Thursday 17 November 2022

कविता के मायने - 17.11.22

कविता के मायने  - 17.11.22
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जो अपने हक के लिए नहीं बोल पाते
उनके पक्ष में बोलती है कविताएं
जब-जब सत्ताधीशों को लगता है
कि अब बोलने की हिम्मत किसी में भी नहीं बची है
तब तब बुजदिली की मौन को चीरती हुई
लोगों की आवाज बनकर खड़ी हो जाती है कविता

अहम से भरे लोग जब प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पाते
नफरतों की बाढ़ में जब डूबने लगती है प्रेम से भरी दुनिया
जब-जब नफ़रतियों को लगता है कि नफरत से ही पाया जा सकता है सब कुछ
तब तब नफरत से बजबजाती सड़ांध दुनिया में
खुशबुओं के मानिंद फैलने लगती है प्रेम आपूरित कविता

अंधेरा पसंद लोगों को रोशनी से भरी दुनिया पसंद नहीं आती
दुनिया में रोशनियों के खिलाफ खड़ी होने लगती है उल्लुओं और उल्लुओं के पट्ठों की फ़ौज
जब-जब बुद्धि और विवेक से शून्य होकर दुनिया अंधकार में डूबने लगती है
तब तब घोर अंधेरे को चीरती हुई
अंधेरे में सुराख बनाकर फैलने लगती है रोशनी से भरी कविता

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
      9755852479

Monday 24 October 2022

अनकही बातें...

अनकही बातें
तुम हृदय में ही रहना
ज़बान पर मत आना...

अलिखे शब्द
तुम भावों में ही रहना
पन्नों पर नहीं उतरना...

न जाने फिर कोई बुरा न मान जाए...
न जाने फिर कोई हंगामा न हो जाए...

Thursday 6 October 2022

नमक का होना --07.10.22

मुझे टूटने और टूटकर गिरने से कभी डर नहीं लगता
मुझे विश्वास है अपने वजूद पर
अगर टूट कर बिखर भी जाऊं
तो मिट्टी में दबे बीज की तरह एक दिन फिर अंकुरित हो जाऊंगा

अब नफरत ही प्यार है --30.08.22

अब नफरत ही प्यार है --30.08.22
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मुझे नहीं बताना 
कि मैं किस किस से प्यार करता हूं और किस किस से नफरत

हो सकता है कि आप गलती से प्रेम का इजहार करें
और बदले में आपको बेशुमार नफरत का तूफान मिल जाए
अब प्यार के बदले में प्यार मिले इसकी संभावना कम होती जा रही है धीरे-धीरे

प्यार करने वाले दुबके बैठे हुए हैं
कि कहीं  नफरतियों की नजर उन पर ना पड़ जाए

नफरत से प्यार करने वालों की भीड़ में
बड़ी मुश्किल है प्यार से प्यार करने वालों को ढूंढ पाना

हो सकता है कि आप प्यार ढूंढने जाओ
और प्यार ढूंढने के चक्कर में
लहूलुहान होकर बचा खुचा प्यार खोकर वापस लौटो

आपको नफरती वायरस के संक्रमण से कोई भी मास्क नहीं बचा सकता
कोरोना इतना संक्रमित नहीं जितना नफरत है इन दिनों

धीरे-धीरे एक नई समझ विकसित होते जा रही है
जिसमें लोग नफरत को प्यार और प्यार को नफरत समझने लगे हैं

अब नफरत और प्यार के शब्दों से अर्थ निकलकर एक दूसरे में समा गए हैं

अब नफरत ही प्यार है कहना ज्यादा सुविधाजनक है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

वह मौन चलती रहती है -- 27.08.22

वह मौन चलती रहती है -- 27.08.22
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छुक छुक करती रात दिन दौड़ती रहती है अपनी पटरी पर
लोगों की दूरियां मिटाने भेदभाव और असहमतियों को कम करने अलग-अलग भाषा और संस्कृतियों को एक साथ लेकर 
मौन अनवरत चलती रहती है

हमीं उसे गंदा करते हैं
हमीं उसमें अव्यवस्था फैलाते हैं
हमीं उस पर तरह-तरह के आरोप लगाते हैं
उसके रास्ते में रोड़े बन उसे चलने से बाधित करते हैं
कई बार अपने गुस्से के लिए उसे आग के हवाले कर देते हैं

वह सारे डिब्बों को आपस में जोड़े चलती है
वह चुपचाप चलती है तो हमारा सफर बिना हिचकोले खाए आसान हो जाता है
हम सुने या ना सुने मगर
वह हमें खतरों से बचाने के लिए लंबा हार्न देती है
जब वह पटरी से उतरती है तो भूचाल आ जाता है
अफरा तफरी मच जाती है हमारा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है
हमने बना दी है उसके चलने के लिए पटरी
उसे केवल पटरी पर ही चलते जाना है

उसमें इतनी जगह होती है कि हम सब का सफर आराम से कट जाता है
वह कमाऊ है रात दिन खटती है हमारा समय बचाती है 
सब कुछ सहती है फिर भी मौन चलती रहती है
चाहे कुछ भी कहो भारतीय रेल या भारतीय स्त्री..।

---नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

मरना" अब आकस्मिक नहीं लगता - 14.08.22(एक अपरिचित की हादसे में मौत देखकर)

"मरना" अब आकस्मिक नहीं लगता - 14.08.22
(एक अपरिचित की हादसे में मौत देखकर)
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कितना साधारण हो गया है 
किसी के बीमार हो जाने का समाचार

गांव में किसी को बुखार हो जाता था
सुनने वाले आश्चर्य प्रकट करते थे
बीमार व्यक्ति को गांव के लोग देखने जाते थे
सांत्वना सहानुभूति और ढांढस भरे शब्दों में इतनी ताकत होती थी
कि बीमार व्यक्ति जल्दी ठीक हो जाता था
अब सहानुभूति के शब्दों में भी वह ताकत नहीं रही 

अब लोगों को शुगर बीपी ब्रेन हेमरेज कैंसर लिवर किडनी फेल हार्ट अटैक जैसी बीमारियां सर्दी जुकाम सी होने लगी है
तमाम चिकित्सा सुविधाओं के बीच बीमारियों ने लाइलाज होना सीख लिया है
तमाम दवाओं और दुआओं का असर खत्म होते जा रहा है
अब वो दिन गए जब बीमारियों और मौतों पर आश्चर्य हुआ करता था

हम अमूमन रोज सुनने लगे हैं
फला व्यक्ति हार्ट अटैक से मर गया
अमुक व्यक्ति को कैंसर हो गया
बीमारी से बचा खुचा आदमी सड़क हादसे का शिकार हो जाता है
मरना अब आम बात हो गई है
पल पल घटने लगी हैं आकस्मिक घटनाएं
किसी का मरना अब आकस्मिक नहीं लगता।

---नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

तुम आओ - 21.08.22

तुम आओ - 21.08.22
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तुम आओ
कि जैसे रात के सन्नाटे में
ख्वाब आता है

तुम आओ
कि जैसे लंबे इंतजार के बाद
पैगाम आता है

तुम आओ
कि जैसे साल में एक बार
ईद का चांद आता है

तुम आओ
कि जैसे जेठ की तपिश के बाद
आषाढ़ आता है

तुम आओ 
कि जैसे टूटती देह में 
सांसें आती है

तुम आओ
कि जैसे सर्द रातों के बाद सुबह-सुबह 
गुनगुनी धूप आती है

तुम आओ
कि जैसे लंबे सफर में थकान के बाद
गहरी नींद आती है

तुम आओ
कि जैसे बंजर धरती में सालों बाद
हरियाली आती है

तुम आओ
कि जैसे लंबी नाउम्मीदी के बाद
उम्मीद आती है

तुम आओ
कि जैसे माशूक के लंबे इंतजार बाद
माशूका आती है

तुम आओ 
कि जैसे अमावस की रात में
दिवाली आती है

तुम आओ 
कि जैसे कवियों के अंतस्तल में
कविता आती है

-- नरेन्द कुमार कुलमित्र
     9755852479

ओ मेरी प्यारी किताब ! - 05.08.22

ओ मेरी प्यारी किताब ! -  05.08.22
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मुझे किताबों से प्यार है

मैं हर नई किताब को पढ़ने के लिए बेताब होता हूं
जब कोई नई किताब मेरे हाथ में होती है
जब तक ना पढ़ लूं बेचैन रहता हूं
पुस्तक लेकर अलमारी में सजा देना मेरा काम नहीं 

मुझे तसल्ली या संतुष्टि किताब पढ़ने से ही मिलती है देखने से नहीं

किताबों की पंक्तियों को पढ़ना, शब्दों में ठहरना,अर्थों को महसूसना और भावों में डूबते जाना यही तो आनंद है किताब की

किताबों की अच्छी बातों को हृदय में संजोए रखता हूं
हरदम नई और अच्छी किताब की तलाश में रहता हूं

किताबें जितना पढ़ो ज्ञान के विस्तार का कोई छोर नहीं 
हमें पढ़ते रहना है नई नई किताबें

तुम बिल्कुल नई किताब हो
बड़ी चिकनाहट है तुम्हारे पन्नों में
तुम्हारे हरेक पन्नों के प्रत्येक शब्दों का अर्थ जानना चाहता हूं
तुम्हारे अक्षर गोल गोल और बड़े सुडौल हैं
तुम्हारे काले काले अक्षरों में खो जाना चाहता हूं
बड़े ही आकर्षक हैं आगे और पीछे के तुम्हारे कवर पृष्ठ

मैं अपनी कलम से तुम्हारी महत्वपूर्ण पंक्तियों के नीचे रेखांकित करते हुए
तुम्हारे पृष्ठों को पलटना चाहता हूं
समझ ना आए तो उलट-पुलट कर बार बार पढ़ना चाहता हूं
समय रहते तुम्हें पूरा पढ़ लेना चाहता हूं

ओ मेरी प्यारी किताब !
तुम्हारे बाह्य आवरण इतने अच्छे हैं
तुम भीतर से कितनी अर्थवान होगी कितनी अच्छी होगी
मैं सचमुच तुम्हें पढ़ने के लिए बेताब हूं।

ओ मेरी प्यारी किताब !
पूरे मन से पढूंगा तुम्हें
धन्य हो जाऊंगा तुम्हें पढ़कर
मेरे पढ़ने से शायद तुम भी धन्य हो जाओ
आखिर सच्चे पाठक के पढ़ने में ही तुम्हारी सार्थकता है

ओ मेरी प्यारी किताब !

--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

याचना -17.08.22

याचना -17.08.22
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तुम हो निस्सीम धरती
मैं नहीं मांगता की तुम मुझे सर्वस्व दो
तुम्हारा एक अंश ही मेरे लिए काफी है
बस थोड़ी सी धरती में पा लूंगा अपना पूरा विस्तार।

तुम हो प्रेम का सागर
मैं डूबना नहीं चाहता
बस थोड़ा उतरना चाहता हूं
तुम्हारी असीम गहराई से थोड़ा जल ही मेरे लिए काफी है
बस थोड़ी सी तरलता में हो जाऊंगा पूरा तृप्त।

तुम हो धधकती आग
उतना भी नहीं चाहिए कि जलकर खाक हो जाऊं
तुम्हारी एक चिंगारी ही मेरे लिए काफी है
बस थोड़ी सी आग से पा लूंगा जीने की पूरी ऊर्जा।

तुम हो खुला आसमां
मेरे लिए यह संभव नहीं कि तुम्हारे क्षितिज तक पहुंच पाऊं
मेरे पंख इतने भी मजबूत नहीं कि तुम्हारा विस्तार छू सकूं
तुम्हारे अनंत विस्तार से एक कोना ही मेरे लिए काफी है
बस थोड़े से आसमान में हो जाएगी मेरी पूरी उड़ान।

तुम हो चंचल हवा
मुझे नहीं चाहिए तुम्हारी आंधियों वाली तेज रफ़्तार
इतनी क्षमता मुझ में कहां कि तुम्हारे थपेड़ों को झेल पाऊं
तुम्हारा एक झोंका ही मेरे लिए काफी है
तुम्हारी थोड़ी सी हवा से जी उठेंगी मेरी पूरी सांसें।

बताओ ! क्या मुझे मिल पाएगी
थोड़ी सी धरती थोड़ी सी तरलता थोड़ी सी आग थोड़े से आसमान और थोड़ी सी हवा ।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

जाने कहां गए वो दिन.... (हरेली विशेष)

जाने कहां गए वो दिन....                 (हरेली विशेष)
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आज हरेली है, हरेली छत्तीसगढ़ का पहला तिहार (त्योहार) माना जाता है। मुझे आज भी याद है  गांव में गुजरा मेरा वह बचपन। हम हफ्तों पहले हरेली तिहार के आने का इंतजार करते थे। हमारे इंतजार का मकसद हरेली तिहार में उत्सव मनाना नहीं होता था। हम तो बस इसलिए दिन गिनते रहते थे कि कब  हरेली आए और हम गेड़ी खपवाएं। हमें दिन तिथि का ज्ञान तो नहीं था सो हम रोज सुबह उठते ही अपने दादा (बबा) से पूछते थे-"हरेली तिहार कब हे बबा..? हरेली तिहार की सुबह हमें गेड़ी खपवाने की बड़ी जल्दी होती थी। जिसका गेड़ी पहले खप जाता था वह बड़े शान से घूमता था और सब को दिखाता था जैसे उसने कोई बड़ी जीत हासिल कर लिया हो। हमारे घर में कोठार के पीछे बांस का भीरा था (आज भी है) इसलिए हमारे घर बांस की कमी नहीं थी। हमारे पास पड़ोस के लोग भी हमारे घर बांस मांगने आते थे। जब हमारे दादा जी बसूला,बिंधना, बांस, रस्सी लेकर गेड़ी बनाना शुरू करते थे तो हम बस बगल में बैठे बैठे टुकुर टुकुर उनकी ओर देखते रहते थे। इस दौरान उन्हें बीड़ी पीना होता तो वे बोलते-"छोटू जा रे आगी लाबे बीड़ी पीबो।"और मैं दौड़ कर उनके लिए चूल्हे से आग लाता था। अपने गांव और पड़ोस के गांव को मिलाकर मैंने गांव में 10वीं तक की पढ़ाई की थी। अपने सब भाइयों में गांव में सबसे ज्यादा मैं ही रहा हूं। सो बचपन में गेड़ी चढ़ने का लंबा अनुभव मेरे पास ही है। मैंने अपने बचपन में चार पांच फीट से लेकर दस ग्यारह फीट तक ऊंची गेड़ी चढ़ा है। जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई मेरे लिए गेड़ी की ऊंचाई भी बढ़ती गई। उस जमाने में कुछ लोग अपनी गेड़ी के "पउवा" और "डांड़" में जहां  पउवा खपता है के पास बाल और कोयला लगाते थे, इससे उनकी गेड़ी से चर्र चर्र  की बड़ी मधुर आवाज आती थी। जिनकी गेड़ी से चर्र चर्र  की आवाज आए उनके क्या कहने। उनके जलवे होते थे सबकी निगाह उनकी ओर होती थी। दो चार बड़े लड़के जिनके गेड़ियों से चर्र चर्र की आवाज आती थी,जब वे एक साथ गेड़ी पर मंचते हुए चलते थे तो  चर्र चर्र की मधुर आवाज से समां बंध जाता था। मुझे याद नहीं की कभी मेरी गेड़ी से चर्र चर्र की आवाज आई हो। उन दिनों हमारे गांव की गलियों में बहुत कीचड़ हुआ करता था। हमारे घर के सामने घुटने भर कीचड़ होता था। हम गेड़ी पर चढ़कर गली के इधर से उधर कीचड़ को पार करते थे, कीचड़ से तेज पार करने की रेस लगाते थे। कई बार कीचड़ में गेड़ी के गहरे धंस जाने से हम गेड़ी नहीं निकाल पाते थे और मजबूरन कीचड़ में ही उतरना पड़ता था। बाकी साथी खिल्ली उड़ाते हुए खूब जोर जोर से हंसते थे।इस तरह कीचड़ में फंस जाने की घटना अपने साथियों के बीच अपमानजनक होता था। गेड़ी चढ़ने का इतना उत्साह होता था कि सुबह होते ही गेड़ी चढ़ना शुरु कर देते थे। स्कूल में शाम होते-होते छुट्टी की बड़ी बेसब्री से इंतजार करते थे। गेड़ी चढ़ने का सबसे ज्यादा मजा स्कूल से छुट्टी होने के बाद शाम में ही आता था। उस समय मोहल्ले के सारे बच्चे गेड़ी में ही दिखते थे। आज के दिन गांव के सभी घरों में चीला जरूर बनता था। हमारे घर में नूनहा चीला (नमक वाला) गुड़हा चीला (गुड़ वाला)और बरा (बड़ा) भी बनता था। घर में मौजूद सारे कृषि औजारों की हमारे दादा जी पूजा करते थे। नागर (हल) कुदारी (कुदाल) हंसिया,रापा (फावड़ा), गैंती सभी औजार धोकर आंगन में रखे जाते थे । गांव के उम्र में बड़े लोग नारियल फेंक प्रतियोगिता भी करते थे। उन दिनों इस दिन शर्त लगा कर चुनौती पेश करना आम बात थी। हमारा गांव कोई बहुत बड़ा गांव नहीं था उस समय करीब सात आठ सौ जनसंख्या रही होगी। इस दिन गांव में तीन से चार बकरे काटे जाते थे। मैंने बचपन में शायद पहली बार इस दिन ही शराब पीने वालों को देखा होगा। उन दिनों गांव में दाई बहिनी (मां बहन) की गालियां   देना बिल्कुल आम बात थी। हमारा गेड़ी चढ़ने का सिलसिला पूरा एक माह चलता था-हरेली अमावस्या से लेकर पोरा अमावस्या तक। पोरा तिहार के दिन हम लोग तालाब जाते थे और गेड़ी के पउवा को तालाब के पार में गड़ा देते थे। बचपन में हमारे लिए गेड़ी का त्यौहार एक दिन ( केवल हरेली के दिन का) का नहीं होता था अपितु पूरे एक माह का होता था। गांव में बच्चे शायद आज भी गेड़ी चढ़ते होंगे। पर मुझे अपने गेड़ी चढ़ने के वे दिन आज भी याद है, मेरी स्मृतियों में आज भी ताजा बना हुआ है। अब मन मसोसकर रह जाता है, जाने कहां गए वो दिन.........

