Monday 27 July 2020

अच्छा हुआ भाई तुम चले गए

अच्छा हुआ भाई तुम चले गए -28-07.2020
(कैंसर से पीड़ित भाई के मरने पर याद में)
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भाई अच्छा हुआ कि
तुम जिंदगी छोड़कर चले गए
काल के प्रतिरूप
भयंकर घाव से पीड़ित
प्रतिपल असह्य वेदना सहते हुए
आखिर कब तक जिंदगी को साथ देते

तुमने जी भर जिया
अपने अंतिम साँस तक लड़ा भी
तुम हारे नहीं
तुम्हारे लिए तड़पाती जिंदगी से
शायद मौत बेहतर थी

तुम जिंदगी के दुख-दर्द
और उस बैरी घाव की पीड़ा से मुक्त
गहरी नींद में डूबे हुए से
एकदम निश्चिंत लग रहे थे
तुम्हारा मृत शरीर
कितना शांत-निश्चल था

अच्छा हुआ भाई तुम चले गए
सचमुच यह जिंदगी
अब तुम्हारे लायक नही थी

भाई तुम चले गए
पर तुम्हारी यादें नहीं जाती
तुम्हारे साथ बिताए 
जिंदगी के हसीन पल
और
दुनियाँ से रुख़सत होते हुए
जिंदगी को कोसती हुई सी
तुम्हारी दर्द से भरी वो कराहें
मेरी ज़ेहन से दूर नहीं जाती।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      9755852479

Saturday 25 July 2020

बेमेल थे तुम्हारे जवाब

बेमेल थे तुम्हारे जवाब.. 25.07.2020
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निकले थे काम पर परदेश
वहाँ न तो था घर तुम्हारा
न ही थे कोई अपने लोग
असमंजस के भँवर में फंसे हुए
तुम दिशाहीन बेचैन होकर
पैदल चले आ रहे थे
अपने घर की ओर

तुम्हें रास्ते में ही
घर जाने के जुर्म में
कर लिया गया था गिरफ़्तार 

तुम बेतहाशा
भूख के मारे
तड़प रहे थे

प्यास के मारे
चटक गई थी तुम्हारी ज़बान

तुम्हें छोड़े जाने 
के एवज़ में
पूछे जा रहे थे तुमसे
सवाल दर सवाल
जिनका तुम्हें देना था
माक़ूल जवाब

उसने पूछा
तुम्हारी जात क्या है..?
तुमने हाँफते हुए कहा था
रो.s..टी...

उसने पूछा
तुम्हारा धरम क्या है..?
तुमने कराहते हुए कहा था
रो.s..टी...

उसने पूछा
कहाँ से आ रहे हो..?
तुमने घुटते हुए दम से कहा था
रो.s.. टी...

उसने पूछा
तुम कहाँ जावोगे ..?
तुमने सांस फेंकते हुए कहा था
रो.s.. टी...

तुमने उखड़ती हुई 
सांसों के साथ
हर सवालों के जवाब में
कहा था---
रोटी..रोटी..रोटी..रोटी..रोटी..

आख़िरकार तुम
बचाए नहीं जा सके
क्योंकि-
उनके रिकार्ड से 
बिलकुल बेमेल थे
तुम्हारे सारे जवाब।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

Thursday 23 July 2020

1.बस रहने दो..!,2.चूल्हा क्यों नहीं जलता...?

1.बस रहने दो... !
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अच्छा होगा कि
आप कुछ भी न करें
यहां तक विकास के नाम पर कोई काम भी

हमने देखें हैं
तुम्हारे विकास के सारे काम 
अब बस !

आसमान को आसमान
धरती को धरती
पानी को पानी
जंगल को जंगल
नदी को नदी
पहाड़ को पहाड़
और
आदमी को आदमी 
रहने दो

बस इतनी-सी गुज़ारिश है आपसे।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

2.चूल्हा क्यों नहीं जलता... ?
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गरमी में जलते हैं
उनके नंगे पांव

दंगों में अक़्सर 
जल जाते हैं उनके घर

घृणित साजिशों से
जलती है उनकी फसलें

भूखों में जलते हैं पेट
बेबसी में जलते है तन और मन

हर बार
संवरने से पहले ही
जल जाते हैं
छोटे से छोटे उनके सारे सपने

पर बड़ी ताज्जुब है कि
सब कुछ जल जाने के बाद भी
बची रह जाती हैं उनकी नस्लें

जिनके यहाँ 
जलने के इस क्रम में
एक चूल्हा ही है जो नहीं जलता।

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

1.तानाशाही लोकतंत्र,2.मुझे हिम्मत दो लोकतंत्र !

