य की रचना करनेवाला साहित्यकार स्वयं दलित हो सकता है या फिर ग़ैर दलित हो सकता है। दोनों के द्वारा रचित साहित्य में 'यथार्थ और अनुभूति' को लेकर अंतर हो सकता है। जहाँ गैर दलित साहित्यकार दलित जीवन की पीड़ा को दूर से महसूस करता है वहीं एक दलित साहित्यकार अपने भोगे हुए यथार्थ को लिखता है।दलित साहित्यकार द्वारा लिखे हुए साहित्य में उन सारी बातों का चित्रण होता है जिसे रचनाकार स्वयं देखा है,अनुभव किया है,सोचा है समझा है और महसूस किया है। हिन्दी साहित्य में ऐसी कोई विधा नहीं है जो दलित अनुभवों से अनछुआ हो। आज कविता,कहानी, नाटक, उपन्यास,आत्मकथा आदि विधाओं में दलित साहित्य उत्कृष्ट रूप में देखे जा सकते हैं। 
               हिंदी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश
बाल्मीकि जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है उन्होंने दलितों की पीड़ा को शब्द देते हुए कविता,कहानी,आत्मकथा एवं आलोचना विधा में दलित साहित्य को संमृद्ध किया है। उनकी प्रमुख रचनाओं में सदियों का संताप ,बस्स बहुत हो चुका, अब और नहीं, शब्द झूठ नहीं बोलते, चयनित कविताएँ (कविता संग्रह) ; 'जूठन' दो भागों में (आत्मकथा) ; सलाम,घुसपैठिये,,अम्मा एंड अदर स्टोरीज, छतरी (कहानी संग्रह);  दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र , मुख्यधारा और दलित साहित्य, दलित साहित्य:अनुभव, संघर्ष और यथार्थ(आलोचना);सफाई देवता(सामाजिक अध्ययन) आदि हैं। 
            'जूठन' ओमप्रकाश बाल्मीकि जी की सबसे चर्चित कृति रही है जो कि आत्मकथा है।यह आत्मकथा दो भागों में है। आत्मकथा का पहला भाग 1997 में और दूसरा भाग 2015 में प्रकाशित हुआ था। आत्मकथा के संबंध में बाल्मीकि जी का कहना था कि " सचमुच जूठन लिखना मेरे लिए किसी यातना से कम नहीं था। जूठन के एक-एक शब्द ने मेरे जख्मों को और ज्यादा ताजा किया था,जिन्हें मैं भूल जाने की कोशिश करता रहा था।" वे यह भी कहते हैं कि " उपलब्धियों की तराजू पर यदि मेरी इस व्यथा कथा को रखकर तौलोगे तो हाथ कुछ नहीं लगेगा।" फ़िल्म ' आर्टिकल-15' के लीड एक्टर आयुष्मान खुराना ने एक इंटरव्यू में कहा है कि इस रोल की तैयारी करने के क्रम में उन्होंने जूठन किताब को पढा और उन्हें कई रातों तक नींद नहीं आई।कल्पना कीजिए उस व्यक्ति के बारे में जिसने ये जिंदगी जी होगी। मैंने जब लॉकडाउन के दौरान जूठन आत्मकथा पढ़ने का मन बनाया तो संयोग ऐसा हुआ कि मुझे जूठन के दूसरे भाग को पहले पढ़ना पड़ा। दरअसल मैंने आत्मकथा की राधाकृष्ण पेपरबैक्स वाली किताब के दोनों भागों का एक साथ ऑनलाइन आर्डर किया किंतु दूसरा भाग पहले पहुँच गया। सो उत्सुकता बस दूसरे भाग को पहले पढ़ डाला। उनके आत्मकथा के दूसरे भाग में देहरादून की आर्डिनेंस फैक्ट्री में अपनी नियुक्ति के साथ-साथ नई जगह पर अपनी पहचान को लेकर आई समस्याओं एवं मजदूरों के साथ जुड़ी अपनी गतिविधियों का ज़िक्र करते हुए अपनी साहित्यिक सक्रियता का विस्तार से उल्लेख किया है।जबकि आत्मकथा के पहले भाग में हज़ारों वर्षों से चले आ रहे जातिप्रथा के कुचक्र के बीच कथित तौर से क्षुद्र जाति चूहड़ा (मेहत्तर या भंगी) परिवार में जन्म लेने वाले बालक को किस तरह से हीन भावना के साथ संघर्ष करते हुए जीवन का पथ तलाशना पड़ता है,उसका जीवंत चित्रण किया है। 
               उनके आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव दग्ध हैं।आज भी समाज में डोम, चमार,मेहत्तर, चूहड़ा, भंगी, नट आदि  वर्ण या जाति में पैदा हुए लोगों के लिए ये शब्द गाली की तरह उच्च वर्गों के लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है।सच तो यह है कि दलित परिवार में जन्में लोगों को आदमी भी नहीं समझा गया। अपनी आत्मकथा को उज़ागर करने वाली  इस आत्मकथा के बारे में ख़ुद ओमप्रकाश बाल्मीकि जी कहते हैं-"दलित जीवन की पीड़ाएँ असहनीय और अनुभव दग्ध हैं।ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान न पा सके। एक ऐसी समाज व्यवस्था में हमने साँसे ली है,जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी ...। अपनी व्यथाक्रम को शब्दबद्ध करने का विचार काफी समय से मन में था। लेकिन प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिल पा रही थी।...इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे।एक लंबी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों,यातनाओं, उपेक्षाओं,प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा,उस दौरान गहरी यंत्रणाएँ मैंने भोगी।स्वयं को परत दर परत उघेड़ते हुए कई बार लगा कि कितना दुखदाई है यह सब ! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।"1 
               इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मेरा मन जातिगत समाज और उससे उपजे विद्वेष के प्रति और अधिक आक्रोश से भर गया। मुझे मेरे गाँव के नट समाज के वे लोग याद आने लगे जिन्हें मैं बचपन से अछूत के रूप में देखते आया था।वे आज भी समाज में अछूत समझे जाते हैं। तथाकथित उच्च वर्गों के घर सुख या दुख वाले कार्यक्रमों में महज़ बचे हुए खाना लेने के लिए आज भी मांगने जाते हैं।वे आज भी मूलभूत सुख सुविधाओं से दूर हैं।वे आज भी अस्पृश्य माने जाते हैं,उन्हें कोई भी सामाग्री दूर से प्रदान की जाती है।वे आज भी गरीबी,बेकारी,अशिक्षा आदि के चंगुल में जकड़े हुए हैं। बाल्मीकि जी की आत्मकथा के शब्दों में चमत्कार तो नहीं है पर भोगे हुए यथार्थ की सच्ची अनुभूति है। आत्मकथा पढ़ते हुए उनके अनुभवजन्य सामाजिक दुर्व्यवहारों के प्रसंगों को पढ़कर मेरा दिल भर जाता था।कितने बार मेरी आँखें नम हो गईं थी और आँसू भी निकल पड़े थे।जूठन के कुछ प्रसंग बिल्कुल रुलाने वाले और न भूलने वाले हैं-" तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया।थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, "अबे, ओ चूहड़े के, मादरचोद कहाँ घुस गया...अपनी माँ..." हेडमास्टर ने लपकलकर मेरी गर्दन दबोच ली थी।उनकी उंगलियों का दबाव मेरे गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है।कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका।चीख़कर बोले, "जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू...नहीं तो गांड में मिर्ची डाल के स्कूल से बाहर निकाल दूँगा।"2  ऐसी विषम परिस्थितियों में जहां दलित के लिए शिक्षा प्राप्त करना सपना था, तमाम उपेक्षाओं और अपमानों को सहते हुए लेखक ने शिक्षा प्राप्त की। 
