Thursday 24 September 2020

लगता तो देशभक्त है....

वह लोगों की नज़रों में  लगता  बड़ा भक्त है।
पर भौतिकता और भोगविलास में आसक्त है।1।

अब तो डरने लगा हूँ इन धार्मिकों को देखकर।
कभी भी धरम के लिए यहाँ बहता रक्त है।2।

वह रात-दिन समाज सेवा में रहता है व्यस्त।
माता-पिता के लिए उसके पास कहाँ वक्त है।3।

एक बार हुकूमत के ख़िलाफ़ क्या कह दिया।
अब धरती से आसमान तक पहरा सख़्त है।4।

भले हो गुंडा, हत्यारा या  फ़िर  चोर उचक्का।
स्वतंत्रता दिवस पर लगता तो देशभक्त है।5।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र(22.09.2020)
    9755852479

Tuesday 22 September 2020

अपना देश बड़ा अनोखा है....23.09.2020

हमें लगता है कि रंग बड़ा चोखा है।
दरअसल यही तो  बड़ा धोखा है।1।

वह तो चुनाव  जीत ही जाएगा।
उसके पास सुरक्षित कई खोखा है।2।

देश में न भूखमरी है न ही गरीबी
ये तो महज़ सरकारी लेखा-जोखा है।3।

आपस में बंटे हुए, फिर भी हैं एक
अपना देश भी  बड़ा अनोखा है।4।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र(23.09.2020)
     9755852479

Sunday 20 September 2020

छद्म नायक

छद्म नायक -19.09.2020
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एक था नायक
गोरा -चिट्टा
शूटेट-बूटेट
दिव्य वेशभूषा
चेहरे पर लालिमा-सी चमक 
शाही अंदाज़ लिए हुए
चमकती हुई धवल दाढी-मूँछें
जैसे हों साधु
पर था भीतर से रावण
परिधानों में भी नंगा

क्या गज़ब का था उसका आत्मविश्वास
झूठ बोलने की कला में माहिर
बताता था स्वयं को
बहुत बड़ा विद्वान,विचारक
अर्थशास्त्री और ज्ञान-विज्ञान का ज्ञाता
मग़र ढोल में पोल की तरह
वह भीतर से था बिलकुल खोखला
उसके शासन काल में
पूरा अर्थतंत्र पड़ा था औंधेमुँख
मंहगाई की तेज़ लपट से
झुलस रही थी सारी जनता
और वह था आत्मप्रशंसा में मुग्ध
जय जयकार में लगे हुए थे उसके सारे चमचे

झूठे राष्ट्रवाद के कँटीले तारो से
धर्मों को बांटना बख़ूबी आता था उसे
झूठी देशभक्ति के चमत्कारों से
देश की भोली-भाली जनता को
कर लिया था अपने वश में
देश की संकटग्रस्त सीमाओं से
ध्यान भटकाने के लिए
खूबसूरत जुमले गढ़ना आता था उसे

राजनीतिक और कूटनीतिक चालों में
वह था बड़ा ही पारंगत
उसकी चालाकी और शातिर दिमाग से
पस्त हो जाते थे सारे विरोधी
सच को झूठ और झूठ को सच
साबित करने के फ़न में था वह माहिर

वह वाकई था खिलाड़ी नंबर वन
उसे मालूम था
शब्दों से खेलने के कई-कई पैतरे
वह अपने भावनात्मक भाषणों में
प्रेम-भाईचारा
त्याग-बलिदान
दया-करुणा
न्याय-अहिंसा
आपसी सहयोग
राष्ट्रीय एकता
सबका साथ-सबका विकास जैसे
आदर्शात्मक शब्दों और नारों से
हर बार जीत लेता था जनता का दिल
आखिरकार प्रचंड बहुमत से
उस छद्म नायक की 
होती थी सत्ता में वापसी और भव्य ताजपोशी।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

Friday 18 September 2020

नज़्म

8 - रद्दी के भाव में मिली मोहब्बत (24.12.19)
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    रद्दी वाले से मैंने इक किताब खरीदी
    तब हैरान रह गया 
    उस क़िताब के पन्नों के बीच जब
    मिले सूखे हुए लाल गुलाब के फूल
    जो कभी मेरी मोहब्बत की निशानी थी
    जिसे ताउम्र संभाल कर रखने का हुआ था वादा 
    आखिरकार जिंदगी के इस सफ़र में
     बेशकीमती मोहब्बत की निशानी गुजरती हुई
     फिर मिल गई मुझे रद्दी के भाव में।
     

7 - जब मैं उससे मिला पहली बार
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वह काँप रही थी 
सहमी, सिकुड़ी,ठिठुरती सर्दी-सी
वह मिली मुझसे
गुनगुनी धूप मिल गई हो जैसे
जब मैं उससे मिला पहली बार...।


6 - गलतफहमियां लफ़्ज़ों की
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अच्छा होता आँखों से ही बयां करते हम अपनी बातें
कुछ सुन पाते कुछ समझ पाते कुछ रह जाते
तब न कान होते न ही ग़लतफहमियां लफ़्ज़ों की।



5 - मैं लौटकर आता जरूर (16.12.19)
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मैं कोई तारीख़ तो नहीं था
जो इक बार बदलकर नहीं आता
तुमने कभी इंतिजार ही नहीं किया
तुमने कभी याद ही नहीं किया
वरना मैं लौटकर आता जरूर...।

4 - शबनम-सी यादें तुम्हारी (16.12.19)
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शबनम की बूँदों-सी तुम्हारी यादें
बिखर जाती है शब के सन्नाटे में
सहर होने पर आफ़ताब-दिल
फिर से समेट लेता है
शबनम-सी यादें तुम्हारी ।

3 - गम मेरा...(15.12.19)
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कभी हार ने मुझे नहीं तोड़ा इतना
तेरे जाने से जितना तोड़ा है ग़म मेरा।

2 - तुम्हारी दुआ...(15.12.19)
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खर्चे मैंने पैसे और समय 
धीरे-धीरे सब कमतर होते गए
बस एक चीज़ कभी कम न पड़ी
रही हर वक़्त सलामत
वो थी तुम्हारी दुआ...।

1- रद्दी के अख़बार हुए दोस्त सारे (15.12.19)
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दिनभर उलटे-पलटे
पढ़े हर सफ़ा के कोने-कोने
फिर कभी नहीं मिले
रद्दी के अख़बार हुए दोस्त सारे ।






हमीं नवोदय हों

1- ये नवोदय है 
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यहाँ पढ़ते हैं जिलेभर के होनहार
साधारण परिवार के
असाधारण प्रतिभा वाले बच्चे
उत्तम शिक्षा और संस्कारों में
गढ़े जाते हैं
गावों से आए अबोध बच्चे।

2- नवोदय परिवार 
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आपसी प्रेम व्यवहार
सद्भाव के साथ
लकड़ी लड़के
शिक्षक शिक्षिकाएं
सुरक्षित परिसर में 
परस्पर मिलजुल कर
एक परिवार-सा
रहते हैं नवोदय के लोग।


3- मैं नवोदय में
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चाहिए था रोज़गार
दिया था इम्तिहान
लिखित और साक्षात्कार का
नवोदय के लिए
हुआ चयनित 
कितना खुश था मैं
और मेरा परिवार
बना
टी जी टी हिन्दी
पी जी टी हिन्दी
ट्रेनिंग मिला,ट्रांसफर मिला
यहाँ-वहाँ
घूमा सारा देश
तेरह वर्षों तक 
सेवाएं दी-सेवाएं ली
धन्यवाद नवोदय
तुमने मेरी,
बेकारी के कलंक को धोया
तुमने मुझे पनाह दी..।

4- भोजनालय
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दो पीरियड पढ़ने और पढ़ाने के बाद
बच्चे शिक्षक सभी को होता है इंतिजार
घड़ी की सुई 
नौ पर जाते ही 
बज उठता है सायरन
हाउस ऑन ड्यूटी के बच्चे
मास्टर ऑन ड्यूटी के शिक्षक
रहते हैं मुस्तैद
कतारबद्ध होकर लेते है नाश्ता
बच्चों की हरकतों पर
सारे हाउस मास्टर्स की
गड़ी होती है तीख़ी निगाहें
मनपसंद नाश्ता न होने पर
हाउसमास्टर से नज़रे चुराकर
सिकोड़ते नाक-भौं 
निकल जाते हैं चुपचाप
हाउस आकर खाते हैं मिक्चर, बिस्किट, सलौनी...
नाश्ता से पहले
समवेत स्वर में भोजन-मंत्र से
गूँज उठता है सारा हॉल
"ॐ सह नाववतु
सह नौ भुनक्तुम
सह वीर्यं करवावहै
तेजस्विनावधीतमस्तु
मा विद्विषावहै
ॐ शान्ति: शान्ति: शांति:।।

5- पी.जी.टी.
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स्नातकोत्तर शिक्षक हैं ये
जैसे मंत्रालय में कैबिनेट

प्राचार्य के साथ
विद्यालय के कुशल संचालन के लिए
इनके साथ अक़्सर होती हैं बैठकें

ये होते हैं महत्वपूर्ण
विद्यालय के लिए रीढ़ की हड्डी

इनके पास भले ही हों 
और भी बहुत सारे काम
पर कक्षा लेना है अनिवार्य

फ़िजिक्स,मैथ्स और रसायन वाले
अक़्सर लगे रहते हैं
अतिरिक्त कक्षा लेने के होड़ में

इन्हें नवम्बर अंत तक सिलेबस पूर्ण कर
परीक्षा से पहले
पुनरावृति कराना है कई बार

बारहवीं बोर्ड परीक्षा के लिए
होते हैं फोकस्ड
इनके निगरानी में बच्चे करते हैं
रात की पढ़ाई


समीक्षा/आलोचना

साहित्य का इतिहास एवं वर्तमान स्वरूप 11.07.2020
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अस्मिता बचाने विडम्बनाओं से लड़ती कविताएँ : नगाड़े की तरह बजते शब्द - 20.08.2020
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'नगाड़े की तरह बजते शब्द' सुप्रसिद्ध संथाली कवयित्री, लेखिका और सोशल एक्टिविस्ट निर्मला पुतुल जी का बहुचर्चित काव्यसंग्रह है।इनकी अन्य प्रमुख कृतियों में'अपने घर की तलाश में'; 'बांस'; 'अब आदमी को नसीब नहीं होता आम'; 'फूटेगा एक नया विद्रोह'; 'मैंने अपने आँगन में गुलाब लगाए'; 'बाघ'; 'एक बार फिर'; 'अपनी जमीन तलाशती बेचैन स्त्री'; आदि शामिल है।इनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी, नेपाली आदि भाषाओं में हो चुका है।पुतुल जी सामाजिक विकास,मानवाधिकार और आदिवासी महिलाओं के उत्थान के लिए लगातार कार्य कर रहीं है।इन्हें राज्य एवं राष्ट्र स्तरीय अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुका है।इस काव्य संग्रह में पुतुल जी की कुल 38 कविताएँ संकलित हैं।काव्यसंग्रह में संकलित उनकी सभी कविताएँ देश के नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
              इस काव्यसंग्रह पर अपने विचार प्रगट करते हुए सुप्रसिद्ध कवि श्री अरुण कमल जी ने सटीक टिप्पड़ी दी है जो कि पुस्तक के कव्हर पेज़ के अंदर पहली एवं आखिरी पृष्ठ पर दर्ज है।वे लिखते हैं-"मूलतः संथाली भाषा में लिखी सुश्री निर्मला पुतुल की कविताएँ एक ऐसे आदिम लोक की पुनर्रचना है जो आज सर्वग्रासी वैश्विक सभ्यता में विलीन हो जाने के कगार पर है।आदिवासी जीवन, विशेषकर स्त्रियों का सुख-दुख अपनी पूरी गरिमा और ऐश्वर्य के साथ यहाँ व्यक्त हुआ है।आज की हिंदी कविता के प्रचलित मुहावरों से कई बार समानता के बावजूद कुछ ऐसा तत्व है इन कविताओं में,संगीत की ऐसी आहट और गहरा आर्तनाद है,जो अन्यत्र दुर्लभ है।"1 श्री अरुण कमल जी निर्मला पुतुल के काव्यसंग्रह में संकलित कविताओं की भावभूमि और कविताओं में निहित दुनियाँ के बारे में लिखते हैं कि-" इन कविताओं की दुनियाँ बाहामुनी, चुड़का सोरेन, सरोजनी किस्कू और ढेपचा कई दुनिया है,फूलों-पत्रों-मादल और पलाश से सज्जित एक ऐसी कठोर, निर्मम दुनियाँ जहाँ रात के सन्नाटे में अँधेरे से मुँह ढाँप रोती है दुनियाँ।यह दुनियाँ सिद्धू कानू और बिरसा के महान वंशजो की भी दुनियाँ है,पहाड़ पर अपनी कुल्हाड़ी पिजाती दुनिया।यह ऐसी कविता है जिसमें एक साथ आदिवासी लोकगीतों की सांद्र मादकता,आधुनिक भावबोध की रुक्षता और प्रतिरोध की गंभीर वाणी गुंफित है।"2
                  निर्मला पुतुल जी का काव्यसंग्रह 'नगाड़े की तरह बजते शब्द' की कविताओं में मुझे तीन तरह की चिन्तनधारा दिखाई पड़ती है--
1.स्त्री विमर्श की चिन्तनधारा 
2.आदिवासी विमर्श की चिन्तनधारा
3.पर्यावरणीय विमर्श की चिन्तनधारा
आज यद्यपि स्त्री उत्पीड़न, आदिवासी उत्पीड़न और पर्यावरण के गिरते स्वास्थ्य पर अनेक लेख लिखे जा रहे हैं।विचार गोष्ठियाँ आयोजित की जा रही है तथापि स्त्री एवं आदिवासी उत्पीड़न तथा पर्यावरण ह्रास के समाचार समानांतर रूप से देखने -सुनने को मिलते रहे हैं।आदिवासियों के विकास के नाम पर सरकार द्वारा नित नई-नई योजनाएँ बनाई जाती है पर सच्चाई यह है कि इन योजनाओं के आड़ में बिचौलिए न केवल आदिवासियों के जल,जंगल, जमीन का दोहन करते हैं बल्कि आदिवासी स्त्रियाँ भी उनके शोषण के शिकार होते रहे हैं।झारखंड के संथाल आदिवासी परिवार में जन्मी,पली-बढ़ी निर्मला अपने बचपन से आदिवासियों की समस्याओं को देखी ही नहीं बल्कि स्वयं महसूस भी की है,झेली है।पुतुल जी अपनी कविताओं में यह मानती है कि आदिवासी अपनी समस्याओं के लिए स्वयं भी जिम्मेदार हैं मगर मूल समस्या व्यवस्थादारों द्वारा थोपी गई हैं।
1.स्त्री विमर्श की चिन्तनधारा :--- 'क्या तुम जानते हो ' कविता में पुरूष प्रधान के पुरुषों से सवाल करती हुई दिखती है।कहने को तो समाज रूपी गाड़ी को चलाने के लिए स्त्री-पुरूष रूपी दो पहियों की जरूरत होती है।मग़र पुरुष प्रधान समाज में स्त्री अपने ही घर में अपनी वजूद तलाशती रह जाती है।समाज में गढ़े गए सारे मान-मर्यादा ,नियम,शर्तें सभी कुछ केवल स्त्रियों पर लागू होती है।स्त्री स्वयं रोज़ टूटती और विखरती है लेकिन रिश्तों की बुनियाद को मजबूती प्रदान कर उसे कभी विखरने नहीं देती।वह कविता में कहती है--
"बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को उसके घर का पता
सपनों में भागती एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में
अपने आप से लड़ते?
तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के मन की गांठें खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास
अगर नहीं !
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में...?"3
'आदिवासी स्त्रियाँ कविता'  में  भोली-भाली आदिवासी स्त्रियों की संकुचित सी दुनियाँ को चित्रित करती है।यद्यपि आदिवासी स्त्रियाँ अपनी दुनियाँ तक सीमित होती है पर आश्चर्य होता है कि कैसे वे और उनकी चीजें राजधानी तक पहुंच जाती हैं।आख़िर इन साजिशों के पीछे कौन है? वह इशारों ही इशारों में ही सब कुछ कह देती हैं--
" उनकी आँखों की पहुँच तक ही
सीमित होती उनकी दुनियाँ
वे नहीं जानती कि
कैसे पहुँच जाती है उनकी चीजें दिल्ली
तस्वीरें कैसे पहुँच जाती हैं उनकी महानगर
नहीं जानती वे ! नहीं जानती !!"4
'बिटिया मुर्मू के लिए' कविता के माध्यम से पूरी नारी जाति को सचेत करती हुई उनके ख़िलाफ़ हो रहे साजिशों के विरुद्ध खड़े होने के लिए प्रेरित करती है।यह सच है कि स्त्री उत्पीड़न के कारणों में उनकी चुप्पी महत्वपूर्ण कारण है।स्त्रियों  पर सहनशील होने का ठप्पा लगाकर पुरुष हमेशा से उन पर अत्याचार करते आया है।कवयित्री स्त्रियों को अपनी चुप्पी तोड़ने और बवंडर की तरह अत्याचारों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने के लिए कहती है--
"उठो कि अपने अँधेरे के ख़िलाफ़ उठो
उठो अपने पीछे चल रही साजिश के ख़िलाफ़
उठो, कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो
जैसे तूफान से बवंडर उठता है
उठती है जैसी राख में दबी चिनगारी।"5
विकास के नाम पर आदिवासियों के बीच आए शहरी पाखंडियो की  बुरी नियत आदिवासी स्त्रियों पर होती है।वे सीधी-सादी ,भोली-भाली आदिवासी लड़कियों को नौकरियों और सुख-सुविधाओं का सब्ज़बाग दिखाकर किस तरह उनका दैहिक शोषण करते हैं, इसी बात की ओर संकेत करते हुए 'चुड़का सोरेन' कविता में चुड़का सोरेन को आगाह करती है--
"कहाँ गया वह परदेशी जो शादी का ढोंग रचाकर
तुम्हारे ही घर में तुम्हारी बहन के साथ 
साल दो साल रहकर अचानक गायब हो गया ?
उस दिलावर सिंह को मिलकर ढूंढों चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी ही बस्ती की रीता कुजूर को
पढ़ाने-लिखाने का सपना दिखाकर दिल्ली ले भागा
और आंनद भोगियों के साथ बेच दिया।"6
स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी खाप पंचायत तथा धर्म, जाति एवं समाज के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा फैसले लेकर
स्त्रियों के साथ दण्डनीय बर्ताव किया जाता है।स्त्रियों पर हो रहे अत्याचारों को दूर करने में आज भी हमारे सांविधानिक निकाय लाचार दिखाई पड़ते हैं।'कुछ मत कहो सरोजनी किस्कू' कविता में कुछ इसी तरह की घटना के बारे में लिखती हैं---
"हक की बात न करो मेरी बहन
मत माँगो पिता की संपत्ति पर अधिकार
ज़िक्र मत करो पत्थरों और जंगलों की अवैध कटाई का
सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की
चर्चा न करो बहन
अपने मगजहीन पति द्वारा
भरी पंचायत में डायन करार दंडित की जावोगी
इन गूँगे-बहरों की बस्ती में
किसे पुकार रही हो सरोजनी किस्कू..?"7
'क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए' कविता में पुरूष प्रधान समाज के पुरुषों से सवाल करते हुए पूछती है कि तुम बताओ तो सहीं
आख़िर एक स्त्री तुम्हारे लिए क्या मायने रखती है ? वह अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहती है कि मेरा वजूद तुम्हारे लिए महज़ इस्तेमाल कर फेंक दिए जाने वाली चीजों (यूज एन्ड थ्रो) से अधिक नहीं है --
"क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
एक तकिया
कि कहीं से थका मांदा आया
और सिर टिका दिया
कोई डायरी 
कि जब चाहा 
कुछ न कुछ लिख दिया
ख़ामोश खड़ी दीवार
कि जब जहाँ चाहा
कील ठोंक दी
कोई गेंद
कि जब तब
जकीसे चाहा उछाल दी
या कोई चादर
कि जब जहाँ जैसे-तैसे
ओढ़-बिछा ली ?
चुप क्यों हो !
कहो न, क्या हूँ मैं
तुम्हारे लिए ??"8
दरअसल एक स्त्री घर,परिवार और समाज में निरंतर अपना अस्तित्व तलाशती रहती है।इसे स्त्री होने की विडम्बना कहें या अभिशाप उसे समाज में कहीं भी अपना अस्तित्व नज़र नहीं आता।'अपने घर की तलाश में' कविता के माध्यम से कवयित्री ने एक स्त्री के इसी दर्द को रेखांकित किया है--
"अंदर समेटे पूरा का पूरा घर
मैं बिखरी हूँ पूरे घर में
पर यह घर मेरा नहीं है
घर के बाहर लगी नेमप्लेट मेरे पति की है
मैं धरती नहीं पूरी धरती होती है मेरे अंदर
पर यह नहीं होती मेरे लिए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुठ्ठी भर सवाल लिए मैं
दौड़ती-हांफती-भागती
तलाश रही हूँ सदियों से 
निरंतर अपनी ज़मीन अपना घर
अपने होने का अर्थ !"9
तमाम बंदिशों और वर्जनाओं के बावजूद एक स्त्री चुपचाप मशीन की तरह खटती रहती है।स्त्री भले ही खुश न हों पर घर परिवार के सभी सदस्यों की खुशी के लिए झोंक देती है
अपनी खुशी।'पहाड़ी स्त्री' कविता का यह दृश्य दृष्टव्य है--
"पहाड़ी स्त्री
अभी अभी जाएगी बाज़ार
और बेचकर सारी लकड़ियाँ
बुझाएगी घरभर के पेट की आग
चादर में बच्चे को पीठ पर लटकाए
धान रोपती पहाड़ी स्त्री
रोप रही है अपना पहाड़-से दुख
सुख की एक लहलहाती फ़सल के लिए।"10
'ढेपचा के बाबू' कविता के माध्यम से यह बताया गया है कि पति के बाहर कमाने चले जाने के बाद घर में अकेली स्त्री को
मनचलों द्वारा बुरी नज़र से देखा जाता है।आज भी महिलाएँ अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित नज़र आती हैं।चिता का कारण है पुरुषों का कलुषित चरित्र।कुछ अनहोनी घटनाएँ घट जाने पर आज भी दोषी ठहराई जाती हैं तो केवल स्त्रियाँ। जमाने भर की तोहमत, लानत और बेवफ़ाई के बावजूद स्त्री ही है जो पुरुषों के सारे अपराधों के लिए क्षमा कर देती है और एकमेव समर्पण दर्शाती है अपने पति के प्रति।कविता की पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"गांव-घर का हाल जानते ही हो
जिसका मरद साथ नहीं होता
उसे कैसे-कैसे सताते हैं
गोतिया भाय आस पड़ोस के लोग।"
"वह जो तुम्हारे साथ आता-जाता था
ईंट भट्ठे वाला
अभी भी आ जाता है अनचाहे
करता है तुम्हें लेकर भद्दा मज़ाक
उसकी नियत कुछ ठीक नहीं लगती मुझे।"
"इतनी दुख तकलीफ़ काटी
तोड़ा नहीं तुम्हारा विश्वास
तुम्हारी याद में भूली नहीं खोंसना रोज़
खोपा में कपूरमुली के फूल।"11
कवयित्री पुरुषों की स्याह मानसिकता और बदनीयत को अपनी कविता 'मैं वो नहीं हूँ जो तुम समझते हो' में ज़ोरदार जवाब देती हैं।वे इस कविता के माध्यम से दैहिक आकर्षण से उपजे दिखावे के प्रेम और सहानुभूति का पर्दाफाश करती है।काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"मैं जानती हूँ कि तुम क्या सोच रहे हो मेरे बारे में
वही जो एक पुरूष एक स्त्री के बारे में सोचता है
अभी-अभी जब मैं तुमसे बतिया रही हूँ
संभव है मेरी बातों में
महसूसते देह-गंध रोमांचित हो रहे हो तुम।"
"अनचाहे जब कर रहे होते हो मदद
दे रहे होते हो बिन माँगी सलाह 
मैं समझ रही होती हूँ तुम्हारी अनबोली मंशा।"12
कहते है स्त्रियाँ अपने लिए तारीफ़ सुनना बहुत पसंद करती है।पुरुषों ने स्त्रियों की प्रशंसा सुनने की चाह में छिपे मनोविज्ञान को भलीभांति समझकर ख़ूब भुनाया है।अपनी 'सुगिया' शीर्षक कविता में कवयित्री यह स्पष्ट की है कि पुरुषों द्वारा स्त्री के लिए किए जाने वाला प्रशंसा आंतरिक न होकर मांसल केंद्रित होता है।जो की उसकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा होता है।काव्य पंक्तियाँ प्रस्तुत है--
"तुम्हारे होठ सुग्गा जैसे हैं 
तुम्हारी बड़ी-बड़ी आँखें
बड़ी खूबसूरत है सुगिया
बिलकुल हिरणी के माफ़िक।"
"सुबह से शाम तक
दिनभर मरती खटती सुगिया
सोचती है अक़्सर--
यहाँ हर पाँचवां आदमी उससे
उसकी देह की भाषा में क्यों बतियाता है।"13
इसी तरह इस काव्यसंग्रह की हर पाँचवी-छठवीं कविता स्त्री
विमर्श पर लिखी गई है।पुतुल जी कविता के माध्यम से स्त्रियों के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करती हुई लगती है।
2.आदिवासी विमर्श की चिन्तनधारा :--- निर्मला पुतुल जी की इस काव्यसंग्रह में संकलित कविताओं में आदिवासी विमर्श के अंतर्गत आदिवासियों की मूलभूत समस्याओं के चित्रण के साथ-साथ विकास के नाम पर स्वार्थी तत्वों के द्वारा हो रहे शोषण का जीवंत चित्रण भी मिलता है।कविता के बहाने कवयित्री ने आदिवासियों की पीड़ा और उसके मूल कारणों को यथावत चित्रित करती हैं।आदिवासी जन-जीवन का जो दुख दर्द उनकी कविताओं में है,वह केवल आँखों देखी नहीं बल्कि स्व-अनुभूत दुखदर्द है।'बाहामुनी' कविता में जहाँ एक ओर आदिवासी स्त्री के निश्छल रूल को चित्रित करती है तो दूसरी ओर उसके जीवन के विडम्बनाओं को भी उकेरती है।विडम्बना भी ऐसी कि मेहनत के बाद भी भरपेट खाना नसीब नहीं हो पाता ।काव्य पंक्तियां देखिए---
"इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते
कितनी सीधी हो बाहामुनी
कितनी भोली हो तुम
कि जहाँ तक जाते है तुम्हारी नज़र
वहीं तक समझती हो अपनी दुनियां।"
"तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हजारों
पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट।"14
'आदिवासी लड़कियों के बारे में' कविता के माध्यम से ईर्ष्या, राग-द्वेष भावों से अनभिज्ञ भोली-भाली आदिवासी लड़कियों का सुंदर चित्र उकेरी है--
"ऊपर से काली
भीतर से अपने चमकते दांतों 
की तरह शांत धवल होती हैं वे।"
जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ
जब नाचती हैं कतारबद्ध
मांदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसंत।"15
'चुड़का सोरेन' कविता सहीं मायने में आदिवासी अस्मिता को
बचाने के लिए ख़तरों से आगाह करती,सचेत करती कविता है।कविता के माध्यम से चुड़का सोरेन के बहाने समूचे आदिवासी पुरूष जाति को हड़िया (शराब) पीने की बुरी लत से बचने के लिए कहती है।दरअसल शराब पीने की लत वह कमज़ोरी है जिससे व्यक्ति अपना घर-द्वार,इज्ज़त-मान सब कुछ दांव पर लगा देता है।उनकी इसी कमज़ोरी को स्वार्थी ताकतें हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं।काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं--
"तुम्हारे पिता ने कितनी शराब पी यह तो मैं नहीं जानती
पर शराब उसे पी गई यह जानता है सारा गाँव
इससे बचो चुड़का सोरेन !
बचाओ इसमें डूबने से अपनी बस्तियों को
देखो तुम्हारे ही आँगन में बैठ
तुम्हारे हाथों बना हड़िया तुम्हें पिलाकर
कोई कर रहा है तुम्हारी बहनों से ठिठोली
बीड़ी सुलगाने के बहाने बार-बार उठकर रसोई में जाने
उस आदमी की मंशा पहचानों चुड़का सोरेन।"16
'संथाल परगना' कविता के माध्यम से संथाल परगना की
भौगोलिक, सांस्कृतिक पहचान मिटती जा रही है,इस पर गहरी चिंता व्यक्त की गई है।जहाँ एक ओर बाज़ारवाद के गिरफ्त में इनके प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट हो रहे हैं, पेड़ काटे जा रहे हैं,हवा प्रदूषित होने लगी है,नदियाँ अपवित्र होने लगी है,पहाड़ वीरान होने लगे हैं तो दूसरी ओर इनकी वेशभूषा, खान-पान,रहन-सहन,भाषा-बोली,नाच-गान, तीर-धनुष,मांदल जैसे संस्कृतिगत पहचान ख़त्म होते जा रहे हैं।काव्य पंक्तियाँ दर्शनीय है--
"संथाल परगना 
अब नहीं रह गया संथाल परगना
बहुत कम बचे रह गए हैं
अपनी भाषा और वेषभूषा में यहाँ के लोग।"
"बाज़ार की तरफ़ भागते
सब कुछ गड्ड मड्ड हो गया है इन दिनों यहां
उखड़ गए हैं बड़े-बड़े पेड़
और कंक्रीट के पसरते जंगल में 
खो गई है इसकी पहचान।"17
कवयित्री ने अपनी अलग-अलग कविताओं के माध्यम से 
आदिवासियों में होती ठण्डी दिनचर्या के लिए शहरी अपसंस्कृति को जिम्मेदार मानती है।साथ ही अपने आदिवासी भाई-बहनों से दिखावे वाली शहरी संस्कृति से बचने की गुहार लगाती है।उनकी कविता 'मेरे बिना मेरा घर' ; 'मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में' ; 'आओ मिलकर बचाएँ' आदि में शहरी संस्कृति के दुष्प्रभावों पर चिंता प्रगट की है।काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"चूहों की बिलों ली और संकेत करता बताता है
कि किस तरह अंदर ही अंदर कुतर रहे हैं
कुछ शहरी चूहे
हमारे घरेलू रिश्तों की बुनियाद।"18
"वे घृणा करते है हमसे
हमारे कालेपन से
मज़ाक उड़ाते है हमारी भाषा का
उनका तर्क है कि
सभ्य होने के लिए ज़रूरी है उनकी भाषा सीखना
उनकी तरह बोलना-बतियाना
उठना-बैठना
ज़रूरी है सभ्य होने के लिए उनकी तरह पहनना-ओढ़ना।19
"अपनी बस्तियों को 
नंगी होने से 
शहर की आबोहवा से बचाएँ उसे
ठंडी होती दिनचर्या में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन
भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी।20
3.पर्यावरणीय विमर्श की चिन्तनधारा :-- एक सजग रचनाकार अपने आसपास के भौगोलिक परिवेश से अछूता नहीं रह सकता।साहित्यकार प्रायः प्रकृति प्रेमी होते हैं और यह स्वाभाविक है कि उनकी रचनाओं में प्रकृति और पर्यावरण कभी सायास तो कभी अनायास आ ही जाते हैं।कवयित्री पुतुल जी कविताओं में प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण न होकर उसके नैसर्गिक स्वरूप शहरी हस्तक्षेप की कारण हो रहे बदलावों की चिंता है।विकास के नाम पर बढ़ते औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण के कारण जल,जंगल और जमीन आदि प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता पूर्वक दोहन किया जा रहा है।आज आदिवासियों के प्राकृतिक आवासों पर शहरीकरण के निशान(दंश) देखे जा सकते हैं।'बाहामुनी' कविता की ये पंक्तियां दर्शनीय है--
"जिन घरों के लिए बनाती हो झाड़ू
उन्हीं से आते हैं कचरे तुम्हारी बस्तियों में।"-21
विकास के रथ पर सवार स्वार्थी मनुष्य अपने अनधिकृत हस्तक्षेप से धरती की प्राकृतिक संतुलन बिगड़ डाला है।इसी बात की चिंता दिखाई पड़ती है 'बूढ़ी पृथ्वी का दुख' कविता में--
"क्या तुमने कभी सुना है
सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से 
पेड़ों की चीत्कार ?
सुना है कभी
रात के सन्नाटे में अँधेरे से मुँह ढाँप
किस कदर रोती हैं नदियाँ ?
थोड़ा सा वक्त चुराकर बतियाया है कभी
कभी शिकायत न करने वाली
गुमसुम बूढ़ी पृथ्वी से उसका दुख ?
अगर नहीं तो क्षमा करना !
मुझे तुम्हारे आदमी होने पर संदेह है !!22
'उतनी दूर मत ब्याहना बाबा' कविता के माध्यम से हमारे जीवन के लिए पेंड़ कितना ज़रूरी है,इसका संकेत करती हुई लिखती है--
"और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाए।"23
मानव द्वारा उत्पन्न तमाम प्राकृतिक संकटों के बाद भी जहाँ आदिवासी रहते हैं उस परिवेश में हवा में ताज़गी, नदियों में निर्मलता, मिट्टी में सोंधापन, पहाड़ों में शांति आज भी विद्यमान हैं।कवयित्री प्रकृति प्रदत्त इन उपादानों को समय रहते उसके मूल स्वरूप में बचाने की गुहार लगाती है।उनकी कविता'आओ मिलकर बचाएँ' की पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"जंगल की ताज़ा हवा
नदियों की निर्मलता
पहाड़ों का मौन
मिट्टी का सोंधापन
फ़सलों की लहलहाहट
आओ मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा है,अब भी हमारे पास।"24
निर्मला पुतुल जी के इस काव्यसंग्रह में संकलित कविताएँ जहाँ एक ओर संकटों के लिए चिंता व्यक्त करती है तो दूसरी ओर उन संकटों के लिए जिम्मेदार लोगों को चुनौती भी देती है।कविताओं के मूल में खूबसूरत आदिवासी संस्कृति और प्रकृति को बचाए रखने की अपील है।संग्रह की कविताएं अत्यंत पठनीय ,प्रशंसनीय और चिंतनीय है।
कविता संग्रह -- 'नगाड़े की तरह बजते शब्द'
      कवयित्री -- निर्मला पुतुल    
      प्रकाशक -- भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली 110003
           मूल्य  -- 40 रुपए ; पृष्ठ -- 95 
प्रकाशन वर्ष  --  2005 दूसरा संस्करण
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची :--
  1. पुतुल, निर्मला,नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, सामने कव्हर पृष्ठ
  2. वही,सामने कव्हर पृष्ठ
  3. पुतुल, निर्मला,नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली,क्या तुम जानते हो ; पृ. सं.-7,8
  4. वही, आदिवासी स्त्रियाँ ; पृ. सं.-11
  5. वही, बिटिया मुर्मू के लिए ; पृ. सं.-14
  6. वही,चुड़का सोरेन से  ; पृ. सं.-21
  7. वही, कुछ मत कहो सरोजनी किस्कू ; पृ. सं.-24
  8. वही, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए ; पृ. सं.-28,29
  9. वही, अपने घर की तलाश में ; पृ. सं.-30
  10. वही, पहाड़ी स्त्री ; पृ. सं.-36
  11. वही, ढेपचा के बाबू ; पृ. सं.-41,42,45
  12. वही, मैं वो नहीं जो तुम समझते हो ; पृ. सं.-55
  13. वही, सुगिया ; पृ. सं.-80,81
  14. वही, बाहामुनी ; पृ. सं.-12
  15. वही, आदिवासी लड़कियों के बारे में  ; पृ. सं.-17
  16. वही,चुड़का सोरेन से  ; पृ. सं.-19
  17. वही,संथाल परगना  ; पृ. सं.-26
  18. वही, मेरे बिना घर ; पृ. सं.-69
  19. वही, मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में ; पृ. सं.-72,73
  20. वही,आओ मिलकर बचाएँ  ; पृ. सं.-76
  21. वही, बाहामुनी ; पृ. सं.-12
  22. वही, बूढ़ी पृथ्वी का दुख ; पृ. सं.-31,32
  23. वही,उतनी दूर मत ब्याहना बाबा  ; पृ. सं.-50
  24. वही, आओ मिलकर बचाएँ ; पृ. सं.-77
                              ---   नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
                                      सहायक प्राध्यापक
                            शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
                            कवर्धा,जिला-कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
                                मो. 9755852479













