Tuesday 9 June 2020

तुम मजदूर हो

तुम मजदूर हो - 29.05.2020
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तुम अपने घरों से गाँवों से 
पलायन कतई नहीं किए थे
अखबारों और न्यूज़ चैनलों में
तुम्हारे बारे में छापे गए 
सारे समाचार झूठ थे

हक़ीक़त तो यही है
कि तुम्हारे भी 
बच्चे हैं-परिवार हैं
पेट के खयाल से थोड़े अधिक 
तुम्हारे भी सपने हैं
चाह है तुम्हारी भी
एक छोटा सा पक्का सा मकान हो
बेटी की शादी के लिए थोड़े पैसे हो

भाग्य के साथ तुम्हारा
छत्तीस का आंकड़ा 
जन्मों से रहा है
फिर भी
आज तलक तुम्हारा 
कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया है भाग्य

तुम न रोते हो
न ही कभी कोसते हो
न भाग्य पर
न ईश्वर पर 
न ख़ुद की तकलीफों पर

तुम सच्चे आस्तिक हो
कर्मरत रहना
तुम्हारा धर्म है
और मेहनत तुम्हारा भगवान

तुम्हारे पास
अन्न के भंडार नहीं
आड़े वक़्त के लिए
संचित पूँजी भी नहीं
तुम रोज कमाते हो
रोज खाते हो

इस कोरोना काल में
घरों में कैद है दुनियां
महफूज़ हैं उनकी ज़िंदगी
तुम्हीं हो बेघर 
भूख से बिलबिलाते
प्यास से तड़पते
पाँवों में छाले
बच्चों को गले में बाँधे
चिलचिलाती धूप में
भटकते-भटकते
घर पहुँचने की
ख़्वाहिश लिए
तपती सड़कों पर
दूरियां नापते चले आ रहे हो

ऐ भोले-भाले
बेख़बर इंसान
तुम्हें पता नहीं 
देश लॉकडाउन में है
तुमने सुनी नहीं
सरकारी हिदायतें
तुमने सुना या पढा नहीं
टी वी अखबारों से प्रसारित गाइडलाइंस
तुम मौत से
यूं बेख़ौफ़ बेपरवाह
कैसे हो सकते हो ?
क्या तुम्हें स्टे होम का मतलब
पता भी नहीं है..?
सरकार और प्रशासन
लॉकडाउन में है
वे स्टे होम का पालन कर रहे हैं
तुम तो बाहर में हो
भेड़ बकरियों की तरह भीड़ में हो
तुम्हीं बताओ 
तुम्हारी समस्या
आख़िर कौन सुनेगा..?

मैं मानता हूँ
राह चलते-चलते
पटरियों पर सोते-सोते
तुम्हें हर पल
अपने गाँव और घर की 
याद आती होगी
शायद इसीलिए
तुम रूकते नहीं
तुम थकते नहीं
गिरते-मरते
बस चलते ही रहते हो
घरों की ओर 
तुम्हारा यूं लौटना
मुझे आश्चर्य नहीं होता
बुरे वक़्त में
अपनी ज़मीन
अपने लोग
भला किसे याद नहीं आते..?
तूफ़ान या बारिश
के आने पर
पशु-पक्षी भी
चल पड़ते हैं
अपनी नीडों की ओर
फिर भला तुम क्यों नहीं...?

तुम्हारे साथ 
कोई रहे या न रहे
साथ दे या न दे
तुम्हारे साथ हमेशा रहती है 'भूख'
जब तुम 
घर से निकले थे
भूख साथ थी
अब लौट रहे हो घर
तब भी साथ है भूख
दो अक्षरों
'भू' और 'ख' के बीच
समाहित है
तुम्हारी जिन्दगी
जैसे ये दो अक्षर
अक्षर नहीं दो पाट हों
हमेशा से
इन्हीं दो पाटों के बीच
तुम पिसे जाते रहे हो

मई का महीना है 
कहते हैं लोग
यह तुम्हारा महीना है
मुझे संदेह नहीं
इतनी भीषण गर्मी वाला महीना
तुम्हारा ही हो सकता है
खुशियों वाली बरसात
गुनगुनी धूप वाली ठंड
प्रेम से भरा बसंत
तेरे हिस्से कैसे आ सकता है..?
आज मई की पहली तारीख़ है
क्या तुम्हें नहीं पता !
तुम्हारा दिवस है आज
तुम अपनी बाजुओं से 
बड़े से बड़े पहाड़ काट डालते हो
तो क्या छोटा केक नहीं काट सकते ?
तुम बड़े स्वार्थी हो
तुम्हारे पास जो दुख है
वह तो किसी से कभी बांटते नहीं
अपने दिवस पर
मिठाई क्या बांटोगे
जो तुम्हारे पास है भी नहीं

तुम मजदूर हो 
तुम मज़बूर हो
तुमसे भला कौन प्यार करेगा ..?
तुम जिंदा हो
इसलिए कि अभी 
तुममें जांगर बचा हुआ है
तुम अपना
ख़ून जलाकर
पसीना बहाकर
चंद पैसे तो कमा सकते हो
पर मालिक से कभी
मोहब्बत नहीं पा सकते
तुम दिनरात 
जांगर खपाकर
सड़कें,गगनचुम्बी इमारतें
बना तो सकते हो
पर अपने मालिकों के दिलों में
कभी जगह नहीं बना सकते

वे भलीभाँति जानते हैं
तुम्हारी क़ीमत
तुम्हारी सीमाएं
और
तुम्हारी बेबसी
तुम महज़ 
'एक वोट ही तो हो'
वक़्त आने पर
ख़रीद लेंगे तुम्हें
तुम चंद रुपयों में
उनके लिए भीड़ बन जाओगे
क़भी इसके लिए
कभी उसके लिए
बिकते रहोगे तुम
तुम्हारा ईमान
इतना भी मज़बूत नहीं
कि तुम्हारे पेट की आग 
उसे जला न सके
तुम्हारी गरीबी
तुम्हारी बेकारी
तुम्हारी भूखमरी
तुम्हारी अशिक्षा
कोई मुद्दा ही नहीं है
उनके लिए ज़रूरी है
तुम्हारी जाति 
तुम्हारा धर्म
और 
तुम्हारा छ्द्म राष्ट्र
जाति, धर्म और छ्द्म राष्ट्र से ही
तुम हमेशा उद्वेलित होते रहे हो
रैलियों में जाते रहे हो
नारे लगाते रहे हो
परस्पर घृणा करते रहे हो
ख़ून बहाते रहे हो
मैं नहीं जानता
कि तुम सचमुच बुद्धू हो
या सचमुच देशभक्त हो
पर छ्द्म राष्ट्र के नाम पर
अपनी असल समस्या
भूल जाते हो
और
हर बार शिकार बन जाते हो।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

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