1. तानाशाही लोकतंत्र - 22.07.2020
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तानाशाही लोकतंत्र से
डर लगता है मुझे
क्योंकि--
न तो हम इस व्यवस्था में
किसी को तानाशाह कह सकते हैं
न ही ऐसी व्यवस्था को लोकतंत्र।

2. मुझे हिम्मत दो लोकतंत्र ! 
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मैं जो लिखना चाहता हूँ
कई बार नहीं लिख पाता हूँ

पता नहीं कब कौन बुरा मान जाए..?
कब किसे चुभ जाए मेरी बातें..?

उलझा हुआ अभिव्यक्ति के द्वंद्व में
सोचता हूँ कई बार
मेरे डरने पर
मुझे हिम्मत क्यों नहीं बंधा पाता मेरा लोकतंत्र ?

मुक्तिबोध के कहे
अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठा सकूँ
इतना-सा भरोसा क्यों नहीं दिला पाता मेरा लोकतंत्र?

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
     9755852479

तुम सच थे या सपने

तुम सच थे या सपने ! 19.07.2020
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ओ मेरे अपने 
तुम सच थे या सपने
चलेंगे साथ-साथ
रहेंगे साथ-साथ
जिएंगे साथ-साथ
दुहराए हम कितने बार

तुम्हारी धड़कनें रुकी अचानक
तुम्हारी साँसें टूटी अचानक
तुम्हारे वादे टूटे अचानक
पास थे,दूर हुए अचानक
पल में इतिहास हुए अचानक

अब सारे सच सपने लगते हैं
समझ नहीं आता
आखिर सपने क्यूँ इतने सच और अपने लगते हैं..?

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

Saturday 18 July 2020

ख़ूब बजाओ,जलाओ, बरसाओ !

ख़ूब बजाओ,जलाओ,बरसाओ ! 17.07.2020
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तुम ताल पर ताता-थैया नाचते हुए
ताली बजाते रहे 
थाली बजाते रहे
घंटी बजाते रहे
उधर सरकार झुनझुना बजाती रही
और 
इधर कोरोना तुम्हारा बेंड बजाता रहा।

तुम ख़ुद अंधेरे में डूबे हुए
मोबाइल फ्लैस जलाते रहे
दीपक जलाते रहे
मोमबत्ती जलाते रहे
उधर सरकार वादों की सूची जलाती रही
और
इधर कोरोना तुम्हारी झूठी उम्मीदें जलाता रहा।

तुम खुद शूलों पर खड़े हुए
फूल बरसाते रहे
प्रेम बरसाते रहे
आँसूओं की धारा बरसाते रहे
उधर सरकार सहानुभूति बरसाती रही
और
इधर कोरोना तुम पर कहर बरसाता रहा।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      9755852479

Friday 17 July 2020

कश्मकश !

कश्मकश !  17.07.2020
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घर से निकलने की कश्मकश
अगर निकल गए घर से
फिर
जैसे निकले थे वैसे ही आ पाने की कश्मकश !

अनबोले तो नहीं
पर मुँह खोले भी नहीं
एक लफ़्ज बोले जाने की कश्मकश !

मिली खौफ़जदा नजरें परस्पर
पर खुले नहीं दिल 
दिल खोले जाने की कश्मकश !

रीते-रीते से हुए हम
और रीती-रीती सी हुई दुनियाँ
बेबस चेहरे 
पाबंद-जिंदगियां
मिलकर खुशियां मना लेने की कश्मकश !

हैं पैसे 
पर खर्चे नहीं
खर्चें हैं
मग़र कमाने का ज़रिया नहीं
धुंधले-धुंधले हैं सारे रास्ते
आगे एक कदम बढ़ाने की कश्मकश !