2.दुर्दमनीय सृजनशीलता की दृढ़ अनुभूति : हानूश(12 जुलाई,2020)
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भीष्म साहनी जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे।हिंदी गद्य लेखन में उनकी गिनती अग्रिम पंक्ति में होती है।साहनी जी उत्कृष्ट कोटि के कथाकार, उपन्यासकार के रूप में स्थापित तो हैं ही साठोत्तरी हिंदी नाटककारों में भी उनका विशिष्ट स्थान है।भीष्म साहनी जी सजग युगदृष्टा रचनाकार थे।उन्होंने जो महसूस किया, युग में जो भी देखा,अनुभव किया साहित्य के माध्यम से समाज के सामने रखा।उनके सारे साहित्य चाहे वह कहानी हो या उपन्यास या फिर नाटक की विधा सभी में उनके देखे,भोगे और महसूस किए गए यथार्थ दिखाई पड़ते हैं।स्वयं भीष्म साहनी जी 'अपनी बात' में लिखते हैं,-" मैं समझता हूँ, अपने से अलग साहित्य नाम की कोई चीज़ नहीं होती।जैसा मैं हूँ,वैसी ही मेरी रचनाएं भी रच पाऊँगा।मेरे संस्कार, मेरे अनुभव, मेरा व्यक्तित्व, मेरी दृष्टि सभी मिलकर रचना की सृष्टि करते हैं।इनमें से एक भी झूठी हो तो सारी रचना झूठी पड़ जाती है।...लेखक का सत्य दो अलग-अलग सत्य होते हैं।एक ही सत्य होता है और वह जीवन सत्य होता है।उसी को साहित्य वाणी देता है।"1
         साहनी जी की रचनाओं में यथार्थवादिता एवं युगबोध प्रवृति होने के कारण ही साहित्य मनीषी उन्हें मुंशी प्रेमचंद जी एवं यशपाल जी की परंपरा का लेखक मानते हैं।साहनी जी का रचना संसार हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोधर है।उनकी प्रमुख रचनाओं में भाग्यरेखा,पहला पाठ, भटकती राख,पटरियां, वाङ्चू, चीलें, शोभायात्रा, निशाचर, पाली,डायन(कहानी संग्रह); तमस,झरोखे, कड़ियाँ, बसंती, मय्यादास की माड़ी, कुंतो, नीलू नीलिमा नीलोफर(उपन्यास); हानूश-1977,कबीरा खड़ा बाज़ार
में-1981,माधवी-1984,मुआवजे-1993,रंग दे बसंती चोला-1996,आलमगीर-1999(नाटक); आज के अतीत (आत्मकथा); बलराज माय ब्रदर(जीवनी); गुलेल का खेल(बालकथा) है।
            भीष्म साहनी जी को नाटक और रंगमंच के प्रति बचपन से गहरी रुचि थी।वे इसका उल्लेख अपनी आत्मकथा 'आज के अतीत' में करते हुए लिखते हैं,-"मैं चौथी कक्षा पढ़ता था जब स्कूल में खेले गए एक नाटक में पहली अदाकारी की।नाटक का नाम श्रवण कुमार था और मैं श्रवण कुमार की भूमिका ही निभा रहा था।"2 साहनी जी कुछ वर्षों तक 'भारतीय जन नाट्य संघ'(इप्टा) के सदस्य के रूप में भी कार्य किया।वे अपने साक्षात्कार में नाटक के प्रति अपने लगाव पर कहते हैं कि"नाटक की दुनियां बड़ी आकर्षक और निराली है।किस तरह धीरे-धीरे नाटक रूप लेता है और रूप लेने पर कैसे एक नए संसार की सृष्टि हो जाती है।यह अनुभव बहुत ही सुखद और रोमांचकारी होता है।नाटक खेलनेवालों के सिर पर एक तरह का जुनून छाया रहता है,जिसका मुकाबला नहीं।"3
          भीष्म साहनी जी के बारे में यह बताना जरूरी है कि उन्होंने साहित्य लेखन की शुरुआत स्वतंत्रता प्राप्ति के दौर से की और नाट्यलेखन की शुरूआत आपातकालीन परिस्थितियों से।'हानूश' भीष्म साहनी का प्रथम नाटक है जो 1977 ई. में आपातकाल के दौरान लिखा गया।उन्होंने 'आज के अतीत' में लिखा है कि -"नाटक अभी खेला ही जा रहा था जब मुझे एक दिन प्रातः अमृता प्रीतम का टेलीफोन आया।मुझे मुबारकबाद देते हुए बोलीं-"तुमने एमरजेंसी पर ख़ूब चोट की है मुबारक़ हो।"4 यद्यपि भीष्म साहनी जी इस नाटक के विषय और आपातकाल में कोई साम्य स्वीकार नहीं करते।नाटक का मूल उद्देश्य आपातकाल से बिलकुल भिन्न है।आगे वे लिखते हैं,-"पर हाँ, इसमें संदेह नहीं कि निरंकुश सत्ताधारियों के रहते,हर युग में, हर समाज में, हानूश जैसे फ़नकारों-कलाकारों के लिए इमरजेंसी ही बनी रहती है और वे अपनी निष्ठा और आस्था के।लिए यातनाएं भोगते रहते हैं।"5
            भीष्म साहनी जी को हानूश लिखने की प्रेरणा चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग की एक छोटी-सी घटना पर आधारित है।वे इस नाटक के प्रारंभिक भूमिका 'दो-शब्द' में लिखते हैं,-"बहुत दी पहले लगभग 1960 के आसपास मुझे चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में जाने का सुअवसर मिला था।मेरे मित्र निर्मल वर्मा उन दिनों वहीं पर थे, और चेक भाषा तथा संस्कृति की उन्हें अच्छी-ख़ासी जानकारी थी।सड़कों पर घूमते-घामते एक दिन उन्होंने मुझे एक मिनारी घड़ी दिखाई जिसके बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित थी कि यह प्राग में बनाई जाने वाली पहली मीनारी घड़ी थी,और इसके बनाने वाले को उस समय के बादशाह ने अजीब तरह से पुरस्कृत किया था।"6 चेकोस्लोवाकिया की यात्रा के बाद लेखक के दिलो दिमाग में मीनारी घड़ी वाली वह बात गूँजती रही।हानूश को अपनी कला प्रति जो जुनून सवार था वही जुनून लेखक के मन में हानूश की उस पीड़ा को शब्द देने के लिए सवार था।वे इस नाटक की भूमिका 'दो-शब्द' में लिखते हैं,-"बात मेरे मन में अटकी रह गई,और समय बीत जाने पर भी यदा-कदा मन को विचलित करती रही।आखिर मैंने इसे नाटक का रूप दिया जो आपके हाथ में है।यह नाटक ऐतिहासिक नाटक नहीं है,न ही इसका अभिप्राय घड़ियों की आविष्कार की कहानी कहना है।कथानक के दो-एक तथ्यों को छोड़कर लगभग सभी कुछ ही काल्पनिक है।नाटक एक मानवीय स्थिति को मध्ययुगीन परिप्रेक्ष्य में दिखाने का प्रयासमात्र है।"7
          इस नाटक में कुल तीन अंक हैं।पात्रों की संख्या मुख्य और गौण मिलाकर उन्नीस हैं पर प्रमुख पात्र जिनके संवादों के इर्दगिर्द कहानी रची गई है उनमें हानूश,हानूश का पादरी भाई, बूढ़ा लोहार,एमिल और जेकब प्रमुख हैं।नाटक की कथा हानूश के घड़ी बनाने के प्रेम और जुनून पर केंद्रित है।दरअसल वह मिनारी घड़ी जो प्राग की नगरपालिका पर सैकड़ों वर्ष पहले लगाई गई थी,चेकोस्लोवाकिया में बनाई जाने वाली पहली घड़ी मानी जाती थी।इस मिनारी घड़ी के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित थी कि इसे बनाने वाला एक साधारण कुफ्लसाज था।वह अपने जीविकोपार्जन के लिए मूलतः ताला बनाने का काम करता था पर उसे जुनून था घड़ी बनाने की।उसे घड़ी बनाने में सत्रह साल लगता तो है पर आख़िरकार सफ़ल हो जाता है।जब घड़ी बनकर तैयार हुई तो राजा ने उसे अंधा करवा दिया ताकि वह ऐसी कोई दूसरी घड़ी न बना सके।महाराज आदेशित करता है कि -"इस आदमी को और घड़ियां बनाने की इजाज़त नहीं होगी।इस हुक़्म पर अमल करवाने के लिए...(थोड़ा ठिठककर) हानूश 
कुफ्लसाज को उसकी आँखों से महरूम कर दिया जाए।उसकी आँखें नहीं होगी तो और घड़ियाँ नहीं बना सकेगा।"8
            मूल कथानक की घटना समय लगभग पाँच सौ वर्ष पुराना है जिसमें कथा नायक हानूश ताला बनाने का काम करता है।परिवार में पत्नी कात्या और एक बेटी थी।हानूश का बड़ा भाई पादरी था।बाद में एक आश्रयहीन जेकब नाम के एक युवक को आश्रय दिया गया जो हानूश को ताला बनाने में मदद करता था।कात्या ताले को बाज़ार बेचने जाती थी,इस प्रकार घर का निर्वाह होता है।जब हानूश ने घड़ी के बारे में सुना तो उसके मन में भी घड़ी बनाने का ख़्याल पनपने लगा।इसके लिए उन्होने गणित  सीखा साथ ही लुहार से ज़रूरी औज़ार भी बनवाए।पर इस कार्य के लिए सबसे ज़्यादा जरूरी था पैसे की सो उसके पादरी भाई ने चर्च से कुछ अनुदान दिलवाया।हानूश अपने घड़ी बनाने की धुन में घर-गृहस्थी का कार्य लगभग भूल से गया।वह ताला बनाने के कार्य में समय नहीं दे पाता था।पत्नी कात्या को हानूश का घड़ी बनाना बिलकुल पसंद नहीं था क्योंकि इससे घर का निर्वाह करना मुश्किल हो गया था।इसी संबंध में कात्या और हानूश के बीच शाब्दिक झड़प होती रहती थी।कात्या हानूश का अनादर करते हुए उसके पादरी भाई से कहती है,-"उसमें पति वाली कोई बात हो तो मैं उसकी इज्ज़त करूँ।जो आदमी अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकता,उसकी इज्ज़त कौन औरत करेगी?"9 जेकब के आ जाने से हानूश को सहायता और हिम्मत मिली फिर पुनः अपने काम में जुट गया।सत्रह वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद घड़ी बस बनने ही वाली थी कि एक बार फिर आर्थिक समस्या आड़े आ गई।इस बार नगरपालिका के कुछ शुभचिंतकों ने इस शर्त पर कि घड़ी बन जाने पर उनके कहे स्थान पर घड़ी स्थापित की जाएगी, आर्थिक मदद की।आखिरकार वह दिन भी आया जब एक स्वप्न दृष्टा,जुनूनी कलाकार का स्वप्न साकार हुआ यानी हानूश मिनारी घड़ी बनाने में सफल हुआ।ततपश्चात व्यावसायिकों ने शर्त के अनुसार घड़ी को शहर के ब्यस्त चौराहे की मीनार पर लगाने का निश्चय किया।इस प्रकार व्यापारी एक तीर से कई निशाना लगाना चाह रहे थे।पहला घड़ी गिरजाघर में नहीं लगेगी तो उनका प्रभाव कम होगा।दूसरा घड़ी को देखने दूर-दूर से आएंगे तो बाज़ार की रौनक बढ़ेगी।तीसरा बादशाह प्रसन्न होकर व्यापारियों को दरबार में नुमाईंदगी देंगे जिससे रुतबा बढ़ेगी। ख़ैर, बादशाह द्वारा आखिरकार घड़ी का उद्घाटन किया गया।चारों ओर हानूश की चर्चा आम थी।बादशाह द्वारा हानूश को खूब पुरस्कार और सम्मान दिए जाने की घोषणा की गई।फिर महाराज ने एलान किया कि-" हम खुश हुए।इसे एक हज़ार सोने के मोहरे दे दिये जाए।इसका महीना बाँध दो और यह घड़ी की देखभाल किया करे।आज से इस आदमी का रुतबा एक दरबारी का रुतबा होगा।"10 हानूश बादशाह के घोषणा से गदगद था तभी राजा ने उसकी दोनों आँखे निकाल देने का भी एलान कर दिया।राजा का तर्क था कि ऐसी नायाब घड़ी मुल्क़ में और दूसरी न बनें।बादशाह की आदेश से हानूश की आँखे निकाल दी गई।उसके जीवन में अंधेरा छा गया।अंधेपन के कारण वह विक्षिप्त सा हो गया।वह अपने अंधेपन का कारण घड़ी को मानते हुए उसे नष्ट करने के लिए सोचने लगा।इसी बीच जेकब घड़ी बनाने का भेद अपने भीतर छुपाए प्राग से चुपचाप दुश्मन देश तुला चला गया।घोर निराशा के क्षणों में हानूश स्वयं को ख़त्म कर देने के लिए असफ़ल प्रयास भी करता है।तभी हानूश को घड़ी खराब होने की सूचना मिलती है।हानूश के पास घड़ी को नष्ट करने का अवसर होते हुए भी वह घड़ी को नष्ट नहीं करता बल्कि सुधारकर पुनः उसे ठीक कर देता है।वस्तुतः हानूश क्या कोई भी सच्चा कलाकार विषम हालातों में भी अपनी कलाकृति को नष्ट नहीं कर सकता।हानूश अपने कलाप्रेम को प्रगट करते हुए कला के प्रति उदात्त प्रेम का परिचय देता है।अन्तर्द्वंद से उबरकर उसका चरित्र कुंदन की भांति निखर उठता है।
                हानूश को सर्जन प्रक्रिया में पारिवारिक, आर्थिक संकटों से गुजरना तो पड़ता ही है साथ ही धर्म से भी टक्कर लेने पड़ती है।विज्ञान की तार्किक और वस्तुनिष्ठ दृष्टि से धार्मिक वर्ग अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस करता है।इसी हानूश का विरोध करते हुए कहते हैं,-"तुम शैतान की औलाद हो घड़ी बना रहे हो।घड़ी बनाना इंसान का काम नहीं, शैतान का काम है।घड़ी बनाने की कोशिश करना ख़ुदा की तौहीन करना है।भगवान ने सूरज बनाया है,चाँद बनाया है,अगर उन्हें घड़ी बनाना मंजूर होता तो क्या वह घड़ी नहीं बना सकते थे?उसके लिए क्या मुश्किल था?इस वक्त आसमान में घड़ियाँ ही घड़ियाँ लगीं होती।सूरज और चाँद ही भगवान की दी हुई घड़ियाँ है।जब भगवान ने घड़ी नहीं बनाई तो इंसान का घड़ी बनाने का मतलब ही क्या है?"11 इस प्रकार लाट पादरी हानूश को ईश्वर विरोधी ठहराकर उसके आविष्कार का विरोध करता है और आर्थिक मदद बंद कर देता है।यहाँ लेखक ने उस संकीर्ण मानसिकता की ओर संकेत किया है जिसके कारण बुद्धिजीवी वर्ग जो नयी बात या नया सिद्धांत प्रस्तुत करना चाहता है उसे इसी प्रकार घोर विरोध का सामना करना पड़ता है।मध्ययुगीन यूरोपीय समाज में ऐसे ही कितने वैज्ञानिकों को यह कहकर मौत के घाट उतार दिया गया कि तुम ईश्वर विरोधी हो।
              यह नाटक एक सृजनशील समर्पित सच्चे कलाकार की विवशता और तमाम विरोधों से जूझते हुए अन्तर्द्वंद में उलझे दशा को दिखाता है।सत्ता संघर्ष, शक्ति संरक्षण, संतुष्टिकरण की नीति और कूटनीतिक चालों की कारण हमेशा कलाकार पीसता रहा है।यह नाटक मध्ययुगीन परिवेश पर लिखा गया है पर सामयिक परिवेश भी इससे कुछ अलग नहीं है।वर्तमान में भी राजनीति और राजनेताओं के आपसी कलह में सच्चा कलाकार,प्रतिभावान खिलाड़ी,वैज्ञानिक आदि कई बार हाशिये में रह जाते हैं।इस नाटक को पढ़ते हुए मुझे श्री फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी 'पहलवान की ढोलक' की याद ताज़ा हो गई।सत्ता परिवर्तन का शिकार आखिर एक कलाकार को क्यों होना पड़ता है ?
दरअसल सत्ताधीशों का कलाकार और कला की महत्ता से कोई कोई सरोकार नहीं होता।उनके लिए अपने अहम को संतुष्ट करना और स्वार्थ को सिद्ध करना ज़्यादा जरूरी होता है ।इसी तरह सृजनात्मकता का संकट मोहन राकेश जी के नाटक 'आसाढ़ का एक दिन' में भी देखा जा सकता है। राजा अपनी शक्ति और शान को बनाए रखने के लिए कलाकार की प्रतिभा को सम्मानित करने के बजाय कलाकर की कला पर अपना अधिकार जमाना चाहता है।वह इस दंभ में जीता है कि यदि एक कलाकार,कलाकार है तो उसका वज़ह स्वयं राजा है।शाहजहां ने बेगम मुमताज की याद में सुंदर ईमारत 'ताजमहल' बनाने वाले कारीगर का हाथ कटवा दिया था ताकि वह मिस्त्री ताजमहल जैसी कोई दूसरी ईमारत न बना सके।निसंदेह राजा कलाकार के लिए पूरी सुख-सुविधा का इन्तिज़ाम तो करता है पर इसके साथ ही उसकी प्रतिभा,अप्रतिम कारीगरी की हत्या भी कर देता है।यह विडंबना है कि संसार नायाब कला को अंजाम देने वाले कलाकार को याद नहीं करता।इतिहास में उसका नाम दर्ज नहीं होता बल्कि याद किया जाता है क्रूर,हिंसक राजा जो कलाकार की हूनर को ख़त्म करता है।हानूश के साथ भे यही होता है।उसे राजदरबार में जगह तो मिल जाता है पर उसकी नियति पींजरे में बंद उस पक्षी की तरह होता है जिसे सारी सुविधाएं तो मिलती है पर स्वतंत्रता नहीं।परकटे पक्षी की विडंबना यह है कि वह उड़ना तो जानता है पर उड़ नहीं सकता।
                भीष्म साहनी जी ने नाटक के संवादों में जीवन के लिए जरूरी अपने अनुभवजन्य सन्देशों को कहीं-कहीं सूक्तियों की तरह दर्ज किया है।पहले अंक में हानूश के पादरी भाई द्वारा निराश कात्या को धैर्य रखने एवं सकारात्मक बने रहने की सीख देते हुए कहता है,-"सारा वक्त पीछे की ओर ही नहीं देखते रहते,कात्या।कभी भविष्य की ओर भी देखना चाहिए।सियाने कह गए हैं:पीठ अतीत की ओर और मुँह भविष्य की ऒर होना चाहिए।"12 इसी तरह एक और प्रसंग में कात्या को समझाते हुए कहता है,-"पैसे वाले कौन-से खी हैं, कात्या ? अगर पैसे से सुख मिलता हो तो राजा-महाराजों जैसा सुखी ही दुनियाँ  में कोई नहीं हो।"13  एक अन्य प्रसंग में जब हानूश यह समाचार सुनता है कि गिरजेवालों ने माली-इमदाद देना बंद कर दिया है तो वह व्यग्र होकर नकारात्मक सोचने लगता है तभी उसका बड़ा भाई समझाते हुए कहता है,-"तुम बहुत ज़्यादा उत्तेजित रहते हो, यह ठीक नहीं ।आदमी के मन में स्थिरता होनी चाहिए।मन शांत रहे तो इंसान बहुत कुछ सोच सकता है।"14 एक और प्रसंग में कात्या को समझाते हुए अपने पति हानूश का हौसला अफजाई करने का सलाह देते नज़र आते हैं,-"तुम नहीं जानती कात्या,अगर आदमी को उसकी पत्नी का विश्वास मिले तो उसके हौसले दुगुने हो जाते हैं,उसका उत्साह दुगुना हो जाता है।"15
         नाटक की भाषा सरल-सहज बोलचाल की हिंदी भाषा है किंतु कहीं-कहीं ऊर्दू शब्दों का प्रयोग भी किया गया है।नाटक की भाषा में प्रवाहमयता और नाटकीयता का जबरदस्त समन्वय दिखाई पड़ता है।
           निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि हानूश नाटक जहां एक ओर शोषणकारी सत्ताधारी वर्ग का सत्य है तो दूसरी ओर दुर्दमनीय सृजनात्मकता से भरे विक्षुब्ध कलाकारों का भी वर्ग सत्य है।नाटक का विषय ऐतिहासिक कम काल्पनिक
अधिक है पर जो विसंगतियां नाटक में दर्ज है वह हमेशा समकालीन बना रहेगा।यूं तो भीष्म साहनी जी कथाकार के रूप में विख्यात हैं पर नाटककार के रूप में भी उनका योगदान अविस्मरणीय रहेगा।
सन्दर्भ सूची :---
  1. अपनी बात, भीष्म साहनी ,पृ. सं.- 26,27
  2. आज के अतीत,भीष्म साहनी,राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,प्रथम संस्करण,2013,पृ. सं.-44
  3. भीष्म साहनी:व्यक्ति और रचना,राजेश्वर सक्सेना एवं प्रताप ठाकुर, वाणी प्रकाशन,दिल्ली,प्रथम संस्करण,1997,पृ. सं.-16
  4. सम्पूर्ण नाटक, भीष्म साहनी,भाग एक, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली प्रथम संस्करण,2011,पृ. सं.-8
  5. वही पृ. सं.-8
  6. भीष्म साहनी,हानूश,राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली,दो शब्द,पृ. सं.-07
  7. वही पृ. सं.-07
  8. भीष्म साहनी ,हानूश,राजमहल पेपरबैक्स, नई दिल्ली,द्वितीय अंक,पृ. सं.-99
  9. वही पहला अंक पृ. सं.-11
  10. वही ,दूसरा अंक,दृश्य तीन,पृ. सं.-96
  11. वही,दूसरा अंक,दृश्य एक,पृ. सं.-52,53
  12. वही, पहला अंक, पृ. सं.-14
  13. वही, पहला अंक, पृ. सं.- 15
  14. वही, पहला अंक, पृ. सं.- 22
  15. वही, पहला अंक, पृ. सं.- 16
--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
सहायक प्राध्यापक
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
कवर्धा,जिला-कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
मो. 9755852479