छीरपानी डैम की यात्रा

23 जुलाई शनिवार को कॉलेज के मित्रों के साथ छीरपानी डैम शैक्षणिक भ्रमण एवं सैर सपाटे के लिए निकले। वैसे काम के दबाव में, काम में व्यस्त बने रहने के इस युग में सैर सपाटे के लिए समय निकालना भी एक चुनौती का काम है।योजना पहले से ही बनी थी। कुछ एक दिन पहले ही न्यूज़पेपर से पढ़ा था कि छीरपानी डैम जिले का सबसे बड़ा डैम है। कवर्धा जिला मुख्यालय से यही कोई 30 किलोमीटर की दूरी पर छीरपानी डैम। पर कवर्धा में 5 साल रहने के बावजूद आज तक मेरा वहां जाना नहीं हुआ। यह पहला ही मौका था वहां जाने का। जब कहीं पहली बार जाओ तो वहां जाने की उत्सुकता ज्यादा होती है। वहां खाने-पीने के इंतजाम की जिम्मेदारी कालेज स्टाफ के रविंद्र भाई को दी गई थी। खाने में वेज नॉन वेज दोनों की व्यवस्था थी। सावन का महीना होने के कारण नॉनवेज खाने वालों की संख्या कम ही थी। महिला स्टाफ में एक को छोड़कर किसी ने नानवेज नहीं खाया। दूसरे दिन रविवार होने के कारण कुछ साथी घर चले गए थे जिनकी कमी महसूस हुई। छीरपानी गेस्ट हाउस इंचार्ज चंद्रवंशी जी से मैंने 2 दिन पहले ही बात करके गेस्ट हाउस बुक कर लिया था। छीरपानी डैम पहुंचने से पहले ही कुछ मित्रों ने बताया कि छीरपानी डैम में मछलियां खूब मिलती है। बारिश के कारण रास्ता काफी खराब था। डैम से पहले तीन-चार किलोमीटर का रास्ता काफी सकरा था। रास्तों में गड्ढे और गड्ढों में कीचड़ और पानी भरे हुए थे क्योंकि कुछ समय पहले ही बारिश हुई थी। जब हम डैम पर पहुंचे तो लबालब पानी से भरा हुआ और चारों ओर पहाड़ियों से घिरा हुआ डैम का नजारा बड़ा ही मनमोहक था। आसमान पर काले घने बादल छाए हुए थे तो पहाड़ियों पर पेड़ों की सघन हरियाली छाई हुई थी। ठंडी ठंडी हवा बह रही थी, हवा के झोंकों से मुझे मुकेश जी का गाना "सावन का महीना पवन करे शोर" की याद ताज़ी हो गई। डैम के सपाट ढलान पर उगी हुई घास हरी चादर सी फैली हुई थी। डैम के ऊपर से दूर-दूर तक आसमान पर छाए धुंध के साथ हरे भरे पेड़ों तथा टेढ़े मेढ़े सर्पीले रास्तों को देखना बड़ा खूबसूरत लग रहा था। पेड़ों और पहाड़ों पर शायद बारिश भी ज्यादा मेहरबान होती है। वहां वहां रुकने के दरमियान कई बार हल्की फुल्की बौछारें होती रही। कभी बारिश की हल्की फुल्की फुहारों में भीगने का आनंद लिए तो कभी उम्र के ख्याल से पेड़ों के नीचे आश्रय लिए। कवर्धा शहर से लगे सरोदा डैम की तरह वहां खाने पीने की चीजें नहीं मिली। खाना खाने के कुछ देर बाद मौसम के अनुरूप हम सबको गरम गरम भुट्टा खाने की इच्छा हुई। आसपास पता भी किए मगर नहीं मिला और हमारी इच्छा रह गई। डैम पर घूमने के दौरान ही हमें दो व्यक्ति मिले, दोनों भारतीय वेशभूषा (जिसे आज देसी वेशभूषा या देहाती वेशभूषा कहे जाते हैं)में थे वे नीचे धोती पहने हुए थे और उनके  सिर पर पगड़ी सजी हुई थी। मैंने उसमें से एक के कंधे पर हाथ रखा और हम सभी ने उनके साथ फोटो खिंचवाए। मैंने जब उनसे बात किया तो उनके मुंह से बिड़ी पीने की बू आ रही थी। मैंने उनसे मजाक में बीड़ी मांगा तो वे मुस्कुराए और चले गए।हम सभी खूब मस्ती किए खूब फोटोग्राफी किए। हम सभी ने एक साधारण शनिवार को शानदार शनिवार बना लिया।

और कितना गिरोगे लल्ला ! व्यंग्य

और कितना गिरोगे लल्ला !                         व्यंग्य
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गिरने और गिराने की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। कोई गिराने से गिरता है तो कोई खुद से ही गिर जाता है। खुद से गिरने वालों में आत्म संयम और आत्मनिर्भरता बिल्कुल भी नहीं होती है। गिराने की प्रक्रिया गहरी साजिश के तहत होती है। जिसे गिराना चाहते हैं उसकी सत्ता उसकी धमक गिराने वालों की आंखों में हमेशा खटकती रहती है। गिराने की सोच डरपोक लोगों की उपज होती है। अब आत्मबल वालों को धनबल और बाहुबल के सहारे  गिरा दिया जाता है। राजनीति में 'गिरना' और 'गिराना' दोनों आम बात हो गई है। यहां गिरना और गिराना शर्म की बात नहीं बल्कि गर्व की बात मानी जाती है। कोई पैसे के लिए गिरता है तो कोई सत्ता के लिए गिरता है। लालच ही वह कारण है जिसके लिए व्यक्ति बार-बार गिरता है। ऐसे लोगों को लोगों की नजरों में गिरना मंजूर है मगर लालच से कंप्रोमाइज मंजूर नहीं है। परिष्कृत भाषा में 'गिरने' का अर्थ 'अवमूल्यन होना' तथा 'गिराने' का अर्थ 'अवमूल्यन करना' होता है। पिछले कुछ वर्षों से रुपए का मूल्य बड़ी तेजी से गिरते जा रहा है। पता चला है कि अब एक डालर की कीमत अस्सी रुपए के पार हो गया है। डॉलर के मुकाबले रुपए का मूल्य लगातार गिरते जा रहा है। गिरना या अवमूल्यन होना चाहे रुपए का हो चाहे चरित्र का हो चाहे राजनीति का हो चाहे शिक्षा का हो चाहे व्यक्ति का हो या चाहे समाज का हो बेहद ही चिंताजनक बात होती है।   
                     हम तो हिंदी के सामान्य विद्यार्थी रहे हैं सो 'गिरना' शब्द केवल मुहावरों में ही पढ़े और सुने हैं। मसलन कोई आदमी गलत काम करता है तो वह लोगों की नजरों से गिर जाता है। कभी किसी के जीवन में आसमान गिर जाता है। चमचा खुशामद के लिए चरणों में गिर जाता है। तेज गर्मी में बारिश हो जाए तो पारा गिर जाता है। शेयर मार्केट में कभी-कभी शेयर औंधे मुंह गिर जाता है। हंसते खेलते परिवार में गाज गिर जाता है। दिल दुखाने वाला दुखी व्यक्ति के दिल से गिर जाता है। अब तो हमारे देश की जनसंख्या इतनी बढ़ गई है कि आदमी आदमी के ऊपर गिर रहा है। चरित्रहीन व्यक्ति किसी चरित्रवान के जीवन में दूध में मक्खी की तरह गिर जाता है। मगर रुपए का गिरना हम जैसे साहित्य के विद्यार्थियों के लिए अनबूझ पहेली है।
                        जब चारों तरफ गिरने का दौर चल रहा है ऐसे में निगोड़ी महंगाई को शर्म नहीं आती बड़ी बेशर्मी से सर उठाकर चल रही है। आखिर यह महंगाई कभी गिरती क्यों नहीं ? वैसे भी रुपए का मूल्य गिरे या फिर महंगाई सिर चढ़के बोले इससे पैसे वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता। पैसे वालों का साफ कहना है कि तुम एक डालर का अस्सी लो या सौ हम देने को तैयार हैं। खटाखट नोट गिनना उनकी शान और पहचान है। अब तो महंगाई पर हाय तौबा मचाना भी लोगों ने छोड़ दिया है। बेरोजगारी पर रोते-रोते नौजवानों के आंसू पहले ही सूख चुके हैं। अब जनता विपरीत हालात में मुस्कुराना सीख गई है। जनता समझदार हो गई है, उसने गरीबी बेरोजगारी और महंगाई जैसे छोटे-छोटे मुद्दों पर शोर मचाना हो हल्ला करना छोड़ दिया है। देश की जनता धार्मिक और आध्यात्मिक हो गई है। वे भौतिकवादी सोच से ऊपर उठ चुकी हैं । उनका मानना है कि इस नश्वर संसार में गरीबी बेरोजगारी महंगाई डॉलर रुपया जैसे नश्वर बातों पर सोचना तुच्छ मानव का काम है।
                       हमारे देश में क्रिकेट को पसंद करने वाले लोगों की संख्या बहुत है। क्रिकेट में सेंचुरी का बड़ा महत्व है। जब बैट्समैन अस्सी नब्बे में खेल रहा होता है तो हमारी उम्मीद सेंचुरी के लिए बढ़ जाती है। एक अच्छे बैट्समैन की तरह पेट्रोल ने पहले ही शानदार स्ट्राइक रेट के साथ सेंचुरी लगा दिया है। एक कहावत प्रचलित है कि खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलने लगता है। ठीक इसी तरह पेट्रोल को सेंचुरी मारते देख रुपया भी अपना स्ट्राइक रेट बढ़ा दिया है। जिस स्ट्राइक रेट से रुपया खेलते हुए आगे बढ़ रहा है उम्मीद है जल्दी ही अपना सेंचुरी पूरा कर लेगा। जब दुनिया वाले रिकॉर्ड बनाने के होड़ में लगे हुए हैं फिर रुपया रिकॉर्ड बनाने के होड़ से भला पीछे क्यों रहे ? रिकॉर्ड बनाने के लालची रुपया नए नए रिकॉर्ड बनाकर सुर्खियों में बना रहना चाहता है। रुपये को लुढ़कने से बचाने के लिए आरबीआई एड़ी चोटी एक कर रहा है फिर भी उसकी सारी कोशिशें नाकाम हो रही है।
                         विश्लेषकों का मानना है कि किसी भी देश की मुद्रा का मूल्य गिरने की प्रमुख वजह वहां की सियासी हालात पर निर्भर करती है। इसका साफ मतलब है की जहां का राजनीतिक हालात बीमार हो वहां का आर्थिक हालात भला कैसे स्वस्थ हो सकता है। जिस देश की राजनीति का स्तर जितना गिरता है उतना ही रुपए का स्तर भी गिरते जाता है। सरकार में नहीं रहने पर जो कभी रुपये के गिरने को सरकार की नाकामी बताते थे वही अब सरकार में आने के बाद चुप्पी साध लिए हैं। रुपए गिरने के तमाम वजह गिनाने लगे हैं।अब आपको रुपए गिरने के तमाम वजहों में सरकार की नाकामी की वजह बिल्कुल नहीं दिखाई देगी। सरकार कोई भी रहे किसी का रहे  पर रुपए का गिरना लगातार जारी है। राजनीति वाले एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में व्यस्त हैं। इधर कीचड़ में फंसा रुपया बाबू फिसल फिसल कर और नीचे गिरता जा रहा है। मगर उसे संभालने वाला उठाने वाला कोई नहीं है। कोई उसकी ओर ध्यान ही नहीं दे रहा है।
                    जब पूरा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है ऐसे में भला रुपया पीछे क्यों रहे। वह भी नई ऊंचाई पर पहुंच कर अपना अमृत महोत्सव मना रहा है। अब आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया वाली कहावत बदलनी पड़ेगी। नई पीढ़ी के लोग अठन्नी के बारे में कुछ जानते भी नहीं। इसलिए कहावत बदलकर कहना पड़ेगा "आमदनी रुपैया और खर्चा डालरिया" ।
                     रुपए की कीमत गिरने पर शोर मचाने वालों से कहना चाहता हूं कि आप गांधीजी का जंतर पढ़ें, आपका गुस्सा और हीन भावना दोनों कम होगी। भले सयाने कह गए हैं कि जब भी हम अपने हालात से असंतुष्ट हो, हमें लगे कि हम बहुत नीचे गिर चुके हैं ऐसे में अपने से नीचे के लोगों को देखना चाहिए। जब जब हम अपनी हैसियत से ऊपर के लोगों को देखते हैं तो उनकी सुख समृद्धि उनकी उपलब्धि उनका ऐश्वर्य हमें कष्ट पहुंचाता है। इसीलिए हमें रुपए की तुलना दिनार लात पाउंड यूरो और डॉलर से कभी नहीं करना चाहिए।
इन मुद्राओं से तुलना करने पर हमारा प्यारा रुपया शर्मसार होने लगता है। वह गहरे अवसाद में चला जाता है। उसे अपने वजूद की चिंता सताने लगती है। इसलिए मैं बार-बार कहता हूं की आप अपने रुपए को हंसता खेलता देखना चाहते हैं तो उसकी तुलना गलती से भी कभी उन मुद्राओं से ना करें जिससे हमारा रुपया इंफिरियारिटी कॉम्प्लेक्स से भर जाता है। अगर तुलना  करनी है तो इंडोनेशियन रूपए से करो वियतनामी डोग से करो कंबोडियन रियाल से करो श्रीलंकाई और नेपाली रुपया से करो हंगेरियन फॉरिंट से करो पैरागुवान गुआरानी से करो चिली पेसो से करो कोरियाई वांन से करो फिर देखना आपके रुपए की छाती कितनी चौड़ी होती है। रुपया हमारा प्यारा लल्ला है उसकी तुलना डालर से करके क्यों रुलाते हो ? हमारा लल्ला लूला हो लंगड़ा हो कितना भी कमजोर क्यों ना हो हम तो उसे प्यार ही करेंगे न। रुपए की आलोचना करने वाले दुश्मन होते है जो कालिख पोतने का काम करते हैं। हम तो रुपये को अपना जिगर का टुकड़ा मानते हैं अपना लल्ला मानते हैं। हम हमेशा उसे अपने सीने से लगाकर रखते हैं। रोज सुबह उसके माथे पर काला टीका लगाकर रखते हैं की कहीं हमारे प्यारे लल्ले को किसी की बुरी नजर ना लगे। लेकिन हमारा लल्ला बड़ा कच्चे छांव का है उसे डालर की बुरी नजर लग ही जाती है। हम लाल मिर्च और नमक से अपने लल्ले का नजर बार-बार उतारते हैं लेकिन हमारा लल्ला इतना कमजोर हो गया है कि उसे बार-बार नजर लग ही जाती है। हमारा लल्ला इतना लड़खड़ाने लगा है कि चलते चलते कई बार गिर जाता है। लल्ला के बार-बार गिरने से लोग उसकी ओर संदेह की नजर से देखने लगे हैं। लोगों को शक होने लगा है कि कहीं लल्ला को पोलियो तो नहीं हो गया है। कुछ लोगों का कहना है कि लल्ले की रीड की हड्डी कमजोर हो गई है। नहीं नहीं हमारे लल्ले को चलने के लिए बैसाखी का सहारा लेना पड़े हम वो दिन नहीं देख सकते। हम सबको हमारे लल्ले के उत्तम स्वास्थ्य के लिए यज्ञ हवन पूजन करना चाहिए। लल्ला तुम्हारे लिए हमारी यही कामना है कि तुम और ना गिरो तुम मजबूती से बुलंद इरादे के साथ खड़े हो जाओ। तुम इतना मजबूत और इतना ताकतवर बनो कि डॉलर तुम्हारे सामने बौना नजर आने लगे। लल्ला तुम खूब आगे बढ़ो खूब नाम कमाओ हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। पूरे देश को तुम्हारे मजबूत कंधों की जरूरत है। तुम ही तो देश के वर्तमान और भविष्य हो। तुम ही पर पूरे देश की उम्मीदें टिकी है। लल्ला तुम और गिरकर हमारा भरोसा मत तोड़ना।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