             'जूठन' का एक-एक शब्द चीख़ता है-आख़िर हमारा कसूर क्या है? क्यों युगों से पशुतर हैं हम?कब बदलेगी नियति हमारी?कब हम थोथे वादों से उबरेंगे?संविधान में दिए गए अधिकार हमें कब मिलेंगे?हमारी गिनती राष्ट्र के अहम हिस्से के रूप में कब होगी? क्या हम भारतीय नागरिक होने का गर्व महसूस कर पाएंगे? ये सारे सवाल आज भी शासन-प्रशासन के सामने अनुत्तरित खड़े हुए हैं।जूठन भले ही एक व्यक्ति(बाल्मीकि जी) की आत्मकथा है किंतु यह उन समस्त दलितों की आत्मकथा है,जो पीड़ा को सहते तो हैं मगर अभिव्यक्त नहीं कर पाते। बाल्मीकि जी की आत्मकथा का शीर्षक 'जूठन' अपने आप में चौकाने वाला है।इस नाम को रखने के पीछे लेखक का जो दर्द छिपा है उसे उन्होंने बताते हुए अपने बचपन के दिनों को याद किया है।इस पुस्तक के शीर्षक चयन में वे सुप्रसिद्ध कथाकार राजेन्द्र यादव जी के प्रति आभारी दिखते हैं।उनके अनुसार-"पुस्तक का शीर्षक चयन करने में श्रद्धेय राजन यादव जी ने बहुत मदद की।अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर पांडुलिपि को पढा।सुझाव दिए।जूठन शीर्षक भी उन्होंने ही सुझाया।उनका आभार करना मात्र औपचारिकता होगी।"3 बचपन के दिनों को वे बताते हुए कहते हैं कि कैसे उनके माता और पिता हाड़तोड़ मेहनत करते थे उसके बाद भी दोनों समय निवाला मिलना दुष्कर था,उनकी माता कई तथाकथित ऊँचे घरों में झाड़ू-पोंछे का काम करती थी और बदले मिलती थी रूखी-सूखी रोटियाँ जो जानवरों के भी खाने लायक नहीं होती थीं, उसी को खाकर गुजारा करना पड़ता था।भोजन के बाद फेंके जाने वाले पत्तलों को उठाकर वे घर ले जाते और उनके जूठन को एकत्र करके कई दिनों तक खाने के काम में लाते।"पूरी के बचे-खुचे टुकड़े, एकाध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बांछे खिल जाती थी।जूठन चटखारे लेकर खायी जाती थी।"4
                  'जूठन' दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का यथार्थ दस्तावेज है।जीवन के रोजमर्रा की छोटी-छोटी सुविधाओं से वंचित दलितों की त्रासदी व्यक्तिगत वजूद से लेकर घर-परिवार और पूरी सामाजिक व्यवस्था तक फैली हुई है।लेखक अपने बचपन में जिस सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिवेश में पला-बढ़ा वह वह किसी की भी मानसिक दशा को विचलित कर देने वाला है।एक छोटे से बच्चे के लिए जब उसके आसपास की सारी परिस्थितियां प्रतिकूल हों उससे संस्कारवान होने की अपेक्षा करना सामाजिक बेमानी से कम नहीं है।जीवन के जद्दोजहद और विपरीत हालातों से लड़ते हुए लेखक कीचड़ में खिले कमल की भांति लगते हैं।अपने बचपन के आसपास की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए कहते हैं- "जोहड़ी के किनारे चूहड़ों के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें ,जवान लड़कियाँ,बड़ी-बूढ़ी यहाँ तक की नव नवेली दुल्हनें भी इसी डब्बेवाली के किनारे खुले में टट्टी फ़रागत के लिए बैठ जाती थीं।तमाम शर्म लिहाज़ को छोड़कर वे डब्बेवाली के किनारे गोपनीय जिस्म उघाड़कर बैठ जाती थीं।चारों तरफ़ गंदगी भरी होती थी।ऐसी दुर्गंध की मिनट भर में साँस घुट जाए।तंग गलियों में घूमते सूअर,नंग धड़ंग बच्चे,कुत्ते,रोज़मर्रा कर झगड़े, बस यही था वह वातावरण, जिसमें बचपन बीता।इस माहौल में यदि वर्ण व्यवस्था को आदर्श कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए,तो राय बदल जाएगी।"5 आत्मकथा के इन शुरूआती वाक्यों से उनकी पीड़ा और बेबसी का अनुमान लगाया जा सकता है।
                         भारतीय समाज में सामाजिक विकास के लिए जाति व्यवस्था का समर्थन करने वालों को डॉ भीमराव अंबेडकर जी की किताब 'जाति प्रथा का विनाश' (Annihilation of Caste) जरूर पढ़ना चाहिए। ठीक इसी तरह संविधान में कानून बनने के बाद भी जातिवाद की जड़ें भारतीय समाज में किस हद तक जमीं हुई है इसे साक्षात जानने के लिए बाल्मीकि जी की आत्मकथा 'जूठन' अवश्य पढ़नी चाहिए।जूठन का नायक समाज में गहराई तक सदियों पुरानी जमीं 'जातिवाद' की जड़ों को खोदने का प्रयास करता है।वह जाति द्वारा तय नियति को बार-बार ललकारता है,उससे जूझता है।सच मानिए महाभारत का नाबालिग अभिमन्यु चक्रव्यूह में केवल एक बार प्रवेश करता है और मारा जाता है लेकिन 'जूठन' का अभिमन्यु(लेखक) के सामने बार-बार यह चक्रव्यूह उपस्थित होता है  और उसे तोड़कर वे आगे बढ़ते हैं। वे अपनी प्रतिभा और संघर्ष के बलबूते पर उस शीर्ष पर पहुंच जाते हैं जहाँ तथाकथित सवर्णों का हजारों वर्षों से बर्चस्व रहा है।उनकी उपस्थिति से आसपास के लोगों को भूकंप सा झटका महसूस होता है।न चाहते हुए भी उन्हें ऐसे व्यक्ति को बर्दाश्त और स्वीकार करना पड़ता है,जिसके नाम से ही वे नफ़रत करते हैं।उसके साथ रहना व जीना कौन कहे,वे उसका नाम भी नहीं सुनना चाहते।इस तरह 'जूठन' आत्मकथा हिंदी साहित्य में ज्वालामुखी की लावे की तरह जलते हुए यथार्थ का पर्दाफ़ाश करता है।
                 'जूठन' के माध्यम से बाल्मीकि जी जहाँ एक ओर अपनी आत्मिक पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं तो दूसरी ओर वर्षों पुरानी जाति व्यवस्था के उस पहाड़ को ढहाना चाहते हैं जो समाज में समता,स्वतंत्रता और बंधुता के लिए बाधक रहे हैं।वे अपनी आत्मकथा में जो बातें लिखी है वह हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। उनकी बातों को झुठलाने के मायने है,भरी दुपहरी में अपनी आंख पर काली पट्टी बाँधकर कहना कि सूरज उगा ही नहीं है। बाल्मीकि जी द्वारा आत्मकथा लिखे जाने के निर्णय पर कुछ मित्रों द्वारा हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया था- " ख़ुद को नंगा करके आप अपने समाज की हीनता को बढाएंगे।" और यह भी " आत्मकथा लिखकर आप अपनी प्रतिष्ठा ही न खो दें।"
इसके बावजूद भी आत्मप्रेरित होकर उनके द्वारा आत्मकथा लिखा जाना साहसिक कार्य का परिचायक है।उनके द्वारा लिखे गए एक-एक शब्द जहाँ एक ओर ज़ख्म से कराहते हुए लगते हैं तो दूसरी ओर ज़ख्म देने वालों के ख़िलाफ़ ललकारते हुए भी लगते हैं।यह आत्मकथा किसी को बहुत पसंद आ सकता है तो किसी को शूल की तरह चुभ भी सकता है क्योंकि सच्चाई किसी को अच्छी भी लगती है तो किसी को बुरी भी। मैं इस आत्मकथा की यथार्थता और संप्रेषणीयता दोनों से अत्यधिक प्रभावित हूँ।

