Thursday 21 April 2022

जिंदा रहने की कोशिश है 'लिखना'-14.04.22

जिंदा रहने की कोशिश है 'लिखना'-14.04.22
------------------------------------------------
नहीं भूलती हैं लिखी हुई चीजें
शायद भूलने को परास्त करने के लिए खोजा गया होगा 'लिखना'

'लिखना' सीखने से पहले
हम सीखे होंगे 'बोलना'
मगर 'लिखने के बिना' कितना निराधार रहा होगा 'बोलना'
बोलने की प्रामाणिकता पर रोज उठाए जाते रहे होंगे सवाल
'बोला हुआ' सहीं होने पर भी 
 रोज कलंकित होता रहा होगा

'लिखना' सीखने से पहले
ना जाने कितनों ने की होगी वादा खिलाफी
ना जाने कितने
अपनी ही कही बातों पर
कभी भी मुकर जाते रहे होंगे
न जाने कितनी बार
स्मृतियों पर लगाए जाते रहे होंगे लांछन

लिखने के क्रम में हमने सीखा है
दृश्यों,घटनाओं और आंकड़ों को लिखना और सहेजना

अब लिखना महज लिखना नहीं है
'लिखना' कला है
रंगों को, संवेदनाओं को, हंसी को, रुदन को, प्रेम को,करुणा को,घृणा को रिश्तो को बड़े अलंकृत भाषा में लिखे जा रहे हैं

हम अक्सर भूल जाते हैं
दिन और तारीखें
पुराने दोस्तों के नाम और चेहरे
इन्हीं वजहों से
हमारे पूर्वजों ने
स्मृतियों की दगाबाजी से परेशान होकर
अपनी बातों को लिपियों में दर्ज करने का हुनर सीखे होंगे

हम जानते हैं अपनी सीमाएं
कि हम समय को रोक नहीं सकते
इसीलिए चुपचाप हम समय को दर्ज करते जाते हैं

और कुछ नहीं दरअसल
अपने समय को लिखते जाना
दबे पन्नों के अक्षर चिन्हों में
खुद को जिंदा रखने की कोशिश होती है।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

कीचड़ होता है युद्ध -13.04.22

कीचड़ होता है युद्ध -13.04.22
---------------------------------------
युद्ध को
युद्ध से ही
खत्म करने की कोशिश करना
ठीक वैसी ही कोशिश है
जैसे कीचड़ को 
कीचड़ से ही धोने की कोशिश करना

कीचड़ हो या युद्ध
हम संभल ही नहीं पाते
गिरते ही जाते हैं

दाएं बाएं के लोग भी
कीचड़ की छीटों से नहीं बच पाते

शहरों गलियों और घरों-घरों तक
बड़ी तेजी से फैलने लगता है कीचड़

कीचड़ में सने,पुते और धंसे लोगों को
कुछ भी सुनाई नहीं देती

कीचड़ की बाढ़ में
तबाह हो जाती हैं लहलहाती फसलें
दफन हो जाती हैं फलती फूलती सभ्यताएं

