Tuesday 23 November 2021

धन्यवाद के पल (लघु कथा)

धन्यवाद के पल         (लघु कथा)
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जब शाम पांच बजे दीपेश स्कूल बस से घर पहुंचा तो रोज की तरह उसके दादाजी अपने हमउम्र साथियों के साथ कांपते हुए हाथों से कैरम खेलते हुए मिले। दीपेश अपने दादाजी को देखते ही बड़े प्यार से चहककर बोला - "हेलो दादा जी मैं ही स्कूल से आ गया !"
दादा जी ने भी बड़े ही प्यार से पूछा - "और दीपू बेटा आज कैसा रहा तुम्हारा स्कूल..?"
दीपू ज्यादा कुछ नहीं बोला बस इतना कहा -"आता हूं दादा"
कुछ देर बाद अपने हाथ पांव धोकर रोज की तरह दीपू अपने दादा के कमरे में आया तब तक उनके दादा के सारे साथी जा चुके थे। दीपू को जैसे अपने दादा से कुछ बताने की जल्दी थी उसने जल्दी जल्दी बोलना शुरू किया-"दादाजी दादाजी पता है आज स्कूल में क्या हुआ ?
तुम्हारे स्कूल में क्या हुआ भला मुझे कैसे पता रहेगा तुम बताओगे तभी तो पता चलेगा - दादा ने कहा।
हां मैं वई बता रहा हूं-"आज तीन बजे स्पोर्ट पीरियड में मैं दोस्तों के साथ क्रिकेट खेल रहा था तभी एक रन लेने के चक्कर में जोर से गिर गया था, मेरे घुटने में चोट लगी थी और मैं बेहोश हो गया था।"
"अरे इतना कुछ हो गया था और तुम्हारे स्कूल वाले हमें बताए भी नहीं।"दादा ने पूछा
"ऐसा नहीं है दादा जी जब मुझे होश आया तो पता चला मेरे हिंदी टीचर सत्येंद्र सर ने मुझे अपने कार से पास के ही जॉर्ज हॉस्पिटल ले आए थे और मैं एकदम ठीक हो गया ।"
सर बता रहे थे कि- "हम तुम्हारी मम्मी को तुम्हारी चोट के बारे में सब कुछ बता चुके हैं।"
यह सब बताने के बाद दीपू थोड़ा भावुक होकर अपने दादा से फिर कहने लगा-"दादा सत्येंद्र सर कितने अच्छे हैं अगर आज वो नहीं होते तो....
दादा दीपू को प्यार से समझाते हुए कहने लगे-"बेटा यदि हम किसी की मदद करते हैं तो मुश्किल वक्त आने पर हमारा मदद करने वाला भी कोई न कोई जरूर आ जाता है।"
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रविवार का दिन था दीपू अपने दादाजी के साथ फल दुकान कुछ फल खरीदने के लिए साथ में गया हुआ था। तभी दीपू की नजर अपने हिंदी सर सत्येंद्र पर पड़ी। वह भी फल दुकान के सामने फल खरीदने के लिए खड़ा हुआ था। दीपू अपने प्रिय सर को देखते ही बोला-"सर नमस्ते आप भी यहां...!
सत्येंद्र ने कहा- "हां बेटा कुछ फल खरीदना था इसीलिए शाम को बस यूं ही निकला था।"
दीपू अपने दादा जी को बताते हुए कहने लगा-"दादाजी ये मेरे सर हैं वही सर जो मुझे हॉस्पिटल ले गए थे।"
"अच्छा अच्छा तो आप है सत्येंद्र जी !आप यहां कब से है पढ़ा रहे हैं ?" दादा जी ने पूछा
दीपू के दादा को देखते ही जैसे उनका चेहरा उन्हें जाना पहचाना सा जान पड़ा। वह सोचने लगा कि मैं इस व्यक्ति से कभी कहीं ना कहीं जरूर मिला हूं। वह अपने मस्तिष्क पर जोर देते हुए जैसे पुरानी बातों को याद करने की कोशिश कर रहा था। फिर वर्तमान पर लौटते हुए कहा- "जी अंकल मैं पिछले तीन साल से यहां पढ़ा रहा हूं।"
सत्येंद्र को अचानक जैसे सारी बातें याद आ गई हो उसने दीपू के दादा से पूछा- "अंकल यदि मैं गलत नहीं हूं तो आप शायद गणेश पाटिल जी तो नहीं है..?"
दीपू के दादा को कुछ भी याद नहीं था, वह समझ भी नहीं पा रहे थे। उसने थोड़े विस्मित भाव से सत्येंद्र से पूछा- "हां, मैं गणेश पाटिल हूं पर आप मुझे कैसे जानते हैं..?
