अपने
ही सामने…28.06.2000 (लंबी कविता)
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१
बोथराए
कुल्हाड़ी की भाँति
अपने
ही सामने नतमस्तक खड़ा हूँ
हथियार
डाल दिया हूँ
जिससे
अब तक संकल्पों का खून होता रहा है
चेहरे
वही
भीतर
से कुछ बदला हुआ
अपना
ली है एक तर्ज-
‘पुरानी
बोतल में नयी शराब’
सोचकर
संकल्प आनंदित है
खूनी
चल बसा-हत्यारा मर गया
जो
संकल्पों का था दुश्मन कल तक।
अचानक
ठोकर !
धीरे-धीरे
निष्क्रीय,संकल्पहीन,
जीवन
भर कुछ पाने के लिए
खो
दिया सब कुछ
जिन्दा
रहा अमृर्त्य तृष्णा….
फिर
विचारमग्न है,शोकाकुल है
एक
चिंतित लाश
आखिर
कब तक
फिर
वही-फिर वही
नाटक
खेलते रहोगे
संकल्प
लिए सुधारों के नाम पर
अंतर्मन
से घोषणाएँ भी हुई
पर
नाटक अंतहीन
एक
भाग शेष रहता ही है
लगता
है मंचन होता रहेगा जीवन भर,
ज़रा
सा विचार
क्षणभर
का आत्मबोध
मानव
स्वतंत्र है
गुलामी
थोपकर
उसे
दोषी क्यों बनाते हो?
चिह्नित
परिपाटी और तथाकथित नियमों की
बेड़ियाँ
क्यों पहनाते हो?
पिंजरा
लोहे की है या सोने की
कैदी
तो सिर्फ कैदी है।
सच्चाई
किसी अवरोध के अंदर नहीं होता
मृत्यु
को किसी ने बाँधा?
ऎ
मानव !
सीमाओं
से बाहर आओ
पराक्रम
की कोई पराकाष्ठा नहीं होती,
यह
जानकर भी विक्षुब्ध हूँ
परिस्थितियों
में में जिता हूँ
डरता
हूँ पहियों में दबने से
सीमित
करता हूँ निज विचारों को
कल्पनाओं
की उड़ान
और
अरमानों की पोटली
हर
पल संजोता हूँ
अचानक
हकीकत की जमीं पर पड़ा पाता हूँ
दीवारों
के घेरे में उम्मीदों के साथ जिता हूँ
एक
अज़ीब-सा डर,एक संदेह,एक भरोसा
क्या
मेरी कल्पना साकार होगी?
एक
ही रफ़्तार
कोई
आगे कोई पीछे
मैं
खड़ा मौन देखता हूँ
भागती
हुई भीड़ को
मन
करता है पीछे हो लूँ
पैदा
हुआ एक देह लेकर
भीतर
कोई बैठा रहा चुपचाप
देखकर
कभी चिल्लाता था ज़ोरदार
पर
रहा बेअसर
सुनकर
भी बहरा बना रहा
बेहुदगियाँ
बदस्तूर चलती रही..
जो
भीतर बैठा था…..?
केवल
देह रह गया
देह
के लिए होड़
जिते
लाशों की दौड़
कहाँ
गया वो प्रकाश ?
घोर
तम का घर बन गया
चिनगारियाँ
लुप्त हो गईं
ब्याधियों
के गुलाम हो गए
भाई
वाह क्या हिदायत है
अपनों
को-‘ प्रवेश वर्जित है ’
दूर
खड़ा ताकता है ‘ज्ञान’
अपेक्षा
की नज़रों से
पर
हाय ! उसका नाम ही नहीं है
खुद
को देता है सांत्वना-
“..असफलता,अभाव,दुःख,पीड़ा
जीवन
के अंग हैं
धैर्यता
के साथ जीवन के आनंद भी मिलेंगे
उत्साही
कभी पराजित नहीं होते..।”
उम्र
दर उम्र पीढ़ी आगे बढती है
पर
व्यवस्था स्थिर,अचल,अपरिवर्तनशील
हमारे
कर्णधार
शपथ,संकल्प
और प्रतिज्ञायें लेते रहे
मापते
रहे-खर्चते रहे
हादसे
होते रहे
परिवर्तन
की योजना बनती रही
बदलने
के लिए जेहाद छेड़ते रहे
दरार
आती रही
सुधारों
की कसमें खाते रहे
पर..वही
आज भी
कभी
और नीचे,गिरे हुए
कलुषित,बदतर,दयनीय,घृणास्पद
और विभत्समय
अवस्था
में पाता हुआ
वचनवीर
बने रहे।
जाने
दो मुझे क्या ?
आज
फिर हीनता से ग्रसित हूँ
आत्मग्लानि
से लबालब हूँ
न
दोष है व्यवस्था का
और
न व्यवस्थादारों का
मुझे
स्वयं लड़ना है
फिर
एक क्षण की आत्म जागृति
विडंबना
है संयमहीनता की
कई
कोशिशे ना कामयाब
आखिर
संकल्पहीन पुनरावृत्ति कब तक चलता रहेगा?