दुश्मन है अदृश्य
सारे सपनों को घेरे
वक्त है बहुत
मग़र अरमान अधूरे-अधूरे
अब कहो मत 'बी-पॉजिटिव'
मन में पॉजिटिव हो जाने की कश्मकश !

-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

घरेलू नुस्ख़े

घरेलू नुस्ख़े  16.07.2020
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मुझे सर्दी होने से पहले
हर बार होता है
नाक के नीचे गले में अजीब-सा दर्द

मैंने अपनी समस्या 
माँ को बताई
कहा उसने
तुम्हे गले की ख़राश है
बताया उसने यह भी
बड़ी आम बात है
गले में ख़राश का होना

गले की ख़राश दूर करने के लिए
बताए उसने नुस्ख़े

सुबह उठकर 
गुनगुने पानी में
नमक डालकर
पाँच-पाँच मिनट रोज
गरारा करना है
तीन दिन 

तीन कप पानी में
चार-पाँच काली मिर्च
तुलसी की पांच-छः पत्तियां
साथ उबालकर 
एक कप काढ़ा बनाना
और पीना दिन में तीन बार

रात में सोने से पहले
चुटकी भर हल्दी डाल
पाँच दिन पीना गरम दूध 

जब-जब होती थी 
गले में ख़राश
माँ के बताए नुस्ख़े
करता था हर बार
छू मंतर हो जाती थी 
गले की ख़राश

माँ नहीं है अब
पर याद है
माँ के बताए नुस्ख़े

मुझे जब-जब 
गले में होती है खराश
याद आती है माँ
फिर उसके बताए नुस्ख़े

आज जीवन के जद्दोजहद में
चारों ओर फैली हैं
खराशें ही खराशें
मग़र अफ़सोस
ख़राशों को दूर करने के लिए
माँ नहीं है 
और माँ के घरेलू नुस्ख़े भी..।