1.असह्य आत्मिक पीड़ा की यथार्थ अभिव्यक्ति : जूठन (22 जून,2020)
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सहृदय रचनाकार जहाँ एक ओर अपने परिवेश को लेकर संवेदनशील होता है तो दूसरी ओर निजी संवेदनाओं की आत्माभिव्यक्ति भी करता है।साहित्यकारों का समाज के साथ सरोकार होने के कारण वह अपने साहित्य में सामाजिक कुरीतियों को यानी सामाजिक ,धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी पहलुओं को कृतिबद्ध करना शुरू करता है।दलित साहित्य की रचना करनेवाला साहित्यकार स्वयं दलित हो सकता है या फिर ग़ैर दलित हो सकता है। दोनों के द्वारा रचित साहित्य में 'यथार्थ और अनुभूति' को लेकर अंतर हो सकता है। जहाँ गैर दलित साहित्यकार दलित जीवन की पीड़ा को दूर से महसूस करता है वहीं एक दलित साहित्यकार अपने भोगे हुए यथार्थ को लिखता है।दलित साहित्यकार द्वारा लिखे हुए साहित्य में उन सारी बातों का चित्रण होता है जिसे रचनाकार स्वयं देखा है,अनुभव किया है,सोचा है समझा है और महसूस किया है। हिन्दी साहित्य में ऐसी कोई विधा नहीं है जो दलित अनुभवों से अनछुआ हो। आज कविता,कहानी, नाटक, उपन्यास,आत्मकथा आदि विधाओं में दलित साहित्य उत्कृष्ट रूप में देखे जा सकते हैं। 
               हिंदी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश बाल्मीकि जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है उन्होंने दलितों की पीड़ा को शब्द देते हुए कविता,कहानी,आत्मकथा एवं आलोचना विधा में दलित साहित्य को संमृद्ध किया है। उनकी प्रमुख रचनाओं में सदियों का संताप ,बस्स बहुत हो चुका, अब और नहीं, शब्द झूठ नहीं बोलते, चयनित कविताएँ (कविता संग्रह) ; 'जूठन' दो भागों में (आत्मकथा) ; सलाम,घुसपैठिये,,अम्मा एंड अदर स्टोरीज, छतरी (कहानी संग्रह);  दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र , मुख्यधारा और दलित साहित्य, दलित साहित्य:अनुभव, संघर्ष और यथार्थ(आलोचना);सफाई देवता(सामाजिक अध्ययन) आदि हैं। 
            'जूठन' ओमप्रकाश बाल्मीकि जी की सबसे चर्चित कृति रही है जो कि आत्मकथा है।यह आत्मकथा दो भागों में है। आत्मकथा का पहला भाग 1997 में और दूसरा भाग 2015 में प्रकाशित हुआ था। आत्मकथा के संबंध में बाल्मीकि जी का कहना था कि " सचमुच जूठन लिखना मेरे लिए किसी यातना से कम नहीं था। जूठन के एक-एक शब्द ने मेरे जख्मों को और ज्यादा ताजा किया था,जिन्हें मैं भूल जाने की कोशिश करता रहा था।" वे यह भी कहते हैं कि " उपलब्धियों की तराजू पर यदि मेरी इस व्यथा कथा को रखकर तौलोगे तो हाथ कुछ नहीं लगेगा।" फ़िल्म ' आर्टिकल-15' के लीड एक्टर आयुष्मान खुराना ने एक इंटरव्यू में कहा है कि इस रोल की तैयारी करने के क्रम में उन्होंने जूठन किताब को पढा और उन्हें कई रातों तक नींद नहीं आई।कल्पना कीजिए उस व्यक्ति के बारे में जिसने ये जिंदगी जी होगी। मैंने जब लॉकडाउन के दौरान जूठन आत्मकथा पढ़ने का मन बनाया तो संयोग ऐसा हुआ कि मुझे जूठन के दूसरे भाग को पहले पढ़ना पड़ा। दरअसल मैंने आत्मकथा की राधाकृष्ण पेपरबैक्स वाली किताब के दोनों भागों का एक साथ ऑनलाइन आर्डर किया किंतु दूसरा भाग पहले पहुँच गया। सो उत्सुकता बस दूसरे भाग को पहले पढ़ डाला। उनके आत्मकथा के दूसरे भाग में देहरादून की आर्डिनेंस फैक्ट्री में अपनी नियुक्ति के साथ-साथ नई जगह पर अपनी पहचान को लेकर आई समस्याओं एवं मजदूरों के साथ जुड़ी अपनी गतिविधियों का ज़िक्र करते हुए अपनी साहित्यिक सक्रियता का विस्तार से उल्लेख किया है।जबकि आत्मकथा के पहले भाग में हज़ारों वर्षों से चले आ रहे जातिप्रथा के कुचक्र के बीच कथित तौर से क्षुद्र जाति चूहड़ा (मेहत्तर या भंगी) परिवार में जन्म लेने वाले बालक को किस तरह से हीन भावना के साथ संघर्ष करते हुए जीवन का पथ तलाशना पड़ता है,उसका जीवंत चित्रण किया है। 
               उनके आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव दग्ध हैं।आज भी समाज में डोम, चमार,मेहत्तर, चूहड़ा, भंगी, नट आदि  वर्ण या जाति में पैदा हुए लोगों के लिए ये शब्द गाली की तरह उच्च वर्गों के लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है।सच तो यह है कि दलित परिवार में जन्में लोगों को आदमी भी नहीं समझा गया। अपनी आत्मकथा को उज़ागर करने वाली  इस आत्मकथा के बारे में ख़ुद ओमप्रकाश बाल्मीकि जी कहते हैं-"दलित जीवन की पीड़ाएँ असहनीय और अनुभव दग्ध हैं।ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान न पा सके। एक ऐसी समाज व्यवस्था में हमने साँसे ली है,जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी ...। अपनी व्यथाक्रम को शब्दबद्ध करने का विचार काफी समय से मन में था। लेकिन प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिल पा रही थी।...इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे।एक लंबी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों,यातनाओं, उपेक्षाओं,प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा,उस दौरान गहरी यंत्रणाएँ मैंने भोगी।स्वयं को परत दर परत उघेड़ते हुए कई बार लगा कि कितना दुखदाई है यह सब ! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।"1 
               इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मेरा मन जातिगत समाज और उससे उपजे विद्वेष के प्रति और अधिक आक्रोश से भर गया। मुझे मेरे गाँव के नट समाज के वे लोग याद आने लगे जिन्हें मैं बचपन से अछूत के रूप में देखते आया था।वे आज भी समाज में अछूत समझे जाते हैं। तथाकथित उच्च वर्गों के घर सुख या दुख वाले कार्यक्रमों में महज़ बचे हुए खाना लेने के लिए आज भी मांगने जाते हैं।वे आज भी मूलभूत सुख सुविधाओं से दूर हैं।वे आज भी अस्पृश्य माने जाते हैं,उन्हें कोई भी सामाग्री दूर से प्रदान की जाती है।वे आज भी गरीबी,बेकारी,अशिक्षा आदि के चंगुल में जकड़े हुए हैं। बाल्मीकि जी की आत्मकथा के शब्दों में चमत्कार तो नहीं है पर भोगे हुए यथार्थ की सच्ची अनुभूति है। आत्मकथा पढ़ते हुए उनके अनुभवजन्य सामाजिक दुर्व्यवहारों के प्रसंगों को पढ़कर मेरा दिल भर जाता था।कितने बार मेरी आँखें नम हो गईं थी और आँसू भी निकल पड़े थे।जूठन के कुछ प्रसंग बिल्कुल रुलाने वाले और न भूलने वाले हैं-" तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया।थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, "अबे, ओ चूहड़े के, मादरचोद कहाँ घुस गया...अपनी माँ..." हेडमास्टर ने लपकलकर मेरी गर्दन दबोच ली थी।उनकी उंगलियों का दबाव मेरे गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है।कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका।चीख़कर बोले, "जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू...नहीं तो गांड में मिर्ची डाल के स्कूल से बाहर निकाल दूँगा।"2  ऐसी विषम परिस्थितियों में जहां दलित के लिए शिक्षा प्राप्त करना सपना था, तमाम उपेक्षाओं और अपमानों को सहते हुए लेखक ने शिक्षा प्राप्त की। 
             'जूठन' का एक-एक शब्द चीख़ता है-आख़िर हमारा कसूर क्या है? क्यों युगों से पशुतर हैं हम?कब बदलेगी नियति हमारी?कब हम थोथे वादों से उबरेंगे?संविधान में दिए गए अधिकार हमें कब मिलेंगे?हमारी गिनती राष्ट्र के अहम हिस्से के रूप में कब होगी? क्या हम भारतीय नागरिक होने का गर्व महसूस कर पाएंगे? ये सारे सवाल आज भी शासन-प्रशासन के सामने अनुत्तरित खड़े हुए हैं।जूठन भले ही एक व्यक्ति(बाल्मीकि जी) की आत्मकथा है किंतु यह उन समस्त दलितों की आत्मकथा है,जो पीड़ा को सहते तो हैं मगर अभिव्यक्त नहीं कर पाते। बाल्मीकि जी की आत्मकथा का शीर्षक 'जूठन' अपने आप में चौकाने वाला है।इस नाम को रखने के पीछे लेखक का जो दर्द छिपा है उसे उन्होंने बताते हुए अपने बचपन के दिनों को याद किया है।इस पुस्तक के शीर्षक चयन में वे सुप्रसिद्ध कथाकार राजेन्द्र यादव जी के प्रति आभारी दिखते हैं।उनके अनुसार-"पुस्तक का शीर्षक चयन करने में श्रद्धेय राजन यादव जी ने बहुत मदद की।अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर पांडुलिपि को पढा।सुझाव दिए।जूठन शीर्षक भी उन्होंने ही सुझाया।उनका आभार करना मात्र औपचारिकता होगी।"3 बचपन के दिनों को वे बताते हुए कहते हैं कि कैसे उनके माता और पिता हाड़तोड़ मेहनत करते थे उसके बाद भी दोनों समय निवाला मिलना दुष्कर था,उनकी माता कई तथाकथित ऊँचे घरों में झाड़ू-पोंछे का काम करती थी और बदले मिलती थी रूखी-सूखी रोटियाँ जो जानवरों के भी खाने लायक नहीं होती थीं, उसी को खाकर गुजारा करना पड़ता था।भोजन के बाद फेंके जाने वाले पत्तलों को उठाकर वे घर ले जाते और उनके जूठन को एकत्र करके कई दिनों तक खाने के काम में लाते।"पूरी के बचे-खुचे टुकड़े, एकाध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बांछे खिल जाती थी।जूठन चटखारे लेकर खायी जाती थी।"4
                  'जूठन' दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का यथार्थ दस्तावेज है।जीवन के रोजमर्रा की छोटी-छोटी सुविधाओं से वंचित दलितों की त्रासदी व्यक्तिगत वजूद से लेकर घर-परिवार और पूरी सामाजिक व्यवस्था तक फैली हुई है।लेखक अपने बचपन में जिस सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिवेश में पला-बढ़ा वह वह किसी की भी मानसिक दशा को विचलित कर देने वाला है।एक छोटे से बच्चे के लिए जब उसके आसपास की सारी परिस्थितियां प्रतिकूल हों उससे संस्कारवान होने की अपेक्षा करना सामाजिक बेमानी से कम नहीं है।जीवन के जद्दोजहद और विपरीत हालातों से लड़ते हुए लेखक कीचड़ में खिले कमल की भांति लगते हैं।अपने बचपन के आसपास की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए कहते हैं- "जोहड़ी के किनारे चूहड़ों के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें ,जवान लड़कियाँ,बड़ी-बूढ़ी यहाँ तक की नव नवेली दुल्हनें भी इसी डब्बेवाली के किनारे खुले में टट्टी फ़रागत के लिए बैठ जाती थीं।तमाम शर्म लिहाज़ को छोड़कर वे डब्बेवाली के किनारे गोपनीय जिस्म उघाड़कर बैठ जाती थीं।चारों तरफ़ गंदगी भरी होती थी।ऐसी दुर्गंध की मिनट भर में साँस घुट जाए।तंग गलियों में घूमते सूअर,नंग धड़ंग बच्चे,कुत्ते,रोज़मर्रा कर झगड़े, बस यही था वह वातावरण, जिसमें बचपन बीता।इस माहौल में यदि वर्ण व्यवस्था को आदर्श कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए,तो राय बदल जाएगी।"5 आत्मकथा के इन शुरूआती वाक्यों से उनकी पीड़ा और बेबसी का अनुमान लगाया जा सकता है।
                         भारतीय समाज में सामाजिक विकास के लिए जाति व्यवस्था का समर्थन करने वालों को डॉ भीमराव अंबेडकर जी की किताब 'जाति प्रथा का विनाश' (Annihilation of Caste) जरूर पढ़ना चाहिए। ठीक इसी तरह संविधान में कानून बनने के बाद भी जातिवाद की जड़ें भारतीय समाज में किस हद तक जमीं हुई है इसे साक्षात जानने के लिए बाल्मीकि जी की आत्मकथा 'जूठन' अवश्य पढ़नी चाहिए।जूठन का नायक समाज में गहराई तक सदियों पुरानी जमीं 'जातिवाद' की जड़ों को खोदने का प्रयास करता है।वह जाति द्वारा तय नियति को बार-बार ललकारता है,उससे जूझता है।सच मानिए महाभारत का नाबालिग अभिमन्यु चक्रव्यूह में केवल एक बार प्रवेश करता है और मारा जाता है लेकिन 'जूठन' का अभिमन्यु(लेखक) के सामने बार-बार यह चक्रव्यूह उपस्थित होता है  और उसे तोड़कर वे आगे बढ़ते हैं। वे अपनी प्रतिभा और संघर्ष के बलबूते पर उस शीर्ष पर पहुंच जाते हैं जहाँ तथाकथित सवर्णों का हजारों वर्षों से बर्चस्व रहा है।उनकी उपस्थिति से आसपास के लोगों को भूकंप सा झटका महसूस होता है।न चाहते हुए भी उन्हें ऐसे व्यक्ति को बर्दाश्त और स्वीकार करना पड़ता है,जिसके नाम से ही वे नफ़रत करते हैं।उसके साथ रहना व जीना कौन कहे,वे उसका नाम भी नहीं सुनना चाहते।इस तरह 'जूठन' आत्मकथा हिंदी साहित्य में ज्वालामुखी की लावे की तरह जलते हुए यथार्थ का पर्दाफ़ाश करता है।
                 'जूठन' के माध्यम से बाल्मीकि जी जहाँ एक ओर अपनी आत्मिक पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं तो दूसरी ओर वर्षों पुरानी जाति व्यवस्था के उस पहाड़ को ढहाना चाहते हैं जो समाज में समता,स्वतंत्रता और बंधुता के लिए बाधक रहे हैं।वे अपनी आत्मकथा में जो बातें लिखी है वह हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। उनकी बातों को झुठलाने के मायने है,भरी दुपहरी में अपनी आंख पर काली पट्टी बाँधकर कहना कि सूरज उगा ही नहीं है। बाल्मीकि जी द्वारा आत्मकथा लिखे जाने के निर्णय पर कुछ मित्रों द्वारा हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया था- " ख़ुद को नंगा करके आप अपने समाज की हीनता को बढाएंगे।" और यह भी " आत्मकथा लिखकर आप अपनी प्रतिष्ठा ही न खो दें।"
इसके बावजूद भी आत्मप्रेरित होकर उनके द्वारा आत्मकथा लिखा जाना साहसिक कार्य का परिचायक है।उनके द्वारा लिखे गए एक-एक शब्द जहाँ एक ओर ज़ख्म से कराहते हुए लगते हैं तो दूसरी ओर ज़ख्म देने वालों के ख़िलाफ़ ललकारते हुए भी लगते हैं।यह आत्मकथा किसी को बहुत पसंद आ सकता है तो किसी को शूल की तरह चुभ भी सकता है क्योंकि सच्चाई किसी को अच्छी भी लगती है तो किसी को बुरी भी। मैं इस आत्मकथा की यथार्थता और संप्रेषणीयता दोनों से अत्यधिक प्रभावित हूँ।
सन्दर्भ सूची :---
  1. बाल्मीकि ओमप्रकाश, जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन,नई दिल्ली, भूमिका, पृ. सं.- 7,8
  2. वही पृ. सं.-15
  3. वही पृ. सं.- 9       
  4. वही पृ. सं.-19
  5. वही पृ. सं.-11   

                              ---   नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 
                                      सहायक प्राध्यापक
                            शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय 
                            कवर्धा,जिला-कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
                                मो. 9755852479
            




भीड़तंत्र। (असग़र वज़ाहत जी की कहानी संग्रह)
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1.'भगदड़ में मौत' -- इस कहानी में कोई भी पात्र नहीं है जैसे की पारंपरिक कहानियों में पात्र होते हैं।कहानी संग्रह की भूमिका में ही अपने विचार स्पष्ट कर दिए हैं कि वे अब कहानियों में पात्रों का होना ज़रूरी नहीं मानते।भगदड़ में मौत कहानी भगदड़ के बाद ऊपजे तमाम परिस्थितियों को अलग-अलग दृश्यों में हास्य और व्यंग्य के साथ परोसा गया है।कहानी में छोटे-छोटे दृश्यों के माध्यम से  घर, परिवार, समाज, जाति, धर्म, शासन, प्रशासन, लोग और लोकतंत्र में मौजूद कटु यथार्थ का पर्दाफाश किया जाता है।
2.किरच-किरच लडक़ी - यह एक ऐसे प्रेमी जोड़े की कहानी है जो बड़े अरमान पाले यू पी से दिल्ली पढ़ने के लिए आते हैं और पढ़ लिखकर बेरोजगारों की भीड़ में शुमार हो जाते हैं।जीवन के जद्दोजहद में उनके जीवन के सुनहरे सपने टूट जाते हैं और महज़ रोजी रोटी के जुगाड़ में ही खूबसूरत काल्पनिक प्रेम का अंत हो जाता है।
3.