पीड़ा की नदी -14.07.22

पीड़ा की नदी -14.07.22
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उसके जीवन में पीड़ा नदी-सी बह रही थी
कई बार अलग-अलग लोगों ने
पीड़ा की उस नदी को बांधने की कोशिश की
मगर पीड़ा के तेज प्रवाह में
उसे बांधने वाले बह गए सारे लोग
उसकी अजस्र पीड़ा कभी बांधी नहीं गई
अब भी अबाध है उसके जीवन में पीड़ा की नदी।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

अनजान लोग -13.07.22

9. अनजान लोग -13.07.22
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कितने अच्छे होते हैं अनजान लोग
उनको हमसे कोई अपेक्षा नहीं होती
हमें भी उनसे कोई अपेक्षा नहीं होती

हम गलत करते हैं
कि अनजानों से हमेशा डरे डरे रहते हैं
हर बार अनजान लोग गलत नहीं होते
फिर भी प्रायः अनजानो से दया करने में कतराते हैं

हमारे दिल दुखाने वाले  प्रायः जान पहचान के होते हैं
हमें धोखा देने वाले भी प्रायः जान पहचान के होते हैं
जान पहचान वाले आपसे जलते हैं
जान पहचान वाले आपसे वादा खिलाफी करते हैं
जान पहचान वाले आपके पीठ पीछे गंदे खेल खेलते हैं

मैं उन सारे अनजानो के प्रति आभारी हूं
जो मेरे जीवन में कभी दखलंदाजी नहीं करते हैं
वे कभी झूठी सांत्वना देने नहीं आते
वे कभी बेवजह मेरी प्रशंसा नहीं करते
वे कभी मेरे रास्ते के रोड़े नहीं बनते हैं
वे कभी मेरे लिए झूठी मुस्कान नहीं बिखरते
वे कभी मुझसे प्यार और नफरत नहीं करते

समाचार पत्र में छपी खबरें  प्रायः झूठ होती हैं 
कि किसी अज्ञात व्यक्ति के द्वारा चोरी या बलात्कार की गई
जांच से पता चलता है
चोर और बलात्कारी हमारे जान पहचान के होते हैं
इसीलिए मैंने अब अंजानों से डरना छोड़ दिया है
और जान पहचान वालों से संभलना शुरू कर दिया है

ऐसा नहीं की मुझे अपनों से प्यार नहीं
अपनों पर विश्वास नहीं
मगर मुझे अपनों से खाए धोखे का इतिहास पल पल डराते रहता है
अपने तो अपने होते हैं यह कहना हमेशा ठीक नहीं होता
जीवन में ऐसे कई मोड़ आते हैं जब अनजान अपने हो जाते हैं
अनजान कम से कम अपने होने का दिखावा नहीं करते
अनजान लोगों द्वारा छले जाने पर हमें दुख नहीं होता।