अब
तक दृष्ट है-पराजय और असफलता
आखिर
स्वयं से न जीत सका
बहुत
देखा,परखा,तौला,आजमाया
पर
बाँध न सका स्वयं को
छोड़
चुका हूँ हद से ज्यादा
मेरी
प्रवृति बेलगाम होकर अपने कायदे भूल जाते हैं
एक
अज़ीब नशे में धूत रहता हूँ
ज़माने
की सारी शिक्षाएँ दुश्मन बन जाते हैं
उस
बदरंग पायदान से मेरे पैर नहीं हटते
और
भी जमते जाते हैं सख़्त
क्षण
भर के लिए असह्य,ग्लानि ,जागृति
फिर
पराजय की एक और चोंट
भीतर
से फिर एक धिक्कार
चिल्लाता
है दिव्य पुरुष बार-बार
अरे
ओ ! स्वद्रोही ज़रा होश में आ
आखिर
कब तक इस दुष्कलेवर और कलुषित मन को ढोता रहेगा ?
न
दृढ हुए न मजबूत रीढ हुए
जिते
रहे बिना पेंदे की बर्तन की तरह
कौन
कहता है कि तू पैदा हुआ है
जिते
लाश की तरह भटकते रहे हो
न
कोई चुनौती न कोई संकल्प
न
कोई कर्तव्य न कोई विकल्प
समय
रुकता कब है ?
पर
हम रुके रहे
पत्थरवत्
स्थिर बने रहे
क्षण
भर जागे भी तो कभी
पर
क्या हुआ
हाय
तन हाय तन रटते रहे
यह
मेरा वह तेरा का हिसाब लगाते रहे
कौन
कहता है कि तू पैदा हुआ है
जिते
लाश की तरह भटकते रहे ।
२
चलते
फिरते अचानक
अपने
ही सामने खड़ा हो जाता हूँ
स्याह,बोथराया
चेहरा
कभी
नकारता हूँ
कभी
सहर्ष स्वीकारता हूँ
कभी
देता हूँ शाबासी
कभी
धिक्कार देता हूँ
एक
पल के लिए होती है जागृति
हर
बार की तरह रुदन और पश्चाताप
पर
मैं ठोस न हो सका पानी
बढता
हूँ आगे बढती है कहानी
बीते
और आगत स्वार्थों के लिए
‘काल’
को खण्डों में बांटता रहा
बंद
मंजूषा के ढक्कन किसी आहत से खुलते हैं
झरते
हैं ज्ञान अनुराग
तत्क्षण
आत्मानुभूति-एक दर्द
आता
हूँ बाहर चार दीवारों के
मनमोहक
कोलाहल से आक्रांत होकर
विस्मृति
के गोद में चला जाता हूँ
अब
मत खींचो मुझे
छोड़
दो मेरे इसी अपने हाल में
उत्कर्ष
की कहानी मत सुनाओ
मुझे
‘विस्तार’ नहीं चाहिए
शब्द
और आंकड़े किताबों में रहने दो
एक
परिस्थिति जिस पर हम फेंके गए हैं
खुद
को समेटकर जीना मेरा बड़प्पन नहीं है
मैं
कोई योगी परिव्राजक भी नहीं
अभावों
का मारा एक दरिद्र हूँ
मेरा
संयम महज़ एक दिखावा है
मज़बूरी
की आत्मकथा है
पर
मत भूलो मेरे अभावों की ताकत
ये
ऎतिहासिक भवन,सड़क,कारखाने
और
न जाने क्या-क्या
मेरे
अभावों के मिसाल हैं
मैं
सृष्टि की आदि हूँ अंत हूँ
मेरी
कोई परिधी नहीं अमर हूँ अनंत हूँ
मैं
सब देख रहा हूँ –
खून
से लथपथ मानवता
डरी
और सहमी हुई भागती जा रही है
मुझसे
ओझल होने तक
भागती
जा रही है भागती जा रही है
किञ्चित
प्रश्नों से घिरा हुआ
दूर
जाती मानवता को निर्निमेश,निर्वाक देख रहा हूँ
‘मानवता’आखिर
दर-दर क्यों भटक रही है ?
समाज
से निर्वासित क्यों हो गई है ?
क्यों
रुष्ठ हो गई है हमसे हमारी मानवता ?
अब
मानवता कहाँ रहेगी ?
उसे
मनाएगा कौन अपनाएगा कौन ?
क्या
खत्म हो जाएगी मानवता ?
क्या
मानवता के लिए कहीं जगह नहीं बचा ?
मुझे
भी हड़बड़ी है
सोचने
की क्या पड़ी है
बढता
हूँ आगे ज़माने की हरकतों के साथ
पर
भीतर बैठा मूक दृष्टा
मेरी
मूर्खता पर करता है अट्टहास
भाई
वाह क्या परिवर्तन है इस सदी में
नेकी
का बदी में
परिभाषा
बदल गए
खोंटे
सिक्के चल गए
प्लास्टिक
की तितली घर के दीवारों पर सज गए
करिश्मायी
रंग पूते हैं
पोस्टर
पर हरी पत्ति के
जंगल
उपवन सब घिर गए दीवारों के घेरे में
बेजान
सौंदर्य और मुर्दायी संस्कृति
चारों
ओर पसर गए हैं
पर
यह क्या
फिर
वही गोल-गोल प्रश्नों के छल्ले
मेरे
सिर के ऊपर नाच रहे हैं
क्या
मैं ही बचा हूँ दुनियाँ में इन प्रश्नों के लिए
देश
और समाज,प्रकृति और संस्कृति की सारी चिंता
क्या
सिर्फ मेरे हिस्से में हैं ?