एक बार पांव रखने के बाद
बस धंसते ही जाते हैं
चाहे कीचड़ हो या युद्ध..।

--नरेंद्र कुमार कुलमित्र
  9755852479

'यात्री हो चला' किताब के पन्नों से... 12.04.22

'यात्री हो चला' किताब के पन्नों से... 12.04.22
-------------------------------------------------------------------
भागवत सांवरिया के 80 पृष्ठ में संकलित इस यात्रा वृतांत में छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के उन स्थलों का चित्रण किया है जहां वे एक यात्री के रूप में अपने मित्रों के साथ भ्रमण किया है। युवा यात्री भागवत सांवरिया के यात्रा वृतांत की खासियत यह है कि वह अपनी यात्रा के दौरान देखें और महसूस किए हर एक बातों को रोज का रोज यात्रा के दौरान ही दर्ज करते जाते हैं। असली यात्रा वृतांत वही होता है जिसमें यात्रा के दौरान के पल-पल आने वाले दृश्यों और घटनाओं का ब्यौरा समाया होता है। कोई यात्रा वृतांत तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब उसमें दृश्य और घटनाओं की खूबियों और कमियों का बेबाकी से उजागर किया जाता है। चूंकि यात्री पेशे से शिक्षक और साहित्य के प्रति लगाव रखने वाले हैं इसलिए दृश्य और घटनाओं को अधिक संवेदनशीलता के साथ महसूस कर पाते हैं। अजय जी इस किताब की प्रस्तावना में 'संवेदनशीलता की यात्रा' शीर्षक दिए हैं जो कि बिल्कुल उचित प्रतीत होता है।
           लेखक का यह यात्रा वृतांत मूल रूप से भारतीय संस्कृति के दो हिस्सों पर केंद्रित है पहला धार्मिक संस्कृति और दूसरा आदिवासी संस्कृति। इन दोनों संस्कृतियों के चित्रण में प्रकृति चित्रण अनायास रूप से समाहित है। जहां छत्तीसगढ़ की धरती अपनी विशिष्ट आदिवासी संस्कृति एवं प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात है तो उत्तराखंड की धरती तीर्थ और हिंदू धर्म संस्कृति के साथ हिमालयीन खूबसूरती के लिए विश्व विख्यात है।
                 इस यात्रा वृतांत किताब के प्रकाशन से पूर्व लेखक को यात्रा स्थलों के चित्रण में क्रम का ध्यान रखा जाना चाहिए था। छत्तीसगढ़ प्रदेश के स्थलों का पूरा चित्रण पहले किया जाना था तत्पश्चात उत्तराखंड के स्थलों का चित्रण करना उचित होता। पहले छत्तीसगढ़ फिर उत्तराखंड उसके बाद फिर छत्तीसगढ़ के स्थलों का चित्रण क्रम की दृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता है। यात्रा के तिथि क्रम की दृष्टि से भी बेला पानी का चित्रण सबसे पहले होना था। हालांकि पाठकों के लिए पाठकीय वस्तु ही महत्वपूर्ण होता है ना कि पाठकीय वस्तु का क्रम फिर भी समीक्षकीय दृष्टि छोटी-छोटी बातों तक अपनी पहुंच बना लेती है।
                  लेखक पुस्तक के तीन खंडों में अपनी यात्रा का चित्रण करते हैं। पहले खंड का नाम दिया है 'रहस्यों की धरती बस्तर' जिसमें छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर के विभिन्न पर्यटन स्थलों का चित्रण किया है,जिसमें दंतेवाड़ा,ढोलकल,जगदलपुर कुटुमसर गुफा,तीरथगढ़ एवं चित्रकूट जलप्रपात का चित्रण समाहित है। दूसरे खंड का नाम 'देव भूमि उत्तराखंड-छोटा चार धाम'है ,जिसमें हरिद्वार,हरिद्वार से बड़कोट,यमुनोत्री,गंगोत्री,केदारनाथ धाम,बद्रीनाथ धाम का चित्रण हुआ है। तीसरे खंड का नाम 'बैगा गांव बेला पानी में एक दिन' है,जिसमें बैगा आदिवासियों से भरपूर छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के दूरस्थ जंगल में बसे आदिवासी ग्राम बेलापानी की यात्रा का चित्रण है।
                        यात्रा वृतांत के पहले खंड के अंतर्गत दंतेवाड़ा की यात्रा में विशेष रुप से दंतेश्वरी मंदिर का चित्रण किया गया है जिसमें लेखक मंदिर के ऐतिहासिक पहलुओं पर ज्यादा ना लिखते हुए मंदिर दर्शन के समय अपनाए जाने वाले तौरतरीकों एवं सादगी का विशेष रूप से उल्लेख किया है। शायद यायावरी सोच रखने वाले यात्री के लिए किसी स्थान की ऐतिहासिकता पर ज्यादा लिखना उचित नहीं लगता, वे यह काम इतिहासविदों के लिए छोड़ देते हैं। लेखक अपनी यात्रा के दौरान मिलने वाले लोगों तथा उनसे जुड़े संस्मरणों के बारे में बराबर लिखते जाते हैं। ढोलकल यात्रा में गणेश जी का दर्शन, सल्फी (बस्तर बियर) और रास्ते की दुर्गमता,प्राकृतिक छटा के साथ वहां की किवदंतीयों का उल्लेख किया गया है। बस्तर अपने प्राकृतिक सौंदर्य,आदिवासी संस्कृति और भौतिक संसाधनों के लिए