---नरेंद्र कुमार कुलमित्र
      9755852479

भीड़तंत्र -- 'भीड़तंत्र' में बदलते 'लोकतंत्र' की कहानियां

भीड़तंत्र -- 'भीड़तंत्र' में बदलते 'लोकतंत्र' की कहानियां
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मशहूर साहित्यकार विशेष रुप से कहानीकार एवं नाटककार श्री असगर वजाहत जी का कहानी संग्रह 'भीड़तंत्र 'जिसे मैंने रायपुर में आयोजित पुस्तक मेला में फरवरी 2020 में खरीदा था। मार्च-अप्रैल 2020 में जब देश में देशव्यापी लॉकडाउन का सिलसिला शुरू हुआ तब पुस्तक मेला में खरीदे पुस्तकों को पढ़ना शुरू किया। जब अगस्त 2020 में इस पुस्तक को पढ़ने के लिए अपने हाथ में लिया तो सबसे ज्यादा प्रभावित किया इस पुस्तक के कवर पृष्ठ पर छपे भीड़तंत्र की आकर्षक तस्वीर। यह पुस्तक 30 लघु कथाओं का संग्रह है। इस पुस्तक मैं अगस्त 2020 में ही पढ़ चुका था। पुस्तक पढ़ने के दौरान ही पुस्तक की प्रत्येक कहानियों पर अपनी टिप्पणियां लिखते जा रहा था। सोचा था पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद पुस्तक पर अपनी समीक्षकीय की विचार लिखूं। मगर पुस्तक पूरी पढ़ने के बाद लगभग दो साल तक अपनी सोच को अंजाम नहीं दे सका था। नोटबुक में लिखें इस किताब की टिप्पणियों को देखने के बाद फिर से इसे पूरा लिखने का विचार मन में आया। किताब एक बार फिर पढ़ना शुरू किया। दूसरी बार पढ़ने में ज्यादा मजा आ रहा था। असगर वजाहत जी हिंदी के मजे हुए साहित्यकारों में से हैं। साठ के दशक के शीर्षस्थ कहानीकारों एवं नाटककारों में इनका नाम गिना जाता है। आप कहानी और नाटक के अलावा उपन्यास,यात्रावृतांत, फिल्म पटकथा, समीक्षा और चित्र कला के क्षेत्र में अपनी रचनात्मक योगदान देते रहे हैं। आप के प्रमुख कहानी संग्रहों में 'अंधेरे से'(1977), दिल्ली पहुंचना है (1983), स्विमिंग पूल (1990), सब कहां कुछ (1991), मैं हिंदू हूं (2006), मुश्किल काम (2010), भीड़तंत्र (2018) आदि हैं। आपने कुल आठ नाटक लिखे हैं जिनमें फिरंगी लौट आए, इन्ना की आवाज, वीरगति,समिधा, जिस लाहौर नहीं देख्या ओ जम्याई नई, अकी, गोडसे@गांधी.कॉम, पॉकेटमार रंगमंडल आदि हैं। 'सबसे सस्ता गोश्त' आपके द्वारा लिखे 14 नुक्कड़ नाटकों का एक संग्रह है।सात आसमान, पहर दोपहर, कैसी आगी लगाई, बरखा रचाई, धरा अंकुआई आदि आपके उपन्यास हैं। आपके चार यात्रावृतांत किताबें प्रकाशित है जिनमें चलते तो अच्छा था, पाकिस्तान का मतलब क्या, रास्ते की तलाश में, दो कदम पीछे भी आदि है।1
                       असगर वजाहत जी लंबे अरसे तक जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहे। आपको हिंदी अकादमी द्वारा श्रेष्ठ नाटककार का सम्मान, आचार्य निरंजन नाथ सम्मान, रंगमंच और नाट्य लेखन के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, दिल्ली हिंदी अकादमी का सर्वोच्च शलाका सम्मान प्रदान किया जा चुका है।
                          भीड़तंत्र कहानी संग्रह का प्रकाशन 2018 में हुआ था। इस पुस्तक की भूमिका में लेखक लिखते हैं कि कहानी संग्रह की अधिकतर कहानियां पिछले दो सालों में लिखी गई है यानी पूरी कहानियां 2016 से 2017 के बीच लिखी गई हैं।
         इस कहानी संग्रह में संकलित कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है यह है कि सारी कहानियां पारंपरिक कहानियों की रचनात्मकता से बिल्कुल भिन्न है। कहानी शब्द सुनते ही सबसे पहले हमारे मन में कहानी की कथावस्तु,उसके पात्रों और रोचक संवादों के होने की बात आती है। लेखक भूमिका में लिखते हैं कि वे अब परंपरावादी कहानियां लिखना छोड़ दिए हैं। उनके अनुसार "अब मुझे परंपरावादी ढंग से कहानियां लिखने में कोई रुचि नहीं रह गई है। मतलब यह कि कहानी में परिवेश हो,पात्रों का विकास हो,संवाद हो कहानी की शुरुआत हो और कहानी का अंत हो आदि आदि बातों में अब मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए अब मेरी कहानियां यूरोपीय कहानी के ढांचे से अलग हो चुकी है।"2
                     इस पुस्तक में संकलित कहानियों की संरचना पर अपनी बातें और स्पष्ट करते हुए लिखते हैं -"बहुत से पाठक और आलोचक इन कहानियों को कहानी ही नहीं मानेंगे। वे सीधा-सीधा कह सकते हैं कि इनमें तो ना कोई कथानक है और ना कोई पात्र है। इनमें कुछ ऐसी वैचारिकता है जो कहानियों में नहीं होती, आदि आदि। मैं उन आलोचकों की राय का सम्मान करता हूं, क्योंकि वे कहानी की परंपरागत स्थिर परिभाषा को ही मान रहे हैं, जबकि मेरी परिभाषा काफी अलग है। मैं यह मानता हूं कि कोई भी रचनात्मक अभिव्यक्ति कहानी हो सकती हैं एक वाक्य या दो वाक्यों में भी कहानी लिखी जा सकती है ।कहानी के लिए प्लाट की कोई आवश्यकता नहीं है।3
                         भीड़ तंत्र की कहानियों में बदली हुई परिस्थितियों तथा सांप्रदायिक झगड़ों की गूंज सुनाई पड़ती है। भूमिका में वजाहत जी लिखते हैं " यह समझने की बात है कि किस तरह सीधे साधे सरल लोगों को हिंसक बना दिया जाता है। प्रतिशोध की भावना उनके अंदर इस प्रकार भर दी जाती है कि कोई तर्क उनकी समझ में नहीं आता। हर तर्क के उत्तर में हिंसा का रास्ता अपनाते हैं। हमको लगता है की हिंसा से ही सही फैसले हो सकते हैं, जबकि यह नितांत गलत है। हिंसा से कोई फैसला और न्याय नहीं हो सकता है।"4
                    इस कहानी संग्रह की पहली कहानी है 'भगदड़ में मौत'। इस कहानी में भगदड़ के बाद मौत हो जाने वाले लोगों के प्रति प्रशासन की खानापूर्ति एवं शासन की राजनीतिक ड्रामेबाजी का चित्रण हुआ है। भगदड़ में मरने वालों को सरकार द्वारा 50 50 लाख मिलने के समाचार पर परिवार के लोग अपने घर के बड़े बूढ़ों को कोसते हैं कि आखिर ये क्यों नहीं तीर्थ गए? गए होते तो शायद भगदड़ में मारे जाते और हमें भी 50 लाख मिल जाता।आप संकट में हैं तो आपको मदद करने वाला कोई भी आपके पास नहीं आएगा लेकिन शाब्दिक सांत्वना देने वालों की कमी नहीं होगी। भगदड़ के बाद जिले के डीएम को ट्रांसफर कर दिया जाता है जो कि हर हादसे के बाद कार्यवाही के नाम पर रिवाज सा बन गया है। कहानी का अंत बड़ा प्रभावोत्पादक है जिसमें लावारिस औरत की लाश को कई लोग मेरी माता है कहकर हक जमाना चाहते हैं ताकि उस लाश के एवज में सरकारी मदद उन्हें मिल सके। तभी अंधेरे से कोई चिल्लाता है कि कहीं यह भारत माता तो नहीं है।
              ' किरच किरच लड़की'इस कहानी संग्रह की दूसरी कहानी है। यह कहानी लता (प्रेमिका) और राहुल (प्रेमी)की कहानी है। दोनों उत्तर प्रदेश इलाहाबाद और लखनऊ शहर से दिल्ली रोजगार के लिए आते हैं। बेरोजगारी के कारण दोनों का प्रेम सफल नहीं हो पाता। लता एक शोरूम में डमी मॉडल बनने का काम करती है। धीरे-धीरे लता एक सचमुच की डमी मॉडल की तरह राहुल से बात करना,देखकर मुस्कुराना और अंत में सांस लेना भी बंद कर देती है। बेरोजगारी के इस दंश से लाखों-करोड़ों लोग पीड़ित हैं। लोग सपने देखते हैं पर साकार नहीं कर पाते। बेरोजगारी में प्रेम का जो अंजाम होना चाहिए वही इस कहानी में होता है।
लेखक की तीसरी कहानी है 'ताजमहल की बुनियाद' इस कहानी के माध्यम से बताया गया है कि लोकतंत्र चाहे आज हो या फिर हजारों वर्ष पहले का शासक वर्ग के ऐश्वर्य के लिए गरीब किसानों एवं मजदूरों को हमेशा बलिदान देना पड़ता है। ताजमहल की खूबसूरती के पीछे अनगिनत मेहनतकश लोगों का खून पसीना मिला हुआ है।
                         कहानी संग्रह की चौथी कहानी 'लेकिन कुछ है' कहानी के माध्यम से राजधानी के लगातार विस्तार होने एवं गांवों के नष्ट होने पर चिंता व्यक्त की गई है। राजधानी अपने विकास और विस्तार के जद में उन इलाकों को हड़प ली है जहां पहले अनाज उगाया जाता था। नगर के विकास के लिए बने 'महानगर विकास प्राधिकरण' महानगर विनाश प्राधिकरण बनकर रह गया है। कहानी के केंद्र में शहर के बीचोंबीच स्थित 'चांदमारी की दीवार' है। नगर के विकास के लिए राजधानी अपने पांव दूरदराज गांवों 
-खेतों तक पसार रहा है लेकिन बीचो-बीच बने उस चांदमारी की दीवार को ऐतिहासिक मानकर नहीं तोड़ पाता है। शहर के विकास और आवागमन में रोड़े की तरह खड़ी उस दीवार को राष्ट्रीय स्मारक माना जाता है। इस कहानी में सरकारी कार्यालयों में किसी कार्य के लिए होने वाली स्वभाविक देरी पर भी तीखा व्यंग किया गया है। हम सब जानते हैं कि सरकारी दफ्तरों में काम के नाम पर फाइलें एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस चलती रहती है मगर काम जस का तस रह जाता है।
                           'देश के ऊपर बना पुल, कहानी स्वच्छता अभियान से पूर्व लिखी गई होगी तो कोई बात नहीं। तब तो 'हिंदुस्तान' को कुड़ीस्थान कहना वाजीब ही था। स्वच्छता अभियान के बाद हमारा देश कितना साफ़ सुथरा हुआ है यह भी हम भली भांति देख सकते हैं। कम से कम सफाई के आंकड़े तो पहले से बेहतर ही हैं। इस अभियान से जनता इतना जागरूक तो जरूर हुए हैं कि वे खुलेआम गंदगी करने से अब डरने लगे हैं। इस कहानी में आस्था और विश्वास के नाम पर पवित्र नदियों में सड़े गले फूलों, पॉलीथिन आदि फेंक कर अपवित्र कर देने की घटना पर ध्यानाकर्षित किया गया है। किसी भी धार्मिक व सभ्य देश के लिए निश्चित तौर से यह शर्म की बात है की पुल के ऊपर से जहां नदियों में कचरे फेंके जाते हैं वहीं पर बड़े-बड़े बोर्ड लगे हुए हैं जिन पर पर्यावरण को बचाने की अपील की गई है। नदियों को गंदा ना करें इसलिए पर्यावरण रक्षा हेतु सुरक्षा गार्ड भी तैनात होते हैं पर वे आस्था की ही रक्षा करते देखे जाते हैं। सरकार के लिए यह विडंबना की बात है कि वह नदी को साफ रखना चाहती है क्योंकि आस्था से जुड़ी हुई है मगर सफाई अभियान में वही आस्था आड़े आने लगती है। यदि आस्था रुकेगी तो नदी साफ होगी मगर समस्या यह है आस्था रोकने से जनता नाराज हो जाएगी। इस देश में अजीब रिवाज है किसी को गंदगी करने से मना करो तो वह झट से बोल उठता है क्या यह जगह तुम्हारे बाप का है? ऐसे में हिंदुस्तान के बजाय कूड़ीस्थान कहां जाना बिल्कुल सही लगता है।
              "लड़की के अब्दुल शकूर की हंसी" इस छोटी सी कहानी का मुख्य पात्र अब्दुल शकूर है। अब्दुल शकूर का चरित्र विरोधात्मक है। जब उसे शारीरिक और मानसिक यंत्रणा दी जाती है तो वह प्रतिक्रिया स्वरूप जोर जोर से हंसता है। हम उनकी हरकतों से उसे विक्षिप्त कह सकते हैं। पर वास्तव में धार्मिक संकीर्णता के कारण शिकार हुए वह एक पीड़ित व्यक्ति है। उसे अपनी पीड़ा व्यक्त करने की स्वतंत्रता भी नहीं दी गई है। वह किसी भी सवालों के जवाब में जो भी बोलता है उसकी विवशता का ही परिणाम होता है। अब्दुल शकूर व्यवस्था से पीड़ित होता है पर व्यवस्था से सुविधाएं नहीं मिलती। वह अनपढ़ है बीमार है बेरोजगार है। तमाम यंत्रणाओं को झेलते हुए भी अब्दुल शकूर हंसता है क्योंकि वह लकड़ी का बना है। उसके भीतर जैसे संवेदना ही नहीं है। यदि है भी तो उसका कोई अर्थ नहीं है क्योंकि उसकी संवेदनाओं को समझने वाला भी कोई नहीं है। अब्दुल शकूर को यह स्वीकार करने के लिए विवश किया जाता है कि वह देशद्रोही है। आखिरकार अपने विशेष धार्मिक पहचान के कारण जीवन भर उपेक्षित और पीड़ित रहने वाला अब्दुल शकूर अपने भीतर अपार पीड़ा लिए हुए इस दुनिया से कूच कर जाता है। लेकिन उसके पोस्टमार्टम रिपोर्ट में यह दिखाया जाता है कि मरने से पहले वह हंस रहा था यानी जीते जी अपनी जिंदगी से बहुत खुश था अब्दुल शकूर।
                          "नए ईसा मसीह" कहानी हिंदी के वरिष्ठ कवि व्यंगकार और पत्रकार विष्णु नागर जी को समर्पित है। इस कहानी में नए और पुराने ईसा मसीह के माध्यम से उनके मसीही अंदाज में आए बदलाव को दिखाया गया हैं । नए ईसा मसीह का जनसेवा और समाज सेवा का अंदाज पुराने ईसा मसीह से बिल्कुल अलहदा है। नए ईसा मसीह सिवाय खुद के किसी दूसरे को जनसेवक मानने को तैयार ही नहीं होता। नए ईसा मसीह बाहुबल और धनबल के आधार पर स्वयंभू जनसेवक बन गया है। उसे पुराने ईसा मसीह की अहिंसा वादी प्रवृत्ति रास नहीं आता। वह अपने जन सेवा में हिंसा को भी स्थान देता है। वह अपनी ताकत के दम पर जनता से खुद को सच्चा ईसा मसीह कहलवा लेता है  । कहानी के अंत में लेखक ने यह सदिच्छा जाहिर की है कि पुराने ईसा मसीह कभी नहीं मरते यानी सच्चाई हमेशा जीवित रहती है   ।
              "शिक्षा के नुकसान" कहानी में शिक्षा को नुकसानदेह बताते हुए शिक्षा विरोधियों पर तीखा व्यंग किया गया है। कहानी में बुकरात नाम का एक पात्र है जो कि सुकरात का छोटा भाई है वही कहानी का सूत्रधार है । वह पांच छोटी-छोटी लघु कथाओं को सुनाकर लोगों को शिक्षा की हानि बताने का प्रयास करता है। दरअसल इस कहानी के माध्यम से उन विडंबना पूर्ण स्थितियों की ओर संकेत किया गया है जब कोई शिक्षित और ज्ञानवान व्यक्ति व्यवस्था के खिलाफ कोई प्रश्न उठाता है तब उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है। इतिहास बताता है कि हमेशा से शासक वर्ग द्वारा जन जन की भावनाओं को आवाज देने वाले लेखकों कवियों और पत्रकारों को षडयंत्र पूर्वक खामोश कर दिया जाता है। दुष्यंत कुमार जी ने अपने ग़ज़ल के शेर में इसी बात की ओर संकेत किए हैं--
"तेरा निजाम है सील दे जुबान शायर का।
यह एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।"
लोग जितना अनपढ़ अज्ञानी और मूर्ख रहे उतनी ही सत्ता निर्बाध रूप से चलती है। सत्ताधीश कतई नहीं चाहते कि लोग पढ़े लिखे समझदार बने और उनके खिलाफ कोई सवाल उठाएं। शिक्षित और विद्वान होने का एक ही अंजाम है और वह है मौत।
                "तीन तलाक" के मुद्दे पर कुछ लोग ऐसे थे जो महज विरोध के लिए विरोध किए जा रहे थे। यदि तीन तलाक बुरा है तो क्यों है? इसके लिए उनके पास कोई तार्किक दृष्टिकोण नहीं थे। ऐसे लोगों का मकसद मुस्लिम समुदाय से मुस्लिम महिलाओं को तोड़कर समर्थन जुटाना और अपना वोट बैंक बढ़ाना ही था।
                "बीज और जमीन" कहानी में खुशहाली देने के नाम पर जनता के साथ होने वाले धोखे का चित्रण है। अवसर वादियों द्वारा पहले सब्जबाग दिखाए जाते हैं फिर मुकर जाते हैं।
                      "दुश्मन दोस्त" इस कहानी के माध्यम से पता चलता है कि दो पक्के दोस्त, दो पक्के दुश्मन हो सकते हैं। यह सच है कि हम अपने बारे में कई बातें स्वयं नहीं जानते लेकिन हमारे दोस्त या दुश्मन हमारे बारे में हमसे ज्यादा जानते हैं। ऐसे में वक्त आने पर दुश्मन से ज्यादा  खतरनाक दोस्त हो सकते हैं।
                    "देशहित" इस कहानी में तथाकथित देशभक्तों व देशप्रेमियों पर तीखा व्यंग किया गया है। जब कोई व्यक्ति स्वयं को देशभक्त कहता है तो उनसे सवाल पूछा जाता है कि आप देशभक्ति और देश प्रेम के लिए क्या करते हैं? तो तथाकथित देश भक्त इस प्रश्न से भौचक रह जाता है और उल्टे प्रश्न के जवाब में प्रति प्रश्न करता है कि "क्या देशभक्त और देश प्रेमी होने के लिए कुछ करना भी पड़ता है?"इस कहानी में छोटे-छोटे दृष्टांतों के माध्यम से तथाकथित देशभक्तों एवं उनकी देशभक्ति की पोल खोली गई है। लेखक कहानी में एक जगह कल के देशभक्त और आज के देशभक्त के अंतर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि-"पहले देशभक्त जनता से कहते थे तुम हमें खून दो हम तुम्हें आजादी देंगे।"मगर आज के देश भक्त कहते हैं-" तुम हमें वोट दो हम तुम्हें साड़ियां देंगे लैपटॉप देंगे साइकिले देंगे पैसा देंगे।"आज परिवेश इतना बदल गया है कि जोर जोर से चिल्ला कर अपने आपको देशभक्त साबित करना पड़ता है। अब स्थिति ऐसी आ गई है कि तुम्हारे चीखकर कहने से कि तुम देशभक्त हो, किसी के कान नहीं फटे तो तुम देश भक्त कहलाने के पात्र नहीं हो। कहानी के अंत के दृष्टांत में व्यंग अत्यंत तीखा है। कहानी का अंश इस प्रकार से है-"देश प्रेमी ने एक दलित से पूछा-" तुम देश से प्रेम करते हो? दलित ने कहा-" मैं तुम्हें मंदिर के अंदर आकर इस सवाल का जवाब दे सकता हूं।"देश प्रेमी ने कहा,-" मुझे उत्तर मिल गया है, तुम देश से प्रेम नहीं करते हो।"
              अगली कहानी "नायक की कॉमेडी" है, इस कहानी के माध्यम से एक तानाशाह के निरंकुश शासन का बड़ा सुंदर चित्रण किया गया है। वह अपने आपको एक ऐसा नायक मानता है जो पूरे देश की अगुवाई केवल वही कर सकता है। यद्यपि वह भी भीतर से खालिस नंगा है पर जनता में इतनी हिम्मत कहां कि वे नंगे को नंगा कर सके। वे भली-भांति जानती हैं की नंगे को नंगा कहना कितना खतरनाक हो सकता है। सच भी है जब नंगे से खुदा हार जाता है फिर आम लोगों की क्या बिसात है। तानाशाह नायक को ऐसी खुशफहमी है कि वह स्वयं को संसार का सबसे बड़ा विद्वान विचारक, शक्तिशाली और अर्थशास्त्र का ज्ञाता मान बैठा है। उसे जनता को बहलाने के सारे तौर तरीके ज्ञात है। उसके पास न्याय,प्रेम,बराबरी,भाईचारा ,त्याग,बलिदान,अहिंसा, एकता जैसे शब्दों से खेलने की पैतरे भी है। यूं तो उनमें  हैं असंख्य गुण पर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है- लोगों से जो भी वह कहता है लोग उसे सच मान लेते हैं। वह सच को झूठ और झूठ को सच कर देने की कला में पारंगत है। वह ऐसा शातिर दिमाग वाला है,ऐसा माहिर खिलाड़ी है कि वह जो चाल चलता है,जो चाहता है वही होता है। वह चाल चलने में शकुनि का भी मामा प्रतीत होता है।
                   अगली कहानी दूसरी मिस्टेक है, यह कहानी मंटो की प्रसिद्ध कहानी मिस्टेक का रीमेक कहा जा सकता है। कहानी में दंगों के दौरान एक धर्म वाला व्यक्ति दूसरे की हत्या कर देता है। पर बाद में पता चलता है कि जिसकी हत्या हुई है और जो हत्यारा है दोनों एक ही धर्म के हैं। इस पर हत्यारा खेद व्यक्त करते हुए मिस्टेक हो गई कहता है। धार्मिकों द्वारा ईश्वर से गुजारिश की जाती है कि जब बच्चा पैदा हो तभी उसके साथ धर्म की पहचान हो ताकि हम गैर धर्म वालों को आसानी से पहचान कर मार सकें। इस तरह तथाकथित धार्मिकों की मानसिकता पर जोरदार व्यंग किया गया है।
                  "दलित के द्वारे" इस कहानी में बताया गया है कि राजनीतिक महकमों में तथाकथित राजनेता अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए दलितों का उपयोग करते हैं। दलितों के प्रति उनके मन में अचानक से उमड़ी दया, करुणा और प्रेम महज वोट पाने की चाहत की उपज होती है । दलितों के प्रति अपना प्रेम दिखाने के लिए वे उनके घर जाते हैं। साथ में बैठकर खाना खाते हैं। तमाम प्रकार के नाटक रचते हैं। वे अपने झूठे प्रेम के इस करतब को मीडिया के माध्यम से खूब प्रचारित प्रसारित करते हैं। चुनाव खत्म होते ही दलितों का हाल पूछने वाला ना तो नेता आते हैं न ही मीडिया वाले।
                      एक छोटी सी कहानी है "पानी-पानी" यह एक प्रतीकात्मक एवं संकेतात्मक कहानी है। पानी की तासीर तेजाब में बदल गई है। यह पानी ऐसे उन्मादी सोच का प्रतीक है जो शरीर में जाते ही चारों ओर उन्माद करने की इच्छा जगाने लगता है।
                  "कुत्ता प्रेम"कहानी में बताया है कि लोग किस प्रकार आवारा कुत्तों पर खूब प्रेम बरसाते हैं। मॉर्निंग वॉक पर आते समय उनके लिए नमकीन बिस्कुट ब्रेड लाते हैं। लेकिन उनका प्रेम सड़क तक ही सीमित रह जाता है। वे आवारा कुत्तों से इतना प्रेम करते हैं तो फिर उन्हें अपना घर ले जाने में क्यों हिचकिचाते हैं।
              "खतरा" नामक छोटी सी कहानी में बताया है कि किस तरह दो मुल्क की जनता एक दूसरे को दुश्मन समझते हैं, आपस में घृणा करते हैं और आखिरकार लड़ते-लड़ते खत्म हो जाते हैं। मनुष्यता के सामने यह प्रश्न है कि क्या घृणा, मारकाट और युद्ध के सिवाय मनुष्य के लिए कोई दूसरा मकसद नहीं बचा है?
           "फैसला" नामक छोटी सी कहानी के माध्यम से न्यायिक व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाया गया है। जब न्याय व्यवस्था धर्म की पहचान के आधार पर अपना निर्णय सुनाता है फिर ऐसी न्यायायिक प्रणाली से न्याय की उम्मीद करना बेमानी लगती है।
              "दवा" नामक कहानी में "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" वाली कहावत चरितार्थ होती है। जब हमारे साथ कोई गलत या दुर्व्यवहार होता है तो हमें समझाने वाले लोग बहुत से मिल जाते हैं। वे हमें समझाइश देते हुए कहते हैं कि हमें छोटी मोटी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। लेकिन उन्ही छोटी मोटी घटनाओं या दुर्व्यवहार से वे खुद पीड़ित होते हैं तो आसमान सिर पर उठा लेते हैं। आखिर जिस मर्ज के लिए हम दूसरों को दवा सुझाते हैं वही मर्ज हमें होने पर वही दवा क्यों नहीं ले लेते। जब मुसीबत खुद पर आती है तो हंगामा करने में आमादा हो जाते हैं।
                   "लोकतंत्र का मंत्र" इस कहानी में वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में होने वाले जनप्रतिनिधियों के खरीद-फरोख्त पर तीखा व्यंग किया गया है। सत्ता सुख पर बने रहने के लिए सत्ता पक्ष एवं विपक्ष दोनों में ही होड़ मची रहती है। विरोधी पक्ष हमेशा सत्ता पक्ष के प्रतिनिधियों को तोड़ने में लगे रहते हैं। वे अपने मंसूबों में कामयाब होते ही अविश्वास प्रस्ताव ले आते हैं। इस महान लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों का खरीद फरोख्त आज आम बात हो गई है। 
         "उत्तेजना" कहानी में पुलिस वाले जिसकी हत्या हुई है उसके लाश को संबंधितो को इसलिए नहीं देते कि समाज में उत्तेजना ना फैल जाए बजाय हत्यारों को तलाशने की।
                  "लूटेरा" कहानी में एक ऐसे लूटरे का चित्रण है जो पैसे मोबाइल पर क्रेडिट कार्ड गाड़ी आदि धन सामग्री लूटने के बजाय बुद्धि लूटता है। बुद्धि लूटने के पीछे उस लुटेरे की गहरी साजिश है। वह जानता है कि व्यक्ति की बुद्धि लूटे जाने के बाद उसके सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है। फिर तो जो लुटेरा कहता है वही सही मानते हैं। अगर वह कहता है कि मैं भगवान हूं तो हम उसे भगवान मान लेते हैं। कहानी में  बताया गया है कि बौद्धिक दिवालियापन सबसे खतरनाक स्थिति होती है ।
                        "स्वार्थ का फाटक" कहानी में   बताया गया है कि देश में अनेक समस्याएं हैं पर समस्याओं के खिलाफ आवाज उठाने पर हिंसा से आपकी आवाज बंद कर दी जाती है। इस तरह उनका फलसफा है कि समस्या यथावत बनी रहे। उनके पास समस्या खत्म करने का कोई उपाय नहीं है। समस्या बताने वालों को ही खत्म कर देना उनके लिए एकमात्र रास्ता है।
                    "जानवर और आदमी" कहानी में बताया है कि आदमी का सभ्यता के साथ-साथ विकास होने के बजाय ह्रास होते जा रहा है। पहले आदमी जानवर से श्रेष्ठ था फिर जानवर के बराबर हुआ अब तो आदमी से जानवर श्रेष्ठ हो गया है।
                  "राजा और सेना"  कहानी कविता की तरह संवेदना से भरपूर है। एक राजा अपने लोगों जैसे बेटा, भाई,प्रधानमंत्री, मंत्री आदि सारे विरोधियों की हत्या करवा देता है और अंत में जनता को ही खत्म करने के लिए आदेशित करता है लेकिन उसे नहीं पता कि जनता को मारने के बाद ना राजा राजा रहेगा ना उसकी सेना रहेगी।
                    "भीड़तंत्र"  इस संग्रह की आखिरी कहानी है इस कहानी में अराजक भीड़ द्वारा लिए जाने वाले फैसले पर तीखा व्यंग किया गया है। जब पागल भड़की हुई भीड़ द्वारा किसी के नाम जाति धर्म संप्रदाय पूछ कर फैसले लिए जाते हों, सजा दिए जाते हों फिर ऐसी व्यवस्था को बजाएं लोकतंत्र कहने के भीड़ तंत्र कहना ही उचित लगता है। 
                  कहानी संग्रह की सारी कहानियां अपने कलेवर में छोटी-छोटी हैं पर अपने कथ्य को संपूर्णता के साथ पाठकों को परोसने में पूर्ण सक्षम हैं। इसमें सम्मिलित कहानियां कहानी के बजाय हमारे रोजमर्रा जीवन की सच्ची घटनाएं ज्यादा लगती हैं, जो हमारे आसपास घटती रहती हैं। इसके कहानियों में तीखे व्यंग के साथ-साथ 'लोकतंत्र' का 'भीड़तंत्र' में बदलने की गहरी पीड़ा समाहित है।