--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
      975585249

Monday 13 July 2020

श्री भीष्म साहनी जी के नाटक 'हानूश' की समीक्षा

दुर्दमनीय सृजनशीलता की दृढ़ अनुभूति : हानूश
(14 जुलाई,2020)
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भीष्म साहनी जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे।हिंदी गद्य लेखन में उनकी गिनती अग्रिम पंक्ति में होती है।साहनी जी उत्कृष्ट कोटि के कथाकार, उपन्यासकार के रूप में स्थापित तो हैं ही साठोत्तरी हिंदी नाटककारों में भी उनका विशिष्ट स्थान है।भीष्म साहनी जी सजग युगदृष्टा रचनाकार थे।उन्होंने जो महसूस किया, युग में जो भी देखा,अनुभव किया साहित्य के माध्यम से समाज के सामने रखा।उनके सारे साहित्य चाहे वह कहानी हो या उपन्यास या फिर नाटक की विधा सभी में उनके देखे,भोगे और महसूस किए गए यथार्थ दिखाई पड़ते हैं।स्वयं भीष्म साहनी जी 'अपनी बात' में लिखते हैं,-" मैं समझता हूँ, अपने से अलग साहित्य नाम की कोई चीज़ नहीं होती।जैसा मैं हूँ,वैसी ही मेरी रचनाएं भी रच पाऊँगा।मेरे संस्कार, मेरे अनुभव, मेरा व्यक्तित्व, मेरी दृष्टि सभी मिलकर रचना की सृष्टि करते हैं।इनमें से एक भी झूठी हो तो सारी रचना झूठी पड़ जाती है।...लेखक का सत्य दो अलग-अलग सत्य होते हैं।एक ही सत्य होता है और वह जीवन सत्य होता है।उसी को साहित्य वाणी देता है।"1
         साहनी जी की रचनाओं में यथार्थवादिता एवं युगबोध प्रवृति होने के कारण ही साहित्य मनीषी उन्हें मुंशी प्रेमचंद जी एवं यशपाल जी की परंपरा का लेखक मानते हैं।साहनी जी का रचना संसार हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोधर है।उनकी प्रमुख रचनाओं में भाग्यरेखा,पहला पाठ, भटकती राख,पटरियां, वाङ्चू, चीलें, शोभायात्रा, निशाचर, पाली,डायन(कहानी संग्रह); तमस,झरोखे, कड़ियाँ, बसंती, मय्यादास की माड़ी, कुंतो, नीलू नीलिमा नीलोफर(उपन्यास); हानूश-1977,कबीरा खड़ा बाज़ार
में-1981,माधवी-1984,मुआवजे-1993,रंग दे बसंती चोला-1996,आलमगीर-1999(नाटक); आज के अतीत (आत्मकथा); बलराज माय ब्रदर(जीवनी); गुलेल का खेल(बालकथा) है।
            भीष्म साहनी जी को नाटक और रंगमंच के प्रति बचपन से गहरी रुचि थी।वे इसका उल्लेख अपनी आत्मकथा 'आज के अतीत' में करते हुए लिखते हैं,-"मैं चौथी कक्षा पढ़ता था जब स्कूल में खेले गए एक नाटक में पहली अदाकारी की।नाटक का नाम श्रवण कुमार था और मैं श्रवण कुमार की भूमिका ही निभा रहा था।"2 साहनी जी कुछ वर्षों तक 'भारतीय जन नाट्य संघ'(इप्टा) के सदस्य के रूप में भी कार्य किया।वे अपने साक्षात्कार में नाटक के प्रति अपने लगाव पर कहते हैं कि"नाटक की दुनियां बड़ी आकर्षक और निराली है।किस तरह धीरे-धीरे नाटक रूप लेता है और रूप लेने पर कैसे एक नए संसार की सृष्टि हो जाती है।यह अनुभव बहुत ही सुखद और रोमांचकारी होता है।नाटक खेलनेवालों के सिर पर एक तरह का जुनून छाया रहता है,जिसका मुकाबला नहीं।"3