सन्दर्भ सूची :---
1.बाल्मीकि ओमप्रकाश, जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन,नई     दिल्ली, भूमिका, पृ. सं.- 7,8
2.वही पृ. सं.-15
3.वही पृ. सं.- 9        
4.वही पृ. सं.-19
5.वही पृ. सं.-11   

                              ---   नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 
                                      सहायक प्राध्यापक
                         शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय 
                          कवर्धा,जिला-कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
                                मो. 9755852479

Tuesday 9 June 2020

जार्ज फ्लॉयड

52..जार्ज फ्लॉयड -10.06.2020
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जार्ज फ्लॉयड तुम आदमी थे
तुम आदमी ही रहे
पर तुम्हें पता नहीं
कि शैतानी नज़रों में
आदमी होना कुबूल नहीं होता
आख़िर तुम मारे गए

काश तुम जान गए होते
कि तुम्हारा जिंदा रहने के लिए
तुम्हारा आदमी होना ज़रूरी नहीं था
जितना जरूरी था 
तुम्हारी चमड़ी का गोरा रंग

जार्ज फ्लॉयड
काश की तुम्हें
गिरगिट की तरह
अपनी चमड़ी का रंग बदलना आता
तो तुम आज जिंदा होते

मार्टिन लूथर की हत्या से
तुमने क्यों नहीं सीखा..?
तुम्हारे हत्यारे
दिल से काले हैं तो क्या ?
दिखने में तो 
बड़े ही खूबसूरत 
और आकर्षक लगते हैं
तुमने अपना दिल तो उजला रखा
पर तुम्हारी काली चमड़ी का क्या ?

उन्हें सदियों से 
काँटों की तरह चुभते रहे हैं
तुम्हारी चमड़ी का काला रंग

उन्हें तुम्हारा आदमी होना
कतई मंजूर नहीं
वे चाहते हैं
तुम बेजुबान जानवर की तरह
उनके अत्याचारों को सहते रहो

वे चाहते हैं
तुम्हारी नस्लें दास बनी रहे
बिना कुछ कहे उनकी सेवा करते रहे

उन्हें यह पसंद नहीं
कि तुम मानवीय अधिकारों के लिए 
उनसे लड़ो और शोर मचाओ
एकजुट होकर विरोध प्रदर्शन करो

उन्हें पसंद नहीं 
कि तुम आगे बढ़ने के लिए
कोई सपना देखो

उन्हें पसंद नहीं
कि तुम कंधे से कंधा मिलाकर
उनके साथ-साथ बराबर चलो

उन्हें यह तो कतई पसंद नहीं 
फूटे आँख पसंद नहीं
कि तुम उनके रहते हुए
सत्ता पर काबिज़ हो जाओ
और उन पर शासन करने लगो