भीड़तंत्र -- कहानी संग्रह
कहानीकार -- श्री असगर वजाहत
प्रकाशक   -- राजपाल एंड संस 1540, मदरसा रोड 
                   कश्मीरी गेट दिल्ली--110006
मूल्य -- 175 रूपए, पृष्ठ-127, प्रकाशन वर्ष- 2018

नरेंद्र कुमार कुलमित्र
वार्ड क्रमांक 8, जी श्याम नगर कवर्धा
जिला कबीरधाम छत्तीसगढ़ 495115
मोबाइल नंबर - 9755852479
ईमेल आईडी - avanink@gmail.com

मौत की आदत - 25.06.22

मौत की आदत - 25.06.22
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सुबह-सुबह पड़ोस के एक नौजवान की मौत की खबर सुना
एक बार फिर
अपनों की तमाम मौतें ताजा हो गई

अपनी आंखों से जितनी मौतें देखी है मैंने
निष्ठुर मौत पल भर में आती है चली जाती है

हम दहाड़ मार मार कर रोते रहते हैं
एक दूसरे को ढांढस बंधाते रहते हैं
क्रिया कर्म में लगे होते हैं
मौत को इससे क्या
वह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखती
उसकी तो आदत है मारने की रोज-रोज प्रतिपल

फर्क नहीं पड़ता उसे
घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या...?

--- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

भूख - 24 06.22

भूख - 24 06.22
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       1.
भूख केवल रोटी और भात नहीं खाती
वह नदियों पहाड़ों खदानों और आदमियों को भी खा जाती है
भौतिक संसाधनों से परे
सारे रिश्तों 
और सारी नैतिकताओं को भी बड़ी आसानी से पचा लेती है भूख।
         2.
भूख की कोई जाति कोई धर्म नहीं होता
वह सभी जाति सभी धर्म वालों को समान भाव से मारती है।
        3.
जाति धर्म मान सम्मान महत्वपूर्ण होता है
जब तक भूख नहीं होती।
        4.
दुनिया भर के आयोजनों में
सबसे बड़ा होता है
रोटी का आयोजन
        5.
सच्चा कवि वही होता है
जो रोटी और भूख के विरह को समझ ले।
        6.
सबसे आनंददायक क्षण होता है
भूख का रोटी से मिलन।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

कविता - 23.06.22

कविता - 23.06.22
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कविता हंसाती है
कविता रुलाती है
कविता दुलारती है
कविता फटकारती है
कविता हौसला देती है
कविता जीना सिखाती है

अपार प्रेम से भरी कविता
तानाशाही हर जुल्म और नफरत के खिलाफ
रौद्र रूप धारण कर
निर्भय होकर
विरोध में खड़ी हो जाती है।

मन हल्का हो गया - 23.06.22
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कितनी सारी जिम्मेदारियों से
कितने सारे दुखों से
बोझिल हो गया था मन
बस एक कविता लिखने के बाद
मन हल्का हो गया।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

4.मिलना - 20.06.22

4.मिलना  - 20.06.22
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मिलना केवल आमने-सामने आंखों से आंखों का मिलना नहीं
मिलना केवल प्रत्यक्ष मिलकर बातें करना नहीं
मिलना केवल दो जिस्मों का एक हो जाना नहीं

यादों की किताब से
आंखों बातों और जिस्मों का
स्मृतियों में साकार हो जाना
मिलने से कम नहीं होता।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र  
    9755852479

जनता में करुणा और विश्वास जगाने का समय -12.06.22

जनता में करुणा और विश्वास जगाने का समय -12.06.22
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आप जनता हैं
आपके दुखों को दूर करना उनका कर्तव्य है
इसीलिए वे 'अखिल भारतीय हास्य कवि सम्मेलन' का आयोजन कर रखे हैं
वे आपको इतना हसाएंगे
कि आप भूल जाओगे अपनी भूख
अपने सारे दुख और सारे सपने

वे अकारण हसाएंगे
वे आप का मजाक उड़ाएंगे और आप हसेंगे
वे आपको अपने द्विअर्थी चुटकुलों से गुदगुदाएंगे
आप अपने ही लोगों पर खिलखिला खिलखिला कर ताली बजा बजाकर हसेंगे
उनके गुदगुदाते शब्द आपके तन बदन में घुल जाएंगे
वे आपको हास्य की दरिया में डुबाकर
मोटी रकम लेकर दूसरे मंचों के लिए चले जाएंगे

वे आपके भूख आपकी गरीबी आपकी बेरोजगारी की बात कभी नहीं करेंगे
उनके चुटकुलों में सिवाय श्रृंगार और हास्य के आपके अभाव और आपकी पीड़ा नहीं होगी 
उनकी फूहड़ कविता नशे की तरह आपके जिस्म के ओर- छोर में संचारित हो जाएगी
मगर उनके शब्द आपके मर्म तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे

वे आपको अपने शब्दों के पतवार से वर्तमान से दूर ले जाएंगे
आप वीर और श्रृंगार रस में डूबे हुए वीरगाथा काल और रीति काल में गोता लगाएंगे
सामयिक मुद्दों से आपका ध्यान हटाने के लिए
भाट और चारण कवि अब पूरे देश में फैले हुए हैं

जनता के सामने कितने भयानक और वीभत्समय दृश्य हैं
मगर हास्य और श्रृंगार में डूबी जनता दिग्भ्रमित हैं

यह समय कविता में अलंकार पिरोने का नहीं है
यह समय कविता में हास्य और श्रृंगार परोसने का भी नहीं है
यह समय जनता में करुणा और विश्वास जगाने का है।

-- नरेन्द कुमार कुलमित्र
    9755852479

कृत्रिम जोखिमों से सावधान-11. 06.22

कृत्रिम जोखिमों से सावधान-11. 06.22
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जीवन जोखिमों से भरा होता है

हम हर पल जोखिमों में जीते हैं
जोखिमों से टकराते हैं
जोखिमों के साथ आगे बढ़ते हैं
कई बार जोखिमों से जीत जाते हैं
कई बार जोखिमों से हार जाते हैं

जोखिम हमेशा हमारे आसपास होते हैं
हम सोचते हैं कि हमारे आसपास अब कोई भी जोखिम नहीं है
तब भी जोखिम हमारे पास होते हैं

हम दोस्तों के साथ गप्पे हाँकते-हंसते बैठे रहते हैं 
कि जोखिम आ धमकते हैं
हम रास्ते पर चल रहे होते हैं
रात में गहरी नींद में सो रहे होते हैं
हमारी हंसी हमारे दुख हमारे किसी भी उत्सव के बीच
बिन बुलाए मेहमान की तरह कभी भी किसी क्षण जोखिम आ टपकते हैं
बड़ी मुश्किल है जोखिमों से बच पाना

वैसे बुलाने से कम ही आते हैं जोखिम
पर सबसे जोखिम भरा काम होता है जोखिमों को जानबूझकर बुलाना

जोखिमों को आप के हालात से लेना देना नहीं होता
प्राकृतिक ढंग से आए जोखिमों से आप कैसे भी निपट सकते हैं
मगर सावधान रहिए
कृत्रिम ढंग से भी आप के खिलाफ़ जोख़िम गढ़े जा सकते हैं।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