स्वरचित कविताएँ

कोई एक शहर महज़ शहर नहीं होता
होतें हैं कई-कई गतिरोध, विरोध,विरोधाभास और विडम्बनाएं
असंख्य बुने हुए रिश्ते,हास-परिहास
ईर्ष्या द्वेष प्रतिद्वंदिता की आग में जलते पराए अपने
टूटे-फूटे,संवरते,सिरजते अनगिनत सपने
जाने-अनजाने लोग,लोगों की भीड़,भीड़ भरे काफिले
बीमार लोग, बीमार सोंच, बीमार आबोहवा
शोर शराबा इतनी कि कोई किसी का न सुन सके 
मोटर गाड़ियां फैक्ट्रियां धूल धुआँ विकास में विनाश की कई कई निशानियां 
पर्यावरणीय चिंतन शिविर और कार्यशालाओं का आयोजन
उदास दिन बेचैन रातें अपराध पनपाती सँकरी गलियां
बैठकें संगोष्ठियां राहतें साजिशें
आना जाना लेनदेन और सहयोगी असहयोगी क्रियाएं 
अच्छाइयां-बुराइयां संबंधों की खाइयां
स्कूल कॉलेज मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे चर्च अलग अलग प्रार्थनाएं और तरीक़े
अमीरी-गरीबी सदियों की अमिट असमानताएं 
दान-पुण्य धर्मशालाएं कई
कहीं फैली  इत्र की खुशबुएँ कहीं दिशाओं से उठती बदबुएँ
सड़कें चौड़ी, लंबी, सँकरी ऊबड़-खाबड़ पर नहीं सड़कें रास्तें असुरक्षित
आपाधापी,बेसुध तन मन और मंजिल की तलाश में अंधी दौड़
लूट चोरी डकैती  फिरौतियाँ बलात्कार और हत्याएं
अंजान लोग,अंजान चेहरे,अंजान करतूतें, अंजान हादसे



अंतर बस इतना है कि उनके पास पेट का सवाल है
मजबूर है वे आखिर कैसे भरा  जाए पापी पेट ?
आपके पास जेबें हैं, कोठियां हैं, तिजोरियां हैं
इन्हें भरने के लिए आपके पास चालाकियां और तरकीबें भी हैं कई
आप मग़रूर हैं कि आपके पास जवाब है पेट के सवालों का

भूख में सूखकर पीठ पर चिपक गईं हैं उनकी उतनी

दोनों में आदमी कौन है पता नहीं
वह जो मज़बूर है या वह जो मग़रूर है ..?
मजबूर कभी मग़रूर को आदमी नहीं मानता
और
मग़रूर कभी मज़बूर को आदमी मानने को तैयार नही



तुम्हारी गरीबी पर
सरकारें बयान दे सकती है

उनके बयानों में
गरीबी उन्मूलन की
तमाम कागजी कार्यवाहियों की
कथा हो सकती है

विपक्ष अपने कुतर्कों
ऊलजलूल प्रश्नों के जाल में
सत्ता पक्ष को
घेरने का नाटक खेल सकता है

गरीबी को गेंद की तरह
केवल उछाले जा सकते हैं
इधर से उधर

गरीबी को
फुटबॉल की तरह
लात मारकर 
पक्ष और विपक्ष दोनों
फेंक देना चाहते हैं
अपने से दूर

राजनीति में
सत्ता गिराने
और सत्ता हथियाने
के गुर सीखे जाते हैं

गरीब और गरीबी 
जैसे विषय
इनके पाठ्यक्रम में
नहीं होते

गरीबी एक मुद्दा है
जो वोट माँगने में
काम आती है 

गरीबी एक सीढ़ी है
जो नेता को 
सत्ता तक
पहुँचाने में
मदद करती है

गरीबी के रहस्य से
विस्मित है विज्ञान 
ब्लैकहोल की मिस्ट्री से 
गहरा है गरीबी की मिस्ट्री
ब्लैकहोल के ब्लैक से
ज्यादा डार्क है ग़रीबी
आसान नहीं इसे उजला करना
ब्लैकहोल के होल से
बड़ा होल है गरीबी का
गरीबी के इस छिद्र को
बंद करना 
इतना आसान नहीं

गरीबी के रफ़्तार से
हैरान है अर्थशास्त्र
अर्थशास्त्र के  सारे सिद्धांत
सारे आँकड़े, सारे ग्राफ़
परिभाषित ही नहीं कर पाते

गरीबी का विस्तार देख
नतमस्तक है भूगोल
गाँव, कस्बा,शहर, 
नगर-महानगर
प्रदेश-देश
द्वीप-महाद्वीप
सारे जहां में
पैर फैला चुकी है गरीबी
युगों और कालों को
मात देती
अस्तित्व बनाए रखती है गरीबी
अस्तित्व 

88..ये कैसा समय है-03.09.2020
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ये कैसा समय है..?
कि बहुरंगी दुनियाँ को
एक रंग में रंगने की साज़िश हो रही है

उन्हें रास नहीं आ रहा है
विविधता में एकता की बातें

वे गढ़ना चाहते हैं
एक नई सांस्कृतिक पहचान
जिसमें आपको शामिल होना होगा अनिवार्य

'धर्म' और 'राष्ट्र' की घुट्टी
पिलाई जा रही है जनता को
जनता एडिक्ट हो चुकी है
'धर्म' और 'राष्ट्र' के ड्रग से
जनता होश में आए और काम की बातें करे
इससे पहले ही उन्हें पिला दी जाती है
'राष्ट्र' और 'धर्म' की दो-दो घुट
अवसर देख कविगण
'देशभक्ति' को भुनाने में लगे हुए हैं
मंचों से ताल ठोंककर
ओजस्वी स्वर में वीररस की कविता
सुनाए जा रहे हैं
'राष्ट्र' और 'धर्म' के नशे में धुत्त जनता
गदगद होकर ख़ूब ताली पिटे जा रही है

कविता में
जनता की बातें करना
काम की बातें करना
रोज़ी-रोटी की बातें करना
कविता ही नहीं मानी जा रही है

आपको अगर कहलाना है कवि
तो छंदबद्ध रचना करनी होगी
मिलाने होंगे शब्दों की तुक
लय में पढ़नी होगी कविता
वाहवाही लूटने के लिए
कविता में पिरोने होंगे 'धार्मिकता' और 'राष्ट्रीयता' के शब्द

ये कैसा समय है ..?
कवि अपना कविकर्म भूलकर
जनता को गुदगुदाकर -हँसाकर
उसका केवल मनोरंजन कर
अपनी कविता की उपयोगिता प्रमाणित कर रहे हैं

जनता को रिझाने वाली कविता में
हुनर और कला तो ख़ूब दिख जाती है
पर कविता में संवेदना कतई नही दिखती है
केवल व्यावसायिक नजरिये से कविता गढ़ी जा रही है
ये कैसा समय है ..?

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479


87.चार कविताएँ : पक्षधर - 24.08.2020
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1.शांति के पक्षधर
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वे शांति के पक्षधर हैं
शांति चाहिए उन्हें 
किसी भी कीमत पर

उनका कहना है कि
बेहद जरूरी है समाज में शांति
शांति के बिना कोई भी समाज
दरअसल समाज ही नहीं होता

वे और उनके सारे लोग
जो हैं शांति के कट्टर अनुयायी
समाज में शांति स्थापित करने के लिए
जा सकते हैं किसी भी हद तक
चाहे किसी की हत्या ही क्यों न करना पड़े

समाज में शांति के लिए
बड़े ही लगनशील एवं तत्पर हैं वे
शांति के लिए कोई भी समझौता नहीं करेंगे वे।

2.धर्म के पक्षधर
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वे बड़े ही धार्मिक व्यक्ति हैं
उन्हें अधर्मी लोग कतई पसंद नहीं है

जो भी उनका कहा
नहीं मानता
उनकी नजरों में
वे सारे अधर्मी हैं

वे अपने धर्म स्थापित करने के लिए
किसी भी हद तक जा सकते हैं
चाहे जानें ही क्यों न लेना पड़े

उनका मानना है--
आदमी-औरत,पेंड़-पौधे और पशु भी
केवल धर्म के लिए है
इस दुनियाँ में धर्म से बड़ा कुछ भी नहीं होता

धर्म के लिए बड़े श्रद्धावान हैं वे
धर्म के लिए कोई भी समझौता नहीं करेंगे वे।


3.अहिंसा के पक्षधर
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वे सिद्धांतः अहिंसक हैं
जीवों की हत्या को पाप समझते हैं वे
पर
जब-जब उन्हें
अपना बर्चस्व कायम करना होता है
'हिंसा' ही काम आता है

वे स्वयं को कभी
तर्कों से सच साबित नहीं कर सकते
आखिर थक हारकर
हिंसा का दामन थामना ही पड़ता है उन्हें

वे न्याय और अन्याय का फ़ैसला
स्वयं करते हैं
उनके लिए न्याय का एकमात्र रास्ता है 'हिंसा'

अहिंसा के  प्रबल समर्थक हैं वे
समाज में अहिंसा के लिए
'हिंसा' से कभी कोई भी समझौता नहीं करेंगे वे।

4.प्रेम के पक्षधर
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वे सभी सच्चे प्रेमी हैं
प्रेम को ईश्वर की तरह मानते हैं
प्रेम की पूजा करते हैं वे

वे प्रेम से ही सब कुछ पाना चाहते हैं
अगर न मिले 'प्रेम' तो बौखला जाते हैं 
हिंसा पर उतारू हो जाते हैं वे

उनका कहना है--
जिससे वे प्रेम करते हैं
वो भी उनसे प्रेम करे
वे चाहते हैं सब कुछ उनके ही मनमाफ़िक हो

प्रेम न मिलने पर 
किसी भी हद तक जा सकते हैं वे
प्रेम के लिए 
हत्या का विकल्प होते हैं उनके पास

वे सच्चे प्रेमी हैं
उनसे प्रेम न करने वाला
घृणा का पात्र होता है

प्रेम के पक्षधर हैं वे
प्रेम में कभी कोई भी समझौता नहीं करेंगे वे।








86.तोड़े हुए रंग-विरंगे फूल 18.08.2020
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टीप-टीप बरसता पानी
छतरी ओढ़े
सुबह-सुबह चहलकदमी करते
घर से दूर सड़कों तक जा निकला
देखा--
सड़क के किनारे
लगे हैं फूलदार पौधे कई
पौधों पर निकली हैं कलियाँ कई
मग़र कहीं भी
दूर-दूर तक पौधों पर 
खिले हुए फूल एक भी नहीं
सहसा नजरें गई
नहाए न धोए
फूल चुन रहे पौधों से 
महिला-पुरुष कई-कई
वही जो कहलाते आस्तिक जन
रखे हुए हैं झिल्ली में 
तोड़े हुए रंग-विरंगे फूल 
देखा मैंने--
कलियाँ थी सहमी-सहमी
पौधे भी थे सहमे-सहमे
याद हो आया तत्क्षण मुझे
अज्ञेय की कविता
"सम्राज्ञी का नैवेद्य दान''
फूलों को डाली से न विलगाना
महाबुद्ध के समक्ष
सम्राज्ञी का रीते हाथ आना
सोचा फिर--
मैले,अपवित्र हाथों से अर्पित
तोड़े हुए निस्तेज फूलों से
भला कैसे प्रसन्न होते होंगे
अक्षर-अखण्ड देव ! प्रभु !!


85.तुममें कुछ तो बात रही होगी राहत ! 18.08.2020
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वह जो चला गया
मेरी नज़रों में  एक शायर ही तो था
उनकी शायरी,गज़लें और नज़्में
अनायास उतर जाता था
मेरे मन के भीतरी छोर तक

उसने कभी ग़द्दारी नहीं की
उसने कभी किसी की अस्मत नहीं लूटी
वह हत्यारा भी तो नहीं था

उसने जो भी देखा-महसूसा
बस लफ़्ज़ों में पिरोता रहा

मैंने उस अज़ीम शायर के इंतकाल पर
चंद शब्दों से
बस श्रद्धांजलि ही तो दी थी

उनके प्रति प्रगट मेरे भावभीनी शब्द
कुछ लोगों को जाने क्यूँ
चुभने लगे थे शूल की तरह
मेरी भावनाओं में राष्ट्रद्रोह की गंध-सी
आने लगी थी उन्हें
उन्हें मेरे शब्दों के अर्थ
धर्म,जाति और राष्ट्र के ख़िलाफ़ लगने लगे

मुझे ग़लत साबित करने के लिए
वे गढ़ने लगे थे कई-कई तर्क
मुझे गुनाहगार मान
लिखने लगे थे धिक्कार भरे शब्द
कुछ तो लामबंद होकर ट्रोलिंग करने पर हो गए थे आमादा

मेरे देश के 'दर्शन' में
पाप-पुण्य से परे होती है आत्मा
कहते हैं प्राण निकल जाने के बाद
निर्दोष हो जाता है मृत शरीर
फिर
राग-द्वेष से परे निर्दोष,पवित्र
मृतात्मा की श्रद्धांजलि पर
इतना चिल्लम चों आखिर क्यों..?

राहत तुम इस दुनियाँ से तो चले गए
पर जाते-जाते तुमने
अपने पसंद करने वालों
और
नापसंद करने वालों को आहत कर गए
तुममें कुछ तो बात रही होगी राहत !






84..आस्तिक और नास्तिक - 06.08.2020
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नदी मझधार में
बहते जा रहा था एक आदमी
लगभग डूबते हुए
बड़ी मुश्किल से
चिल्ला पाया था एक बार-'बचाओ'

नदी किनारे 
एक सच्चा आस्तिक
जिसे था अपने ईश्वर पर अटूट विश्वास
डूबते हुए आदमी के लिए
हाथ जोड़कर-आँख बंदकर
पारंपरिक प्रार्थना की मुद्रा में
निवेदन करते हुए कहा--
"हे सर्वज्ञाता,सर्वशक्तिमान
सर्वदृष्टा, सर्व विराजमान 
हे कृपालु ईश्वर !
इस असहाय डूबते हुए
आदमी की रक्षा करें।"

नदी के दूसरे किनारे पर
खड़ा था एक नास्तिक
जिन्हें ख़ुद पर था भरोसा
जीवन मूल्यों पर था अटूट विश्वास 
कर्मकांड नहीं करता था
पर था कर्मनिष्ठ

जो आस्तिकों द्वारा हमेशा
हिक़ारत भरी नज़रों से देखा जाता था
जो शंकास्पद और उपेक्षित नज़रों से था घायल

हाँ वही बिलकुल वही
डूबते आदमी को देखते ही
नदी में लगा दिया था छलांग

खींचते मझधार से
ले आया नदी किनारे
बचा ली थी उसकी जान

बेहोश आदमी के इर्दगिर्द
आस्तिकों की लग गई थी भींड़
कहे जा रहे थे सभी--
ईश्वर सबके लिए है
ईश्वर कृपालु है
देखो ! ईश्वर ने 
डूबते हुए आदमी की जान बचा ली है

होश आने पर
उसी समय
डूबते हुए आदमी ने
उस नास्तिक को
बड़े कृतज्ञ होते हुए कहा --
"भैया बहुत-बहुत धन्यवाद
आप ही मेरे भगवान हो।"

पता नहीं क्यों..?
क्या हुआ..? 
पर...
नाँक-मुँह सिकोड़ने लगे थे सभी आस्तिक-जन।




83.कश्मकश !  17.07.2020
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घर से निकलने की कश्मकश
अगर निकल गए घर से
फिर
जैसे निकले थे वैसे ही आ पाने की कश्मकश !

अनबोले तो नहीं
पर मुँह खोले भी नहीं
बोले जाने की कश्मकश !

मिली खौफ़जदा नजरें परस्पर
पर खुले नहीं दिल 
दिल खोले जाने की कश्मकश !

रीते-रीते से हुए हम
और रीती-रीती सी हुई दुनियाँ
बेबस चेहरे 
पाबंद-जिंदगियां
मिलकर खुशियां मना लेने की कश्मकश !

हैं पैसे 
पर खर्चे नहीं
खर्चें हैं
मग़र कमाने का ज़रिया नहीं
धुंधले-धुंधले हैं सारे रास्ते
आगे एक कदम बढ़ाने की कश्मकश !

दुश्मन है अदृश्य
सारे सपनों को घेरे
वक्त है बहुत
मग़र अरमान अधूरे-अधूरे
अब कहो मत 'बी-पॉजिटिव'
मन में पॉजिटिव हो जाने की कश्मकश !




82..घरेलू नुस्ख़े  16.07.2020
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मुझे सर्दी होने से पहले
हर बार होता है
नाक के नीचे गले में अजीब-सा दर्द

मैंने अपनी समस्या 
माँ को बताई
कहा उसने
तुम्हे गले की ख़राश है
बताया उसने यह भी
बड़ी आम बात है
गले में ख़राश का होना

गले की ख़राश दूर करने के लिए
बताए उसने नुस्ख़े

सुबह उठकर 
गुनगुने पानी में
नमक डालकर
पाँच-पाँच मिनट रोज
गरारा करना है
तीन दिन 

तीन कप पानी में
चार-पाँच काली मिर्च
तुलसी की पांच-छः पत्तियां
साथ उबालकर 
एक कप काढ़ा बनाना
और पीना दिन में तीन बार

रात में सोने से पहले
चुटकी भर हल्दी डाल
पाँच दिन पीना गरम दूध 
 
जब-जब होती थी 
गले में ख़राश
माँ के बताए नुस्ख़े
करता था हर बार
छू मंतर हो जाती थी 
गले की ख़राश

माँ नहीं है अब
पर याद है
माँ के बताए नुस्ख़े

मुझे जब-जब 
गले में होती है खराश
याद आती है माँ
फिर उसके बताए नुस्ख़े

आज जीवन के जद्दोजहद में
चारों ओर फैली हैं
खराशें ही खराशें
मग़र अफ़सोस
ख़राशों को दूर करने के लिए
माँ नहीं है 
और माँ के घरेलू नुस्ख़े भी..।






81..वही गाँव, अब वही नहीं लगता ! 26.06.2020
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मेरा गाँव अब भी मेरा गाँव है
पर लगता नहीं कि मेरा गाँव है
जो था मेरा गाँव
जैसा था मेरा गाँव
कहीं दिखता नहीं मेरा गाँव
कहीं लगता नहीं मेरा गाँव
वह
वैसा 
अब नहीं है मेरा गाँव

मेरे गाँव के वे लोग 
जो रहते थे गाँव में
जिनमें दिखता था पूरा गाँव
वो चले गए
वे अपने साथ ले गए पूरा गाँव

अब जो रहते हैं गाँव में लोग
वे दरअसल गाँव में नहीं रहते
और न ही गाँव रहता है उनमें
अब केवल लोग रहते हैं वहाँ 
अब वहाँ कोई गाँव नहीं होता

खेत,नदी,तालाबें,गलियां
और कुछ बचे-खुचे पेंड़ 
अब भी तो हैं गाँव में
पर वे भी 
अब नहीं लगते वैसे
जैसे लगते थे पहले 

गाँव की मिट्टी
हवा और आबोहवा
बिलकुल वैसी नहीं लगती
जैसी थीं

और 'मैं' ख़ुद भी
जब-जब होता हूँ गाँव में
वही गाँव का नहीं लगता
जैसे मेरा गाँव
अब वही गाँव नहीं लगता






80..रायपुर सेंट्रल जेल में    23.06.2020
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रायपुर में पढ़ता था मैं
पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय
था दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी
जन्मभूमि सा प्यारा था आज़ाद छात्रावास

गाँव वालों की नज़रों में
था बड़ा पढन्ता
मेरे बारे में कहते थे वे--
"रइपुर में पढ़ता है पटाइल का नाती।"

मेरे गाँव के पास का एक गाँव
जहाँ रहती थी मेरी फुफेरी दीदी
फुफेरा जीजा था जो हत्यारा
खेती के झगड़े में कर दिया था
किसी का ख़ून
उम्र क़ैद की सज़ा भोग रहा था
रायपुर सेंट्रल जेल में

दीदी के गुजारिश पर
एक बार गया था उससे मिलने
साथ ले गया था
उसकी फरमाइश की सामानें
मेघना बीड़ी का आधा पुड़ा
पांच डिब्बा गुड़ाखू तोता छाप
और साथ में माचिस,मिक्चर भी

बड़ा अजीब लग रहा था मुझे
सोच रहा था कोई दोस्त न मिले रस्ते में
गर किसी को बताना पड़े
कि मैं जा रहा हूँ कहाँ..?
तो वे क्या सोचेंगे मेरे बारे में
यही कि मैं हूँ अपराधी का संबंधी
शून्य से नीचे था मेरा आत्मविश्वास
मुँह पर रूमाल बाँधकर
दोस्तों से नजरे चुराता
निकला था विश्विद्यालय कैंपस से
सेंट्रल जेल रायपुर के लिए

जेल परिसर में
कैदियों से मिलने वालों की लगी थी भींड़
एक आरक्षक नोट कर रहा था
आगन्तुकों का नाम,पता और क़ैदी से उसका रिश्ता
मुझे नाम पता के साथ
बताना पड़ा था साला होने का संबंध
कैदी से अपना संबंध ऊफ !
भर गया था मैं गहरे अपराध बोध से
मन ही मन उस अपराधी जीजा को दिया था गाली
साssलाss जीजा

मैं इन्तिजार करता रहा
दो घंटे बाद भी नहीं पुकारा गया मेरा नाम
चुपचाप देख रहा था पूरा माज़रा
मुझसे बाद आए कितने
और मिलकर चले भी गए
पहले मिलने के लिए
पुलिस को देना पड़ता था सौ-पचास के नोट
अपराध को रोकने वाले
ख़ुद खेल रहे थे अपराध का खेल

गुस्से में सहसा मैं फूट पड़ा था
चिल्लाया था ज़ोरदार
ये सब क्या हो रहा है..?
मुझे मिलने क्यों नहीं दे रहे हो..?
बाद में आए वो कैसे मिल लिए..?
पुलिसवाले ने गुर्राया था मुझ पर
" ऐ चिल्लाओ मत नहीं तो डाल दूँगा तुम्हें भी जेल में।"

देखते ही देखते
मेरी तरह के पीड़ित दो-चार लोग
शामिल हो गए थे मेरे साथ
जेल प्रशासन के ख़िलाफ़
हम लोग मिलकर करने लगे थे शोरगुल

मेरे शाब्दिक हमले से
सकपका गया था पुलिसवाला
फिर तो जल्दी ही पुकारा गया था मेरा नाम
एक लंबे इन्तिजार के बाद आई थी मेरी बारी
मैं देख पा रहा था
उसका जालीदार चेहरा
लगभग अस्पष्ट-सा जाली के उस पार
जो था अपराधी,हत्यारा और जीजा
जो भोग रहा था उम्र कैद की सज़ा
रायपुर सेंट्रल जेल में

आज दिनभर की यही कमाई थी मेरी
आखिरकार अनचाहे ही सहीं
खुद को एक अच्छा भाई साबित कर दिया था।


79.क्या हुआ सुशांत..?   16.06.2020
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         (1)
सुशांत था तुम्हारा नाम
शांत रहकर
किया तुमने संघर्ष
अपने उम्र से ज़्यादा
तुमने पाई सफलता
तब भी शांत ही रहे तुम

कोई नहीं जानता
आख़िर कौन सी अशांति थी
तुम्हारे भीतर

अंदरूनी हलचल को अपने
सहेजे हुए
जिंदगी के
तूफानों को दबाए
मौत को 
गले लगाकर
तुम शांत हो गए
सुशांत !

     (2)
फ़िल्मी दुनिया में
तुम बाहरी थे
कोई गॉड फ़ादर
नहीं था तुम्हारा

साथ थे तुम्हारे
तुम्हारा लगन
तुम्हारी मेहनत
तुम्हारा विश्वास 

तुम ठुकराए गए होगे
पर हारे नहीं
तुम जानते थे लड़ना
तुमने मेहनत से प्यार बटोरा
तुमने संघर्ष से बटोरी श्रद्धा
तुमने अभिनय से बनाई पहचान
तुमने रजत पर्दे पर कमाया नाम

अनगिनत सपने संजोए हुए
सपनों की नगरी में आए तुम
कुछ सपनों को पूरे कर 
कुछ को यूँ ही अधूरे छोड़ दिए
और सपनों की दुनियाँ में खो गए तुम

मुझे नहीं पता
कि तुम मज़बूर हुए 
या किए गए
पर 
ख़ुद के लिए क्यूँ इतना क्रूर हो गए..?
अपनों को छोड़ क्यूँ अपनों से दूर हो गए ..?
इस दुनियां के सितारे थे तुम
अचानक आसमान के सितारे क्यों हो गए..?


78.अरे लकीर के फकीरों ! -06.06.2020
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अपने-अपने मुहावरों पर
वे और तुम
जिते आ रहे हो सदियों से
मुहावरा कभी बदला ही नहीं
न उनका न तुम्हारा

शासक हैं वे
बागडोर है उनके हाथों में
वे अपने मुहावरों पर
रहते हैं सदा कायम

तुम्हारे लिए
वे जो भी कहते हैं
कभी नहीं बदलते
चाहे जो हश्र हो तुम्हारा
वे अपने मुहावरों के पक्के हैं

एक बार कह देने के बाद
'पत्थर की लकीर' होती है
उनकी बातें
यही तो उनका मुहावरा है

उम्मीद कतई मत रखो
कि तुम्हारे हितों में
वे बदलेंगे
अपने जिद्दी मुहावरे और स्याह उसूल

तुम्हारी माँग
या तुम्हारी याचना
उसके अहम भरे उसूलों को
कभी नहीं बदल सकते

शासित हो तुम
तुम्हारे मन-मस्तिष्क में
गहरे रच-बस गए हैं
उनकी बागडोर का हsउsआ

तुम भी
अपने जीर्ण-शीर्ण उसूलों के
कम पक्के तो नहीं हो
अपने स्याह उसूलों पर
चिपके रहते हो एकदम अडिग

तुम तो
अपनों के लिए भी
नहीं बदलते हो
अपने थोथे उसूल

बदलना तुम्हारी फ़ितरत ही नहीं
तुम मरते दम तक
बस  'लकीर के फ़कीर' बने रहते हो

एक बात जान लो
उनके पत्थर की लकीर बातों को
उनके दंभी उसूलों को
उनके जिद्दी मुहावरों को
बदलने के लिए
पहले तुम्हें बदलनी ही होगी
अपनी'लकीर के फ़कीर 'वाली
सदियों पुरानी वह आदत
और
अपना घीसा-पिटा वह मुहावरा।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

77..केवल वक्ता के लिए - 5.6.2020
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हे मेरे प्यारे वक्ता
वाक कला में प्रवीण
बड़बोला महाराज
बातूनी सरदार
कृपा करके हमें भी बताओ
कि तुम इतना धारा प्रवाह
कैसे बोल लेते हो..?
बिना देखे,बिना रुके
घंटों बोलने की कला
आख़िर तुमने कैसे सीखी है..?
दर्शकों को
गुदगुदाने वाली कविताएँ
जोश भरने वाली शायरियां
और नैतिक उपदेश वाले
संस्कृत के इतने सारे श्लोक
तुमने भला कैसे याद किए हैं..?
मुझे नहीं लगता
कि केवल बोलने लिए
इतना परिश्रम, इतना अभ्यास
सिवाय तुम्हारे
भला कोई और कर सकता है..?

तुम्हारा भाषण सुनकर
मंत्रमुग्ध हो जाती हैं जनता
तुम अपने जादुई शब्दों से
लोगों में बाँध देते हो समा
तुम्हारी सभाओं में
लगातार गूँजती है
तालियों की गड़गड़ाहट
जब तुम 'भारत माता की जय'
की बुलंद नारे के साथ
अपने भाषण को देते हो विराम
तुम्हारे स्वागत में उठ खड़े होते हैं
मंचासीन सारे लोग
हाथ जोड़कर
करते हैं अभिवादन
सचमुच तुम
इतना अच्छा बोलते हो
कि तुम्हारे लाखों मुरीद बन जाते हैं
अनगिनत दीवाने हो जाते हैं
नवयुवा पीढी
तुम्हारे पदचिन्हों पर
चलने को बड़े बेताब लगते हैं

पर मैंने सुना है
कि गरजने वाले बादल
कभी बरसते नहीं
भौकने वाले कुत्ते
कभी काटते नहीं
तो क्या मान लूं
बोलने वाला बड़बोला वक्ता
कभी कुछ करते ही नहीं..?
वैसे भी
जब करने वाले के पास
बोलने का वक्त नहीं होता
फिर बोलने वाले के पास
कुछ करने का वक्त भला कैसे होगा..?

हे बोलने की संस्कृति
के जन्मदाता
तुम अपनी
वक्तृता क्षमता के कारण
दुनियां में सदा अमर रहोगे
बोलने में ही तुम्हारा पहचान है
तुम बस यूं ही बोलते ही रहो
जब-जब केवल
बोलने वालों की बात होगी
तुम सदैव याद किए जावोगे।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

76.गुड्डू की यादों में रामधीन  -01.06.2020
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मेरे मस्तिष्क के एक हिस्से में
आज भी मौजूद है
रामधीन गोंड़ का
हँसता-खिलखिलाता
वह निष्कलंक काला चेहरा

मैं बहुत छोटा था तब
बमुश्किल छ: या सात बरस का
पर आज भी
अमिट-सी उसकी तसवीर
यादों में बसी हुई है

बियाबान जंगल में
भूत बंगला सा
डिप्टी रेंजर बाबूजी को मिला
सरकारी मकान था वह
वन विभाग का
जहां सुबह-शाम
खाना बनाने के लिए
आता था वह रोज़

उस बियाबान में
वही था मेरा साथी
सुबह-शाम रोज़
उसके आने का
करता  था मैं इंतिजार
मेनगेट की आवाज़ सुनकर
दौड़ पड़ता था
बाहर की ओर..