          भीष्म साहनी जी के बारे में यह बताना जरूरी है कि उन्होंने साहित्य लेखन की शुरुआत स्वतंत्रता प्राप्ति के दौर से की और नाट्यलेखन की शुरूआत आपातकालीन परिस्थितियों से।'हानूश' भीष्म साहनी का प्रथम नाटक है जो 1977 ई. में आपातकाल के दौरान लिखा गया।उन्होंने 'आज के अतीत' में लिखा है कि -"नाटक अभी खेला ही जा रहा था जब मुझे एक दिन प्रातः अमृता प्रीतम का टेलीफोन आया।मुझे मुबारकबाद देते हुए बोलीं-"तुमने एमरजेंसी पर ख़ूब चोट की है मुबारक़ हो।"4 यद्यपि भीष्म साहनी जी इस नाटक के विषय और आपातकाल में कोई साम्य स्वीकार नहीं करते।नाटक का मूल उद्देश्य आपातकाल से बिलकुल भिन्न है।आगे वे लिखते हैं,-"पर हाँ, इसमें संदेह नहीं कि निरंकुश सत्ताधारियों के रहते,हर युग में, हर समाज में, हानूश जैसे फ़नकारों-कलाकारों के लिए इमरजेंसी ही बनी रहती है और वे अपनी निष्ठा और आस्था के।लिए यातनाएं भोगते रहते हैं।"5
            भीष्म साहनी जी को हानूश लिखने की प्रेरणा चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग की एक छोटी-सी घटना पर आधारित है।वे इस नाटक के प्रारंभिक भूमिका 'दो-शब्द' में लिखते हैं,-"बहुत दी पहले लगभग 1960 के आसपास मुझे चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में जाने का सुअवसर मिला था।मेरे मित्र निर्मल वर्मा उन दिनों वहीं पर थे, और चेक भाषा तथा संस्कृति की उन्हें अच्छी-ख़ासी जानकारी थी।सड़कों पर घूमते-घामते एक दिन उन्होंने मुझे एक मिनारी घड़ी दिखाई जिसके बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित थी कि यह प्राग में बनाई जाने वाली पहली मीनारी घड़ी थी,और इसके बनाने वाले को उस समय के बादशाह ने अजीब तरह से पुरस्कृत किया था।"6 चेकोस्लोवाकिया की यात्रा के बाद लेखक के दिलो दिमाग में मीनारी घड़ी वाली वह बात गूँजती रही।हानूश को अपनी कला प्रति जो जुनून सवार था वही जुनून लेखक के मन में हानूश की उस पीड़ा को शब्द देने के लिए सवार था।वे इस नाटक की भूमिका 'दो-शब्द' में लिखते हैं,-"बात मेरे मन में अटकी रह गई,और समय बीत जाने पर भी यदा-कदा मन को विचलित करती रही।आखिर मैंने इसे नाटक का रूप दिया जो आपके हाथ में है।यह नाटक ऐतिहासिक नाटक नहीं है,न ही इसका अभिप्राय घड़ियों की आविष्कार की कहानी कहना है।कथानक के दो-एक तथ्यों को छोड़कर लगभग सभी कुछ ही काल्पनिक है।नाटक एक मानवीय स्थिति को मध्ययुगीन परिप्रेक्ष्य में दिखाने का प्रयासमात्र है।"7
          इस नाटक में कुल तीन अंक हैं।पात्रों की संख्या मुख्य और गौण मिलाकर उन्नीस हैं पर प्रमुख पात्र जिनके संवादों के इर्दगिर्द कहानी रची गई है उनमें हानूश,हानूश का पादरी भाई, बूढ़ा लोहार,एमिल और जेकब प्रमुख हैं।नाटक की कथा हानूश के घड़ी बनाने के प्रेम और जुनून पर केंद्रित है।दरअसल वह मिनारी घड़ी जो प्राग की नगरपालिका पर सैकड़ों वर्ष पहले लगाई गई थी,चेकोस्लोवाकिया में बनाई जाने वाली पहली घड़ी मानी जाती थी।इस मिनारी घड़ी के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित थी कि इसे बनाने वाला एक साधारण कुफ्लसाज था।वह अपने जीविकोपार्जन के लिए मूलतः ताला बनाने का काम करता था पर उसे जुनून था घड़ी बनाने की।उसे घड़ी बनाने में सत्रह साल लगता तो है पर आख़िरकार सफ़ल हो जाता है।जब घड़ी बनकर तैयार हुई तो राजा ने उसे अंधा करवा दिया ताकि वह ऐसी कोई दूसरी घड़ी न बना सके।महाराज आदेशित करता है कि -"इस आदमी को और घड़ियां बनाने की इजाज़त नहीं होगी।इस हुक़्म पर अमल करवाने के लिए...(थोड़ा ठिठककर) हानूश 
कुफ्लसाज को उसकी आँखों से महरूम कर दिया जाए।उसकी आँखें नहीं होगी तो और घड़ियाँ नहीं बना सकेगा।"8