देख तेरे इंसान की हालत... 07.09.21. व्यंग्य

देख तेरे इंसान की हालत...  07.09.21.         व्यंग्य
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एक शाम टी वी ऑन किया तो अचानक मन किया कि कुछ समाचार सुन लिया जाए। समाचार चैनल लगाया तो वहां भक्तिमय रामधुनी हो रही थी।सभी भक्त ढोल मंजीरे के साथ बड़े भक्ति भाव से रामधुन गाते हुए पीले और भगवा वस्त्र में सुशोभित हो रहे थे।एक पल के लिए मुझे अपने आप पर डाउट हुआ कि गलती से समाचार चैनल की जगह भक्ति चैनल तो नहीं लगा लिया हूं। आंखें मिचकर दोबारा ठीक से देखा तो पता चला कि समाचार चैनल ही लगा हुआ है।फिर सोचा कि जरूर यह किसी धार्मिक स्थल अयोध्या वगैरह का दृश्य होगा।पर मैं गलत था। दृश्य कहीं और का था जिसे मैं देखकर चौंक गया।
                          समाचार आपको चौंका न दे  तो फिर वह किस बात का समाचार है। समाचार चैनलों की असली सफलता तो अपने समाचारों से दर्शकों को चौंका देने में होती है।चौंकाने वाले समाचारों से ही  समाचार चैनलों की टी आर पी बढ़ती है। समाचार चैनल अपने उद्देश्य में सफल था क्योंकि समाचार सुनकर मैं ख़ुद चौंक गया था। यकीन मानिए  उस समाचार के बारे में आपको बताऊंगा तो आप भी बिना चौंके नहीं रह सकेंगे। दरअसल रामधुन का वह भक्तिमय धार्मिक दृश्य न तो अयोध्या का था न ही किसी  मंदिर परिसर  का था। आप चौक गए ना मैंने पहले ही कहा था। जनाब जरा धैर्य बांधकर सुनते जाइए आगे तो आप बस चौंकते ही जाएंगे।
                    मनोविज्ञान का नियम कहता है कि हम किसी दृश्य घटना पर तब चौंकते हैं जब वह सामान्य से असामान्य या साधारण से असाधारण होती है। आप भली-भांति जानते हैं कि यह इतना बड़ा देश है और यहां तरह-तरह के बहुरंगी लोग रहते हैं। तरह-तरह के लोगों के विचार भी तरह-तरह के होते हैं। जिस दृश्य या घटना से आप बुरी तरह चौक जाते हैं, हो सकता है कुछ लोग उस तरह के दृश्य या घटनाओं से बिल्कुल भी ना चौके। जो घटना आपको असाधारण और असामान्य लगती है वहीं घटना किसी को साधारण और सामान्य भी लग सकती है। किसी दृश्य घटना को देखकर आप बुरी तरह विचलित हो जाते होंगे मगर उसी दृश्य या घटना से कुछ लोगों को कुछ भी फर्क ही नहीं पड़ता होगा। खैर चौकाने वाले लोग चौकाते रहेंगे आप तो बस चौंकते रहिए। आप चौंकाने वाली घटना को भला कहें बुरा कहें उस घटना की प्रशंसा करें आलोचना करें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता किसी को। चौंकाने वाली घटना को अंजाम देने वाले वालों को इससे तो बिल्कुल भी फर्क नहीं पड़ता। अरे मैं तो चौंकने और चौकाने की बातों में समाचार बताना ही भूल गया।
                           समाचार की वह घटना और वह दृश्य किसी प्रदेश के विधानसभा भवन का था। आपको क्या लगता है कि विधानसभा में धार्मिक गतिविधियां नहीं हो सकती। यदि आप ऐसा सोचते हैं तो आप गलत हैं। जब विधानसभा में नमाज की जा सकती है तो फिर राम भक्तों द्वारा राम धुन करने में हर्ज ही क्या है ? जब विधानसभा में मंदिर और मस्जिद की व्यवस्था हो सकती है तो फिर अरदास करने के लिए गुरुद्वारे और प्रार्थना के लिए चर्च की व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती है? फिर तो जैन,बौद्ध,पारसी और भी जितने धर्म वाले होंगे सभी के लिए विधानसभा में व्यवस्था करनी पड़ेगी। हमारे देश को धर्मप्राण देश ऐसे ही नहीं कहा जाता है। यह अलग बात है कि धर्म का मतलब समझने वाले आपको मिले या ना मिले मगर धर्म के नाम पर प्राण देने वाले और प्राण लेने वाले अनेक मिल जाएंगे।
                    भाई साहब यह धर्म प्रधान देश है। यहां की जनता बड़ी धार्मिक होती हैं। मैं तो कहता हूं कि धर्म से बढ़कर और धर्म से बाहर कोई चीज हो भी नहीं सकती। आप दुनिया में किसी के भी खिलाफ जा सकते हैं मगर धर्म के खिलाफ नहीं जा सकते। कमाल की बात तो यह है कि देश में धर्म की प्रधानता है मगर देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष है। धर्म को लेकर हमारा संविधान बिल्कुल न्यूट्रल है। वह न तो किसी धर्म का समर्थन करता है ना ही विरोध करता है। संविधान की हालत तो उस बेचारे की तरह है जिसे कोई भी कुछ कहे कोई भी कितना भी सताए वह चुपचाप सहन करते रहता है देखते रहता है बिल्कुल मौन।
                            मैं इस बात को लेकर आज तक कंफ्यूज होते रहा हूं कि हमारे देश के लिए विविधता में एकता जरूरी है या मजबूरी ? हम कौमी एकता के लिए गाते हैं कि "मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना"  इस गाने से मुझे यह समझ नहीं आया कि आखिर बैर सिखाता कौन है ? आपस में बैर सिखाने वाले हमारी नजरों से आखिर कैसे बच जाता है ? मुझे पता है हम आगे भी विनय चंद्र मौद्गल्य के गीत "हिंद देश के निवासी सभी जन एक है, रंग रुप वेश भाषा चाहे अनेक है।"गाते रहेंगे। साहिर लुधियानवी जी के गीत "तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा।"गुनगुनाते रहेंगे। बहरहाल मैं इतना ही कहूंगा कि इंसान की औलादों को इंसान बने रहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। अन्यथा मुझे प्रदीप कुमार जी के गीत गाने पड़ेंगे "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान-कितना बदल गया इंसान।"

--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

Monday 16 May 2022

अंधेरे का व्यापार 16.05.21

अंधेरे का व्यापार 16.05.21
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रोशनी की शक्ल में बेचा जा रहा है अंधेरा
रोशनी में लिपटे अंधेरे का व्यापार खूब फल फूल रहा है इन दिनों
अंधेरे के प्रचार में चारों ओर फैले हुए हैं उल्लू के पट्ठे 
इस व्यापार में केवल उल्लुओं को फायदा है
जितना सघन अंधेरा हो उतना अच्छा है
उन्हें रोशनी से डर लगता है

उल्लू बनाने वालों और उल्लू बनने वालों के तंत्र का नाम लोकतंत्र हो गया है

अंधेरा सलामत है
रोशनी कहीं नहीं है।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 
   9755852479

अगले जनम मोहे चमचा ही कीजो ! व्यंग्य

अगले जनम मोहे चमचा ही कीजो !                  व्यंग्य
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चाटुकारी करना,चमचागिरी करना,खुशामद करना,चापलूसी करना,तलवे चाटना,मक्खन लगाना ये सारे पर्यायवाची शब्द हैं।इन शब्दों और वाक्यांशों को आप पहले ही सुने होंगे और भली-भांति परिचित भी होंगे। इन वाक्यांशों के अर्थों को श्रद्धापूर्वक और समर्पण के साथ निभाते हुए कईयों को आपने देखा भी होगा।
              चमचागिरी पर कुछ लिखने से पहले मैं धन्यवाद अर्पित करना चाहूंगा अपने एक करीबी मित्र चमचे के प्रति जिनकी चमचागिरी देखकर मेरे भीतर कुछ लिखने का भाव उत्पन्न हुआ। दरअसल मैं एक दिन अपने मित्र के केबिन में दाखिल हुआ वहां केक काटे जा रहे थे। मैंने कारण पूछा भाई क्या बात है किस खुशी में केक काटे जा रहे हैं? पता चला कोई स्थानीय नेता है जिसका जन्मदिन था और हमारे मित्र उनके मुरीद हैं। मुरीद क्या पक्के चमचे हैं। मित्र की चमचागिरी देखकर चमचों को ईर्ष्या या उससे होड़ करने की चाहत हो सकती है। मगर मित्र को चमचागिरी में लीन देखकर मैं अपार गुस्सा और घृणा भाव से भर जाता हूं। मैंने मित्र के पास यदा-कदा दूसरे चमचों की चमचागिरी की खूब निंदा की भर्त्सना की ताकि मित्र अपनी चमचागिरी की आदत से बाज आए। मगर मित्र है कि चमचों के और चमचागिरी के पक्ष में दलील देने लग जाते हैं। वे स्वयं को बड़ा दयनीय तथा चमचागिरी को अपनी मजबूरी बताने लगते हैं। 
                        एक सच्चा चमचा अपने स्वामी की भक्ति में ईश्वर तुल्य सेवा भाव में लगा रहता है। चमचे द्वारा की जाने वाली चमचागिरी किसी तपस्या या साधना से कम नहीं होता। सेवाभावी समर्पित भक्त की तरह चमचे को अपनी चमचागिरी पर अटूट श्रद्धा और विश्वास होता है। जिस प्रकार एक सच्चा साधक या तपस्वी अपने इच्छित वरदान को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक अपने कठिन साधना और तपस्या पथ से कभी विचलित नहीं होता । ठीक उसी प्रकार एक चमचा भी तन मन धन सब कुछ समर्पित कर पूरे स्वार्थ भाव से चमचागिरी में लीन होता है। स्वामी भी अपने चमचों को सारा वरदान एक साथ नहीं देता। वह थोड़ा-थोड़ा इंस्टॉलमेंट में कृपा करता है ताकि उसके चमचों की चमचागिरी सतत रूप से उस पर बनी रहे। आसान शब्दों में कहूं तो चमचागिरी फेवीकोल की तरह होता है जो स्वामी और उसके चमचों को अटूट रूप से आपस में चिपकाए रहता है जो आसानी से नहीं टूटता।
                       चमचे और स्वामी के बीच चमचागिरी ही वह बांड होता है जो दोनों के संबंध को मजबूत बनाता है। चमचागिरी के पार्टीकल जितने सघन होते हैं उतने ही स्वामी और चमचे के बीच का बांड मजबूत होता है। कई बार चमचागिरी के पार्टिकल्स कम होने से बांड टूट जाता है जिससे दोनों के बीच संबंध विच्छेद हो जाता है। इसीलिए चमचा इस बात का बराबर ध्यान रखता है कि उसका बांड कमजोर ना हो ताकि दोनों के बीच का संबंध मजबूती से बना रहे।
                      चमचागिरी करने के छोटे-बड़े कई कारण हो सकते हैं। जैसे उच्च पद पाने की आकांक्षा, आर्थिक लाभ, काम से बचने की चाहत, स्वामी के करीबी होने की लालसा, नाकामी छुपाने का रास्ता, अंतर में व्याप्त डर भाव, स्वामी के कोप से बचने का उपाय, ट्रांसफर करवाना या रूकवाना आदि आदि। बेशक चमचागिरी के अनगिनत कारण हो सकते हैं मगर सब के मूल में अपने स्वार्थ की सिद्धि भाव ही प्रमुख रूप से निहित होता है।
                           अनादि काल से चमचागिरी यत्र तत्र सर्वत्र व्याप्त रहा है। घर में परिवार में कार्यालय में मंत्रालय में शासन में प्रशासन में हर जगह चमचागिरी की जड़ें फैली हुई है। पक्का चमचा उस  बेशरम पौधे की तरह होता है जिसे जहां भी उखाड़ फेंको वह अपनी जड़े जमा लेता है। चमचा खेतों की फसलों में उगे खरपतवार की तरह होता है। जिस प्रकार फसलों की जितनी भी सफाई करो खरपतवार उग ही जाता है वैसे ही शासन प्रशासन के खेतों से चमचा रूपी खरपतवार को निकाल पाना असंभव है।
                         राजनीति में आगे बढ़ने के लिए चमचागिरी अनिवार्य तत्व है। यहां आपकी बुद्धि आपकी काबिलियत और आपकी शक्ति आपकी चमचागिरी से ही नापी जाती है। नेताजी जैसे ही पदार्पण करते हैं उनके चमचों का दल नेताजी के करीब जाने उन्हें छूने उनके साथ सेल्फी लेने के लिए टूट पड़ते हैं। चमचों में जो सीनियर होता है वह जूनियर और नवोदित चमचों का नेता जी से परिचय कराता है। नेताजी के आवभगत के लिए जो मिष्ठान मेवे और ड्राई फ्रूट्स सजाए गए होते हैं उन्हें स्वामी के चरणों में अर्पित प्रसाद समझकर सारे चमचे बड़े चाव से खाते हैं। कुल मिलाकर राजनीति में चमचागिरी ही वह सीढ़ी है जिसके सहारे आप ऊपर पहुंच सकते हैं। जब कोई राजनीति में कदम रखता है यानी सीढ़ी के पहले पायदान पर पांव धरता है तब सबसे ज्यादा और सबकी चमचागिरी करनी पड़ती है। अगर आप राजनीति के सीढ़ी में ऊपर जाते जाएंगे तो आपके भी चमचों की संख्या बढ़ती जाएगी। यानी आज का चमचा ही भविष्य का नेता होता है।एक राजनेता अपने चमचों के बदौलत ही दौलत,शोहरत और सम्मान प्राप्त करता है इसीलिए वे चमचों को खिलाना पिलाना और हमेशा खुश रखना अपना परम दायित्व समझता है। अक्सर यह देखा गया है की चमचे अगर नाराज होकर बगावत पर उतर जाते हैं तो नेताजी की कुर्सी खतरे में आ जाती है। जब चुनाव के समय नेताजी का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है और वह निराशा के समुद्र में डूबने लगता है। ऐसी विषम परिस्थितियों में वे चमचे ही होते हैं जो अपने  चाटुकारिता के दम पर नेताजी के आत्मविश्वास को जगाते हैं और उन्हें निराशा के समुद्र से बाहर निकालते हैं। इसीलिए नेताजी को दुनिया में सबसे प्रिय उनके चमचे ही होते हैं।
                                 जब चमचा अपने स्वामी के बारे में बोलना शुरू करता है तो उसके नाम के आगे सैकड़ों प्रशंसामूलक विशेषण शब्दों का प्रयोग करता है। राजनीति के क्षेत्र में चमचों के द्वारा प्रयुक्त होने वाले कुछ शब्द हैं जैसे जुझारू,मिलनसार,कर्तव्यनिष्ठ,कर्मठ,जन जन के प्रिय,युवा,लाडला,सेवाभावी,समर्पित,ऊर्जावान, सच्चा देशभक्त,निष्ठावान,समाजसेवी, यशस्वी,माननीय आदि आदि। इसी तरह धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में अपने स्वामी के लिए उसके चमचे चेलों के द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाले विशेषण शब्दों में  है त्रिकालदर्शी, परम ज्ञानी, परम स्नेही, मानस मर्मज्ञ, दयालु कृपालु ज्ञानदाता,समदर्शी, श्रद्धेय आदि आदि। कार्यालयों में अपने बॉस के लिए उसके मातहत चमचों के द्वारा संबोधन में अनेक विशेषणों का प्रयोग किया जाता है जैसे परम सम्माननीय, प्रेरणा स्रोत, समर्पित, बहुमुखी प्रतिभा के धनी, श्रेष्ठ वक्ता आदि आदि। साहित्य के क्षेत्र चमचों के द्वारा अपने  वरिष्ठ साहित्यकारों के लिए प्रयुक्त शब्द हैं सादगी के प्रतिमूर्ति, संजीदा रचनाकार, वरिष्ठ कलमकार, शब्दों के जादूगर, मुखर कवि,शब्द शिल्पी, जमीन से जुड़े, निर्भीक साहित्यकार आदि। पर सच्चाई यह है कि चमचों के द्वारा अपने विशेष्य के लिए प्रयुक्त किए गए तमाम विशेषणों को तलाशना रेत से तेल निकालने जैसा काम है।
                                   आज हर जगह चमचों का बड़ा बोलबाला है। जो काम धनबल और बाहुबल से नहीं हो पाता वह चमचाबल से बड़ी आसानी से हो जाता है। आप चमचों की लाख उपेक्षा करिए उन्हें घृणा भरी नजरों से देखिए मगर उनमें काबिलियत भी कूट-कूट कर भरी होती है। चमचागिरी जन्मजात गुण नहीं होता इसे अर्जित किया जाता है। चमचागिरी के गुणों को अर्जित करना और चमचे के ओहदे तक पहुंचना सबके बस की बात नहीं होती। चमचागिरी में कोई चमचा जितना निपुण होते जाता है उतना ही उसकी पहचान समाज में बढ़ते जाता है। हमने अपने जीवन में ऐसे कितने चमचों को अपनी सच्ची चमचागिरी के दम पर फर्श से अर्श तक पहुंचते देखा है। हम समझते हैं की चमचा हमेशा मजे में रहता है। मगर हमेशा ऐसा नहीं होता कभी-कभी वह बड़ा बेचारा सा जीव नजर आता है। बॉस के कहे अनुसार चौकसी और चमचागिरी ढंग से नहीं हो पाने के कारण उसे अपने बॉस से डांट सुननी पड़ती है वहीं दूसरी तरफ स्टाफ के बाकी सदस्य उस पर फिकरे करते रहते हैं कि"वो आ रहा है बॉस का चमचा।" ऐसे हालात में बेचारा चमचा अपना बॉस के लिए आया गुस्सा और स्टाफ की उपेक्षा से उत्पन्न दुख दोनों को चुपचप
 अकेले ही पीते रहता है। 
                                चमचा अपने स्वामी का अंधभक्त होता है। कुत्ते की तरह चमचे की वफादारी पर स्वामी को कभी संदेह नहीं होता। चमचा जीहुजूरी में इतना पक्का होता है कि सपने में भी अपने स्वामी की बात को नहीं काट सकता। स्वामी के हरेक बातों पर हामी भरना वह अपना परम कर्तव्य समझता है। कड़कती ठंड में भी अगर स्वामी कह दे की आज बड़ी गर्मी है तो चमचा अपना स्वेटर निकाल फेंकेगा और कहेगा "सचमुच आज अचानक बहुत गर्मी लग रही है।" भले ही वह ठंड से कांपता ही क्यों ना रहे। चमचों का फलसफा क्लियर होता है। वे सुखी बने रहने के लिए चमचागिरी को ही सबसे सॉलिड और आसान उपाय मानते है। उनके खून में काम करना मेहनत करना बिल्कुल नहीं होता। वे अपने स्वामी के गलत बातों और गलत कार्यों का कभी विरोध नहीं करते। बॉस की बातों में बस हां में हां मिलाते रहते हैं। उनके लिए चमचागिरी उस नाव के समान होता है जिस पर चमचा सवार होकर इस उतार-चढ़ाव और मुश्किल भरे दुनिया से पार निकल जाना चाहता है। निष्कर्षतः जा सकता है की तलवे चाटने का सुख वही व्यक्ति ले सकता है जिसमें आत्मसम्मान की भावना सूख गई हो।
                               हर संस्था में बॉस के अपने कुछ चुनिंदा चमचे होते हैं। बॉस संस्था में नहीं होते हुए भी संस्था के सारी बातों को जान लेता है। चमचे ही बॉस के आंख और कान होते हैं। स्टाफ का सदस्य कब कौन आता है कब कौन जाता है चमचा चुपचाप देखते रहता है। यानी हम कह सकते हैं कि चमचा ही बॉस का जीता जागता सीसीटीवी कैमरा होता है। संस्था प्रमुखों के लिए संस्था चलाने में उनके चमचों का अहम योगदान होता है। संस्था प्रमुख अपने चमचों को चमचागिरी के एवज में काम करने में छूट देता है। चमचा जब छुट्टी चाहे बॉस खुशी-खुशी छुट्टी दे दे देता है। आप एक दिन की छुट्टी के लिए संस्था प्रमुख के सामने गिड़गिड़ाते रहिए मिन्नतें करते रहिए वह साफ मना करेगा,कहेगा"अभी बहुत काम है स्टाफ कम है हम किसी को छुट्टी नहीं दे सकते।"
                          स्वामी,नेता या बॉस कान के बड़े कच्चे होते हैं। वे अपने चमचों से जितना सुनते हैं उसे ही सौ फ़ीसदी सच मान लेते हैं। चमचे कान भरने के काम में पारंगत होते हैं। उन्हें एक को ग्यारह और चार को चौदह बताने की कला भली-भांति आता है। अगर आप अपने बॉस को कोई बात सीधे तौर से नहीं कर पाते तो उसके चमचों के सामने वह बात कह दीजिए फिर तो चमचों के माध्यम से आपकी बात पहुंच ही जाएगी। मगर भले मानुषों को मेरा यही सलाह है कि आप चमचों से सदा सावधान रहिए उनसे पंगा कभी मत लीजिए।
                            चमचे बिना पेंदी के लोटे की तरह होते हैं। कभी इधर तो कभी उधर अवसर के अनुकूल लुढ़कते रहते हैं। उनका अपने स्वामी के प्रति भक्ति और समर्पण स्थाई नहीं होता। स्वामी में शक्ति और सामर्थ्य जितनी होती है उसी के अनुरूप चमचे की चमचागिरी होती है। जिस प्रकार पेड़ सूखने पर चिड़िया पेड़ छोड़ उड़ जाती है, तालाब या नदी के सूखते सूखते वहां के जीव जंतु अपना जगह बदल लेते हैं ठीक उसी प्रकार अपने स्वामी की शक्ति क्षीण होते देख चमचा भी किसी दूसरे शक्ति संपन्न स्वामी की ओर उन्मुख हो जाता है। भौतिक शास्त्र की दृष्टिकोण से समझा जाए तो चमचा एक चर राशि (वेरिएबल अमाउंट) होता है जो समय और स्थान के बदलने के साथ-साथ हमेशा बदलते रहता है। सैद्धांतिक रूप से चमचागिरी के नियम को हम इस तरह समझ सकते हैं "चमचे का स्वार्थ स्थिर होने की दशा में चमचा के द्वारा की गई चमचागिरी की मात्रा उसके स्वामी में निहित शक्ति और सामर्थ्य की मात्रा के बराबर होती है।"
                               मुंह पर खरी-खोटी बोल देने वालों को मुंहफट कहा जाता है। जबकि आपके मुंह के सामने आपकी प्रशंसा के पुल बांधने लगे और अपनी शहदमयी वाणी से आपके तन मन को भिगो दे वह चापलूस कहलाता है। चापलूस में ऐसी प्रतिभा होती है कि जिन अच्छाइयों और गुणों को आप अपने भीतर स्वयं नहीं देख पाते वह भी चापलूस भली-भांति देख लेता है।चापलूस अपनी बातों से सबका मन मोह लेता है। जरा सोचिए चापलूस की प्रेमिका के बारे में वह कितनी खुश रहती होगी। चापलूस की प्रेमिका के पांव कभी जमीन पर पड़ते ही नहीं होंगे। चापलूस की प्रेमिका होने का यही तो फायदा है कि सुबह से रात तक केवल तारीफों की नदियां में डुबकी लगाते रहने का सौभाग्य मिलता है। चापलूसों में एक बात अच्छी होती है कि वे किसी को पराया नहीं समझते। उनमें इतनी सम्मोहन शक्ति होती है कि वे सबको पहली नजर में ही अपना बना लेते हैं। आप किसी चापलूस से पहली बार ही क्यों ना मिले वह ऐसा मुस्कान विखेरेगा जैसे आपको सदियों से जानता हो।हां एक बात जरूर है कि चापलूसों को ज्यादा ईमानदार,वक्त के पाबंद और सिद्धांतों के पक्के लोग बिल्कुल पसंद नहीं आते। वे यहां भी अपनी चापलूसी भरे शब्दों में फंसाने की कोशिश करते हैं पर फिर भी अगर चापलूसी के दाल नहीं गलती तो बेचारे मन मसोसकर रह जाते हैं। कुछ लोग चापलूसी को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते। वे चापलूसों को हिकारत भरी दृष्टि से देखते हैं। ऐसे लोगों को अपने काम पर ही भरोसा होता है। ये अलग बात है कि उन्हें अपने स्वामी की चापलूसी ना करने के कारण कई बार कोप का शिकार होना पड़ता है। ऐसे लोग बड़े स्वाभिमानी और निडर होते हैं जिन्हें अपने स्वामी द्वारा दिए गए गीदड़ भभकी और अर्थहीन कोप से कतई डर नहीं लगता है।
                                'चम्मच' चमचा का बाल रूप होता है और 'चमचा' चम्मच का वयस्क रूप। बाल रूप में होने वाली चम्मचगिरी वयस्क होते-होते चमचागिरी में बदल जाता है। चम्मच के पास क्षमता और अनुभव दोनों की कमी होती है इसीलिए चम्मच का प्रयोग केवल छोटी-मोटी कटोरियों में ही किया जाता है। उनमें इतनी क्षमता नहीं होती कि उनका प्रयोग बड़े-बड़े बर्तनों में किया जा सके। चम्मच सीमित कामों में ही काम आते हैं जबकि चमचों का कार्य क्षेत्र अत्यंत विस्तारित होता है। जिस प्रकार करछुल कड़ाही की चीजों को पतीले में पतीले की चीजों को थाली में यानी इधर का उधर करने में काम आता है ठीक उसी प्रकार चमचा भी यहां की बातों को वहां करने में माहिर होता है। अगर हमें कोई बड़ा काम करवाना है तो हमेशा चमचे ही काम आते हैं। चमचों की दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति देखकर कभी-कभी भले मानुषों को भी अपने चमचा ना होने का गम होता है।आखिरकार चमचों की ऐसी समृद्धि देखकर भले मानुष भी मंदिर में भगवान के सामने एक ही प्रार्थना करता है-"हे प्रभु अगले जनम मोहे चमचा ही कीजो।"