वह छोटे बच्चों की तरह
घुलमिल जाता था मुझसे
मेरे मनोरंजन के लिए
मुझे ख़ुश करने के लिए
वह निकालता था
तरह-तरह के जंगली जानवरों
और पक्षियों की
बिलकुल हुबहू आवाज़

वह लंबे स्वर में
गुड्डू-s-s-s कहकर बुलाता था मुझे
गुड्डू संबोधन में उसके
टपकता था अपरमित
प्यार का रस

एक दिन वह
कुछ ज़्यादा ही
पुचकार रहा था
बार-बार चुम रहा था मुझे
उसके मुँख से
अजीब-सी गंध
आ रही थी
तब मैं समझा नहीं था
वह शराब की गंध थी
वह पिया हुआ था

रामधीन अपने घर में
ख़ुद के लिए
कभी स्वादिष्ट खाना
बनाता था या नहीं
मुझे नहीं पता
पर हमारे लिए
बड़ा स्वादिष्ट खाना
बनाता था वह
मूँग के दाल में
उसके लगाए
जीरे की छौंक की खूशबू
मेरी स्मृति के नाक में
बिलकुल वैसी ही
आज भी बैठी हुई है

तब मुझे पता नहीं था
कि वह आदिवासी है
गोंड़ है-बनवासी है
अपने अधिकारों से वंचित
नियति के हवाले एक ग़रीब है

तब मैं भी पढ़ा-लिखा नहीं था
रामधीन भी अनपढ़ था
हम दोनों
महज़ भोलेपन के साथ
स्नेह के डोर में बंधे हुए थे

अब जबकि बयालिस साल
बीत चुकी हैं सारी बातें
फिर भी
'गुड्डू' की यादों में
आज भी जीवित है रामधीन।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

75.तुम मजदूर हो - 29.05.2020
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तुम अपने घरों से गाँवों से 
पलायन कतई नहीं किए थे
अखबारों और न्यूज़ चैनलों में
तुम्हारे बारे में छापे गए 
सारे समाचार झूठ थे

हक़ीक़त तो यही है
कि तुम्हारे भी 
बच्चे हैं-परिवार हैं
पेट के खयाल से थोड़े अधिक 
तुम्हारे भी सपने हैं
चाह है तुम्हारी भी
एक छोटा सा पक्का सा मकान हो
बेटी की शादी के लिए थोड़े पैसे हो

भाग्य के साथ तुम्हारा
छत्तीस का आंकड़ा 
जन्मों से रहा है
फिर भी
आज तलक तुम्हारा 
कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया है भाग्य

तुम न रोते हो
न ही कभी कोसते हो
न भाग्य पर
न ईश्वर पर 
न ख़ुद की तकलीफों पर

तुम सच्चे आस्तिक हो
कर्मरत रहना
तुम्हारा धर्म है
और मेहनत तुम्हारा भगवान

तुम्हारे पास
अन्न के भंडार नहीं
आड़े वक़्त के लिए
संचित पूँजी भी नहीं
तुम रोज कमाते हो
रोज खाते हो

इस कोरोना काल में
घरों में कैद है दुनियां
महफूज़ हैं उनकी ज़िंदगी
तुम्हीं हो बेघर 
भूख से बिलबिलाते
प्यास से तड़पते
पाँवों में छाले
बच्चों को गले में बाँधे
चिलचिलाती धूप में
भटकते-भटकते
घर पहुँचने की
ख़्वाहिश लिए
तपती सड़कों पर
दूरियां नापते चले आ रहे हो

ऐ भोले-भाले
बेख़बर इंसान
तुम्हें पता नहीं 
देश लॉकडाउन में है
तुमने सुनी नहीं
सरकारी हिदायतें
तुमने सुना या पढा नहीं
टी वी अखबारों से प्रसारित गाइडलाइंस
तुम मौत से
यूं बेख़ौफ़ बेपरवाह
कैसे हो सकते हो ?
क्या तुम्हें स्टे होम का मतलब
पता भी नहीं है..?
सरकार और प्रशासन
लॉकडाउन में है
वे स्टे होम का पालन कर रहे हैं
तुम तो बाहर में हो
भेड़ बकरियों की तरह भीड़ में हो
तुम्हीं बताओ 
तुम्हारी समस्या
आख़िर कौन सुनेगा..?

मैं मानता हूँ
राह चलते-चलते
पटरियों पर सोते-सोते
तुम्हें हर पल
अपने गाँव और घर की 
याद आती होगी
शायद इसीलिए
तुम रूकते नहीं
तुम थकते नहीं
गिरते-मरते
बस चलते ही रहते हो
घरों की ओर 
तुम्हारा यूं लौटना
मुझे आश्चर्य नहीं होता
बुरे वक़्त में
अपनी ज़मीन
अपने लोग
भला किसे याद नहीं आते..?
तूफ़ान या बारिश
के आने पर
पशु-पक्षी भी
चल पड़ते हैं
अपनी नीडों की ओर
फिर भला तुम क्यों नहीं...?

तुम्हारे साथ 
कोई रहे या न रहे
साथ दे या न दे
तुम्हारे साथ हमेशा रहती है 'भूख'
जब तुम 
घर से निकले थे
भूख साथ थी
अब लौट रहे हो घर
तब भी साथ है भूख
दो अक्षरों
'भू' और 'ख' के बीच
समाहित है
तुम्हारी जिन्दगी
जैसे ये दो अक्षर
अक्षर नहीं दो पाट हों
हमेशा से
इन्हीं दो पाटों के बीच
तुम पिसे जाते रहे हो

मई का महीना है 
कहते हैं लोग
यह तुम्हारा महीना है
मुझे संदेह नहीं
इतनी भीषण गर्मी वाला महीना
तुम्हारा ही हो सकता है
खुशियों वाली बरसात
गुनगुनी धूप वाली ठंड
प्रेम से भरा बसंत
तेरे हिस्से कैसे आ सकता है..?
आज मई की पहली तारीख़ है
क्या तुम्हें नहीं पता !
तुम्हारा दिवस है आज
तुम अपनी बाजुओं से 
बड़े से बड़े पहाड़ काट डालते हो
तो क्या छोटा केक नहीं काट सकते ?
तुम बड़े स्वार्थी हो
तुम्हारे पास जो दुख है
वह तो किसी से कभी बांटते नहीं
अपने दिवस पर
मिठाई क्या बांटोगे
जो तुम्हारे पास है भी नहीं

तुम मजदूर हो 
तुम मज़बूर हो
तुमसे भला कौन प्यार करेगा ..?
तुम जिंदा हो
इसलिए कि अभी 
तुममें जांगर बचा हुआ है
तुम अपना
ख़ून जलाकर
पसीना बहाकर
चंद पैसे तो कमा सकते हो
पर मालिक से कभी
मोहब्बत नहीं पा सकते
तुम दिनरात 
जांगर खपाकर
सड़कें,गगनचुम्बी इमारतें
बना तो सकते हो
पर अपने मालिकों के दिलों में
कभी जगह नहीं बना सकते

वे भलीभाँति जानते हैं
तुम्हारी क़ीमत
तुम्हारी सीमाएं
और
तुम्हारी बेबसी
तुम महज़ 
'एक वोट ही तो हो'
वक़्त आने पर
ख़रीद लेंगे तुम्हें
तुम चंद रुपयों में
उनके लिए भीड़ बन जाओगे
क़भी इसके लिए
कभी उसके लिए
बिकते रहोगे तुम
तुम्हारा ईमान
इतना भी मज़बूत नहीं
कि तुम्हारे पेट की आग 
उसे जला न सके
तुम्हारी गरीबी
तुम्हारी बेकारी
तुम्हारी भूखमरी
तुम्हारी अशिक्षा
कोई मुद्दा ही नहीं है
उनके लिए ज़रूरी है
तुम्हारी जाति 
तुम्हारा धर्म
और 
तुम्हारा छ्द्म राष्ट्र
जाति, धर्म और छ्द्म राष्ट्र से ही
तुम हमेशा उद्वेलित होते रहे हो
रैलियों में जाते रहे हो
नारे लगाते रहे हो
परस्पर घृणा करते रहे हो
ख़ून बहाते रहे हो
मैं नहीं जानता
कि तुम सचमुच बुद्धू हो
या सचमुच देशभक्त हो
पर छ्द्म राष्ट्र के नाम पर
अपनी असल समस्या
भूल जाते हो
और
हर बार शिकार बन जाते हो।


74..मोबाइल के न होने पर....26.05.2020
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साढ़े दस बज चुके थे
पर मुझे तो साढ़े दस बजे पहुँच जाना था कॉलेज
हड़बड़-हड़बड़,ज़ल्दी-ज़ल्दी तैयार होने लगा
बस दो मिनट में हो गया तैयार
दस-सैंतीस पर पहुँच चुका था कॉलेज
पर यह क्या हस्ताक्षर के लिए जेब में पेन नहीं !
पेन के बिना हड़बड़ाहट सी हो गई
जब भी मुझसे पेन भूलने की ग़लती होती है
किसी और से पेन मांगना अपराध सा लगता है
मेरी इस दशा पर कोई बोले या न बोले
मैं ख़ुद ही ख़ुद को बोलता हूँ 
शरम करो पेन भी नहीं है तुम्हारे पास और आए हो कॉलेज

ख़ैर मांगे हुए पेन से हस्ताक्षर कर प्राचार्य कक्ष से निकला बाहर
तभी मेरे पीछे से एक मित्र प्रोफ़ेसर ने आवाज़ दी
कुलमित्र जी ज़रा पेन देंगे क्या ..?
सहसा मैं अपराध की जगह तसल्ली के भाव से भर गया
मेरी तरह के केवल मैं ही नहीं और भी लोग तो हैं

हिंदी विभाग पहुँचकर कर सुकून से बैठा था
कि खुद ब ख़ुद पेंट की जेब तक टटोलते हुए पहुँच गया मेरा हाथ
मैं फिर से हड़बड़ा गया मगर इस बार ज़ोरदार
मेरे मुख से अस्फुट-सी आवाज़ निकली
अरे ! मेरा मोबाइल कहाँ गया...?
समझ आया कि जल्दबाजी में घर पर ही छूट गया है मोबाइल
मोबाइल के बिना सहसा अधूरेपन से भर गया
पिछले तीन घंटों में मेरे हाथ न जाने कितनी बार टटोली होगी जेब
मन ही मन न जाने कितनी बार खिसियाया होऊँगा ख़ुद पर
वाट्सएप के लिए ,फेसबुक के लिए,समय देखने के लिए,क्रिकेट स्कोर के लिए,फ़ोटो खींचने के लिए,ब्रेकिंग न्यूज़ के लिए
ऐसे ही और भी ....... के लिए ........के लिए तड़पता रहा था लगातार 
सोच रहा था बार-बार, कोस रहा था बार-बार
न जाने कौन-सा मैसेज आया होगा ? न जाने किसका कॉल आया होगा?
कितना भुलक्कड़ हो गया हूँ मैं आजकल

खैर तीन घंटे बाद जब लौटा घर तो चरम पर थी मेरी बेसब्री
लपककर उठा लिया था मोबाइल को
जैसे लंबे विरह अंतराल के बाद प्रेमी लपका हो प्रेमिका पर
यह सच है कि हमने बनाया है मोबाइल को
पर हमको पागल तो बनाया है मोबाइल ने 
मुझे अपने एक मित्र की बेबसी पर हँसी तो तब आई थी
जब वह घण्टों मोबाइल की लत से पीछा छुड़ाने का उपाय
कहीं और नहीं मोबाइल पर ही ढूँढते हुए मिले थे।




73..रोटी - 15.05.2020
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पता नहीं
इसे रोटी कहूँ
या भूख या मौत
आईना या चाँद
मज़बूरी या ज़रूरी

कभी मैं रोटी के लिए
रोती हूँ
कभी रोटी
मेरे लिए रोती है

कभी मैं
भूख को
मिटाती हूँ
कभी भूख
मुझे मिटाती है

रोटी से सस्ती
होती है मौत
वह मिल जाती है
आसानी से
पर रोटी नहीं मिलती

रोटी आईना है
जिसमें दिखते हैं हम
पर रोटी में
हम नहीं होते
हमारा आभास होता है

खूबसूरत चाँद-सी
लगती है रोटी
पर होती है दूर
सिर्फ़ देख सकते हैं उसे
छू भी नहीं सकते

क्या करें साहब !
ज़िंदा तो रहना है
इसीलिए
रोटी मज़बूरी है
और ज़रूरी भी।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

72..विकास के सवालों में आदमी को जोड़ना -13.05.2020
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उनकी सोच विकासवादी है
उन्हें विश्वास है केवल विकास पर
विकास के सारे सवालों पर
वे मुखर होकर देते है जवाब
उनके पास मौजूद हैं 
विकास के सारे आँकड़े

कृषि में आत्मनिर्भर हैं
खाद्यान से भरे हुए हैं उनके भंडार
आप भूख से मरने का सवाल नहीं करना
वे आंकड़ों में जीत जाएंगे
आप सबूत नहीं दे पाएंगे
आपको मुँह की खानी पड़ेगी

वे विज्ञान में भी हैं आगे
वे आसमान की बातें करते हैं
धरती की बात उन्हें गवारा नहीं
अंतरिक्ष, चाँद और उपग्रह पर
चाहे जितना सवाल उनसे पूछ लो
कभी ग़लती से भी
ज़मीनी सवाल पूछने की ज़ुर्रत नहीं करना
वरना जमींदोज हो जावोगे एक दिन

उनके संचार भी बड़े तगड़ें हैं
वे आपके बारे में पल-पल की ख़बर रखते हैं
ये और बात है
बाख़बर होते हुए भी बेख़बर होते हैं
उनके संचार व्यवस्था पर
आप सवाल करें यह मुमकिन ही नहीं
उसने मुफ़्त में बांट रखे हैं फोर जी नेटवर्क
खाना आपको मिले या न मिले  
ख़बरों से जरूर भरा जाएगा आपका पेट

भाई साहब उनके पास 
विकास के तमाम आँकड़े हैं
आपके पास उतने तो
विकास के सवाल भी नहीं हैं
गरीबी,बेकारी,भूखमरी ये सारे
पीछड़ेपन की निशानी है
उनके लिए पीछड़ेपन पर चर्चा करना
सवाल उठाना महज़ बेवकूफ़ी से कम नहीं

वे भला विकास छोड़ 
पिछड़ों से बात करें
उनके सवाल सुनें
हरगिज़ संभव नहीं
दरअसल उनके लिए 
पिछड़ों के  सवाल सवाल ही नहीं होते
इसलिए
सावधान !याद रखना विकास के सवालों में
कभी आदमी का सवाल मत करना
उनके लिए सबसे बड़ा गुनाह है
विकास के सवालों में आदमी को जोड़ना।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479


71..रुकना भी है चलना - 13.05.2020
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हमें तो बस यही सिखाया गया है चलते रहो चलते रहो
बस चलते ही रहो चलते ही रहने का नाम है जिंदगी
रुक जाने से जिन्दगी भी रुक जाएगी तुम्हारी 
उनके लिए विरोधाभासों में जीना जैसे जिंदगी ही नहीं होती
मैं कहूँ रूकने से जिंदगी सँवर जाती है तो आप हँसेंगे
आपने कभी रुकना सीखा ही नहीं
आपने कभी समझा ही नहीं रुकने का दर्शन
आपकी नज़रों में नकारात्मक सोच की उपज है रुक जाना
आपके ज्ञान, धर्म और शिक्षा के ख़िलाफ़ है आपका रुक जाना
रुकना बुद्धिमानी है अगर जिंदगी के मुहाने पर मौत खड़ी हो
चलना फिर तेज़ चलना फिर और तेज़ चलना फिर दौड़ने लगना जिंदगी नहीं होती
जिंदगी हमारी रफ़्तार में कतई नहीं होती
जैसे पूरा-पूरा जागने के लिए पूरी-पूरी गहरी नींद में सोना ज़रूरी होता है
वैसे ही चलायमान जिंदगी के लिए ज़रूरी होता है रुकना
बताओ आखिर सोए बिना कैसे जागोगे और कब तक जागोगे..?
सत्य कई बार खुली आँखों से दिखाई नहीं देता
साफ़-साफ़ दूर-दूर तक देखने के लिए  
जरूरी होता है  आँखों को बंद करके देखना 
आँख बंद करके चलते रहने से अच्छा है रूक जाना
चलते रहने वालों के ख़िलाफ़ है ट्रैफ़िक की लाल बत्ती पर रूक जाना
रुकना समझदारी है रुकना ऊर्जा का केंद्र है रुकना बाहर और भीतर देखना है रुकना चलने की प्रेरणा है
आप मानो या ना मानो सहीं मायने में रुकना भी चलना है।


जंगल का सवाल - 70 (02.04.2020)
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अब धीरे-धीरे सारा शहर 
शहर से निकलकर घुसते जा रहा है जंगल में
आखिर उसे रोकेगा कौन साथी...?
शहर पूरे जंगल को निग़ल जाएगा एक दिन
आने वाली हमारी पीढ़ी हमसे ही पूछेगी
खो चुके उस जंगल का पता
हम क्या जवाब देंगे उन्हें
शहर की ओर इशारा करते हुए कहेंगे
यही तो है बाकी बचा तुम्हारे हिस्से का जंगल
हमारे जवाब से कतई संतुष्ट नहीं होगी हमारी भावी पीढ़ी
वह बार पूछेगी जंगल के सारे सवाल
और हम हर बार एक झूठ को दबाने के लिए बोलेंगे कई-कई झूठ
आखिरकार मजबूर होकर करना ही पड़ेगा कड़वे सच पर यक़ीन उन्हें
यह जो शहर है बस यही तो है जंगल
हम ही तो है इस जंगल के जंगली जानवर
सभ्य शहर में रहते हुए भी कहलाएंगे जंगली
और सुसंस्कृत होते हुए भी कहलाएंगे जानवर
धनबल और बाहुबल से युक्त होंगे जंगल के राजा
बहुमंजिला गुफा होगा उसका निवास स्थान
शोषित-पीड़ित जनता ख़रगोश और हिरणों की तरह सतत सेवा में रहेंगे उपलब्ध
कुछ चतुर चालाक लोमड़ी भी होंगे जो राजा को अपनी चतुराई से करेंगे ख़ुश
और बेवकूफ जनता को फ़साएंगे अपनी चालाकियों से बार-बार
तब आने वाली हमारी नस्लें स्कूलों में पढ़ेंगी
जंगल का समानार्थी शब्द होता है शहर
वे इसके अभेद अर्थों से पूर्णतः सन्तुष्ट हो चुके होंगे
फिर आने वाली पीढी कभी नहीं पूछेगी जंगल का सवाल।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479


हमारी-तुम्हारी स्याह मानसिकता - 69 (02.04.2020)
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आज सब कुछ बदल चुका है
मसलन खान-पान,वेषभूषा,रहन-सहन और
कुछ-कुछ भाषा और बोली भी

आज समाज की पुरानी विसंगतियां, पुराने अंधविश्वास
और पुरानी रूढ़ियाँ
लगभग गुज़रे ज़माने की बात हो गई है
आज बदले हुए इस युग में-समाज में
अब वे बिलकुल भी टिक नहीं पाती

अब काम पर जाते हुए
बिल्ली का रास्ता काट जाना 
बिलकुल अशुभ नहीं माना जाता 
हो गई है निहायत ही सामान्य घटना

हम ख़ुद को एक सांविधानिक राष्ट्र
और सभ्य समाज का अंग मानने लगे हैं
इतना ही नहीं गाहे-बगाहे अधिकारों की बात करने लगे हैं

आज जितना हम बदले हैं
जितना हमारा समाज बदला है
जितने हमारे तौर-तरीके बदले हैं
पर उतनी नहीं बदली है 
हमारी पुरानी स्याह मानसिकता

हम बस पुरानी विसंगतियों, पुराने अंधविश्वासों
और पुरानी रूढ़ियों पर आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ाकर
अपनी सुविधानुसार गढ़ लिए हैं नए-नए रूप

आज भी कुछ आँखों में
बड़े ज़ोर से चुभती है
लिंग और जातिगत समानता की बातें

आज सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक नज़र आते हैं
धर्म की दुहाई देने वाले तथाकथित धार्मिक लोग

आज मानवीय तर्कों और उसूलों पर जीने वाले लोग
अधार्मिक और नास्तिक करार दिए जाते हैं

आख़िर क्यूँ "बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ"
स्त्री उत्थान और स्त्री विमर्श की सच्चाई
नारों और किताबों से निकलकर
कभी व्यावहारिक धरातल पर क़दम नहीं रख पाती ?

आख़िर क्यूँ सभ्य और सुशिक्षित समाज में 'दहेज'
ठेंगा दिखाते हुए स्टेटस सिंबल बनकर
आज भी अस्तित्ववान बना हुआ है ?

कन्या के भ्रूण को निकाला जा सकता है
यह आसान तरीका और विकृत ज्ञान
तथाकथित सभ्य और सुशिक्षित समाज के सिवाय 
भला किस अनपढ़ के पास है ?

दरअसल सच्चाई तो यही है
कि आधुनिकता के इस ज़माने में
हमारी विसंगतियां, हमारे अंधविश्वास 
और हमारी रूढ़ियाँ भी आधुनिक हो गई हैं

आज भले ही आधुनिक हैं हम 
बावजूद इसके तनिक भी नहीं बदली है
बल्कि उतनी ही पुरानी है
हमारी-तुम्हारी स्याह मानसिकता ।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      975585247









शब्द बेज़ान नहीं होते - 68
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शब्द बेजान नहीं होते
उसमें होती हैं
प्रकृति की हरियाली
खूबसूरती निराली
फूलों की महक़
धरती का सोंधापन

शब्द बेजान नहीं होते
उसमें होती हैं
रिश्तों की गर्माहट
अपनों की आहट
लोगों का आना-जाना
हँसना-रोना-इतराना


शब्द बेजान नहीं होते
उसमें होती हैं
युद्धों की ललकार
पीड़ितों की चित्कार 
आक्रमण और विनाश
मुल्कों का विभाजन

शब्द बेजान नहीं होते
उसमें होती हैं
अनहोनी कथाएं
विकट व्यथाएं
नैतिक उपदेश
आदेश-निर्देश

शब्द बेजान नहीं होते
उसमें होते हैं
सारे जमाने का इतिहास
लोगों का हास-परिहास
गत आगत और अनागत की बातें
जागी और सोई हुई रातें




तुम्हें गढेगी मेरी कविता - 67 (24.01.2020)
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जब तुम आसमान से उतरकर
धरती पर रखोगे अपने पाँव
किसी के लिए चलोगे चार कदम 
तुम्हारे नाज़ुक हो चुके जिसम से
चुवेंगे पसीने की दो-चार बूँदे
तुम थककर बैठोगे तो
किसी अपने अजीज को करोगे याद
तब कहीं तुम्हें भी
जगह दूंगा अपनी कविता में 

जब तुम अपनेपन के चश्में से 
देखने लगोगे दुनियां
मन में पाले हुए पूर्वाग्रहों को छोड़
अहम के अपने जूते उतारकर
करोगे मन-मंदिर में प्रविष्ट
तुम्हारे समर्पण की पराकाष्ठा में जब
खुशबुएँ उठने लगेंगी चारों ओर
तब कहीं तुम्हें भी
अलंकार की तरह
सजा लूँगा अपनी काव्य पंक्तियों में

जब तुम मिटा दोगे 
भेदों के सारे पहाड़ और सारी खाइयां
किसी के दर्द को देखकर
धड़कने लगेगा तुम्हारा दिल
जब किसी के जख्मों के लिए 
मरहम बन जाएंगे तुम्हारे शब्द
जब तुम भर जावोगे उदात्त भावों से
फिजाओं में जब गूँजने लगेगी
तुम्हारा एकात्म स्वर
तब कहीं तुम्हें भी
शब्दों में गढेगी मेरी कविता
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    975585247








वक़्त का पाबंद- 66 (23.01.2020)
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वह वक्त का बड़ा पाबंद है
समय पर आता है
समय पर जाता है

यह अलग बात है
कि वह आने और जाने के बीच
कार्यस्थल पर नहीं होता

पूरे महीने भर का
रजिस्टर में साइन है उसका
और 
बायोमेट्रिक मशीन में अंगूठे का निशान

वेतन उसे पूरा मिलेगा 
वेतन के लिए ज़रूरी 
सारे रिकार्ड दुरुस्त हैं उसके

आप झुठला नहीं सकते उसे
रिकार्ड बोलता है,काम नहीं
इसीलिए वह
वक़्त का बड़ा पाबंद है
काम का नहीं।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479



इतिहास के गर्भ में
एक जीता-जागता अतीत
जिसे प्रत्यक्ष हम देख नहीं सकते
पर महसूस कर सकते हैं सबकुछ
उस बीते कल को बिल्कुल आज की तरह

एक महानगरीय सँस्कृति की भव्यता
हमारे पूर्वजों की चमत्कारिक कुशलता
धर्म के प्रति आस्था
मेहनत पर अटूट विश्वास
उनके जीवन की सरलता और दिव्यता
सब कुछ जीवंत अहसास दिलाता है आज भी

हाफ नदी के किनारे बसा एक महानगर
उत्कृटता दर्शाता एक व्यापारिक केंद्र
अनुशासन बद्ध, एकता के सूत्र में बंधे लोग
परस्पर मिलते-जुलते-हँसते-गाते-नाचते उत्सव मनाते
आज भी हवाओं में गूँजती हुई-सी लगती है 
उनकी हँसी, संगीत की धूनें, थिरकते पाँवों की आवाज
मोटी-मोटी मगर टूटी-फूटी उन भव्य दीवारों पर चलते हुए
अतीत का वही अपनापन और सुरक्षा भाव






शहर- 65 (04.01.2020)
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शहर में जिधर भी
सिर घुमाकर देखता हूँ
ग़ुबार ओढ़े आसमान
दृश्यमान कुछ भी नहीं
बिल्कुल अस्पष्ट
धुँधला-धुँधला लगता है जीवन सारा

शहर में जब भी
खिड़की खोलकर झाँकता हूँ
मैली चादर ओढ़ी अलसाई सुबह 
रातवाली करवट में सोई हुई
बिल्कुल आतुरहीन
निष्क्रिय ढीला-ढीला जीवन सारा

दिन दुनियाँ से बेख़बर
खिड़की दरवाजे हैं सब बंद
हैं फ्लैट
न मुँडेर,न हैं कौंआ
आता नहीं मेहमान कोई
सुनसान भीड़, ब्यस्त दोपहर
अकेला-अकेला जीवन सारा 

थकी हुई शामें
थके हुए लोग
फलता-फूलता रिश्तों में बाज़ार
फैला स्वार्थों का व्यापार
लगता पराया-पराया जीवन सारा