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

अरे लकीर के फ़कीरों

अरे लकीर के फकीरों ! -06.06.2020
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अपने-अपने मुहावरों पर
वे और तुम
जिते आ रहे हो सदियों से
मुहावरा कभी बदला ही नहीं
न उनका न तुम्हारा

शासक हैं वे
बागडोर है उनके हाथों में
वे अपने मुहावरों पर
रहते हैं सदा कायम

तुम्हारे लिए 
वे जो भी कहते हैं
कभी नहीं बदलते
चाहे जो हश्र हो तुम्हारा
वे अपने मुहावरों के पक्के हैं

एक बार कह देने के बाद
'पत्थर की लकीर' होती है
उनकी बातें
यही तो उनका मुहावरा है

उम्मीद कतई मत रखो 
कि तुम्हारे हितों में 
वे बदलेंगे 
अपने जिद्दी मुहावरे और स्याह उसूल

तुम्हारी माँग
या तुम्हारी याचना
उसके अहम भरे उसूलों को
कभी नहीं बदल सकते

शासित हो तुम
तुम्हारे मन-मस्तिष्क में
गहरे रच-बस गए हैं
उनकी बागडोर का हsउsआ

तुम भी
अपने जीर्ण-शीर्ण उसूलों के
कम पक्के तो नहीं हो 
अपने स्याह उसूलों पर
चिपके रहते हो एकदम अडिग

तुम तो
अपनों के लिए भी
नहीं बदलते हो
अपने थोथे उसूल

बदलना तुम्हारी फ़ितरत ही नहीं
तुम मरते दम तक
बस  'लकीर के फ़कीर' बने रहते हो

एक बात जान लो
उनके पत्थर की लकीर बातों को
उनके दंभी उसूलों को
उनके जिद्दी मुहावरों को
बदलने के लिए
पहले तुम्हें बदलनी ही होगी 
अपनी'लकीर के फ़कीर 'वाली 
सदियों पुरानी वह आदत 
और 
अपना घीसा-पिटा वह मुहावरा।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

केवल वक्ता के लिए

केवल वक्ता के लिए - 5.6.2020
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हे मेरे प्यारे वक्ता
वाक कला में प्रवीण
बड़बोला महाराज
बातूनी सरदार
कृपा करके हमें भी बताओ
कि तुम इतना धारा प्रवाह
कैसे बोल लेते हो..?
बिना देखे,बिना रुके
घंटों बोलने की कला
आख़िर तुमने कैसे सीखी है..?
दर्शकों को 
गुदगुदाने वाली कविताएँ
जोश भरने वाली शायरियां
और नैतिक उपदेश वाले
संस्कृत के इतने सारे श्लोक
तुमने भला कैसे याद किए हैं..?
मुझे नहीं लगता
कि केवल बोलने लिए
इतना परिश्रम, इतना अभ्यास
सिवाय तुम्हारे
भला कोई और कर सकता है..?

तुम्हारा भाषण सुनकर
मंत्रमुग्ध हो जाती हैं जनता
तुम अपने जादुई शब्दों से
लोगों में बाँध देते हो समा
तुम्हारी सभाओं में
लगातार गूँजती है
तालियों की गड़गड़ाहट
जब तुम 'भारत माता की जय'
की बुलंद नारे के साथ
अपने भाषण को देते हो विराम
तुम्हारे स्वागत में उठ खड़े होते हैं
मंचासीन सारे लोग
हाथ जोड़कर
करते हैं अभिवादन
सचमुच तुम
इतना अच्छा बोलते हो
कि तुम्हारे लाखों मुरीद बन जाते हैं
अनगिनत दीवाने हो जाते हैं 
नवयुवा पीढी 
तुम्हारे पदचिन्हों पर
चलने को बड़े बेताब लगते हैं

पर मैंने सुना है
कि गरजने वाले बादल
कभी बरसते नहीं
भौकने वाले कुत्ते
कभी काटते नहीं
तो क्या मान लूं
बोलने वाला बड़बोला वक्ता
कभी कुछ करते ही नहीं..?
वैसे भी
जब करने वाले के पास
बोलने का वक्त नहीं होता
फिर बोलने वाले के पास
कुछ करने का वक्त भला कैसे होगा..?

हे बोलने की संस्कृति 
के जन्मदाता
तुम अपनी
वक्तृता क्षमता के कारण 
दुनियां में सदा अमर रहोगे
बोलने में ही तुम्हारा पहचान है
तुम बस यूं ही बोलते ही रहो
जब-जब केवल 
बोलने वालों की बात होगी
तुम सदैव याद किए जावोगे।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

पाँच छोटी कविताएँ

पाँच छोटी कविताएँ 2.6.2020

1.लिखना और सीखना 
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मैं
लिखता जा रहा था
लिखता जा रहा था
बस लिखता ही जा रहा था
पर
लिखने के साथ-साथ
आख़िर क्यों नहीं
सीखता जा रहा था..?

2.जब पहचाना मैंने 
----------------------------
अनदेखे
उसे देखा मैंने
अनसुने
उसे सुना मैंने
अनछुए
उसे छुआ मैंने
अनजाने
उसे जाना मैंने
पछताया बहुत
जब
अनपहचाने
उसे पहचाना मैंने।

3.बेचैन नींद
----------------------
छीनी थी उसने
दूसरे की नींद
वह अब
सोया हुआ भी
सोए जैसा
नहीं लगता
उसकी आँखों में
नींद की जगह
होती है बेचैनी।

4.हँसी में फ़र्क
------------------------
जब-जब
हँसता है बच्चा
उसकी हँसी से
उमग जाता है
मेरा मन
पर
जब-जब
उसे देखता हूँ
हँसते हुए
न जाने क्यों
उमड़ता है क्रोध
मेरे भीतर।

5.बताओ 
-------------------
वह रोता है
निकलते हैं आँसू
पर
उसके 
आँसूओं के
स्वाद में
खारापन
क्यों नहीं होता
बताओ...?