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479
                     

Thursday 21 April 2022

जिंदा रहने की कोशिश है 'लिखना'-14.04.22

जिंदा रहने की कोशिश है 'लिखना'-14.04.22
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नहीं भूलती हैं लिखी हुई चीजें
शायद भूलने को परास्त करने के लिए खोजा गया होगा 'लिखना'

'लिखना' सीखने से पहले
हम सीखे होंगे 'बोलना'
मगर 'लिखने के बिना' कितना निराधार रहा होगा 'बोलना'
बोलने की प्रामाणिकता पर रोज उठाए जाते रहे होंगे सवाल
'बोला हुआ' सहीं होने पर भी 
 रोज कलंकित होता रहा होगा

'लिखना' सीखने से पहले
ना जाने कितनों ने की होगी वादा खिलाफी
ना जाने कितने
अपनी ही कही बातों पर
कभी भी मुकर जाते रहे होंगे
न जाने कितनी बार
स्मृतियों पर लगाए जाते रहे होंगे लांछन

लिखने के क्रम में हमने सीखा है
दृश्यों,घटनाओं और आंकड़ों को लिखना और सहेजना

अब लिखना महज लिखना नहीं है
'लिखना' कला है
रंगों को, संवेदनाओं को, हंसी को, रुदन को, प्रेम को,करुणा को,घृणा को रिश्तो को बड़े अलंकृत भाषा में लिखे जा रहे हैं

हम अक्सर भूल जाते हैं
दिन और तारीखें
पुराने दोस्तों के नाम और चेहरे
इन्हीं वजहों से
हमारे पूर्वजों ने
स्मृतियों की दगाबाजी से परेशान होकर
अपनी बातों को लिपियों में दर्ज करने का हुनर सीखे होंगे

हम जानते हैं अपनी सीमाएं
कि हम समय को रोक नहीं सकते
इसीलिए चुपचाप हम समय को दर्ज करते जाते हैं

और कुछ नहीं दरअसल
अपने समय को लिखते जाना
दबे पन्नों के अक्षर चिन्हों में
खुद को जिंदा रखने की कोशिश होती है।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

कीचड़ होता है युद्ध -13.04.22

कीचड़ होता है युद्ध -13.04.22
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युद्ध को
युद्ध से ही
खत्म करने की कोशिश करना
ठीक वैसी ही कोशिश है
जैसे कीचड़ को 
कीचड़ से ही धोने की कोशिश करना

कीचड़ हो या युद्ध
हम संभल ही नहीं पाते
गिरते ही जाते हैं

दाएं बाएं के लोग भी
कीचड़ की छीटों से नहीं बच पाते

शहरों गलियों और घरों-घरों तक
बड़ी तेजी से फैलने लगता है कीचड़

कीचड़ में सने,पुते और धंसे लोगों को
कुछ भी सुनाई नहीं देती

कीचड़ की बाढ़ में
तबाह हो जाती हैं लहलहाती फसलें
दफन हो जाती हैं फलती फूलती सभ्यताएं