उनींदी हैं रातें
उनींदे हैं लोग
मन में पाले सपने हज़ार
सड़कों पर है फैली रोशनी
पर है जीवन-अंधियारा
लगता अधूरा-अधूरा जीवन सारा

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479


बासी-चटनी - 64 (03.01.2020)
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स्कूल जाने से ठीक दस मिनट पहले
तालाब के ठंडे पानी में दो डुबकी लगाकर
घर आता था दौड़ते -दौड़ते

गड्ढे वाली कासें की बर्तन गहेरही में
बासी निकालकर
साथ
घर के छोटे-छोटे गोल टमाटर की चटनी
अथान आम की 
और गोंदली एक

आंगन की गुनगुनी धूप में बैठकर
बड़े ही मजे से खाता था बासी

पैंतीस साल बाद अब भी
ज़ेहन में उसके स्वाद और वो दृश्य हैं जस के तस
मगर चाहकर भी बचपन के उस मजे को 
नहीं दुहरा पाता एक बार भी
महज़ बीमार हो जाने की डर से
या कि प्रोफ़ेसर होने की प्रास्थितिक दंभ से।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479


आए हुए भाव फिर न आए कभी  - 63 (20.12.19)
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रात में मेरी नींद अचानक खुली
हृदय में कुछ भाव आए
मन में कौंधे कुछ विचार
सूझी कुछ काव्य पंक्तियाँ भावानुकूल

सोचा अहा !  कितने अच्छे भाव हैं
सूझे हैं कितने अच्छे विचार
सूझी है कितनी अच्छी काव्य पंक्तियाँ 

तब नींद ठीक से खुली न थी
तत्क्षण कागज़ और कलम उठाने की ज़हमत न ली
सोचा सुबह होते ही
पन्नों पर उतार लूंगा सारे भाव-विचार
लिख लूंगा सुबह सूझी हुई सारी काव्य पंक्तियाँ 

हुई सुबह 
रात की अधखुली नींद में 
आए सारे भावों को टटोलना शुरू किया

हृदय के किसी भी कोने में
मिले ही नहीं वे भाव
तनती रहीं मस्तिष्क की नसें मेरी
पर ग़ायब थे मन में कौंधे हुए सारे विचार
सूझ ही नहीं रही सूझी हुई सारी काव्य पंक्तियाँ

लगा जैसे लुट गई हो मेरी सारी संपत्ति
लाचार-सा रह गया मैं
सिर पीटता रहा
किन्तु सघन अँधेरे रात के
अधखुली नींद में 
आए हुए भाव फिर न आए कभी।



दो पुराने दोस्त - 62(1.12.19)
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हम दो पुराने दोस्त
अलग होने से पहले 
किए थे वादे
मिलेंगे जरूर एक दिन

लंबे अंतराल बाद
मिले भी एक दिन

उसने देखा मुझे
मैंने देखा उसे
और अनदेखे ही चले गए

उसने सोचा मैं बोलूंगा
मैंने सोचा वह बोलेगा
और अनबोले ही चले गए

उसने पहचाना मुझे
मैंने पहचाना उसे
और अनपहचाने ही चले गए

वह सोच रहा था
कितना झूठा है दोस्त
किया था मिलने का वादा
मिला पर
बोला भी नहीं
मुड़कर देखा भी नहीं
चला गया

बिलकुल वही
मैं भी सोच रहा था
कितना झूठा है दोस्त
किया था मिलने का वादा
मिला पर
बोला भी नहीं
मुड़कर देखा भी नहीं
चला गया

हम दोनों 
एक-दूसरे को झूठे समझे
हम दोनों
वादा खिलाफी पर
एक-दूसरे को जीभर कोसे

इस तरह हम दोनों मिले।







तुम आना मैं रहूँ या न रहूँ... 61(13.12.19)
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तुम आना मैं रहूँ या न रहूँ...
मेरे आशियाने के आसपास 
ढेर सारी यादों में मिलूँगा तुम्हें
हवा में घुले हुए मेरे चेहरे और मेरी आवाजें
तुम महसूस कर पाओगी बिलकुल उसी रूप में
रात के सन्नाटे में मेरा वही स्पर्श
मेरी मुस्कान मेरी हँसी और मेरी मोहब्बत के रंग सारे 
तुम्हें अहसास कराती तमाम लमहों की मेरी परछाइयां
हर मौसम में मौसम की तरह छा जाऊँगा तुम पर
गरमी में आना मेरी ठंडकता मिलेगी तुम्हें
ठंडी में आना मेरी गरमाहट मिलेगी तुम्हें
बारिश में आना 
मेरे प्रेम की बूँदों में तरबतर भीग जाओगी तुम
ये वादा है मेरा,मेरे आशियाने के आसपास 
पहले की तरह तुम्हारे दिल में इक बार फिर धड़कूँगा 
तुम आना मैं रहूँ या न रहूँ...


फिर मिलकर पुकारें आओ ! - 60 (10.12.19)
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फिर मिलकर पुकारें आओ 
गांधी, टालस्टाय और नेल्सन मंडेला
या भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद और सुभाष चन्द्र बोस की
दिवंगत आत्माओं को
ताकि हमारी चीखें सुन उनकी आत्माएं
हमारे बेज़ान जिस्म में समाकर जान फूंक दे
ताकि गूंजे फिर कोई आवाजें जिस्म की इस खण्डहर में
ताकि लाश बन चुकी जिस्म में लौटे फिर कोई धड़कन
ताकि जिस्म में सोया हुआ विवेक जागे,सुने,समझे 
और अनुत्तरित आत्मा के सवालों का जवाब दे
ताकि एक बार फिर उदासीन जिस्म से फूटे कोई प्रतिरोध का स्वर
इसीलिए दिवंगत आत्माओं को
फिर मिलकर पुकारें आओ !


बड़ा अच्छा लगता है मुझे - 59(10.12.19)
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बड़ा अच्छा लगता है मुझे
आँख बंद करके तुझे देखना
तुम्हारे माथे और मुंदी हुई आँखों को चूमना
तुम्हारे बारे में सोचते रहना
रात-रातभर तुम्हारे लिए जागना
यादों में बेचैन होकर करवटें बदलना
तुम्हारी कही हुई एक-एक बातों की प्रतिध्वनियों को
बार-बार अकेले में सुनना
अपने को भूलकर तुममें खो जाना
मन ही मन योजना बनाना
कि मिलने पर ये कहूँगा-वो कहूँगा
और मिलने पर भूल जाना सोंची हुई सारी बातें
बस अतृप्त नज़रों से तुझे निहारते रहना
बड़ा अच्छा लगता है मुझे।


सबसे अजीज़ का चले जाना - 58(09.12.19)
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जैसे खिला हुआ फूल
टूटकर अपनी डाली से 
गिर जाए अचानक
और चली जाए उसकी खुशबू

जैसे उगा हुआ सूरज
अनायास डूब जाए
और छा जाए अंधेरा चारों ओर

जैसे आईना हाथ से छूटकर
यकायक गिर जाए फ़र्श पर
और टूटकर बिखर जाए 
उसके काँच के किरचे

जैसे मीठे ख़्वाब से 
जगा दे कोई अचानक
और टूट जाए वह मीठा ख़्वाब

जैसे एक पल में चली जाए
आँखों की रौशनी
और दिखे न कुच्छ भी

उफ़्फ़ ! कितना तकलीफ़ देती है
अपने सबसे अजीज़ का अचानक चले जाना ।


बलत्कार 56 (09.12.19)
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अपनी हदों से गुज़रकर
संस्कृति के सारे पैमाने लांघकर
आदमियत का लिबास उतार
लगा दी हैवानियत की आग
जलकर ख़ाक हो गए
मासूमियत के फूल
ज़माने की सारी नसीहतें और आबरू ।


क्या सच बोलोगे ? -- 55 (06.12.19)
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सच बोलोगे
बुरे कहलावोगे

सच बोलोगे
सजा पावोगे

सच बोलोगे 
तड़पोगे

सच बोलोगे
लूट जावोगे

सच बोलोगे
मिट जावोगे

सच बोलोगे
मरकर अमर्त्य रह जावोगे

क्या सच बोलोगे ?

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

शायद कभी भरोसा फिर से जन्म ले -54(2.12.19)
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भरोसे को ख़ुद पर से भरोसा उठ गया
कई बार भरोसे ने किया आत्महत्या का प्रयास
असफल रहा, बच गया
पर ऐसे कई लोग थे जिन्हें
भरोसे का जिंदा रहना खटकता रहा
आख़िरकार भरोसे की हत्या कर दी गई
अब भरोसा नहीं रहा हमारे बीच
भरोसाहीन इस दुनियां में
फिर कभी भरोसे की बात मत करना
बस इंतिजार करना 
शायद कभी भरोसा फिर से जन्म ले।
--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      9755852479

अपनाओ जिंदगी को... 53 (1.12.19)
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आज सुबह-सुबह 
मित्र से बात हुई
उसने हमारे 
भलीभांति एक परिचित की
आत्महत्या की बात बताई
मन खिन्न हो गया

जिंदगी के प्रति 
क्षणिक बेरुखी-सी छा गई
सुपरिचित दिवंगत का चेहरा
उसके शरीर की आकृति 
हाव-भाव
मन की आँखों में तैरने लगा

किसी को जिंदगी कम लगती है
किसी को जिंदगी भारी लगती है
जिंदगी बुरी और मौत प्यारी लगती है

जिंदगी जीने के बाद भी
जिंदगी को अहसास नहीं कर पाते
मिथ्या रह जाती है जिंदगी

जिंदगी मिथ्या है तो--
मिथ्या-जिंदगी कठिन क्यों लगती है ?
मिथ्या-जिंदगी  से घबराते क्यों हैं ?

पल भर में आती है मौत
इतनी आसान क्यों लगती है?
इतनी सच्ची क्यों लगती है ?

भागना छोड़ो,सामना करो
मिथ्या जिंदगी को आकार दो
मिथ्या जिंदगी को सार्थक बनाओ

जिंदगी खिलेगी
जिंदगी महकेगी
मरने के बाद
अमर होगी जिंदगी

मौत को अपनाओ मत
वह  खुद अपनाती है
अपनाओ जिंदगी को
जो तुम्हें अमर बनाती है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

शब्दों की खेती  - 52 (29.11.19)
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शब्द जो तुमने बोए थे
कहीं उगे
कहीं नहीं भी उगे
फ़र्ज अपना तुम निभाते रहे

शब्दों के बीज जो बोए गए
उगे,लहलहाए, महके, फले
दाने उसके यत्र-तत्र फैले
फैलते ही रहे हैं

जब तलक है दुनियाँ
दुनियाँ में लोग
लोगों में भूख और प्यास
अनवरत होती ही रहेगी
शब्दों की खेती।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

एक स्त्री  -- 51 (27.11.19)
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एक लड़की 
किसी दृश्य या घटना को देखकर
किसी हँसी की बातों को सुनकर
साथ मुस्कराना चाहती है
पर हर बार दबा लेती है अपनी मुस्कान

एक महिला कर्मचारी
अपनी बॉस की करतूतों को देखकर
हरकतों से परेशान होकर
प्रतिरोध करना चाहती है
पर हर बार दबा लेती है अपनी ज़बान

एक गृहिणी
रोज़ सुबह-सुबह टिफ़िन बनाकर
बच्चों को तैयार कर,स्कूल भेजकर
आराम करना चाहती है
पर हर बार दबा लेती है अपनी थकान

एक नववधू
अपने माता-पिता से दूर रहकर
ससुराल के सारे नख़रे सहकर
कुछ कहना चाहती है
पर हर बार दबा लेती है अपना बयान

एक स्त्री
ताउम्र बंदिशों में रहकर
अपने भीतर इक दुनियाँ समेटकर
पूरी धरती देखना चाहती है
पर हर बार दबा लेती है सूना आसमान

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

आसमान पे सूराख़  50 (22.11.19)
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दुष्यंत कुमार जी
मेरी तबीयत ठीक है
हाँ बिलकुल ठीक

अब आसमान पर
कोई पत्थदर नहीं उछालूँगा

सूराख़ ही सूराख़ है आसमान में
बिगड़ गई है तबीयत आसमान की 

पत्थर भी तो नहीं मेरे पास
सारे पत्थर
लोगों ने
अकल पे दे मारे हैं।
---- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479

हमारी दिवाली है  49 (22.11.19)
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दिवाली में
हम दीए जलाते हैं
उनके भीतर आग जलते हैं
हम फटाके फोड़ते हैं
उनके भीतर आक्रोश फटते हैं
हम मिठाई बांटते हैं
उनके भीतर नफ़रतें बंटते है 
हम फुलझड़ियां जलाते हैं
उनके भीतर चिंगारियां उठती हैं
हमारी रात उजली है
उनका दिन काला है
हमारी दिवाली है
उनका दिवाला है।
---- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479

शब्द बनने की ख़्वाहिश..48 (20.11.19)
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जागते-सोते-अधसोते
मस्तिष्क में चलते रहते हैं कई विचार
हृदय में उठते रहते हैं कई भाव
शर्माते,
गुदगुदाते,हँसते
रोते,घबराते
काँपते, थरथराते
कोंचते,कसकते
दहकते, तरसते
डूबते, पुकारते
घुटते, तड़पते
लूटते, कराहते
पुचकारते, अपनाते, दुत्कारते
तमाम क्रियाओं के सारे भाव
एक दूसरे को धकियाते
उचक उचककर इशारे करते
शब्द बनने की चाहत लिए
एक साथ अनगिनत कई-कई भाव
दृश्यमान बनने की होड़
उमड़ते-घुमड़ते भावों की गहमागहमी
कवियों से करते हैं गुजारिश
लालसाओं से भरे हुए
सभी होना चाहते हैं साकार
रचना संसार में आना चाहते हैं मूर्तमान
सभी चाहते हैं जन्में शब्द बनकर
कागज के पालने पर खेलें
उन्हें दुलारे लोग
साध है उनकी
हृदय से बहकर पहुँचे जन-जन तक..।
--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      9755852479

माँ की याद में....47(17.11.19)
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 1
सारा घर
घर के सारे कमरे
अंदर-बाहर सब
खुशबुओं से लिपटा रहता था
तुम्हारे जाने के बाद
बाग है वीरान-सा
खुशबू सब चली गई 
तुम खुशबू थी माँ ।
    2
आंगन के एक कोने पर
तुम चावल से कंकड़ निमारती
तुम्हारे पास ही बाबूजी
पुस्तक लिए कुछ पढ़ रहे होते थे

आंगन के उस कोने पर
बाबूजी आज भी पढ़ते हैं
तुम चली गई
सूपे में रखा है चावल

खाने में जब-जब कंकड़ आता है
तुम याद आती हो माँ ।
      3
तुम्हें सोने के जेवरों से बेहद प्यार था
मेरे सामने ही तुम्हारे देह से
सारे जेवर उतारे जा रहे थे
तुम चुप क्यों थी ?
मना क्यों नहीं की माँ ?
    4
भाई-बहनों में तीसरा हूँ
सबसे छोटा नहीं
फिर भी मुझे 
पूरे घर में 'छोटू' कहा जाता है
काश मैं बड़ा होता
पहले पैदा हुआ होता
तुम्हारा साथ मुझे ज्यादा मिला होता माँ ।
    5
तेरह साल बाद दशहरे में आया था गांव
इस बार भाइयों में कोई नहीं थे
अकेला ही था माँ के पास 

दशहरे की शाम 
पीढ़े पर खड़ाकर
दही का तिलक लगाकर
तूने उतारी थी मेरी आरती
विजय पर्व पर 
छुए थे मैंने तुम्हारे पांव
विजय का दी थी आशीर्वाद
और पाँच सौ के दो नोट

न तुम्हें पता था
न मुझे पता था
कि दशहरे के तीसरे दिन 
तुम चली जाओगी

तुम चली गई
पर विजय कामना और असीस रूप में
साथ रहती हो हमेशा माँ ।
    6
तुम्हारे मृत देह को
चूमा था कई बार
तुम निस्पंद थी

घर के पास 
बाड़ी के पीछे
खेत के मेढ़ पर
अग्नि दी गई थी तुम्हें

तुम राख हो चुकी थी
तीसरे दिन राख के ढेर से
तुम्हारी अस्थियों को बीना था
भीतर भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा था
बह रहे थे आँसू मेरे
विश्वास नहीं हो रहा था
कि तुम नहीं हो अब

विश्वास तो अब भी नहीं होता
याद कर उस दिन को
आँखे अब भी भर आती है

जब भी जाता हूँ घर
मेरे कदम ख़ुद ब ख़ुद
चल पड़ते हैं उस जगह
जहां तुम्हारी चिता बनाई गई थी
जहां अग्नि दी गई थी तुम्हें
वहां खड़ा होकर तुम्हें याद करना
तुम्हें महसूस करना अच्छा लगता है माँ ।
---- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      9755852479
  
पहले की तरह अब नहीं होता हमसे  -- 46(16.11.19)
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पहले की तरह अब नहीं होता हमसे
जमीन पर फिसलना,लड़खड़ाना,सो जाना
बार-बार गिरने के बाद फिर उठ जाना
बिना थके-बिना रुके अकारण दौड़ते रहना
वज़ह समझे बिना मुस्करा देना
अक्सर रो लेना और आँसूओं का आ जाना

फिसलते हैं तो संभल नहीं पाते अब
ज़मीन भी साथ नहीं देती 
गिरने के बाद उठ नहीं पाते
बस पड़े रह जाते हैं किसी सहारे की ताक में
रोजमर्रा की दौड़ में बुझे-बुझे, थके-थके
लगभग खो चुके हैं चेहरे पर मुस्कान का अस्तित्व
तकरीबन सूख से गए हैं आँसूओं के सारे स्रोत
मानवीय क्रियाओं से 
करीब-करीब बाहर हो चुके हैं रोने और मुस्कराने की क्रिया

तब मतलब के फेर में नहीं होते थे हम
किसी के बुलाने पर चले जाते थे
नहीं होते थे मन में कोई सवाल,कोई भय या आशंका 
तब होते थे बड़े ही निच्छल और निर्द्वंद्व 
होनी और अनहोनी से परे एकदम बेपरवाह

अब किसी न किसी मतलब में ही उठते हैं सारे कदम
अब तो कोई बुलाते भी नहीं हमें
लगभग दफ़न हो चुकी हैं सारी यादें
तमाम भय,आशंकाओं और सवालों से भरे मन में
अब प्रेम भरे इशारे भी नहीं होते

अब बेवज़ह किसी से मिलना
रूककर बातें करना,मुस्कराना या हँसना
पहले की तरह अब नहीं होता हमसे।
---- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
       9755852479

दिये जलते हैं   -- 45  (11.11.19)   
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दिये जलते हैं  
रिकार्ड बनते हैं

जो दीये के साथ चलते हैं
वो अँधेरे में पलते हैं

जो दीये के साथ चलते हैं
वो अभावों में जलते हैं

जो दीये के साथ चलते हैं
वो केवल हाथ मलते हैं

अँधेरे में पलते हैं
अभावों में जलते हैं
केवल हाथ मलते हैं
फिर भी जीवन भर
दीये के साथ चलते हैं...

दिये जलते हैं
रिकार्ड बनते हैं।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

जिनके हिस्से में आती है भड़ास -  44 (10.11.19)
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पुलिस के मन में
ठूस-ठूसके भरी हुई थी
ख़ाकी वाली गरमी

खिसियानी बिल्ली-सी
भटक रही थी पुलिस

मौका पाते ही
नोंच-नोंचकर
निकाल डाली
अपनी सारी भड़ास

खंभा-सा वह आदमी
खड़ा रहा मौन
तुम्हें पता है
था वह कौन ?

वह था
अंत्योदय की पंक्ति में खड़ा
वह आख़िरी व्यक्ति
जिसके पास
विकास की योजनाएं
नहीं पहुँच पाती

जो हर पल
उम्मीदों में जिता है
लेकिन 
छला जाता है बार-बार

जिनके हिस्से में आती है
नेता,अफसर, पुलिस,
सरकारी बाबू
और 
ज़माने भर की भड़ास..।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      9755852479










न जाने कितने बार संयम तोड़ने के बाद
थोड़ा संयम बरतना सीखा है मैंने

इस थोड़े से के लिए
कितनी बार कसमें खाई
ख़ुद से कितने वादे किए
पर हर बार
तोड़े हैं वादे,तोड़ी है कसमें
झुँझलाकर कई बार दी हैं गालियां
धिक्कारा है और कोसा है बार-बार
डायरी में लिखी हैं प्रतिज्ञाएं कई-कई बार

बड़ी मुश्किल से
संयम के राह पर चलते हुए
दो दिन,चार दिन या आठ दिन हुए होंगे
फिर वही पतन,टूटन, हताशा
फिर वही अधूरी शपथ
न गिरने, दृढ़ होकर चलते रहने की वही पुरानी सौगंध
जिसे अब तक दुहराता रहा हूँ बार-बार

महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ी 
संतों,महात्माओं के प्रेरक प्रसंग सुनें 













हम सबके ख़्वाब हो तुम -- 43(08.11.19)
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तुम किसी के ख्वाब में थे
ख़्वाब बनकर पैदा हुए
ख़्वाब बनकर ख़्वाब के लिए जिते रहे
ख़्वाब सबके किए पूरे
फिर ख्वाबों की दुनियां में
तुम ख़्वाब हो गए
रहेगा हमेशा इंतिजार...
तुम आना फिर...
हम सबके ख़्वाब हो तुम।


ख़्वाब टूटने से पहले --42(8.11.19)
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कोई कह रहा था
फ़र्ज़ अदा किया है
कोई कह रहा था
स्वर्ग मिलेगा उसे
कोई कह रहा था
हुआ शहीद
कोई कह रहा था....

पर
जो एक ख़्वाब देखी थी बूढ़ी आँखों ने
ख्वाब टूटने से पहले
कई अनगिनत जवान आँखों में ख़्वाब बो गए।



तथाकथित है यह धर्म --
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मैं दर्शन का विद्यार्थी रहा हूँ
बहुत कुछ तार्किक होते हैं मेरे विचार 
लेकिन मुझे
आत्मा-परमात्मा
धर्म-ईश्वर आदि
आस्थापरक विचार
संवेदित या अभिभूत नहीं करते

इन विचारों के प्रति
मेरे मन में कोई भय नहीं
कोई सम्मान भी नहीं
न दुराग्रह भाव
न ही कोई पूर्वाग्रह
रहता हूँ तटस्थ अक़्सर
पर जब-जब
अंधविश्वास जनित विकार
निगल लेता है कोई जिती-जागती जिंदगी
तब-तब मेरी ख़ामोशी टूट जाती है
चीत्कार जाता है मेरा मौन
मेरे भीतर से
उठने लगता है प्रतिरोध का स्वर

मुझे गहरी आस्था है जीवन से
जीवन से जुड़े लोगों से
मेरी सारी आस्था 
अटूट जुड़ी होती है
जीवित देवताओं के संग
कर्मलीन मेहनतकश जनों की भावनाओं के साथ
टिकी होती है मेरी सम्पूर्ण आस्तिकता
दृश्यमान जगत से परे
किसी अदृश्य लोक पर आस्थावान नहीं हो पाता

तथाकथित आस्तिकों,आस्थावानों से
रहता हूँ दूर-दूर
जब भी वे मिलते हैं
बरसने लगते हैं धर्म-कर्म की बातों से
मुझ पर थोपने लगते हैं अपने विचार
नित्य पूजा-पाठ की देते हैं सुझाव

मैं उनकी नजरों में
समाज का जीव नहीं
वे कहने लगे हैं मुझे पापी,अधर्मी,नास्तिक
वे चाहते हैं-
उनके कहे अनुसार ही करूँ या चलूँ
उनके लिए धार्मिक होने का अर्थ
मंदिर जाऊँ,फूल चढाऊँ, अगरबत्ती जलाऊँ, 
नारियल तोड़ूँ,मूर्ति और पुजारी को टेकूँ माथा
जैसे उनमें हैं धर्मिकों के सारे लक्षण
मुझमें नहीं, सो मैं धार्मिक नहीं

भले हों अनैतिक, अपराधी, व्यभिचारी
पर हैं बड़े स्वांगधारी 
यानी दिखने में हैं पक्के भक्त
आप उनके खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोल सकते
बोले अगर तो--
आस्तिकों की नज़र में
दोषी ठहराए जाओगे तुम
सामाजिक बहिष्कार होगा तुम्हारा
धर्मभ्रष्ट,झूठे,घमंडी और दुरात्मा समझेंगे लोग

यह जो धर्म है तथाकथित है
बुरा न माने
पचाएं इस कटु-सत्य को
हो गए है धर्म के नए प्रतिमान,परिभाषा नई
निकम्मों का रोज़गार है धर्म
चंदा लेने का ज़रिया है धर्म
वेश्यावृत्ति ढकने के लिए पर्दा है धर्म
अय्याशी का सुरक्षित अड्डा है धर्म
ईश्वर के नाम पर महज़ छलावा है धर्म
दुनियां में फ़साद का जड़ है धर्म
अधर्मियों का पनाह है धर्म
शिकार के लिए बना एक जाल है धर्म
जहां में फैले आतंक का बीज है धर्म

धार्मिक हूँ इसलिए कि लोगों से प्रेम है मुझ
धार्मिक हूँ इसलिए कि 


उनका धर्म निभाने दो  --41  (5.11.19)
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उन्हें मंदिर जाना है जल्दी
जाने दो
अनुष्ठान का मुहूर्त है आज

उनके नमाज़ का वक्त हो गया
जाने दो उन्हें भी

आज कुछ मत बोलो उन्हें
बच्चे के लिए खिलौने कल लेगा
ऑफिस का काम कल देखेगा
बूढ़ी माँ का इलाज कल कराएगा
मजदूरों का भुगतान कल करेगा
सब कल...