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    975585247

गुड्डू की यादों में रामधीन

गुड्डू की यादों में रामधीन  -01.06.2020
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मेरे मस्तिष्क के एक हिस्से में
आज भी मौजूद है
रामधीन गोंड़ का
हँसता-खिलखिलाता
वह निष्कलंक काला चेहरा

मैं बहुत छोटा था तब
बमुश्किल छ: या सात बरस का
पर आज भी
अमिट-सी उसकी तसवीर
यादों में बसी हुई है

बियाबान जंगल में 
भूत बंगला सा
डिप्टी रेंजर बाबूजी को मिला
सरकारी मकान था वह
वन विभाग का
जहां सुबह-शाम
खाना बनाने के लिए
आता था वह रोज़

उस बियाबान में
वही था मेरा साथी
सुबह-शाम रोज़
उसके आने का
करता  था मैं इंतिजार
मेनगेट की आवाज़ सुनकर
दौड़ पड़ता था 
बाहर की ओर..

वह छोटे बच्चों की तरह
घुलमिल जाता था मुझसे
मेरे मनोरंजन के लिए
मुझे ख़ुश करने के लिए
वह निकालता था
तरह-तरह के जंगली जानवरों
और पक्षियों की
बिलकुल हुबहू आवाज़

वह लंबे स्वर में
गुड्डू-s-s-s कहकर बुलाता था मुझे
गुड्डू संबोधन में उसके
टपकता था अपरमित 
प्यार का रस

एक दिन वह 
कुछ ज़्यादा ही
पुचकार रहा था
बार-बार चुम रहा था मुझे
उसके मुँख से
अजीब-सी गंध
आ रही थी
तब मैं समझा नहीं था
वह शराब की गंध थी
वह पिया हुआ था

रामधीन अपने घर में
ख़ुद के लिए
कभी स्वादिष्ट खाना
बनाता था या नहीं 
मुझे नहीं पता
पर हमारे लिए
बड़ा स्वादिष्ट खाना
बनाता था वह
मूँग के दाल में
उसके लगाए
जीरे की छौंक की खूशबू
मेरी स्मृति के नाक में
बिलकुल वैसी ही
आज भी बैठी हुई है

तब मुझे पता नहीं था
कि वह आदिवासी है
गोंड़ है-बनवासी है
अपने अधिकारों से वंचित
नियति के हवाले एक ग़रीब है

तब मैं भी पढ़ा-लिखा नहीं था
रामधीन भी अनपढ़ था
हम दोनों
महज़ भोलेपन के साथ
स्नेह के डोर में बंधे हुए थे

अब जबकि बयालिस साल 
बीत चुकी हैं सारी बातें
फिर भी 
'गुड्डू' की यादों में
आज भी जीवित है रामधीन।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

वही कविता लिखी जाएगी बार-बार

वही कविता लिखी जाएगी बार-बार -01.06.2020
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फिर-फिर लिखी जाती है 
वही-वही कविता
जो पहले भी लिखी जा चुकी है कई-कई बार

पर नकल नहीं है कोई भी कविता
जो लिखी जा रही है
बासी भी नहीं है

अनाज के दाने जैसी है कविता
जो हर बार नयी बोई जाती है

खेतों में उगी हुई 
लहलहाती-फूलती-फलती फसलें
नयी-नयी होती है हर बार

अन्न के नए दानों में
उतना ही होता है
पोषक तत्व नया-नया
स्वाद भी नया-नया

बदल जाते हैं किसान
उसके बीज बोने के तरीके

पैदावार होती रहेगी
जब तक है खेत,किसान
और श्रम की ताकत

काल अंतराल के बाद
फिर-फिर लिखी जाएगी 
वही कविता
नए रूपों में
नए ढंगों में
अनवरत।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

तुम मजदूर हो

तुम मजदूर हो - 29.05.2020
-------------------------------------------
तुम अपने घरों से गाँवों से 
पलायन कतई नहीं किए थे
अखबारों और न्यूज़ चैनलों में
तुम्हारे बारे में छापे गए 
सारे समाचार झूठ थे

हक़ीक़त तो यही है
कि तुम्हारे भी 
बच्चे हैं-परिवार हैं
पेट के खयाल से थोड़े अधिक 
तुम्हारे भी सपने हैं
चाह है तुम्हारी भी
एक छोटा सा पक्का सा मकान हो
बेटी की शादी के लिए थोड़े पैसे हो

भाग्य के साथ तुम्हारा
छत्तीस का आंकड़ा 
जन्मों से रहा है
फिर भी
आज तलक तुम्हारा 
कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया है भाग्य

तुम न रोते हो
न ही कभी कोसते हो
न भाग्य पर
न ईश्वर पर 
न ख़ुद की तकलीफों पर

तुम सच्चे आस्तिक हो
कर्मरत रहना
तुम्हारा धर्म है
और मेहनत तुम्हारा भगवान

तुम्हारे पास
अन्न के भंडार नहीं
आड़े वक़्त के लिए
संचित पूँजी भी नहीं
तुम रोज कमाते हो
रोज खाते हो

इस कोरोना काल में
घरों में कैद है दुनियां
महफूज़ हैं उनकी ज़िंदगी
तुम्हीं हो बेघर 
भूख से बिलबिलाते
प्यास से तड़पते
पाँवों में छाले
बच्चों को गले में बाँधे
चिलचिलाती धूप में
भटकते-भटकते
घर पहुँचने की
ख़्वाहिश लिए
तपती सड़कों पर
दूरियां नापते चले आ रहे हो

ऐ भोले-भाले
बेख़बर इंसान
तुम्हें पता नहीं 
देश लॉकडाउन में है
तुमने सुनी नहीं
सरकारी हिदायतें
तुमने सुना या पढा नहीं
टी वी अखबारों से प्रसारित गाइडलाइंस
तुम मौत से
यूं बेख़ौफ़ बेपरवाह
कैसे हो सकते हो ?
क्या तुम्हें स्टे होम का मतलब
पता भी नहीं है..?
सरकार और प्रशासन
लॉकडाउन में है
वे स्टे होम का पालन कर रहे हैं
तुम तो बाहर में हो
भेड़ बकरियों की तरह भीड़ में हो
तुम्हीं बताओ 
तुम्हारी समस्या
आख़िर कौन सुनेगा..?