            मूल कथानक की घटना समय लगभग पाँच सौ वर्ष पुराना है जिसमें कथा नायक हानूश ताला बनाने का काम करता है।परिवार में पत्नी कात्या और एक बेटी थी।हानूश का बड़ा भाई पादरी था।बाद में एक आश्रयहीन जेकब नाम के एक युवक को आश्रय दिया गया जो हानूश को ताला बनाने में मदद करता था।कात्या ताले को बाज़ार बेचने जाती थी,इस प्रकार घर का निर्वाह होता है।जब हानूश ने घड़ी के बारे में सुना तो उसके मन में भी घड़ी बनाने का ख़्याल पनपने लगा।इसके लिए उन्होने गणित  सीखा साथ ही लुहार से ज़रूरी औज़ार भी बनवाए।पर इस कार्य के लिए सबसे ज़्यादा जरूरी था पैसे की सो उसके पादरी भाई ने चर्च से कुछ अनुदान दिलवाया।हानूश अपने घड़ी बनाने की धुन में घर-गृहस्थी का कार्य लगभग भूल से गया।वह ताला बनाने के कार्य में समय नहीं दे पाता था।पत्नी कात्या को हानूश का घड़ी बनाना बिलकुल पसंद नहीं था क्योंकि इससे घर का निर्वाह करना मुश्किल हो गया था।इसी संबंध में कात्या और हानूश के बीच शाब्दिक झड़प होती रहती थी।कात्या हानूश का अनादर करते हुए उसके पादरी भाई से कहती है,-"उसमें पति वाली कोई बात हो तो मैं उसकी इज्ज़त करूँ।जो आदमी अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकता,उसकी इज्ज़त कौन औरत करेगी?"9 जेकब के आ जाने से हानूश को सहायता और हिम्मत मिली फिर पुनः अपने काम में जुट गया।सत्रह वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद घड़ी बस बनने ही वाली थी कि एक बार फिर आर्थिक समस्या आड़े आ गई।इस बार नगरपालिका के कुछ शुभचिंतकों ने इस शर्त पर कि घड़ी बन जाने पर उनके कहे स्थान पर घड़ी स्थापित की जाएगी, आर्थिक मदद की।आखिरकार वह दिन भी आया जब एक स्वप्न दृष्टा,जुनूनी कलाकार का स्वप्न साकार हुआ यानी हानूश मिनारी घड़ी बनाने में सफल हुआ।ततपश्चात व्यावसायिकों ने शर्त के अनुसार घड़ी को शहर के ब्यस्त चौराहे की मीनार पर लगाने का निश्चय किया।इस प्रकार व्यापारी एक तीर से कई निशाना लगाना चाह रहे थे।पहला घड़ी गिरजाघर में नहीं लगेगी तो उनका प्रभाव कम होगा।दूसरा घड़ी को देखने दूर-दूर से आएंगे तो बाज़ार की रौनक बढ़ेगी।तीसरा बादशाह प्रसन्न होकर व्यापारियों को दरबार में नुमाईंदगी देंगे जिससे रुतबा बढ़ेगी। ख़ैर, बादशाह द्वारा आखिरकार घड़ी का उद्घाटन किया गया।चारों ओर हानूश की चर्चा आम थी।बादशाह द्वारा हानूश को खूब पुरस्कार और सम्मान दिए जाने की घोषणा की गई।फिर महाराज ने एलान किया कि-" हम खुश हुए।इसे एक हज़ार सोने के मोहरे दे दिये जाए।इसका महीना बाँध दो और यह घड़ी की देखभाल किया करे।आज से इस आदमी का रुतबा एक दरबारी का रुतबा होगा।"10 हानूश बादशाह के घोषणा से गदगद था तभी राजा ने उसकी दोनों आँखे निकाल देने का भी एलान कर दिया।राजा का तर्क था कि ऐसी नायाब घड़ी मुल्क़ में और दूसरी न बनें।बादशाह की आदेश से हानूश की आँखे निकाल दी गई।उसके जीवन में अंधेरा छा गया।अंधेपन के कारण वह विक्षिप्त सा हो गया।वह अपने अंधेपन का कारण घड़ी को मानते हुए उसे नष्ट करने के लिए सोचने लगा।इसी बीच जेकब घड़ी बनाने का भेद अपने भीतर छुपाए प्राग से चुपचाप दुश्मन देश तुला चला गया।घोर निराशा के क्षणों में हानूश स्वयं को ख़त्म कर देने के लिए असफ़ल प्रयास भी करता है।तभी हानूश को घड़ी खराब होने की सूचना मिलती है।हानूश के पास घड़ी को नष्ट करने का अवसर होते हुए भी वह घड़ी को नष्ट नहीं करता बल्कि सुधारकर पुनः उसे ठीक कर देता है।वस्तुतः हानूश क्या कोई भी सच्चा कलाकार विषम हालातों में भी अपनी कलाकृति को नष्ट नहीं कर सकता।हानूश अपने कलाप्रेम को प्रगट करते हुए कला के प्रति उदात्त प्रेम का परिचय देता है।अन्तर्द्वंद से उबरकर उसका चरित्र कुंदन की भांति निखर उठता है।