आज मंदिर ही जाना है
आज अनुष्ठान का मुहूर्त है
काम का कोई मुहूर्त नहीं होता
काम कभी भी हो सकता है
काम अनुष्ठान नहीं

अब नमाज ही ज़रूरी है
नमाज़ अपने वक़्त में होता है
काम कभी भी हो सकता है
काम नमाज़ नहीं है

धर्म 'काम' से बहुत बड़ा होता है
आज कोई मत रोको उन्हें
बड़े धार्मिक हैं वे
आज उन्हें उनका धर्म निभाने दो।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
       9755852479


जन्म लेती है कविता- 40 (03.11.19)
-------------–--------------------
सूरज-सा चिरती निगाहें
संवेदनाओं से भरी दूरदर्शी निगाहें
अहर्निश हर पल
घूमती रहती है चारों ओर

दृश्यमान जगत के
दृश्य-भाव अनेक
सुंदर-कुरूप,अच्छे-बुरे,
अमीरी-गरीबी, और भी रंग सारे

भावों की आत्मा
शब्दों की देह धरकर
जन्म लेती है कविता।


अचानक  दीखे गौरैया
#####@@@##@#
ज़ाहिल था
गाँव की तमाम गालियां बकता था
गाँव के सारे खेल आते थे
घर और स्कूल दोनों जगह जमके पिटाई होती थी
नफरत थी पढ़ने-लिखने से
स्कूल का मायने विद्यालय नहीं था
स्कूल एक जगह था जहां जाते और आते थे बस
@@@#########


एक पिंजरा दे दो मुझे--39(02.11.19)
-------------------------------------------
एक दिन
सुबह-सुबह
डरा-सहमा 
छटपटाता 
चिचिआता हुआ एक पंछी
खुले आसमान से
मेरे घर के आंगन में आ गिरा

मैंने उसे सहलाया
पुचकारा-बहलाया
दवाई दी-खाना दिया
कुछेक दिन में चंगा हो गया वह

आसमान की ओर इशारा करते हुए
मैंने उसे छोड़ना चाहा
वह पंछी
अपने पंजों से कसकर
मुझे पकड़ लिया
सुनी मैंने
उसकी मूक याचना
कह रहा था वह--
'एक पिंजरा दे दो मुझे।'




इक निकम्मी चाह...       38   29.10.19
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मरने के किए अगर मोहलत मिलती
फ़ुरसत में दो पल मर लेता
मरने के हैं वास्ते दो--
एक है लालच थोड़े से सुकूँन के
दूसरी है चाहत हमदर्दों को देखने की

मेरे पास न मोहलत है
न ही मरने की फ़ुरसत
कितने निकम्मे होते होंगे वे
जिनके पास मरने के मोहलत और फ़ुरसत दोनों है..।
--नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479








माफ करना ऐ रहीम!      37    29.10.19
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पानी में घुल जाते हैं सब 
मीठे और खारे स्वाद 
रंगहीन होकर ख़ुद
बना देता है रंगीन सब कुछ 
जिंदगी की तपीश में
मिटता नहीं ख़ुद कभी 
भाप में बदल लेता है अपना शक़्ल 
आख़िर तक जिंदा रखता है अपना वजूद
बनकर बारिशों में बूँदे
या ज़मीन के तहों से छनकर 
लेता है अवतार हर बार नया-नया 
इतना-इतना तरल 
कि सारे बर्तनों में ढाल लेता है अपना आकार
पानी के लिए दम तोड़ देते हैं कई लोग
पानी में दम तोड़ देते हैं कई लोग
पानी निगल लेता है सब कुच्छ
जमीन,आबोहवा और उनमें फली-फूली संस्कृति
'रहिमन पानी राखिए' यह कहने से
बड़ा डर लगता है
माफ़ करना ऐ रहीम !
मैंने पानी का दूसरा रूप भी देखा है..।
--नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

सब जिएं
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शायद मौत इतनी तकलीफ़देह नहीं होती
जिंदगी जितनी देती है
व्यक्ति को यादगार बना देती है मौत
जिसे जिंदा रहने पर ख़ास तरज़ीह नहीं देते
मौत के बाद अक़्सर सताती है उनकी यादें




तुम नहीं तो सब कुछ अधूरा है माँ !  - 36 (25.10.19)
----------------------------------------
माँ मैं गांव आया हूँ
दीवाली की छुट्टी में
जैसे आता था हर बार
माँ तुम्हारी बरसी भी हो चुकी है
यह दूसरा साल है 
जब दिवाली तुम्हारे बिना होगी

तुम प्रतीक्षारत बैठी होती थी
मेरे आते ही तुम्हारी कमज़ोर आंखें चमक जाती थी
खिल जाता था तुम्हारा चेहरा
मेरे करीब बैठकर बातें करते-करते
अनायास मेरे पीठ
मेरे हाथ और सिर पर
फेरने लगती थी अपने हाथ
मेरे पूरे देह पर हाथ फेरकर
तुम मेरी सेहत जांच लेती थी
शुरूआती चंद बातों में ही
मेरी समस्याओं को भाँप लेती थी
तुम्हारे सवालों में 
मेरे भविष्य की चिंता समाई होती थी
तुम्हारी झिड़कियों में भी
अद्भुत लालित्य होता था
वैदिक मंत्र थे तुम्हारे सारे शब्द
तुम्हारी बद्दुआओं में भी आशीष होता था
तुम्हारी हँसी 
मेरी हँसी की प्रत्युत्तर-सी लगती थी

माँ तुम घर में नहीं हो
पर मुझमें हैं तुम्हारी जीवंत यादें

चारों ओर उदासी-सी पसरी हुई है 
घर में वो सारी चीजें अब भी हैं जो पहले थीं
घर से और घर की चीजों से लगाव अब भी है
पर 
कुछ कुछ कमी-सी
कुछ कुछ अधूरा-सा
लगता है सारा घर
जिधर भी मेरी नजरें जाती है
जिधर भी रखता हूँ अपने पाँव
रसोई-कमरे-आँगन-बाड़ी-खेत
सब खाली-खाली और अधूरे-अधूरे से लगते हैं
इस जहां में
तुम नहीं तो सब कुछ अधूरा है माँ !

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479


शांति के ओ पुजारी ! -35 (22.10.19)
-----------------------------------------------
हम कैसे लोग हैं
कहते हैं---
हमें ये नहीं करना चाहिए
और वही करते हैं
वही करने के लिए सोचते हैं
हमारी पीढियां सारी
वही करने के लिए ख़्वाहिशमंद रहती है
जैसे नशा
जैसे झूठ
जैसे अश्लील विचार और सेक्स
जैसे ईर्ष्या-द्वेष
जैसे युद्ध और हत्याएं
ऐसे ही और कई-कई वर्जनाओं की चाह

हम नकार की संस्कृति में पैदा हुए हैं
हमें नकार सीखाया जाता है
हमारे संस्कार नकार में गढ़े गए हैं
हम उस तोते की तरह हैं
जो जाल में फंसा हुआ भी
कहता है जाल में नहीं फँसना चाहिए
हमारा ज्ञान, हमारी विद्या,हमारे सीख या तालीम
सब तोता रटंत है,थोथा है,खोखला है
सच को स्वीकार करना हमने नहीं सीखा

जितने शिक्षित हैं हम
हमारी कथनी और करनी के फ़ासले उतने अधिक हैं
हम पढ़े-लिखे तो हैं
पर कतई 
कबीर नहीं हो सकते

युद्धोन्माद से भरे हुए कौरवों के वंशज
युद्ध को समाधान मानते हैं
उन्हें लगता है
युद्ध से ही शांति मिलेगी
युद्ध करके अपनी सीमाओं का विस्तार चाहते हैं
उन्हें नहीं पता कि
युद्ध विस्तार-नाशक है
युद्ध सारा विस्तार शून्य कर देता है
युद्ध एक गर्भपात है
जिससे विकास के सारे भ्रूण स्खलित हो जाते हैं
समय बौना हो जाता है
इतिहास लँगड़ा हो जाता है
और भविष्य अँधा हो जाता है

अब
हास्यास्पद लगते हैं विश्व शान्ति के सारे संदेश
मजाक-सा लगता है
सत्य और अहिंसा को अस्त्र मान लेना
अब
नोबेल शांति का हकदार वही है
जो परमाणु बंम इस्तेमाल का माद्दा रखते हैं
अब
लगता है कई बार
धनबल और बाहुबल के इस विस्तार में
आत्मबल से भरे हुए उसी अवतार में
फिर आ जाओ इक बार
शांति के ओ पुजारी !

---- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      97558t2479


वक़्त से मैंने पूछा- 34 (20.10.19)
----------------------------------------
वक़्त से मैंने पूछा
क्या थोड़ी देर तुम रुकोगे ?
वक़्त ने मुस्कराया
और
प्रतिप्रश्न करते हुए
क्या तुम मेरे साथ चलोगे?
आगे बढ़ गया...।

वक़्त रुकने के लिए विवश नहीं था
चलना उसकी आदत में रहा है 
सो वह चला गया
तमाम विवशताओं से घिरा 
मैं चुपचाप बैठा रहा
वक्त के साथ नहीं चला
पर
वक्त के जाने के बाद
उसे हर पल कोसता रहा
बार-बार लांक्षन और दोषारोपण लगाता रहा
यह कि--
वक्त ने साथ नहीं दिया
वक्त ने धोखा दिया
वक्त बड़ा निष्ठुर था,पल भर रुक न सका

लंबे वक्त गुजर जाने के बाद
वक्त का वंशज कोई मिला
वक्त के लिए रोते देखकर
मुझे प्यार से समझाया
अरे भाई!
वक्त किसी का नहीं होता
फिर तुम्हारा कैसे होता?
तुम एक बार वक्त का होकर देखो
फिर हर वक्त तुम्हारा ही होगा।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

तुम नहीं होती तब-तब...(33)  13.10.19
-----------------------------------/
तुम नहीं होती तब-तब 
चादर के सलवटों में
बेतरतीब बिखरे कपड़ों में
उलटे पड़े जूतों में
केले और मूंगफली के छिलकों में
लिखे,अधलिखे और अलिखे 
मुड़े-तुड़े कागज़ के टुकडों में 
खुद बिखरा-बिखरा-सा पड़ा होता हूँ


मेरे सिरहाने के इर्द-गिर्द
एक के बाद एक 
डायरी,दैनिक अख़बारों,पत्रिकाओं,
कविताओं, गजलों
और कहानियों की कई पुस्तकें
इकट्ठी हो होकर
ढेर बन जाती हैं


अनगिनत भाव और विचार
एक साथ उपजते रहते हैं
चिंतन की प्रक्रिया लगातार
चलती रहती है
कई भाव 
उपजते हैं विकसते हैं और शब्द बन जाते हैं
कई भाव
उपजते हैं और विलोपित हो जाते हैं


विचारों में डूबे-डूबे
कभी हँस लेता हूँ
कभी रो लेता हूँ
कभी बातें करता हूँ
गाली या शाबाशी के शब्द
निकल जाते हैं कई बार
बस इसी तरह रोज
विचार और रात दोनों गहरे होते जाते हैं


सो जाता हूँ पर 
नींद में भी कई विचार पलते रहते हैं
अमूमन ऐसे ही कटते हैं मेरे दिन
जब-जब तुम नहीं होती....।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र


तुम्हारे जाने के बाद 
तुमसे जुड़ी
कुछ रोचक और धुंधली
तुम्हारी अनगिनत यादें
कभी भी कहीं भी
यकायक तैर जाती है
तुम बीमार हुए
इलाज चलता रहा
तुमसे मिलने
तुम्हारा हालचाल जानने
लोग आते-जाते रहे
कोई आँसू बहाकर 
कोई 'चू-चू' की ध्वनि निकालकर
दुख जताते और चले जाते

मुझे याद है
तुम्हारे जाने से
बस एक दो दिन पहले
तुम्हारे पेट और छाती पर हाथ फेर रहा था
मुझे तुम्हारे मौत करीब होने का आभास हो रहा था
तुम बोल नहीं पा रहे थे
केवल एकटक देख रहे थे 
तुम महसूस कर रहे थे
मेरे हाथ के स्पर्श से मेरे हिस्से का प्यार
और अपने करीब आती मौत की आहट
हम दोनों निःशब्द थे
बस बोलती हुई आँसूओं की धाराएं
बही जा रही थी
तुम्हारी आँखों की शून्यता देखकर
मेरे भीतर का प्रेम और भय
सघन से सघनतर होते जा रहा था
स्पष्ट देख पा रहा था
धीरे-धीरे 
तुम शून्य में उतरने लगे थे
शून्य में समा गए
और शून्य हो गए आख़िरकार

उम्र में बड़ा था
देखा है मैंने करीब से
तुम्हें शून्य से शून्य तक सफर करते हुए
उदय और अस्त होते हुए
कितना कठिन होता है वह वक्त
जब अपने किसी अजीज़ को
रोकना चाहते हैं पर रोक नहीं पाते







नहीं होता है प्यार...
--------------------------------/
प्यार कभी थकता नहीं
थकते हैं लोग
थकता है शरीर
थकता है मन 
मगर 
लोगों के बिना
शरीर के बिना
मन के बिना
नहीं होता है प्यार..।


माँ सुन लेती है  32-(25.09.19)
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माँ सुन लेती है
मेरी सारी बातें
मेरे कहने से पहले ही
जब भी कुछ बातें कहता हूँ
वो कहती है ---
हाँ मुझे पता है बेटा
मैं समझ नहीं पाता
अबूझ वह तंत्र
वह सूत्र
जो मुझसे जुड़ा हुआ होता है

मेरी पीड़ा..
मेरी उदासी..
मेरी चाहत ..
मेरी खुशी..
मेरी सारी भावनाओं से..
आख़िर कैसे जुड़ी होती है माँ !

बस इतना ही जानता हूँ---
कि जितनी सरल होती है माँ
उतना ही कठीन होता है 
माँ का दर्शन समझना...।



मजदूर
---------------------/
अस्थियों पर चिपका 
मेरा चर्म
व्यथा मेरी
इक मर्म।


आभास
--------------------/
पास नहीं था
खास था
महज़ आभास था।


तथाकथित आस्तिकों के नजर में
नास्तिक हूँ मैं
इसलिए कि ...
सुबह ईश्वर का नाम लेते हुए
नहीं उठता
नहा धोकर
फूल नहीं चढ़ाता
अगरबत्ती नहीं जलाता
बस इन्हीं वाह्य पैमानों पर
उनकी नजरों में
खरा नहीं उतर पाता

क्या हुआ कि वह मन्दिर जाता है
क्या हुआ कि वह घण्टी बजाता है
क्या हुआ कि वह अज़ान लगाता है
क्या हुआ कि वह इबादत-सा होंठ हिलाता है
माला फेरता है
तिलक लगाता है
क्या हुआ कि वह रोजा या उपवास रखता है













मेरे गांव का बरगद  - 31(21.09.19 )
-------------------------------------------/
मेरे गाँव का बरगद
आज भी 
वैसे ही खड़ा है
जैसे बचपन में देखा करता था
जब से मैंने होश संभाला है
अविचल
वैसे ही पाया है

हम बचपन में 
उनकी लटों से झूला करते थे
उनकी मोटी-मोटी शाखाओं
के इर्द-गिर्द छुप जाया करते थे
धूप हो या बारिश
उसके नीचे
घर-सा
निश्चिंत होते थे 

तब हम लड़खड़ाते थे
अब खड़े हो गए
तब हम बच्चे थे
अब बड़े हो गए
तब हम तुतलाते थे 
अब बोलना सीख गए
तब हम अबोध थे
अब समझदार हो गए
तब अवलंबित थे
अब आत्मनिर्भर हो गए
तब हम बेपरवाह थे
अब जिम्मेदार हो गए
तब पास-पास थे
अब कितने दूर-दूर हो गए

बरगद आज भी
वैसा ही खड़ा है 
अपनी आँखों से
न जाने कितनी पीढियां देखी होगी
न जाने कितने
उतार-चढ़ाव झेले होंगे
अपने भीतर
न जाने कितने
अनगिनत
यादों को सहेजे होंगे
पर अब
एकदम उदास-सा
अकेला खड़ा होता है
जैसे किसी के इंतिजार में हो...
अब कोई नहीं होते
उनके आसपास
न चिड़ियाँ, न बच्चे, न बूढ़े
न कलरव, न कोलाहल, न हँसी...

साल में एक या दो बार
जब जाता हूँ गाँव
बरगद के करीब से 
अज़नबी की तरह गुजर जाता हूँ
कभी-कभी लगता है
ये बड़प्पन
ये समझदारी
ये आत्मनिर्भरता
ये जिम्मेदारी
और ये दूरी...
आख़िर किस काम के
जो अपनों को अज़नबी बना दे
हम रोज़मर्रा में 
इतने मशगूल हो गए
कि हमारे पास इतना भी वक्त नहीं
कि मधुर यादों को 
याद कर सके ,जी सकें...

हमारे गाँव में
न जाने कितने लोग
हमारी मधुर यादों से जुड़े हुए
करते होंगे हमें याद...
हमारा इंतिजार...
पर 
हम 'काम' के मारे हैं
उनके अकेलेपन और उदासी के लिए
हमारे पास वक्त नहीं
तुम्हें हमारी यादों के सहारे
अकेले ही जीना होगा
हे! मेरे गाँव के बरगद...।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र


प्रेमचंद के लिये...1
---------------------------
हे जन-जन के रचनाकार
युगद्रष्टा
कथासंम्राट
मुंशीजी
आज आपकी 138 वीं जयंती है
आपने दलितों, पीड़ितों, वंचितों 
गरीब किसानों और मजदूरों के
दुखदर्दों को हृदय में समेटा था
आततायी हुकूमत
निष्ठुर जमींदारों
भ्रष्ट प्रशासन और
पुलिस की ज़ुल्म ज्यादतियों को
शब्दों के शिकंजे में लपेटा था 
 कोढ़ से ग्रसित
जातिवादी
अन्धविश्वासी
विसंगतियों से भरे समाज को
जीभरके लताड़ा था
हे नवाबराय!
आप जैसे थे
वैसे ही दिखते थे
और वैसे ही लिखते थे
इसीलिए आप रचना संसार में
नवाबों के नवाब थे
आपके पास धन तो  नहीं थे
फिर भी धनपतराय थे
क्योंकि आप
उदातभावों के धनी थे
हे साहित्य के पुरोधा!
आज वक़्त आगे बढ़ गया है
जमाना बदल गया है
पर जिन विसंगतियों को
आपने तरेरा था
भ्रष्टाचार
नारी उत्पीड़न
जातिवाद आदि आदि
आज भी मुँह बाए खड़ी है
बुद्धिजीवी कलमकार
सत्ता के दास हैं
उनकी लेखनी बेबस है
हे गरीबों के पक्षकार!
महामना हृदय उदार
आज तुम बहुत याद आते हो
जब मजलूमों को
प्रेम करने वाले
चंद भी नहीं मिलते
तुम कहाँ हो प्रेमचंद जी !
तुम कहाँ हो ?
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)

ये भीड़तंत्र है-2
--------------------------
यहाँ मना है
बच्चों से प्यार करना
उसे पुचकारना
उसे हँसाना
बच्चों के साथ मिलकर
बच्चा हो जाना
न जाने कब,कौन, कहाँ ?
कोई शंकालु निर्दयी
कलुषित पापात्मा
आपको बच्चा चोर क़रार दे
पीट पीटकर हत्या के लिए आमादा हो जाए
या हत्या को अंजाम दे दे
आप बेमौत मारे जाए
भाई साहब !
ये लोकतंत्र नहीं
ये भीड़तंत्र है
उन्मादी भीड़ जब चाहे
गोमांस, बच्चा चोरी और
वर्जित प्रेम के नाम पर
संक्रमित हो जाती है
कानून अपने हाथ ले लेती है
संविधान के नियम और कायदे
सरेआम रौंद डालती है
महज़ अफ़वाह और शक के बिना पर
सारे फैसले ख़ुद ही ले लेती है
सोशल मीडिया का वायरल मैसेज
तथाकथित समाजसेवकों, धार्मिकों, देशभक्तों को
आक्रोशित कर एंटी सोशल बना देता है
इनके अमानवीय कृत्य
कितने नामों को बेनाम कर जाता है
दूसरे दिन मौत के सौदागरों पर
हम संपादकीय पढ़ते हैं
फ़िर....
अगली घटना तक मौन हो जाते हैं
यहाँ मना है
खुलेआम प्यार का इज़हार करना
मोहब्बत की बातें करना
क्योंकि
इस देश में
चोरी छिपे चुपके-चुपके
प्रेम करने का रिवाज़ है
ये अलग बात है सिवाय प्रेम के
खुलेआम सब कुछ स्वीकार है
आख़िर कब तक....?
हम यूं ही
वर्जनाओं, बंदिशों और प्रतिबंधों की संस्कृति को ढोते रहेंगे
आख़िर कब तक....?
बस यूं ही
लोकतंत्र में
भीड़तंत्र फ़ैसले लेते रहेंगे ।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)

हे मेरे प्यारे बादल ! -3
-------------------------
हे बादल !
महाकवि निराला ने
तुम्हें संबोधित करते हुए
अरे वर्ष के हर्ष !
सिंधु के अश्रु !
इन्द्र धनुर्धर !
हे विप्लव के वीर !
हे जीवन के पारावार !
जैसे संबोधनों से
महिमामंडित किया है
इस महिमामंडन के योग्य
बेशक तुम हो
कवि ने तुम्हें
'मेरे पागल बादल !'
भी कहा है
पर मेरी गुज़ारिश इतनी है
तुम पागल मत हो जाना
मूसलाधार मत बरसना
फट मत जाना
ज़रा संभल-संभलकर बरसना
मेरे देश के गांवों
और शहरों की दशा
तुम तो जानते हो
तुम बरसे नहीं कि
सड़कें नदियाँ बन जाती हैं
मैदान तालाब बन जाते हैं
लोग गोताखोर बन जाते हैं
झोपड़ियां तबाह हो जाती हैं
फसलें चौपट हो जाती हैं
मुद्दे पर
विपक्ष आरोप लगाता है
सरकार मौन साधे बैठे रहती है
प्रशासन राहत कार्य का नाटक खेलता है
तुम बरसकर चले जाते हो
लोग संकट में रह जाते हैं
जनता रोती रहती है
सरकार सोती रहती है
इसीलिए.....
हे बादल !
तुम जब भी बरसो
इतना भी न बरसो
ज़रा देखकर बरसो
ज़रा थमकर बरसो
ज़रा समझकर बरसो
ज़रा संभलकर बरसो
हे मेरे प्यारे बादल !
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)

आज मन बहुत उदास है.......4
----------------------------------------
संकट की घड़ी में पक्ष-विपक्ष एक हो गए सारे
जन-मन में बसते,ऐसे थे अटल दुलारे
तबियत अचानक हुई नासाज़ है
आज मन बहुत उदास है।
मरते दम तक हर मुश्किलों में जो अटल रहे
उनके अंतिम प्रयाण पर सबके दृग सजल हुए
असह्य दुख की इस बेला में भीगे-भीगे जज्बात हैं
आज मन बहुत उदास है।
अस्त हो गया विस्तृत नभ का देदीप्यमान वह तारा
जो था जन-जन का रहनुमा और अतिशय प्यारा
जाने के बाद भी लगते आसपास हैं
आज मन बहुत उदास है।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र) 

बच्चे की फ़िक्र-5
--------------------------
बच्चा सोया है
बेफिक्र
सपनों से परे
राग-द्वेष
विकारों से निर्लिप्त
फिर
हम ही
जगाते हैं
फ़िक्रवान बनाते हैं
ठूंसते हैं
सपने रंग-विरंगे
सिखाते हैं
दुनियादारी
फिर
हम ही कहते हैं
अब
बच्चा बड़ा हो गया है।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)


मेरे लिए शब्द..-6
-------------------------------------
मेरे लिए शब्द है
पका पकाया सुपाच्य अन्न
शब्दों की स्वादिष्ट खुराक पाकर
पेट नहीं
मन भरता है
आत्मा अघाती है
मेरे जिस्म के रगों में
रस-लोहू दौड़ने लगता है
हर दूसरे दिन
नई भूख
और
नए-नए शब्दों की नई तलाश
शिल्प के नए-नए मसाले
पकाने (रचने) के नए-नए अंदाज
कभी धीमे कभी तेज़
होती है भावनाओं की लौ
परिस्थितियों की आंच
शब्दों के दानों को
पका-पकाकर
और भी
स्वादिष्ट (खरा) बना देती है
इस तरह
बढ़ती ही जाती है
शब्दों की भूख
और
मेरे शब्दों की ख़ुराक...।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 14.11.18)


वो रास्ते..-7
----------------------------------------
वो रास्ते
तुम्हारे रास्तों से अलग है
वो और उसी तरह के लोग
चलते हैं उन रास्तों पर
तुम चलना नहीं चाहते
या
चलने से डरते हो
ऐसे रास्तों पर
बड़े ही खुरदुरे
ऊबड़-खाबड़
तीखे-उभरे
सख़्त
कहीं-कहीं पर
फ़िसलन भरे
काई जमे
एकदम महीन
चिकने तह वाले
कूड़ों से पटे
धुओं से भरे
गूंजते--
मच्छरों की धुनें
सुवरों की आवाजें
और-
भौंकते कुत्तों
गंधाते नालों से
गुजरते हैं वो रास्ते
तुम्हें नहीं पता
संघर्ष भरे
उन रास्तों में
विद्यमान होती है
देश के कोने-कोने तक फैलती
उनके
खून और पसीने की
मिश्रित महक
इन्हीं रास्तों से ही
निकलती है
श्रम की गङ्गा
सिरजते-विकसते
वो रास्ते
अलग है
तुम्हारे रास्तों से।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 14.11.18)

मेरे शब्द...-8
----------------------------------
मैं सैनिक नहीं
पर
सीमा पर डटे
जवानों की ओर से
देशभक्ति पर इठलाते
और दुश्मनों को ललकारते हैं
मेरे शब्द..
मैं समाज का ठेकेदार नहीं
पर
हर समाजसेवी के भावुक स्पर्श में
बहलाते-सहलाते
समर्पित भाव होते हैं
मेरे शब्द..
मैं हादसों का चश्मदीद नहीं
पर
लुटती, चीखती, कराहती
पीड़ित आत्मा के संग
हरक्षण
चीखते और कराहते हैं
मेरे शब्द..
मैं कृषक नहीं
पर
कर्मरत
हल चलाते
लहलहाते फ़सले देख हर्षाते
चौपट फ़सलों पर अश्रु बहाते
किसानों की
खुशी और ग़म के आँसू बन छलकते हैं
मेरे शब्द..
मैं मजदूर नहीं
पर
दिन-रात का फ़र्क भूल
ख़ून-पसीना बहाते
अभावों में जीते
श्रमरत मजदूरों की आह बन निकलते हैं
मेरे शब्द..
मैं कानून का पहरेदार नहीं
पर
देश को एकता के सूत्र में पिरोते
आतंकित जन-मन को भयमुक्त करते
राक्षसी ताक़तों के ख़िलाफ़ खड़े  होते हैं
मेरे शब्द..
मैं कवि हूँ
जब-जब जीवन की
विडंबनाओं
विवशताओं
अभावों और विसंगतियों को
अपने भीतर महसूसता हूँ
तब-तब अन्तर्मन के भावों को
समाज में परोसते हैं
मेरे शब्द..
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 16.11.18)

हे आत्मीय !  -9
---------------------
हे आत्मीय !
मैं चला जाऊँगा
एक दिन
हमेशा के लिए
क्या तुम याद करोगे ?
जैसे
तुम अपने लिए
आज मुझे याद करते हो।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 18.11.18)