मैं मानता हूँ
राह चलते-चलते
पटरियों पर सोते-सोते
तुम्हें हर पल
अपने गाँव और घर की 
याद आती होगी
शायद इसीलिए
तुम रूकते नहीं
तुम थकते नहीं
गिरते-मरते
बस चलते ही रहते हो
घरों की ओर 
तुम्हारा यूं लौटना
मुझे आश्चर्य नहीं होता
बुरे वक़्त में
अपनी ज़मीन
अपने लोग
भला किसे याद नहीं आते..?
तूफ़ान या बारिश
के आने पर
पशु-पक्षी भी
चल पड़ते हैं
अपनी नीडों की ओर
फिर भला तुम क्यों नहीं...?

तुम्हारे साथ 
कोई रहे या न रहे
साथ दे या न दे
तुम्हारे साथ हमेशा रहती है 'भूख'
जब तुम 
घर से निकले थे
भूख साथ थी
अब लौट रहे हो घर
तब भी साथ है भूख
दो अक्षरों
'भू' और 'ख' के बीच
समाहित है
तुम्हारी जिन्दगी
जैसे ये दो अक्षर
अक्षर नहीं दो पाट हों
हमेशा से
इन्हीं दो पाटों के बीच
तुम पिसे जाते रहे हो

मई का महीना है 
कहते हैं लोग
यह तुम्हारा महीना है
मुझे संदेह नहीं
इतनी भीषण गर्मी वाला महीना
तुम्हारा ही हो सकता है
खुशियों वाली बरसात
गुनगुनी धूप वाली ठंड
प्रेम से भरा बसंत
तेरे हिस्से कैसे आ सकता है..?
आज मई की पहली तारीख़ है
क्या तुम्हें नहीं पता !
तुम्हारा दिवस है आज
तुम अपनी बाजुओं से 
बड़े से बड़े पहाड़ काट डालते हो
तो क्या छोटा केक नहीं काट सकते ?
तुम बड़े स्वार्थी हो
तुम्हारे पास जो दुख है
वह तो किसी से कभी बांटते नहीं
अपने दिवस पर
मिठाई क्या बांटोगे
जो तुम्हारे पास है भी नहीं

तुम मजदूर हो 
तुम मज़बूर हो
तुमसे भला कौन प्यार करेगा ..?
तुम जिंदा हो
इसलिए कि अभी 
तुममें जांगर बचा हुआ है
तुम अपना
ख़ून जलाकर
पसीना बहाकर
चंद पैसे तो कमा सकते हो
पर मालिक से कभी
मोहब्बत नहीं पा सकते
तुम दिनरात 
जांगर खपाकर
सड़कें,गगनचुम्बी इमारतें
बना तो सकते हो
पर अपने मालिकों के दिलों में
कभी जगह नहीं बना सकते

वे भलीभाँति जानते हैं
तुम्हारी क़ीमत
तुम्हारी सीमाएं
और
तुम्हारी बेबसी
तुम महज़ 
'एक वोट ही तो हो'
वक़्त आने पर
ख़रीद लेंगे तुम्हें
तुम चंद रुपयों में
उनके लिए भीड़ बन जाओगे
क़भी इसके लिए
कभी उसके लिए
बिकते रहोगे तुम
तुम्हारा ईमान
इतना भी मज़बूत नहीं
कि तुम्हारे पेट की आग 
उसे जला न सके
तुम्हारी गरीबी
तुम्हारी बेकारी
तुम्हारी भूखमरी
तुम्हारी अशिक्षा
कोई मुद्दा ही नहीं है
उनके लिए ज़रूरी है
तुम्हारी जाति 
तुम्हारा धर्म
और 
तुम्हारा छ्द्म राष्ट्र
जाति, धर्म और छ्द्म राष्ट्र से ही
तुम हमेशा उद्वेलित होते रहे हो
रैलियों में जाते रहे हो
नारे लगाते रहे हो
परस्पर घृणा करते रहे हो
ख़ून बहाते रहे हो
मैं नहीं जानता
कि तुम सचमुच बुद्धू हो
या सचमुच देशभक्त हो
पर छ्द्म राष्ट्र के नाम पर
अपनी असल समस्या
भूल जाते हो
और
हर बार शिकार बन जाते हो।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

इंसान और ओहदा

इंसान और ओहदा - 27.05.2020
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जब किसी ओहदे में होते हैं 
तब इंसान नहीं होते 

जब इंसान होते हैं
तब ओहदे से बेदख़ल हो चुके होते हैं

काश इंसान और ओहदे अगर साथ होते !

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
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मोबाइल के बिना..

मोबाइल के न होने पर....26.05.2020
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साढ़े दस बज चुके थे
पर मुझे तो साढ़े दस बजे पहुँच जाना था कॉलेज
हड़बड़-हड़बड़,ज़ल्दी-ज़ल्दी तैयार होने लगा
बस दो मिनट में हो गया तैयार
दस-सैंतीस पर पहुँच चुका था कॉलेज
पर यह क्या हस्ताक्षर के लिए जेब में पेन नहीं !
पेन के बिना हड़बड़ाहट सी हो गई
जब भी मुझसे पेन भूलने की ग़लती होती है
किसी और से पेन मांगना अपराध सा लगता है
मेरी इस दशा पर कोई बोले या न बोले
मैं ख़ुद ही ख़ुद को बोलता हूँ 
शरम करो पेन भी नहीं है तुम्हारे पास और आए हो कॉलेज

ख़ैर मांगे हुए पेन से हस्ताक्षर कर प्राचार्य कक्ष से निकला बाहर
तभी मेरे पीछे से एक मित्र प्रोफ़ेसर ने आवाज़ दी
कुलमित्र जी ज़रा पेन देंगे क्या ..?
सहसा मैं अपराध की जगह तसल्ली के भाव से भर गया
मेरी तरह के केवल मैं ही नहीं और भी लोग तो हैं