आखिर
ये प्रश्न मुझे ही क्यों सताते हैं ?
नहीं
मैं कोई अपवाद नहीं हूँ,ठेकेदार नहीं हूँ
हम
सब के लिए है ये प्रश्न
तो
आओ इन प्रश्नों को बांटे
आपस
में मिलकर निपटाएँ
समस्या
का समाधान निकालें
पर
बहरों और अंधों के समाज में
सुनने
और देखने वाले कौन हैं ?
कहने
को सभी के पास सुनहरे सपने हैं
पर
यथार्थ में कुछ भी अपने नहीं हैं
आज तक अरमानों पर बनता रहा-मिटता रहा
कुछ
पाया – पर खोया ज्यादा
कर्तव्य
को कर्तव्य के लिए न कर सका
उफनते
धाराओं के माद में
तैरता
रहा स्वार्थों के झाग बनकर
यह
तेरा-वह मेरा
बस
इसी फेर में
कभी
ज़ल्दी-कभी देर में
अपने
कदमों को विस्तार देता रहा
अपने
ही बल पर
कल
के लिए दौड़ गए चंद्रमा के तल पर
कुछ
पाया – पर खोया ज्यादा
आज
मानवता विहीन
चीर
संस्कृति से लुटे हुए
खड़े
हैं एक चौराहे पर
हम
और तुम
दिशाहीन
भटके हुए खड़े हैं
अनुत्तरित
अंजान पथ पर
कुछ
भी निश्चित नहीं
किधर
चलूँ
किधर
न चलूँ ?
३
विशाल
जन सैलाब
चिहरती-भागती
भीड़
संगीत
सरिता में मगन महफिल
सभा-सम्मेलन
में विचार संगोष्ठी
पर
एक अछूता अनदेखा बिलकुल निर्वेद
इसी
नभ और धरा के बीच में
हतप्रभ
निगाहों से
महफिल
को देखता है
कोलाहल
को सुनता है
एकदम
अकेला अंजाना होते हुए
अपने
भीतर विराट को समेटा रहता है
विगत
और आगत के द्वंद में
‘वसुधैव
कुटुम्बकम्’ के छंद में
खोया-सा
उलझा हुआ रहता है
अपनों
के बीच में परायेपन को जिता है
समय
असमय विप्लव का संदेश लाता है
पर
अकेले चने का भाण्ड फोड़ना
हर
बार संभव नहीं होता
जब
बाकी सब बैठें हो खामोश
सहजता
से स्वीकार लिए हों परिस्थितियों को
सीख
लिए हों अभावों में जीना
जीने
का मकसद भूल अब जीना ही मकसद बन गया है
इसीलिए
दम उखड़ गया
जुटा
न सका हौसला
करता
रहा सलाम
स्वीकार
लिया कदमों की चुंबन
और
भाग्य पर इठलाने वाले
फ़ैशनपरस्त-अकर्मण्य-ऎश्वर्यवादी
के सामने झुक गया
कल्पित
भाग्य के लेखे पर स्वयं को झोंक दिया
खो
दिया दिया अस्तित्व, बन गए गुलाम
कयामत
के इंतिजार में अचल हो गया
न
मर सका, न आगे बढ़ सका
दमित
कछुआयी संस्कृति को ढोता रहा
युगों-युगों
से होता रहा प्रहार
झेलता
रहा आघातों की मार
कया
करूँ किससे कहूँ –
मानता
नहीं कोई
आखिर
माने कौन जाने कौन --?
लिए
अपने-अपने तराजू
मानवता
को तौलने की साजिश में लगें हैं
मानता
ही नहीं कोई
मैनें
देखा है
निर्वस्त्र
लहू चूते
मानवता
को लुटी हुई, बिलखती-भटकती हुई ।
किससे
कहूँ
किस
जाति,धर्म या संप्रदाय से पूछूँ ?
कि
मानवता हमसे दूर क्यों जा रही है ?
भ्रमित
हैं सब लोग
आखिर
माने कौन –जाने कौन ?
अरे
! यह क्या
जलसा
किस बात की है
पूछता
हूँ किस जात की है
फिर
वही साजिश धोखा छल
मानवता
के नाम पर ढ़ॊग
भाई
वाह साधन जुटाए हैं खूब
देखूँ
मानवता हैं कहाँ समाज में
क्या
सबूत है क्या प्रमाण है ?
प्रमाणों
के घेरे में हैं लोग
मानता
नहीं कोई किससे पूछूँ
आखिर
माने कौन –जाने कौन ?
_ नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
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