एक बार पांव रखने के बाद
बस धंसते ही जाते हैं
चाहे कीचड़ हो या युद्ध..।

--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
  9755852479

'यात्री हो चला' किताब के पन्नों से... 12.04.22

'यात्री हो चला' किताब के पन्नों से... 12.04.22
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भागवत सांवरिया के 80 पृष्ठ में संकलित इस यात्रा वृतांत में छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के उन स्थलों का चित्रण किया है जहां वे एक यात्री के रूप में अपने मित्रों के साथ भ्रमण किया है। युवा यात्री भागवत सांवरिया के यात्रा वृतांत की खासियत यह है कि वह अपनी यात्रा के दौरान देखें और महसूस किए हर एक बातों को रोज का रोज यात्रा के दौरान ही दर्ज करते जाते हैं। असली यात्रा वृतांत वही होता है जिसमें यात्रा के दौरान के पल-पल आने वाले दृश्यों और घटनाओं का ब्यौरा समाया होता है। कोई यात्रा वृतांत तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब उसमें दृश्य और घटनाओं की खूबियों और कमियों का बेबाकी से उजागर किया जाता है। चूंकि यात्री पेशे से शिक्षक और साहित्य के प्रति लगाव रखने वाले हैं इसलिए दृश्य और घटनाओं को अधिक संवेदनशीलता के साथ महसूस कर पाते हैं। अजय जी इस किताब की प्रस्तावना में 'संवेदनशीलता की यात्रा' शीर्षक दिए हैं जो कि बिल्कुल उचित प्रतीत होता है।
           लेखक का यह यात्रा वृतांत मूल रूप से भारतीय संस्कृति के दो हिस्सों पर केंद्रित है पहला धार्मिक संस्कृति और दूसरा आदिवासी संस्कृति। इन दोनों संस्कृतियों के चित्रण में प्रकृति चित्रण अनायास रूप से समाहित है। जहां छत्तीसगढ़ की धरती अपनी विशिष्ट आदिवासी संस्कृति एवं प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात है तो उत्तराखंड की धरती तीर्थ और हिंदू धर्म संस्कृति के साथ हिमालयीन खूबसूरती के लिए विश्व विख्यात है।
                 इस यात्रा वृतांत किताब के प्रकाशन से पूर्व लेखक को यात्रा स्थलों के चित्रण में क्रम का ध्यान रखा जाना चाहिए था। छत्तीसगढ़ प्रदेश के स्थलों का पूरा चित्रण पहले किया जाना था तत्पश्चात उत्तराखंड के स्थलों का चित्रण करना उचित होता। पहले छत्तीसगढ़ फिर उत्तराखंड उसके बाद फिर छत्तीसगढ़ के स्थलों का चित्रण क्रम की दृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता है। यात्रा के तिथि क्रम की दृष्टि से भी बेला पानी का चित्रण सबसे पहले होना था। हालांकि पाठकों के लिए पाठकीय वस्तु ही महत्वपूर्ण होता है ना कि पाठकीय वस्तु का क्रम फिर भी समीक्षकीय दृष्टि छोटी-छोटी बातों तक अपनी पहुंच बना लेती है।
                  लेखक पुस्तक के तीन खंडों में अपनी यात्रा का चित्रण करते हैं। पहले खंड का नाम दिया है 'रहस्यों की धरती बस्तर' जिसमें छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर के विभिन्न पर्यटन स्थलों का चित्रण किया है,जिसमें दंतेवाड़ा,ढोलकल,जगदलपुर कुटुमसर गुफा,तीरथगढ़ एवं चित्रकूट जलप्रपात का चित्रण समाहित है। दूसरे खंड का नाम 'देव भूमि उत्तराखंड-छोटा चार धाम'है ,जिसमें हरिद्वार,हरिद्वार से बड़कोट,यमुनोत्री,गंगोत्री,केदारनाथ धाम,बद्रीनाथ धाम का चित्रण हुआ है। तीसरे खंड का नाम 'बैगा गांव बेला पानी में एक दिन' है,जिसमें बैगा आदिवासियों से भरपूर छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के दूरस्थ जंगल में बसे आदिवासी ग्राम बेलापानी की यात्रा का चित्रण है।
                        यात्रा वृतांत के पहले खंड के अंतर्गत दंतेवाड़ा की यात्रा में विशेष रुप से दंतेश्वरी मंदिर का चित्रण किया गया है जिसमें लेखक मंदिर के ऐतिहासिक पहलुओं पर ज्यादा ना लिखते हुए मंदिर दर्शन के समय अपनाए जाने वाले तौरतरीकों एवं सादगी का विशेष रूप से उल्लेख किया है। शायद यायावरी सोच रखने वाले यात्री के लिए किसी स्थान की ऐतिहासिकता पर ज्यादा लिखना उचित नहीं लगता, वे यह काम इतिहासविदों के लिए छोड़ देते हैं। लेखक अपनी यात्रा के दौरान मिलने वाले लोगों तथा उनसे जुड़े संस्मरणों के बारे में बराबर लिखते जाते हैं। ढोलकल यात्रा में गणेश जी का दर्शन, सल्फी (बस्तर बियर) और रास्ते की दुर्गमता,प्राकृतिक छटा के साथ वहां की किवदंतीयों का उल्लेख किया गया है। बस्तर अपने प्राकृतिक सौंदर्य,आदिवासी संस्कृति और भौतिक संसाधनों के लिए विश्व विख्यात है। आदिवासियों की सबसे बड़ी खूबी होती है उनका भोलापन, यही खूबी उनके शोषण का महत्वपूर्ण कारण भी है। लेखक अपनी बस्तर यात्रा में वहां हुए बदलाव का चित्रण करते हुए लिखते हैं-"यहां आकर आप अनायास बस्तर पा लेंगे ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। हां बहुत सी दुकानें जरूर दिखेंगी बस्तर टी स्टॉल से लेकर बस्तर चिकन बिरयानी तक। बस्तर कॉटन से लेकर बस्तर रेडीमेड तक और भी बहुत कुछ बस नहीं दिखेगा तो बस्तर।" इस तरह बस्तर में बस्तर का न दिखना एक बेहद ही चिंताजनक बदलाव की ओर संकेत है। बस्तर को बचाए रखने की यही चिंता मैंने शाकिर अली जी के कविता संग्रह 'बचा रह जाएगा बस्तर' में महसूस किया है। बस्तर का कुटुमसर गुफा जितना भयावह है उतना ही यात्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र भी है। गुफा की गहराई,दुर्गमता रिसता हुआ पानी,छाया अंधेरा और उन अंधेरों में अंधी मछलियों का बसेरा कुटुम सर गुफा में यह सब कुछ यात्रियों में रोमांच भर देता है। लेखक का बस्तर यात्रा तीरथगढ़ जलप्रपात एवं भारत का नियाग्रा कहे जाने वाले चित्रकूट जलप्रपात की खूबसूरती एवं अद्भुत नजारों के साथ समाप्त होता है।
                      यात्रा वृतांत के दूसरे खंड में हरिद्वार की यात्रा में विशेष तौर से हर की पौड़ी का उल्लेख करते हैं, जहां की गंगा आरती विश्व प्रसिद्ध है। यहां भक्तों को दान के अनुसार आरती में प्रमुखता मिलती है। लेखक प्रसंगवश सुरक्षा कर्मी द्वारा किए जाने वाली बदतमीजी का उल्लेख करना भी नहीं भूलते। यमुनोत्री यात्रा के दौरान यात्रियों को होने वाली परेशानी,चढ़ाई वाले रास्ते,रास्ते में बदबूदार लीद,थकान और चिड़चिड़ा हो जाने का उल्लेख है।
गंगोत्री यात्रा को लेखक ने बड़ा दिलकश बताया है। यहां जाने के रास्ते खूबसूरती के साथ खतरों से भी भरे हुए हैं। चारों तरफ बर्फीला पहाड़ और उन पर सूरज की किरणों से उभरने वाली सुनहरी रंगत बड़ा दिलकश नजारा होता है। केदारनाथ धाम की यात्रा में रास्ते की कठिन चढ़ाई, पिट्ठू पालकी घोड़े खच्चर और हेलीकॉप्टर की सवारी, केदारनाथ धाम में आई बाढ़, वीआईपी श्रद्धालुओं की प्राथमिकता और अंत में बाबा केदारनाथ के दर्शन का चित्रण हुआ है। बद्रीनाथ यात्रा में चोकता (उत्तराखंड के मिनी स्वीटजरलैंड) की खूबसूरती, कुछ पौराणिक किंवदंतियों,अलकनंदा नदी के किनारे किनारे बद्रीनाथ धाम पहुंचने, भगवान बद्रीनाथ का दर्शन करने, पंचकूला के लंगर में भोजन करने और आखिर में भारत के अंतिम गांव 'माना गांव' जाने का चित्रण किया गया है। लेखक बद्रीनाथ यात्रा के दौरान ऑली भी जाते हैं जो कि सर्दियों में स्कीइंग के लिए प्रसिद्ध है।
                     इस यात्रा वृतांत किताब के आखिरी खंड में बैगा जनजाति बहुल वनग्राम बेलापानी की यात्रा का वर्णन है। लेखक यहां की यात्रा स्थानीय साहित्यकारों के समूह के साथ करते हैं। इस यात्रा के दौरान साहित्यकार बेलापानी पहुंचकर बैगा जनजाति की संस्कृति और उनकी मूलभूत समस्याओं पर चर्चा करते हैं। लेखक के अनुसार बेलापानी अभी भी सरकारी मूलभूत सुविधाओं से अछूता है। बैगाओं द्वारा शहरी अतिथियों का मादर के धुन के साथ जोरदार स्वागत किया गया। वे मुख्य रूप से करमा नृत्य करते हैं। वे अपने आहार में मक्का बाजरा आदि मोटा अनाज लेते हैं। शराब पीना और करमा की धुन में थिरकना उनकी संस्कृति का हिस्सा है। इन सभी बातों का चित्रण इस अंश में है।
                   इस तरह एक युवा लेखक ने अपनी यात्रा के दौरान जो भी देखते है, महसूस करते हैं उन्हें शब्दशः यात्रावृत्त मे लिखते जाते हैं। डायरी की तरह लिखे इस यात्रा वृतांत में भाषा एकदम साधारण बोलचाल की है। वस्तुतः डायरी लेखन शैली और वर्णन शैली में साधारण बोलचाल की भाषा ही प्रभावकारी होती है। पाठकों को इस यात्रा वृतांत को पढ़ने से यात्रा वृतांत में वर्णित स्थलों की जानकारी, यात्रा के दौरान होने वाली परेशानियों की जानकारी एवं एक यात्री के रूप में लेखक के अनुभवों की जानकारी साथ साथ मिलती जाती है। मेरे विचार से यात्रा में रूचि रखने वाले एवं अध्ययन में रुचि रखने वाले पाठकों को यह किताब 'यात्री हो चला' जरूर पढ़नी चाहिए। निश्चित रूप से पाठक इस पुस्तक को पढ़कर लेखक के साथ उन तमाम स्थलों का जिसका इस यात्रा वृतांत में वर्णन है, वैचारिक यात्री बन सकते हैं।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

कृत्रिम होती जा रही है हमारी प्रकृति-03.03.22

कृत्रिम होती जा रही है हमारी प्रकृति-03.03.22
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हिंदू और मुसलमान दोनों को
ठंड में खिली गुनगुनी धूप अच्छी लगती है
चिलचिलाती धूप से उपजी लू के थपेड़े
दोनों ही सहन नहीं कर पाते

हिंदू और मुसलमान दोनों
ठंडी हवा के झोंकों से झूम उठते हैं
तेज आंधी की रफ्तार दोनों ही सहन नहीं कर पाते

हिंदू और मुसलमान दोनों को
बारिश अच्छी लगती है 
दोनों को बारिश की बूंदे गुदगुदाती है
बाढ़ के प्रकोप से
दोनों ही बराबर भयभीत होते हैं बह जाते हैं उजड़ जाते हैं

हिंदू और मुसलमान दोनों 
एक ही पानी से बुझाते हैं अपनी प्यास
दोनों को मीठा लगता है गुड़ का स्वाद
और नीम उतना ही कड़वा

दोनों को पसंद है
पेड़ पौधों और पत्तियों की हरियाली
खिले हुए फूलों के अलग-अलग रंग
और बाग में उठने वाली फूलों की अलग-अलग खुशबू

एक धरती और एक आसमान के बीच
रहते हैं दोनों
कष्ट दोनों को रुलाता है
खुशियां दोनों को हंसाती है
एक जैसे हैं दोनों के नींद और भूख

प्रकृति के गुणों को महसूस करने की प्रकृति
मैंने दोनों में समान पाया है

दोनों की प्रकृति समान है
मगर दोनों बंटे हुए हैं
कृत्रिम धर्म के लबादों में

दरअसल रोज हमें कृत्रिमता से संवारी जा रही है
हममें रोज भरे जा रहे हैं कृत्रिम भाव
धीरे-धीरे कृत्रिम होती जा रही है हमारी प्रकृति
हम अपनी प्रकृति में जीना
धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं।

- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
  9755852479

Thursday 24 March 2022

बेखबर स्त्रियां-25.03.22

बेखबर स्त्रियां-25.03.22
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स्त्रियों के सौंदर्य का 
अलंकृत भाषा में 
नख से शिख तक मांसल चित्रण किए गए
श्रृंगार रस में डूबे 
सौंदर्य प्रेमी पुरुषों ने जोर-जोर से तालियां बजाई
मगर तालियों की अनुगूंज में 
स्त्रियों की चित्कार
कभी नहीं सुनी गईं

कविताओं में स्त्रियां 
खूब पढ़ी गई और खूब सुनी गई
मगर आदि काल से अब तक
कविताओं से बाहर 
यथार्थ के धरातल पर
स्त्रियां ना तो पढ़ी गईं और ना ही कभी सुनी गईं

स्त्रियों पर कई-कई गोष्ठियां हुईं
स्त्री विमर्श पर चिंतन परक लेख लिखे गए 
स्त्री उत्पीड़न की घटनाओं पर  शाब्दिक दुख प्रगट किए गए 
टीवी चैनलों पर बहसें हुईं
अखबारों पर मोटे मोटे अक्षरों से सुर्खियां लगाई गईं
स्त्रियां खबरों पर छाई रहीं

पर घटनाओं से पहले 
और घटनाओं के बाद बेखबर रही स्त्रियां।

--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

मुफ्त की चीजों से..19.03.22

मुफ्त की चीजों से..19.03.22
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हमारी आदत सी हो गई है
कि हमें सब कुछ मुफ्त में चाहिए
भिखारियों की तरह हम मांगते ही रहते हैं
राशन पानी बिजली कपड़ा मकान रोजगार मोबाइल और मुफ्त का वाईफाई कनेक्शन

मुफ्त की चीजों से
बदलने लगे हैं हमारे खून की तासीर
हम कमाना नहीं चाहते अमरबेल की तरह फैलना चाहते हैं

मुफ्त की चीजों से
घटती जा रही है श्रम की ताकत और हमारे स्वाभिमान

मुफ्त की चीजों से
शून्य होता जा रहा है 
विरोध में बोलने और खड़े होने का साहस

मुफ्त की चीजों से
हम भरते जा रहे हैं
गहरे आत्म संतोष और निकम्मेपन से
जो सबसे जरूरी है उनके लिए

वह हमें कुछ भी नहीं दे रहे हैं
वरन बस ले रहे हैं हमसे हमारी हैसियत
छीन रहे हैं हमारा वजूद
और हम हैं की बड़े खुश हो रहे हैं
कि वे हमें सब कुछ मुफ्त में दे रहे हैं

उनका मुफ्त में देना
एक गहरा षड्यंत्र है
हमें लगता है 
कि मुफ्त की चीजों से हमारी जिंदगी भर गई है
मगर मुफ़्त लेने के एवज में
हमारी असली जिंदगी हमसे छीन गई है।

--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
  9755852479

डरावना सवाल -12.03.22

डरावना सवाल -12.03.22
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मैंने एक दिन पक्षियों से पूछा 
उनके देश के बारे में 
और पूछा क्या कभी आपस में लड़ते हो
अपने देश की सीमाओं के लिए..?

बिना कोई जवाब दिए 
वे बस उड़ते रहे
जैसे मेरा सवाल ही फिजूल हो
और जैसे कह रहे हों
उड़ सकते हैं हम जहां जहां
सब देश है हमारा

मैंने एक दिन तितलियों से पूछा 
कि कौन सा रंग पसंदीदा है तुम्हारे
हरा नीला सफेद केसरिया..?

और पूछा अलग-अलग पसंद के रंगों के लिए क्या कभी तुम आपस में लड़ते हो..?

वे मेरी बातों को अनसुनी करतीं
फूलों पर जा-जा मंडराती रहीं
बिना कोई जवाब दिए

जैसे मेरा रंगों का सवाल ही बेरंग हो
और जैसे कह रहे हों
रंग बिरंगी हमारी दुनियां
रंग बिरंगे सारे फूल
हमें पसंद हैं दुनिया के सारे रंग

मैंने एक दिन पशुओं से पूछा
कि बताओ ज़रा अपनी जाति धर्म और झंडों के बारे में

वे मेरी बातों पर अपना वक्त जाया ना करते हुए
बस उछलते कूदते रहे
झुंड में चरते रहे
एक दूसरे को चाटते रहे
जैसे मेरे सवाल
उनके लिए है ही नहीं

एक दिन पशु-पक्षियों की संयुक्त बैठक में फिर पहुंचा और कहा
तुम सब मिलजुल कर आपस में रहते हो
ना तुम्हारे कोई राष्ट्र हैं
न सीमाएं,न झंडे
ना कोई जाति ना कोई धर्म
आखिर तुम सब किस ईश्वर को मानते हो..?

इतना सुनते ही सारे पक्षी उड़ गए
जानवर सभी भाग खड़े हुए
जैसे मैंने उनसे कोई डरावना सवाल पूछ दिया हो।
--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
  9755852479

Friday 4 March 2022

हिंदी के वारिस 21.01.22

हिंदी के वारिस 21.01.22
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जब कोई धड़ल्ले से अंग्रेजी में अपनी बातें कह रहा होता है
मंच के सामने बैठे कुछ लोग कुढ़ रहे होते हैं

कुढ़ने वाले होते हैं तथाकथित हिंदी प्रेमी
उन्हें अंग्रेजी नहीं आती
वे अंग्रेजी सीखना भी नहीं चाहते
वे अपना समय अंग्रेजी सीखने में नहीं
अंग्रेजी से नफरत करने में लगाते हैं

मजे की बात तो यह है 
उनसे ठीक से हिंदी भी नहीं बोला जाता
मगर वे हिंदी बोले जाने की लड़ाई लड़ते हैं
वे अपनी नाकामी देशभक्ति से जोड़ लेते हैं
जोर-जोर से चिल्लाते हैं
हिंदी हमारी माता है
हिंदी हमारी भाषा है
हिंदी हमारी पहचान है
हिंदी हमारी आन है अभिमान है
उन्हें ठीक से हिंदी लिखने भी नहीं आता
हिंदी वर्णों का क्रम भी उन्हें नहीं पता
मगर हिंदी के वारिस होने का ढिंढोरा पीटते रहे हैं हमेशा।
--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
  9755852479

बातों को उबारने की कोशिश-21.01.22

बातों को उबारने की कोशिश-21.01.22
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किसी के पास कुछ भी नहीं है कहने को
या फिर कह नहीं पाते जो कहना चाहते हैं

दुनिया में कहने को तो बहुत कुछ है
बहुत कुछ कहे जा चुके हैं
बहुत कुछ कहे जा रहे हैं
बहुत कुछ कहे जाते रहेंगे

कितनों का कहा बिल्कुल समझ नहीं आया
कितनों का कहा कुछ कुछ समझ आया

वही वही बातें कितनी बार कहे गए
कहने के तरीकों में होती हैं 'बातें'
गर कहने के तरीके ना हो तो शब्दों में रह जाती हैं 'बातें'

शब्दों के फंदों में 
ना जाने कितनी बातें 
फंसकर रह गई होंगी
शुक्रगुजार हैं हम उनके लिए
जिन्होंने शब्दों के जाल से बातों को उबारने की ईमानदार कोशिश की है।
-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479