हिंदी विभाग पहुँचकर कर सुकून से बैठा था
कि खुद ब ख़ुद पेंट की जेब तक टटोलते हुए पहुँच गया मेरा हाथ
मैं फिर से हड़बड़ा गया मगर इस बार ज़ोरदार
मेरे मुख से अस्फुट-सी आवाज़ निकली
अरे ! मेरा मोबाइल कहाँ गया...?
समझ आया कि जल्दबाजी में घर पर ही छूट गया है मोबाइल
मोबाइल के बिना सहसा अधूरेपन से भर गया
पिछले तीन घंटों में मेरे हाथ न जाने कितनी बार टटोली होगी जेब
मन ही मन न जाने कितनी बार खिसियाया होऊँगा ख़ुद पर
वाट्सएप के लिए ,फेसबुक के लिए,समय देखने के लिए,क्रिकेट स्कोर के लिए,फ़ोटो खींचने के लिए,ब्रेकिंग न्यूज़ के लिए
ऐसे ही और भी ....... के लिए ........के लिए तड़पता रहा था लगातार 
सोच रहा था बार-बार, कोस रहा था बार-बार
न जाने कौन-सा मैसेज आया होगा ? न जाने किसका कॉल आया होगा?
कितना भुलक्कड़ हो गया हूँ मैं आजकल

खैर तीन घंटे बाद जब लौटा घर तो चरम पर थी मेरी बेसब्री
लपककर उठा लिया था मोबाइल को
जैसे लंबे विरह अंतराल के बाद प्रेमी लपका हो प्रेमिका पर
यह सच है कि हमने बनाया है मोबाइल को
पर हमको पागल तो बनाया है मोबाइल ने 

मुझे अपने एक मित्र की बेबसी पर हँसी तो तब आई थी
जब वह घण्टों मोबाइल की लत से पीछा छुड़ाने का उपाय
कहीं और नहीं मोबाइल पर ही ढूँढते हुए मिले थे।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
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सरकारी रिपोर्ट

सरकारी रिपोर्ट- 16.05.2020
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सरकारी रिपोर्ट में कभी 
मजदूर नहीं होते
मज़दूरों की पीड़ा नहीं होती
मज़दूरों के बिलखते बच्चे नहीं होते
नहीं होता उनके अपनी धरती से पलायन होने का दर्द
नहीं होती उनकी भूख और प्यास की कथा
बूढ़े माँ-बाप से अलगाव की मज़बूरी
और शासन-प्रशासन की नाकामी की बात 
सरकारी रिपोर्ट में कतई नहीं होती

सरकारी रिपोर्ट में होती है
खोखली राहत पैकेजों की लंबी सूची
बेअसर सरकारी योजनाओं का गुणगान
सब्ज़बाग दिखाते सरकारी पहलों की तारीफ़ें
प्रशासनिक अमलों की, की गई जीतोड़ कोशिशें
सरकार की शाबाशी
और पहली से आख़िरी पृष्ठ तक
'मजदूर कल्याण' की दिशा में
गढ़ी गई सफलता की ऐसी कहानी
जो वास्तविकता से परे शुद्ध काल्पनिक होती है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
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विकास यात्री

विकास-यात्री - 15..05.2020
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निकला था वह
विकास यात्रा में

कमाया
अपार धन

अर्जित किया
अपार यश

अब उसे
भूख नहीं लगती
नींद नहीं आती

अब केवल
अपनी तृष्णा के सहारे
जीवित है 
विकास यात्री।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
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रोटी

रोटी - 15.05.2020
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पता नहीं
इसे रोटी कहूँ
या भूख या मौत
आईना या चाँद
मज़बूरी या ज़रूरी

कभी मैं रोटी के लिए
रोती हूँ
कभी रोटी
मेरे लिए रोती है

कभी मैं
भूख को
मिटाती हूँ
कभी भूख
मुझे मिटाती है

रोटी से सस्ती
होती है मौत
वह मिल जाती है
आसानी से
पर रोटी नहीं मिलती

रोटी आईना है
जिसमें दिखते हैं हम
पर रोटी में
हम नहीं होते
हमारा आभास होता है

खूबसूरत चाँद-सी
लगती है रोटी
पर होती है दूर
सिर्फ़ देख सकते हैं उसे
छू भी नहीं सकते

क्या करें साहब !
ज़िंदा तो रहना है
इसीलिए
रोटी मज़बूरी है
और ज़रूरी भी।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
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माँ और बेटा

माँ 
ताउम्र माँ रहेगी
कहने की जरूरत नहीं

बेटा
ताउम्र बेटा रहेगा
कह नहीं सकता..!    

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

विकास के सवालों में आदमी को जोड़ना

विकास के सवालों में आदमी को जोड़ना -13.05.2020
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उनकी सोच विकासवादी है
उन्हें विश्वास है केवल विकास पर
विकास के सारे सवालों पर
वे मुखर होकर देते है जवाब
उनके पास मौजूद हैं 
विकास के सारे आँकड़े

कृषि में आत्मनिर्भर हैं
खाद्यान से भरे हुए हैं उनके भंडार
आप भूख से मरने का सवाल नहीं करना
वे आंकड़ों में जीत जाएंगे
आप सबूत नहीं दे पाएंगे
आपको मुँह की खानी पड़ेगी

वे विज्ञान में भी हैं आगे
वे आसमान की बातें करते हैं
धरती की बात उन्हें गवारा नहीं
अंतरिक्ष, चाँद और उपग्रह पर
चाहे जितना सवाल उनसे पूछ लो
कभी ग़लती से भी
ज़मीनी सवाल पूछने की ज़ुर्रत नहीं करना
वरना जमींदोज हो जावोगे एक दिन

उनके संचार भी बड़े तगड़ें हैं
वे आपके बारे में पल-पल की ख़बर रखते हैं
ये और बात है
बाख़बर होते हुए भी बेख़बर होते हैं
उनके संचार व्यवस्था पर
आप सवाल करें यह मुमकिन ही नहीं
उसने मुफ़्त में बांट रखे हैं फोर जी नेटवर्क
खाना आपको मिले या न मिले  
ख़बरों से जरूर भरा जाएगा आपका पेट

भाई साहब उनके पास 
विकास के तमाम आँकड़े हैं
आपके पास उतने तो
विकास के सवाल भी नहीं हैं
गरीबी,बेकारी,भूखमरी ये सारे
पीछड़ेपन की निशानी है
उनके लिए पीछड़ेपन पर चर्चा करना
सवाल उठाना महज़ बेवकूफ़ी से कम नहीं