सत्येंद्र ने सोलह साल पुरानी बातें दीपू के दादाजी को पूरी तफसील से बताया - "जब वह 2004 में केंद्रीय विद्यालय में भर्ती के लिए पीजीटी हिंदी परीक्षा देने जबलपुर आया था तब सिटी बस में इधर से उधर घूमने के बाद परीक्षा सेंटर से दो किलोमीटर पहले ही उतार दिया गया था। वह हड़बड़ा कर अंजान शहर में सहायता के लिए अपेक्षा भरी नजरों से इधर-उधर ताक रहा था तभी उनकी नजर एक मकान के सामने कैरम खेल रहे लोगों पर पड़ी थी। जब मैं अपनी स्थिति बताते हुए प्रवेश पत्र दिखाया तो वह आप ही थे जो मुझे मेरे परीक्षा केंद्र तक छोड़ कर आए थे। और मैं उसी परीक्षा के परिणाम स्वरूप आज आपके सामने हूं।"
सत्येंद्र बड़ी कृतज्ञता भरे शब्दों में कहने लगे- "अंकल आप मेरे भगवान हो यदि आप उस दिन मेरी मदद नहीं की होती तो आज मैं इस मुकाम पर शायद नहीं होता।"सत्येंद्र भावुक होते हुए दीपू के दादा जी के पैर छू लिए। दीपू के दादा ने भी दीपू के मदद के लिए सत्येंद्र को हृदय से धन्यवाद दिया।यह कितना अद्भुत क्षण था कि इस समय मदद पाने वाला और मदद करने वाला दोनों ही सत्येंद्र था। धन्यवाद पाने और धन्य होने का यह क्षण सत्येंद्र को हमेशा याद रहा।
--नरेंद्र कुमार कुलमित्र

दुर्ग की एक दिवसीय यात्रा 19.11.21

दुर्ग की एक दिवसीय यात्रा 19.11.21
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1.शुक्रवार 19 नवंबर को स्थानीय साहित्यिक मित्रों के साथ दुर्ग जाना हुआ। दुर्ग जाने का मकसद श्री प्रकाशन के कर्ताधर्ता एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री महावीर अग्रवाल जी से मिलना था। अपने शैक्षणिक जीवन में वाणिज्य विषय के अध्ययन और अध्यापन में जुटे श्री महावीर अग्रवाल जी ने हिंदी साहित्य के लेखन एवं संपादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है। साहित्य कर्म में जुटे श्री अग्रवाल जी भले ही 76 वर्ष के बुजुर्ग हो गए हैं मगर अध्ययन और लेखन के प्रति उनका उत्साह जरा भी कम नहीं हुआ है। A14 आदर्श नगर दुर्ग के उनके निवास में हिंदी साहित्य के लेखकों कवियों की असंख्य पुस्तकों एवं तमाम पत्र-पत्रिकाओं की समृद्ध लाइब्रेरी मौजूद है। वे हमसे बड़ी ही सहजता से मिले,हमारी खातिरदारी की और चार घंटे तक बड़ी लगन के साथ अपनी लाइब्रेरी की तमाम किताबों से रूबरू कराते रहे। हालांकि उनकी बूढ़ी आंखों में उम्र के साथ चमक थोड़ी कम हो गई है मगर साहित्य प्रेमियों को समझने एवं परखने की पर्याप्त चमक अभी विद्यमान है। वे पिछले 30 वर्षों से साहित्यिक पत्रिका सापेक्ष का लगातार प्रकाशन करते चले आ रहे हैं। वह हमें पिछले 30 वर्षों में हिंदी के नामचीन रचनाकारों से अपनी हुई मुलाकातों के बारे में बताते रहे। कथा शिल्पी कमलेश्वर जी एवं समकालीन हिंदी काव्य के पुरोधा कवि मुक्तिबोध जी से जुड़े रोचक संस्मरण भी सुनाए। उन्होंने अपने संपादित पुस्तकों से कुछ महत्वपूर्ण अंशों को पढ़कर भी सुनाया। हम सभी मित्रों ने उनकी लाइब्रेरी से कुछ दुर्लभ और महत्वपूर्ण किताबों की खरीददारी की। 4 घंटा बिताने के बाद जब हम उनसे विदा लेने लगे तब वह हमें आप सभी का मुझे 15 मिनट और चाहिए कहकर आदर्श चौक दुर्ग तक छोड़ने आए ,हम सभी को नाश्ता करवाएं , जूस पीने के लिए ऑफर किए मगर हम ने मना कर दिया। हम सभी ने बहुत जल्दी फिर से मिलने के वादे के साथ उनसे विदा लिए। हम सभी मित्र घर वापस आते समय श्री अग्रवाल जी के व्यक्तित्व और उनकी साहित्यिक अवदान और साहित्य प्रेम की चर्चा करते रहे ।