                हानूश को सर्जन प्रक्रिया में पारिवारिक, आर्थिक संकटों से गुजरना तो पड़ता ही है साथ ही धर्म से भी टक्कर लेने पड़ती है।विज्ञान की तार्किक और वस्तुनिष्ठ दृष्टि से धार्मिक वर्ग अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस करता है।इसी हानूश का विरोध करते हुए कहते हैं,-"तुम शैतान की औलाद हो घड़ी बना रहे हो।घड़ी बनाना इंसान का काम नहीं, शैतान का काम है।घड़ी बनाने की कोशिश करना ख़ुदा की तौहीन करना है।भगवान ने सूरज बनाया है,चाँद बनाया है,अगर उन्हें घड़ी बनाना मंजूर होता तो क्या वह घड़ी नहीं बना सकते थे?उसके लिए क्या मुश्किल था?इस वक्त आसमान में घड़ियाँ ही घड़ियाँ लगीं होती।सूरज और चाँद ही भगवान की दी हुई घड़ियाँ है।जब भगवान ने घड़ी नहीं बनाई तो इंसान का घड़ी बनाने का मतलब ही क्या है?"11 इस प्रकार लाट पादरी हानूश को ईश्वर विरोधी ठहराकर उसके आविष्कार का विरोध करता है और आर्थिक मदद बंद कर देता है।यहाँ लेखक ने उस संकीर्ण मानसिकता की ओर संकेत किया है जिसके कारण बुद्धिजीवी वर्ग जो नयी बात या नया सिद्धांत प्रस्तुत करना चाहता है उसे इसी प्रकार घोर विरोध का सामना करना पड़ता है।मध्ययुगीन यूरोपीय समाज में ऐसे ही कितने वैज्ञानिकों को यह कहकर मौत के घाट उतार दिया गया कि तुम ईश्वर विरोधी हो।
              यह नाटक एक सृजनशील समर्पित सच्चे कलाकार की विवशता और तमाम विरोधों से जूझते हुए अन्तर्द्वंद में उलझे दशा को दिखाता है।सत्ता संघर्ष, शक्ति संरक्षण, संतुष्टिकरण की नीति और कूटनीतिक चालों की कारण हमेशा कलाकार पीसता रहा है।यह नाटक मध्ययुगीन परिवेश पर लिखा गया है पर सामयिक परिवेश भी इससे कुछ अलग नहीं है।वर्तमान में भी राजनीति और राजनेताओं के आपसी कलह में सच्चा कलाकार,प्रतिभावान खिलाड़ी,वैज्ञानिक आदि कई बार हाशिये में रह जाते हैं।इस नाटक को पढ़ते हुए मुझे श्री फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी 'पहलवान की ढोलक' की याद ताज़ा हो गई।सत्ता परिवर्तन का शिकार आखिर एक कलाकार को क्यों होना पड़ता है ?
दरअसल सत्ताधीशों का कलाकार और कला की महत्ता से कोई कोई सरोकार नहीं होता।उनके लिए अपने अहम को संतुष्ट करना और स्वार्थ को सिद्ध करना ज़्यादा जरूरी होता है ।इसी तरह सृजनात्मकता का संकट मोहन राकेश जी के नाटक 'आसाढ़ का एक दिन' में भी देखा जा सकता है। राजा अपनी शक्ति और शान को बनाए रखने के लिए कलाकार की प्रतिभा को सम्मानित करने के बजाय कलाकर की कला पर अपना अधिकार जमाना चाहता है।वह इस दंभ में जीता है कि यदि एक कलाकार,कलाकार है तो उसका वज़ह स्वयं राजा है।शाहजहां ने बेगम मुमताज की याद में सुंदर ईमारत 'ताजमहल' बनाने वाले कारीगर का हाथ कटवा दिया था ताकि वह मिस्त्री ताजमहल जैसी कोई दूसरी ईमारत न बना सके।निसंदेह राजा कलाकार के लिए पूरी सुख-सुविधा का इन्तिज़ाम तो करता है पर इसके साथ ही उसकी प्रतिभा,अप्रतिम कारीगरी की हत्या भी कर देता है।यह विडंबना है कि संसार नायाब कला को अंजाम देने वाले कलाकार को याद नहीं करता।इतिहास में उसका नाम दर्ज नहीं होता बल्कि याद किया जाता है क्रूर,हिंसक राजा जो कलाकार की हूनर को ख़त्म करता है।हानूश के साथ भे यही होता है।उसे राजदरबार में जगह तो मिल जाता है पर उसकी नियति पींजरे में बंद उस पक्षी की तरह होता है जिसे सारी सुविधाएं तो मिलती है पर स्वतंत्रता नहीं।परकटे पक्षी की विडंबना यह है कि वह उड़ना तो जानता है पर उड़ नहीं सकता।