वे भला विकास छोड़ 
पिछड़ों से बात करें
उनके सवाल सुनें
हरगिज़ संभव नहीं
दरअसल उनके लिए 
पिछड़ों के  सवाल सवाल ही नहीं होते
इसलिए
सावधान !याद रखना विकास के सवालों में
कभी आदमी का सवाल मत करना
उनके लिए सबसे बड़ा गुनाह है
विकास के सवालों में आदमी को जोड़ना।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

रुकना भी है चलना

रुकना भी है चलना - 13.05.2020
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हमें तो बस यही सिखाया गया है चलते रहो चलते रहो
बस चलते ही रहो चलते ही रहने का नाम है जिंदगी
रुक जाने से जिन्दगी भी रुक जाएगी तुम्हारी 
उनके लिए विरोधाभासों में जीना जैसे जिंदगी ही नहीं होती
मैं कहूँ रूकने से जिंदगी सँवर जाती है तो आप हँसेंगे
आपने कभी रुकना सीखा ही नहीं
आपने कभी समझा ही नहीं रुकने का दर्शन
आपकी नज़रों में नकारात्मक सोच की ऊपज है रुक जाना
रुकना उनके शान के ख़िलाफ़ है
आप रुकने के लिए उन्हें कहें और मज़ाल है कि वे रुकें
उनके ज्ञान, धर्म और शिक्षा के ख़िलाफ़ है आपका रुक जाना
रुकना बुद्धिमानी है अगर जिंदगी के मुहाने पर मौत खड़ी हो
चलना फिर तेज़ चलना फिर और तेज़ चलना फिर दौड़ने लगना जिंदगी नहीं होती
जिंदगी हमारी रफ़्तार में कतई नहीं होती
जैसे पूरा-पूरा जागने के लिए पूरी-पूरी गहरी नींद में सोना ज़रूरी होता है
वैसे ही चलायमान जिंदगी के लिए ज़रूरी होता है रुकना
बताओ आखिर सोए बिना कैसे जागोगे और कब तक जागोगे..?
सत्य कई बार खुली आँखों से दिखाई नहीं देता
साफ़-साफ़ दूर-दूर तक देखने के लिए  
जरूरी होता है  आँखों को बंद करके देखना 
आँख बंद करके चलते रहने से अच्छा है रूक जाना
चलते रहने वालों के ख़िलाफ़ है ट्रैफ़िक की लाल बत्ती पर रूक जाना
रुकना समझदारी है रुकना ऊर्जा का केंद्र है रुकना बाहर और भीतर देखना है रुकना चलने की प्रेरणा है
आप मानो या ना मानो सहीं मायने में रुकना भी चलना है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

पुरूषों के शिकार होती स्त्रियां

पुरुषों के शिकार होती स्त्रियाँ - 12.05.2020
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लोग कहते रहे हैं
महिलाओं का मन
जाना नहीं जा सकता
जब एक ही ईश्वर ने बनाया
महिला पुरुष दोनों को
फिर महिला का मन
इतना अज्ञेय इतना दुरूह क्यों.. ?

कहीं पुरुषों ने जान बूझकर
अपनी सुविधा के लिए
तो नहीं गढ़ लिए हैं 
ये छद्म प्रतिमान !

क्या सचमुच पुरुषों ने कभी
समझना चाहा है स्त्रियों का मन ..?

अपनी अहंवादी सत्ता के लिए
पुरुषों ने गढ़े फेबीकोल संस्कार
बनाएं नैतिक बंधन 
सामाजिक दायरे
करने न करने के नियम
और पाबंदिया कई

हमने कहा---
"तुम बड़ी नाज़ुक हो।"
वह मान गई
अपनी कठोरता
अपनी भीतरी शक्ति जाने बिना
ताउम्र कमज़ोर बनी रही

हमने कहा---
"तुम बड़ी सहनशील हो।"
वह मान गई
बिना किसी प्रतिवाद के
पुरुषों की उलाहनें
शारीरिक मानसिक अत्याचार
जीवनभर सहती रही चुपचाप

हमने कहा---
"तुम बड़ी भावुक हो।''
वह मान गई
वह अपनी  पीड़ा को कहे बिना
भीतर ही भीतर टूटती रही रोज़
जीवनभर बहाती रही आँसू

हमने कहा---
"तुम बड़ी पतिव्रता हो।"
वह स्वीकार कर ली
वह प्रतिरोध करना छोड़ दी
हमारी राक्षसी कृत्यों
बुराईयों को करती रही नजरअंदाज
पूजती रही ताउम्र ईश्वर की तरह

हमने कहा---
"तुम बड़ी विनम्र हो।"
वह स्वीकार ली
हमारी बातों को पत्थर की लकीर मान
बिना किसी धृष्टता किए
बस मौन ताउम्र ढोती रही आज्ञाएँ

पुरुषों ने बड़ी चालाकी से
सब जानते हुए समझते हुए
षडयंत्रों का जाल बनाकर 
खूबसूरत आकर्षक शब्दों के चारे डाल
जाल बिछाता रहा-फँसाता रहा
बेवकूफ शिकार सदियों से
फँसती रही-फँसती रही-फँसती रही।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      9755852479

मौन भंग

मौन भंग - 09.05.2020
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कभी किसी का मौन
भंग न करो
अक़्सर भंग हुआ मौन
अशांति का कारण बन जाता है
जैसे आती है सुनामी
समुद्र के मौन भंग हो जाने से।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

समय सबको बताएगा

समय सबको बताएगा - 07.05.2020
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समय के पास 
समय नहीं है
कि थोड़ी देर रुके
तुम्हारे लिए

अच्छा होगा
कि तुम भी न रूको
चलते रहो 
समय के साथ

रुकने वालों का 
कोई संवाद नहीं होता
कोई कहानी नहीं होती
कोई इतिहास नहीं होता

चलते रहने वालों
तुम चलते ही रहो
तुम्हारे बारे में 
एक दिन
समय सबको बताएगा

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

पेड़ होती है स्त्री

पेड़ होती है स्त्री -07.05.2020
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जीवन भर
चुपचाप
सहती है
उलाहनों के पत्थर
और
देती है
आशीषों की छाँह

बड़ी आसानी से
काटो तो कट जाती है
जलाओ तो जल जाती है
आपके हितों के लिए
ईंधन की तरह

पेड़ होती है स्त्री।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479