2. इस एक दिवसीय यात्रा के दौरान हमने कुछ ऐतिहासिक स्थलों का भी भ्रमण किया। दुर्ग जाने के समय बेमेतरा दुर्ग मार्ग पर ऐतिहासिक स्थल देवरबीजा गए जहां 12 वीं शताब्दी में कलचुरी राजाओं के द्वारा सीता देवी  का मंदिर निर्मित किया गया है। यह मंदिर शिव जी को समर्पित है तथा इसका मुख्य द्वार पूर्व दिशा में है। इस के प्रवेश द्वार के दाएं एवं बाएं में क्रमशः यमुना और गंगा का अंकन हुआ है। मंदिर के वाह्य दीवारों पर मध्यप्रदेश के खजुराहो एवं छत्तीसगढ़ के भोरमदेव मंदिर के दीवारों की तरह कुछ मिथुनरत प्रतिमाएं भी उत्कीर्ण है। बलुआ पत्थर से निर्मित इस भव्य मंदिर के सम्मुख वृक्षों के बीच एक सुंदर जलाशय बनाया गया है। मंदिर के पीछे विशाल पीपल वृक्ष पर प्रवासी पक्षियों का झुंड दृश्य को और भी मनमोहक बना देता है। मंदिर के आसपास का शांत वातावरण मन की शांति के लिए बड़ा ही अनुकूल लगा।
              देवर बीजा से दुर्ग के लिए आगे बढ़ते हुए हम देवघर में जाकर रुके। बेमेतरा से 30 किलोमीटर की दूरी पर यह गांव स्थित है। यहां पर ऐतिहासिक घूघुस राजा का मंदिर स्थित है। किवदंती के अनुसार घुघुस राजा आदिवासियों का नेतृत्वकर्ता था मगर मंदिर के गर्भ गृह में नृसिह की मूर्ति स्थापित है जिसका मुख वर्तमान में घिस चुका है इस मूर्ति को ही लोग घुघूस राजा के रूप में मानते आ रहे हैं। इस मंदिर के निर्माण का समय संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग छत्तीसगढ़ के बोर्ड में 17 -18 वीं शताब्दी का बताया गया है। यहां पर एक और मंदिर स्थित है जिसमें हनुमान जी की मूर्ति स्थापित है। यहां की एक और खास बात यह है कि मंदिर परिसर में ही सोलह सती स्तंभ हैं जिसमें से एक स्तंभ में कुछ अभिलेख भी उत्कीर्ण देखे गए।
                साहित्यकार श्री अग्रवाल जी से मुलाकात करके वापस आते समय शाम होने लगी थी। हमारी योजना में एक और ऐतिहासिक स्थल देवबलोदा जाने की थी जोकि दुर्ग से महज 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मन में संशय था कि हम वहां पहुंचे और कहीं वहां ताला ना लगा हो। मगर जय हो गूगल माता की जिससे मंदिर 8:00 बजे तक खुले रहने की जानकारी मिली। देवबलोदा पहुंचते-पहुंचते अंधेरा व्याप्त हो चुका था। मंदिर परिसर के सामने गेट खुला देखकर हमें बड़ी खुशी हुई। गांव होने के बावजूद देवबलोदा गांव में एवं मंदिर परिसर में लाइटिंग की अच्छी व्यवस्था देखी गई। आखिरकार हम सभी देवबलोदा के ऐतिहासिक 'महादेव मंदिर' के सामने थे। मध्य छत्तीसगढ़ के ज्यादातर मंदिर कलचुरी राजाओं द्वारा ही बनवाए गए हैं। यह मंदिर भी 13 वीं शताब्दी में कलचुरियों द्वारा ही बनवाया गया था। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व दिशा में है ,मंदिर बलुआ पत्थर से निर्मित है। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। कोरोना का काल के बाद अभी तक इसके मुख्य द्वार नहीं खोले गए हैं। मंदिर के बाई ओर कुंड स्थित है जिसे बाद में बनवाया गया है। भोरमदेव के मंदिरों की तरह इस मंदिर के गर्भ गृह के सामने भी बड़े-बड़े प्रस्तर स्तंभों से मंडप बनाया गया है जिसे नवरंग मंडप कहा जाता है। वर्तमान में इस मंदिर के ऊपर से शिखर गायब नजर आया। जानकार मानते हैं कि मंदिर में भव्य नागर शैली में शिखर जरूर रहा होगा। वैसे भी मंदिर बिना शिखर के अकल्पनीय लगता है। इस मंदिर के सुसज्जित द्वार शाखाओं पर शिव के अनुचरों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। मुख्य द्वार के ऊपर बिंब पर गणेश की प्रतिमा अंकित है। नवरंग मंडप के स्तंभों पर उत्कीर्णित प्रतिमाओं में भैरव, महिषासुरमर्दिनी, त्रिपुरान्तक शिव,विष्णु आदि की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। इसके बाह्य दीवारों पर हिंदू देवी देवताओं की प्रतिमाओं के अतिरिक्त वाद्य यंत्रों के साथ नृत्यरत संगीत मंडलियों की प्रतिमाएं आकर्षक रूप से उत्कीर्ण हैं। साहित्य और इतिहास की तमाम छवियों एवं यादों को संजोए हुए हम सभी मित्र रात 10:00 बजे अपने अपने निवास पहुंचे।