                भीष्म साहनी जी ने नाटक के संवादों में जीवन के लिए जरूरी अपने अनुभवजन्य सन्देशों को कहीं-कहीं सूक्तियों की तरह दर्ज किया है।पहले अंक में हानूश के पादरी भाई द्वारा निराश कात्या को धैर्य रखने एवं सकारात्मक बने रहने की सीख देते हुए कहता है,-"सारा वक्त पीछे की ओर ही नहीं देखते रहते,कात्या।कभी भविष्य की ओर भी देखना चाहिए।सियाने कह गए हैं:पीठ अतीत की ओर और मुँह भविष्य की ऒर होना चाहिए।"12 इसी तरह एक और प्रसंग में कात्या को समझाते हुए कहता है,-"पैसे वाले कौन-से सुखी हैं, कात्या ? अगर पैसे से सुख मिलता हो तो राजा-महाराजों जैसा सुखी ही दुनियाँ  में कोई नहीं हो।"13  एक अन्य प्रसंग में जब हानूश यह समाचार सुनता है कि गिरजेवालों ने माली-इमदाद देना बंद कर दिया है तो वह व्यग्र होकर नकारात्मक सोचने लगता है तभी उसका बड़ा भाई समझाते हुए कहता है,-"तुम बहुत ज़्यादा उत्तेजित रहते हो, यह ठीक नहीं ।आदमी के मन में स्थिरता होनी चाहिए।मन शांत रहे तो इंसान बहुत कुछ सोच सकता है।"14 एक और प्रसंग में कात्या को समझाते हुए अपने पति हानूश का हौसला अफजाई करने का सलाह देते नज़र आते हैं,-"तुम नहीं जानती कात्या,अगर आदमी को उसकी पत्नी का विश्वास मिले तो उसके हौसले दुगुने हो जाते हैं,उसका उत्साह दुगुना हो जाता है।"15
         नाटक की भाषा सरल-सहज बोलचाल की हिंदी भाषा है किंतु कहीं-कहीं ऊर्दू शब्दों का प्रयोग भी किया गया है।नाटक की भाषा में प्रवाहमयता और नाटकीयता का जबरदस्त समन्वय दिखाई पड़ता है।
           निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि हानूश नाटक जहां एक ओर शोषणकारी सत्ताधारी वर्ग का सत्य है तो दूसरी ओर दुर्दमनीय सृजनात्मकता से भरे विक्षुब्ध कलाकारों का भी वर्ग सत्य है।नाटक का विषय ऐतिहासिक कम काल्पनिक
अधिक है पर जो विसंगतियां नाटक में दर्ज है वह हमेशा समकालीन बना रहेगा।यूं तो भीष्म साहनी जी कथाकार के रूप में विख्यात हैं पर नाटककार के रूप में भी उनका योगदान अविस्मरणीय रहेगा।
सन्दर्भ सूची :---
  1. अपनी बात, भीष्म साहनी ,पृ. सं.- 26,27
  2. आज के अतीत,भीष्म साहनी,राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,प्रथम संस्करण,2013,पृ. सं.-44
  3. भीष्म साहनी:व्यक्ति और रचना,राजेश्वर सक्सेना एवं प्रताप ठाकुर, वाणी प्रकाशन,दिल्ली,प्रथम संस्करण,1997,पृ. सं.-16
  4. सम्पूर्ण नाटक, भीष्म साहनी,भाग एक, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली प्रथम संस्करण,2011,पृ. सं.-8
  5. वही पृ. सं.-8
  6. भीष्म साहनी,हानूश,राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली,दो शब्द,पृ. सं.-07
  7. वही पृ. सं.-07
  8. भीष्म साहनी ,हानूश,राजमहल पेपरबैक्स, नई दिल्ली,द्वितीय अंक,पृ. सं.-99
  9. वही पहला अंक पृ. सं.-11
  10. वही ,दूसरा अंक,दृश्य तीन,पृ. सं.-96
  11. वही,दूसरा अंक,दृश्य एक,पृ. सं.-52,53
  12. वही, पहला अंक, पृ. सं.-14
  13. वही, पहला अंक, पृ. सं.- 15
  14. वही, पहला अंक, पृ. सं.- 22
  15. वही, पहला अंक, पृ. सं.- 16
--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
सहायक प्राध्यापक
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
कवर्धा,जिला-कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
मो. 9755852479