चुने किसे?  -10
-------------------------
झण्डे अलग-अलग
रंग अलग-अलग
छाप अलग-अलग
चाहत एक
राहत एक
लालच एक
अल्फ़ाज अलग-अलग
राह अलग-अलग
लक्ष्य एक
सत्ता एक
वादे अनेक
चमचे अनेक
शोर अनेक
जालसाजी अनेक
बेबस जनता
आवाक जनता
भ्रमित जनता
आखिर चुने किसे?
भीतर से
सब एक
चेहरे अनेक ।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 20.11.18)

वह लड़की थी। -11
-------------------------------
जन्म से पहले
अस्तित्व के लिए
जूझती
अछूता-सी
घर-परिवार-समाज में
वजूद के लिए
लड़ती
धीर-उदार
सुनती
सहती
वसुधा-सी
सहमी-सहमी
स्निग्ध-कोमल
कांटों बीच
फूल-सी
चुभती
सिसकती
तितली-सी
नाज़ुक-कोमल
सपोलों को
सुलाने
नागों को
बहलाने
थिरकती
सुमधुर गाती
धनकुबेरों(खरीददारों)
के वास्ते
लक्ष्मी थी
उसके गात
सौगात थे
उसका
कोई मोल न था
वह अनमोल थी
युगों-युगों से
शापित
वह लड़की थी।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 20.11.18)

कैसे,कब बीती वह रात..!  -12
--------------------------------------
उस रात
नहीं थी
फूलों की सेज़
नहीं थे घर
थीं केवल दीवारें
खुला आसमान
खुले तारे
इन्हीं गवाहों बीच
मिले हम
खुले हम
बतियाए हम
एक-दूसरे में 
खो गए हम
एक-दूसरे के
हो गए हम
अजब थी वह रात
नहीं पता
कैसे,कब बीती
हमारी वह पहली रात..!
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 20.11.18)


मौत।  -12
--------------
एक सीमा रेखा इसलोक और परलोक की
शक़्ल मिटा देती आदमी की
बोटी-बोटी मांस के टुकडों में फैला देती
क्षण में निर्वाक कर देती हँसी-बोली-ठिठोली
रिश्तों को रौंदती
द्रुतगति
फिर से जरूर आने का वादा करती
अलविदा कहती
असमय और शीघ्र
बढ़ जाती है आगे
हम प्रतीक्षा नहीं करते
पर आती है जरूर
वादे की पक्की मौत।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 24.11.18)
_____________________________________________
हवा बदली।  -13
------------------------
हम बदले
हवा नहीं बदली
हम फिर बदले
हवा नहीं बदली
हम फिर-फिर बदले
हवा नहीं बदली
हम बदलते ही रहे
हवा नहीं बदली
आख़िर..
हवा बदली
हम नहीं बदल पाए
हम हवा...!
हवा हम...!
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 3.12.18)
________________________________________

हमारा जनप्रतिनिधि !    14
------------------------------
गुण्डे पैदा नहीं होते
हमारे द्वारा बनाए जाते हैं गुण्डे
हर गुण्डे की 
गुण्डे होने से पहले की पहली हरकत
हमारी शाबाशी और वाहवाही पाकर
रोपित हो जाता है
उसके मानस खेत पर 
गुंडेपन की बीज की तरह
देखकर बदस्तूर उनकी करतूतें
हमारा मूक दर्शक हो जाना
लहलहा देता है दुःसाहस के पन्नों को
अनमने अंजाने में
हमारे द्वारा बोया गया गुंडा-बीज
अंकुरण पाकर
विशाल वृक्ष बन लहलहाते हैं
अपनी आतंक छाया में
ढक  लेता है संसार
बेजुबानों की तरह हम 
उनके कुकृत्यों पर मौन साधे
हाथ बांधे
अपने साथ होते तक
सन्तुष्ट बैठे रहते हैं
कभी भी-कहीं भी
हजारों की भीड़ के बीच
अपने मंसूबों को अंजाम देता हुआ
सीना फुलाए निकल जाता है
बेबस लाचार हम खड़े रह जाते हैं
उसके जाने के बाद
रस्म अदायगी के लिए
पहुँचती है पुलिस
पूछती है-अनुत्तरित घिसे-पिटे प्रश्न
मुँह में ताले लगाए हम
चले जाते हैं अपने-अपने कामों में
उनके पक्ष में होते हैं--
पैसे-धमकी-गवाह-न्यायाधीश और फ़ैसले
हमारे हिस्से होते हैं--
बासी समाचार-दर्द-कानाफूसी-डर और सदमें
आख़िरकार
न्यायालय से निर्दोष साबित होकर
और अधिक आँखे दिखाता 
हाथ उठाता 
वसूली करता 
दहशत फैलाता
वह गुण्डा
बन जाता है हमारा भाग्य विधाता
हमारा जनप्रतिनिधि !


वो कौन है...?
-----------------------------/
1.
मिट्टी की मटियाली रंग लेकर
लाल पीले गुलाबी 
हरे नीले सफेद
रंगों को 
फूलों में पिरोता 
वो कौन है...?
मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू लेकर
 मोंगरा रजनीगंधा सेवती
केवड़ा गुलाब के फूलों में
खुशबुओं  को पिरोता 
वो कौन है....?
मिट्टी की मटियाली स्वाद लेकर 
मीठा तीखा कसैला स्वादों को
फलों में भर देता
वो कौन है...?

रहता हूँ अक़्सर ख़ामोश 15
----------------------------------------
रहता हूँ अक़्सर ख़ामोश
मेरी ख़ामोशी पर 
हँसते हैं लोग
उड़ाते हैं मजाक
कहते है नकारा
समझते हैं घमंडी
ख़ता मेरी इतनी सी है 
जब वे
एक साथ मिलकर
किसी गैर का 
उड़ाते हैं मजाक
करते हैं छींटाकशी
फ़िजूल बातों पर 
लगाते हैं क़हक़हे
चुगली करने में
होते हैं मशगूल
मैं उनसे दूर
अलग-थलग
रहता हूँ अक़्सर ख़ामोश।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 07.03.19)


बेचते हैं वे 
-------------------/
बड़े ही 
समझदार हैं वे
'सपने' बेच बेचकर
मौज मनाते हैं।
पर कितने
बुद्धू हैं हम
'अपने' बेच बेचकर 
गुजारा चलाते हैं।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 12.03.19)


पत्ते रहो नित हरे
------------------------------/
पत्ते !
बेसहारा सिर के लिए
हरे रहो-तने रहो
धूप,ठंड और बारिश में
छत बनकर जमे रहो
इसलिए कि
        वो न तपे
        वो न ठिठुरे
        वो न हो गीले
पत्ते बनी रहे 
तुम्हारी छत्रछाया
यूं ही छत बनकर जमे रहो
न हो कभी पीले
रहो नित हरे।


क्षणिकाएं
-------------------- 
1.धर्म
-----------
थोपा गया
भरमाया गया
जीवन भर 
ढोया गया ।

2.ईमान
-------------
दिया तो किया
नहीं दिया
तो नहीं किया।


3.साहब
--------------
तरेरता है
धौंसता है
गाली देता है
लेकर........
चुप हो जाता है।

4.उसका प्यार
---------------------
वह मुझे
याद करता है हमेशा
उसको जब-जब
जरूरत होती है मेरी।

5.पिता
----------------
पैदा किया
पाला-पोसा
फिर कोसा।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)


वह शहीद हुआ (27.06.18)
--------------------------------
वह चुपचाप
करता रहा अपना काम
खुद के लिए
परिवार के लिए
समाज के लिए
देश के लिए
पर वह
टी वी में नहीं दिखा
अखबारों में नहीं छपा
विज्ञापनों से रहा दूर
लोग जानते भी नहीं उसे
बस मर गया वह
पर....
वह शहीद हुआ।


समय बीत रहा 14 (26.06.18)
------------------------------------
जन्मा
था छोटा बच्चा
सोचा बड़ा होऊँगा
हुआ बड़ा
सोचा काश बच्चा होता
आखिर...
वर्तमान रीत रहा..।
समय बीत रहा....।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)


आत्मा का सवाल 15 (29.07.18)
---------------------------------
आत्मा पुचकारती है
प्रेरित करती है
कुछ करने के लिए
पर हम नहीं करते
आत्मा दुत्कारती है
रोकती है
कुछ नहीं करने के लिए
पर...
हम वही करते हैं
आख़िर
आत्मा का सवाल है
अपनी सहूलियतों से
बड़ा नहीं होता।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)


ओ मेरी नम आँखे 16 (22.07.18)
-----------------------------------------
देखकर 
सब कुछ
तुम सहना
अडिग रहना
आएंगे काम 
तुम्हारे आँसू
मत बहना
मत ढहना
मत छलकना
ओ मेरी नम आँखें !


उसका अहम  17 (22.07.18)
------------------------------------
वह कुछ भी
देखता नहीं 
सुनता नहीं 
सोचता भी नहीं 
सिर्फ बोलता है
और
वह चाहता है
हम चुप रहें
सिर्फ़ सुनें
हर प्रतिक्रिया पर उसकी
खामोश रहें
हां में सिर हिलाए
और
वह खुश रहे ।

ओ प्यारी चिड़िया !  (29.07.18)
----------------------------------
झांक लो
चाह भरी आँखों से
पींजरे के इस पार
लेकिन
अब 
उड़ने के लिए 
मयस्सर कहाँ
मुठ्ठीभर आसमान
ओ प्यारी चिड़िया !

स्वीकारोक्ति 18  (27.06.18)
---------------------------------------
मैंने पूछा
यहाँ गंदगी किसने की?
लोग ख़ामोश थे।
मैंने पूछा
चोरी किसने की?
लोग ख़ामोश थे।
मैंने पूछा
बलात्कारी कौन है?
लोग ख़ामोश थे।
मैंने पूछा
ये हत्या किसने की?
लोग ख़ामोश थे।
मैंने पूछा 
ये आगजनी किसने की?
लोग खामोश ही रहे।
मैंने पूछा
ये नोटों के बंडल
जो मैंने पाएं हैं
किसके हैं?
लोगों की नजरें उठी
लोगों के हाथ उठे
लोगों की आवाजें उठीं
मेरे हैं.. मेरे हैं.. मेरे हैं..।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)

ज्ञानी-ढोंगी (28.05.18)
----------------------------------
वैदिक ज्ञानों
शास्त्रीय तर्कों
पौराणिक कथाओं पर
प्रवचन देता रहा
धर्म की आड़ में
छलता रहा
भोग-विलास में 
आकण्ठ डूबा हुआ
मासूम भावनाओं के साथ
खेलता रहा-खेलता रहा
हम अंधश्रद्धा में लीन
देवतुल्य
उन्हें पूजते रहे
बस पूजते ही रहे।

पड़ोसी 19  (12.06.18)
--------------------------------
मैं जैसा हूँ
वैसा
तुम मुझे देख न सके
तुम जैसा हो
वैसा
मैं तुम्हें देख न सका
हम दिखे
हम मिले
पर
दिखे कहाँ..?
पर
मिले कहाँ..?

मैं बच्चा हो जाता हूँ 20  (20.01.18)
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चालीस पार हो गया हूँ 
दो बच्चे हैं मेरे
चौराहों, मोहल्लों और दुकानों पर
बच्चे सारे
अंकल कहने लगे हैं
'अंकल'सम्बोधन सुनकर
भीतर ही भीतर
झेप जाता हूँ
धीरे-धीरे
सुनने की आदत 
बनती जा रही है
हर सुबह
नहाने के बाद
आईने के सामने
अपनी आँखों के नीचे काले घेरे
चेहरे की झाइयां
और
माथे की झुर्रियां देख
सहम जाता हूँ
अंकल होने के 
उक्त सारे प्रमाण
सारी सच्चाइयां
स्वीकारना कठीन होता है 
पर...
जब-जब  छुट्टियों में
घर जाता हूँ
चार दिन-पाँच दिन लगातार 
मेरी माँ 
बेटा कहकर बुलाती है
मैं फिर से बच्चा हो जाता हूँ
जब तक मेरी माँ है
बच्चा होने का अहसास मुझसे
कोई नहीं छीन सकता।


हर बार की तरह....21..(06.03.19)
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हर बार की तरह
जिस्म का वह कोढ़
फैल जाता है
पूरे समाज में
पहले पहल 
बड़े ही लुभावने और मनोहर शब्दों से
मासूम, भावुक दिलों में
बनाते हैं माकूल जगह
टॉफी, चाकलेट,खिलौनों से
शुरू होता है उपहार का सिलसिला
आते-जाते
मुस्कराते
बेवजह हँसी हँसते हैं
उसके भीतर बैठा क्रूर राक्षस
करता है बेसब्री से
शिकार का इंतिजार
हमेशा करता है वह
फेसबुक के तस्वीरों पर
लाइक एवं आकर्षक कमेंट
रोज भेजता है
अच्छे कपड़ों में
सैर सपाटे करता
अलग-अलग कोणों और मुद्राओं में
बेहतरीन पिक्स
जानबूझकर
बुद्धिमान लोगों के बीच घुसकर
खींचा हुआ सेल्फी
किसी बड़े नेता के साथ
मंच पर खड़ा हुआ
अपना राजनीतिक पहुँच बतलाता फोटो
एक असहाय बुढ़िया को
सड़क पार कराता हुआ
दयावान जताता फोटो
लगातार जारी है
उसकी कोशिशें
मुस्कान की,प्यार की,उपहार की
या कहें
षडयंत्र की,साज़िश की,शिकार की
उसका छद्म रूप,छद्म व्यवहार, छद्म प्यार
मासूम दिलों में
यथार्थ की तरह उतरकर
बना लेता है अपना घर
बातें बढ़ती है आगे
भोलापन से
दीवानापन होते हुए
पागलपन तक
वापस न होने वाला सफ़र
होता है शुरू
माता-पिता से
लड़की कराती है परिचय
दरिंदा वह
आने-जाने लगा है रोज
बड़े अदब से 
छूने लगा है अंकल-आंटी के पाँव
अब दोनों
एकांतवादियों में
मिलने लगे हैं हर दिन
आइसक्रीम खाते
कभी शहर के दूसरे छोर वाले उद्यान में
फ़िल्म देखते हुए
कभी सिनेमाघरों में
लजीज़ खाने का लुफ्त उठाते
कभी रेस्तराओं में
एक-दूसरे पर गलबहियां डाले
कभी ऐतिहासिक भग्न मंदिर के पीछे
चट्टानी कुर्सी पर बैठे
परस्पर घूरते 
कभी नदी के किनारे
खोए-खोए
मशगूल एक-दूसरे में
देखे जाते हैं दोनों अक़्सर
पर किसे था पता ?
हर बार की तरह
वो अनहोनी शाम
एक बार फिर
लूटेगी-कराहेगी
काली-हैवानी रात से गुजरती
लिपटी हुई सिसकियाँ
दूसरे दिन
हर दरवाजे पर 
'ख़बर' बनकर दस्तक़ देगी
बेदिल,बेजान दुनियां के सामने
बेबस रह जाएगी
'गुडमार्निंग'की चाहत भरी औपचारिकता
महज उदास सुबह बनकर रह जाएगी
पर यह सबको पता था
कि हम फिर अपना फर्ज निभाएंगे
जैसे निभाते चले आ रहे हैं
हर बार की तरह-----
कुछ घड़ियाली आँसू बहाएंगे
हुजूम के साथ मौन रैली निकालेंगे
विकृत मानसिकता को फटकारते 
सम्पादकीय लिखेंगे
मोमबत्तियां जलाने की रस्म अदायगी करेंगे
आरोपी पर कठोर कार्यवाही के वादे होंगे
थूकेंगे
पुतले जलाएंगे
जी-भरकर
संस्कार को,समाज को,देश को कोसेंगे
एक बार फिर
हर बार की तरह...।


पता नहीं कितने बार..22 (15.06.18)
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पता नहीं कितने बार
जीने के लिए
हमें मरना पड़ता है
तब भी 
क्या हम जी पाते है?
जी नहीं पाए
जीने के लिए मरे
मरते ही रहे जीने के लिए
मरने को ही जीना समझते रहे
मरे और मरते रहे
क्या खूब जिया समझते रहे
जीने के लिए झूठ बोला
बुद्धि को लहुलुहान किया
अनैतिक हुआ
आत्महंता बना
तोड़ी मर्यादाएं
स्वविवेक रौंद डाला
मुख मोड़ा अन्याय से
संवेदनाओं को कुचल डाला
मदमस्त बना रहा
वजूद मिटा डाला
जीने के लिए मरता रहा 
पर जीने के लिए कुछ न बचा
हो गया मृत!
मरने से पहले 
जीने के लिए
मरा..! मरा..!! मरा..!!!
जीवन भर
पता नहीं कितने बार..।

बाबूजी को मैंने तन्हा देखा है -- 23 (27.10.18)
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माँ के दिवंगत होने के बाद
एकदम अकेले
भीतरी तूफानों से जूझते
खुद से प्रश्न पूछते
अनुत्तरित होते
बाबूजी को
मैंने तन्हा देखा है..
माँ के दिवंगत होने के बाद
चुपचाप बैठे कोने पर
खुद से बातें करते
अक्सर बड़बड़ाते
बाबूजी को
मैंने तन्हा देखा है..
माँ के दिवंगत होने के बाद
दुखों से आक्रांत
पर बाहर से शांत
मौन में तड़पते
चुप में चीखते
बाबूजी को
मैंने तन्हा देखा है..
माँ के दिवंगत होने के बाद
गाँठों-से उलझे हुए
अन्तर्मन से बुझे हुए
नींद में जागते
बिना आँसू के रोते
बाबूजी को
मैंने तन्हा देखा है..
माँ के दिवंगत होने के बाद
पुस्तकों के पृष्ठ पलटते
मन की छवि को ढूँढते
अक्सर यादों में खोए-खोए
माँ के साथ
हँसते और बातें करते
बाबूजी को 
मैंने तन्हा देखा है..।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)


कविता बुलबुले नहीं होती। 24  (29.03.18)
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मेरे भीतर अक्सर
भावनाओं के बुलबुले उठते हैं
आते-जाते
खाते-पीते
नींद में 
उनींदे

कोई दृश्य
कोई घटना
होनी-अनहोनी
देखते-देखते
एक-दो 
फिर अनगिनत
भावनाओं के बुलबुले
लगातार निकलने लगते हैं

मैं लगभग हड़बड़ा-सा जाता हूँ
ढूंढता हूँ कलम यहाँ वहाँ
तत्क्षण
चाहता हूँ लिखना
उन बुलबुलों को बुलबुलों की तरह
पर लिख नहीं पाता
केवल महसूस कर पाता हूँ

आज तक संभव नहीं हुआ
कि बुलबुलों को रोक लूँ
कविता लिखे जाने तक
बेहद क्षणिक
द्रुत गतिमान और नश्वर होते है
भावों के बुलबुले

बुलबुलों के नष्ट हो जाने के बाद
बुलबुलों को याद कर
वैसे ही लिखना चाहता हूँ

एक बार फिर
बुलबुलों को बुलबुलों की तरह
लिखने की कोशिश करता हूँ
पर बुलबुलों को  बुलबुलों की तरह नहीं लिख पाता

अनगिनत बुलबुलों की छाया है मेरी कविता
पर मेरी कोई भी कविता बुलबुले नहीं होती।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)



निर्वासित समाज  -- 25  (02.04.19)
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कहते हैं वे
कि हम देह व्यापार करते हैं
पैसों के लिए
बेच देते हैं
तन और इज्ज़त अपनी
कितने दोगले हैं वे
समाज में अपने
धर्म-जाति
मान-सम्मान
संस्कार और आत्मा की 
दुहाई देने वाले
हैसियत पर अपनी
घमंड से इतराने वाले
हवस की आग बुझाने खातिर
अपनी आत्मा के साथ-साथ
बेच देते है सब कुछ
गिड़गिड़ाते हैं
हो जाते हैं नतमस्तक
और फिर
अपने समाज में जाने के बाद
एक बार फिर
दुत्कारतें हैं
कोसते हैं हमें
कहते हैं----
हमसे दूर रहने की बात
उनके नजरों में हम होते हैं--
समाज का कलंक, कोढ़, पाप....
हमारे लिए सदा
बंद होते हैं उनके दरवाजे
कुछ दिन बाद
हर बार की तरह
वे आते हैं फिर
प्यास बुझाने
अपनी हिकारत भरी नज़रों में
हवस घोले हुए
अहर्निश खुले
हमारे दरवाजे तक
सभ्य समाज के उस
निष्कलंक, निष्पाप
सम्मानित, संस्कारी व्यक्ति को
अपने निर्वासित समाज में
अपना लेते हैं
करते हैं सन्तुष्ट 
एक बार फिर...।
(नरेन्द्र कुमार कुलमित्र)

पूरा
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चाहिए मुझे पूरा
इस आधी-अधूरी दुनिया में
सभी को चाहिए पूरा-पूरा
घर, अस्पताल, बाजार, मेला
सभी जगह पूरा पा लेने की तलाश
आधे-अधूरे लोगों के द्वारा
आधे-अधूरे लोगों से पूर्णता की तलाश

आख़िर तुम चले गए.....  26
(दिनांक 26.06.19 को छोटे भाई सनत के निधन पर)
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ओ मेरे भाई !
बीमारी से लड़ते-लड़ते
जिंदगी और मौत से जूझते-जूझते
जिंदगी से हारकर
हम सबको छोड़कर
आख़िर तुम चले गए.....।1।
ओ मेरे भाई !
न जाने कितने सपने संजोए थे तुमने
सुनहरी फसलों के बीज बोए थे तुमने
चुपके से रोशनी चुराकर
हमें यूं अंधेरे में डुबाकर
आख़िर तुम चले गए.....।2।
ओ मेरे भाई !
टूट गए तुम्हारे सपने सभी
था जो तुम्हारा सब छूट गए यहीं
खूबसूरत सपने दिखाकर
अपनों को यूं मंझधार में छोड़कर
आख़िर तुम चले गए.....।3।
ओ मेरे भाई !
अरमान जीने का रहा होगा
शैतान की मार कैसे सहा होगा?
खुशियां इस तरह छीनकर
हमें यूं गमों में डुबाकर
आख़िर तुम चले गए.....।4।
ओ मेरे भाई !
सोच-सोचकर मन हताश है
जीवन तेरा आज इतिहास है
रिश्तों भरी दुनियां बसाकर
अपनों से दामन छुड़ाकर
आख़िर तुम चले गए.....।5।
ओ मेरे भाई !
कैंसर से लड़ते-लड़ते पस्त हो गए
विखेरकर अपनी चमक अस्त हो गए
जिंदगी के कुछ लम्हें बिताकर
अपनों पर अपनी खुशियां लुटाकर
आख़िर तुम चले गए.....।6।
---नरेन्द्र कुमार कुलमित्र


माँ से आखिरी बार...27 (15.09.19)
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पहली बार...
माँ मुझे देखी होगी 
उनकी निगाहों की भाषा
अलिखित और मौन रही होगी
मेरी आँखें मुंदी रही होगी
वह अपनी आंखों से लगातार बोलती रही होगी
मैं मौन होकर भी सब कुछ 
सुनता रहा होऊँगा।

माँ का शरीर मृत पड़ा था
मैं देख रहा था उनको 
एकटक निगाहों से
तड़प-तड़पकर रो रहा था
उनकी आँखें मुंदी हुई थी
बहुत कुछ कहना चाहता था
कह भी रहा था
वह एकदम मौन थी
मौन होकर
क्या वह सुनती रही होगी
मेरी बातें आखिरी बार...।


पिता होना....28 (17.09.19)
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दो बच्चों का पिता हूँ
मेरे बच्चे अक्सर रात में
ओढ़ाए हुए चादर फेंक देते है
ओढ़ाता हूँ फिर-फिर
वे फिर-फिर फेंकते जाते हैं

उन्हें ओढ़ाए बिना...
मानता ही नहीं मेरा मन
वे होते है गहरी नींद में
उनके लिए 
अक्सर टूट जाती हैं
मेरी नींदें...

एक दिन 
गया था गाँव
रात के शायद एक या दो बजे हों
गरमी-सी लग रही थी मुझे
नहीं ओढ़ा था चादर
मेरी आँखें मुंदी हुई थी
पर मैं जाग रहा था...

रात के अन्धेरे में
किसी हाथ ने ओढ़ा दिए चादर
उनकी पास आती साँसों को टटोला
पता चला वे मेरे पिता थे

गरमी थी
मगर मैंने चादर नहीं फेंकी
चुपचाप ओढ़े रहा
मैं महसूस कर रहा था
बच्चा होने का सुख...
और
पिता होने की जिम्मेदारी...
दोनों साथ-साथ..।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र


रोना हमारा-तुम्हारा...29 (20.09.19)
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तुम जो रोना रोते हो
कि तुम्हारे पास
बंगला,गाड़ी और एशोआराम नहीं है
तुम्हारे रोने के दायरे
बहुत बड़े है
तुम यदा-कदा
रोते ही रहते हो
तुम्हारे रोने में होते हैं
बहुत सारे शब्द
तुम्हारे रोने के पीछे होते हैं
अनगिनत ख़्वाब
तुम्हारे मिथ्या रुदन का कभी
अंत नहीं होता

हम सीमित हैं
हमारा रोना भी सीमित है
रोने के दायरे भी सीमित है
हम रोते हैं
अपनों के लिए...
न कि सपनों के लिए
हमारे रोने में होते हैं
असहनीय दर्द और आँसू 
हमारी सच्चाई
अकारण लगता है तुम्हें
हमारा रोना
हमें रोते देख 
तुम्हें हँसी आती है
ये भी कोई रोना होता है

हम रोकर चुप हो जाते हैं
एक नए दर्द के आने तक
तुम्हारी तरह हर पल रोना
हमें नहीं आता
सच कहूँ---
तुम्हारे रोने में रोना नहीं होता
हमारी तरह...
--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

तुम्हारे होने का अहसास...30. (20.09.18)
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तुम आसपास नहीं होते
मगर 
आसपास होते हैं
तुम्हारे होने का अहसास

मन -मस्तिष्क में संचित
तुम्हारी आवाज
तुम्हारी छवि
अक़्सर
हूबहू
वैसी-ही
बाहर सुनाई देती है
दिखाई देती है
तत्क्षण
तुम्हारे होने के अहसास से भर जाता हूँ
धड़क जाता हूँ
कई बार खिड़की के पर्दे हटाकर
बाहर देखने लग जाता हूँ

यह सच है 
कि तुम नहीं होते
पर
पलभर के लिए
तुम्हारे होने जैसा लग जाता है

होता है यह अक़्सर
अमूमन कुछ दिन अंतराल बाद
या कभी-कभी दिन में कई बार
तुम्हारे न होने पर भी
तुम्हारे होने का अहसास...