विश्व विख्यात है। आदिवासियों की सबसे बड़ी खूबी होती है उनका भोलापन, यही खूबी उनके शोषण का महत्वपूर्ण कारण भी है। लेखक अपनी बस्तर यात्रा में वहां हुए बदलाव का चित्रण करते हुए लिखते हैं-"यहां आकर आप अनायास बस्तर पा लेंगे ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। हां बहुत सी दुकानें जरूर दिखेंगी बस्तर टी स्टॉल से लेकर बस्तर चिकन बिरयानी तक। बस्तर कॉटन से लेकर बस्तर रेडीमेड तक और भी बहुत कुछ बस नहीं दिखेगा तो बस्तर।" इस तरह बस्तर में बस्तर का न दिखना एक बेहद ही चिंताजनक बदलाव की ओर संकेत है। बस्तर को बचाए रखने की यही चिंता मैंने शाकिर अली जी के कविता संग्रह 'बचा रह जाएगा बस्तर' में महसूस किया है। बस्तर का कुटुमसर गुफा जितना भयावह है उतना ही यात्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र भी है। गुफा की गहराई,दुर्गमता रिसता हुआ पानी,छाया अंधेरा और उन अंधेरों में अंधी मछलियों का बसेरा कुटुम सर गुफा में यह सब कुछ यात्रियों में रोमांच भर देता है। लेखक का बस्तर यात्रा तीरथगढ़ जलप्रपात एवं भारत का नियाग्रा कहे जाने वाले चित्रकूट जलप्रपात की खूबसूरती एवं अद्भुत नजारों के साथ समाप्त होता है।
                      यात्रा वृतांत के दूसरे खंड में हरिद्वार की यात्रा में विशेष तौर से हर की पौड़ी का उल्लेख करते हैं, जहां की गंगा आरती विश्व प्रसिद्ध है। यहां भक्तों को दान के अनुसार आरती में प्रमुखता मिलती है। लेखक प्रसंगवश सुरक्षा कर्मी द्वारा किए जाने वाली बदतमीजी का उल्लेख करना भी नहीं भूलते। यमुनोत्री यात्रा के दौरान यात्रियों को होने वाली परेशानी,चढ़ाई वाले रास्ते,रास्ते में बदबूदार लीद,थकान और चिड़चिड़ा हो जाने का उल्लेख है।
गंगोत्री यात्रा को लेखक ने बड़ा दिलकश बताया है। यहां जाने के रास्ते खूबसूरती के साथ खतरों से भी भरे हुए हैं। चारों तरफ बर्फीला पहाड़ और उन पर सूरज की किरणों से उभरने वाली सुनहरी रंगत बड़ा दिलकश नजारा होता है। केदारनाथ धाम की यात्रा में रास्ते की कठिन चढ़ाई, पिट्ठू पालकी घोड़े खच्चर और हेलीकॉप्टर की सवारी, केदारनाथ धाम में आई बाढ़, वीआईपी श्रद्धालुओं की प्राथमिकता और अंत में बाबा केदारनाथ के दर्शन का चित्रण हुआ है। बद्रीनाथ यात्रा में चोकता (उत्तराखंड के मिनी स्वीटजरलैंड) की खूबसूरती, कुछ पौराणिक किंवदंतियों,अलकनंदा नदी के किनारे किनारे बद्रीनाथ धाम पहुंचने, भगवान बद्रीनाथ का दर्शन करने, पंचकूला के लंगर में भोजन करने और आखिर में भारत के अंतिम गांव 'माना गांव' जाने का चित्रण किया गया है। लेखक बद्रीनाथ यात्रा के दौरान ऑली भी जाते हैं जो कि सर्दियों में स्कीइंग के लिए प्रसिद्ध है।
                     इस यात्रा वृतांत किताब के आखिरी खंड में बैगा जनजाति बहुल वनग्राम बेलापानी की यात्रा का वर्णन है। लेखक यहां की यात्रा स्थानीय साहित्यकारों के समूह के साथ करते हैं। इस यात्रा के दौरान साहित्यकार बेलापानी पहुंचकर बैगा जनजाति की संस्कृति और उनकी मूलभूत समस्याओं पर चर्चा करते हैं। लेखक के अनुसार बेलापानी अभी भी सरकारी मूलभूत सुविधाओं से अछूता है। बैगाओं द्वारा शहरी अतिथियों का मादर के धुन के साथ जोरदार स्वागत किया गया। वे मुख्य रूप से करमा नृत्य करते हैं। वे अपने आहार में मक्का बाजरा आदि मोटा अनाज लेते हैं। शराब पीना और करमा की धुन में थिरकना उनकी संस्कृति का हिस्सा है। इन सभी बातों का चित्रण इस अंश में है।
                   इस तरह एक युवा लेखक ने अपनी यात्रा के दौरान जो भी देखते है, महसूस करते हैं उन्हें शब्दशः यात्रावृत्त मे लिखते जाते हैं। डायरी की तरह लिखे इस यात्रा वृतांत में भाषा एकदम साधारण बोलचाल की है। वस्तुतः डायरी लेखन शैली और वर्णन शैली में साधारण बोलचाल की भाषा ही प्रभावकारी होती है। पाठकों को इस यात्रा वृतांत को पढ़ने से यात्रा वृतांत में वर्णित स्थलों की जानकारी, यात्रा के दौरान होने वाली परेशानियों की जानकारी एवं एक यात्री के रूप में लेखक के अनुभवों की जानकारी साथ साथ मिलती जाती है। मेरे विचार से यात्रा में रूचि रखने वाले एवं अध्ययन में रुचि रखने वाले पाठकों को यह किताब 'यात्री हो चला' जरूर पढ़नी चाहिए। निश्चित रूप से पाठक इस पुस्तक को पढ़कर लेखक के साथ उन तमाम स्थलों का जिसका इस यात्रा वृतांत में वर्णन है, वैचारिक यात्री बन सकते हैं।

-- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
   9755852479

कृत्रिम होती जा रही है हमारी प्रकृति-03.03.22

कृत्रिम होती जा रही है हमारी प्रकृति-03.03.22
----------------------------------------------------
हिंदू और मुसलमान दोनों को
ठंड में खिली गुनगुनी धूप अच्छी लगती है
चिलचिलाती धूप से उपजी लू के थपेड़े
दोनों ही सहन नहीं कर पाते

हिंदू और मुसलमान दोनों
ठंडी हवा के झोंकों से झूम उठते हैं
तेज आंधी की रफ्तार दोनों ही सहन नहीं कर पाते

हिंदू और मुसलमान दोनों को
बारिश अच्छी लगती है 
दोनों को बारिश की बूंदे गुदगुदाती है
बाढ़ के प्रकोप से
दोनों ही बराबर भयभीत होते हैं बह जाते हैं उजड़ जाते हैं

हिंदू और मुसलमान दोनों 
एक ही पानी से बुझाते हैं अपनी प्यास
दोनों को मीठा लगता है गुड़ का स्वाद
और नीम उतना ही कड़वा

दोनों को पसंद है
पेड़ पौधों और पत्तियों की हरियाली
खिले हुए फूलों के अलग-अलग रंग
और बाग में उठने वाली फूलों की अलग-अलग खुशबू

एक धरती और एक आसमान के बीच
रहते हैं दोनों
कष्ट दोनों को रुलाता है
खुशियां दोनों को हंसाती है
एक जैसे हैं दोनों के नींद और भूख

प्रकृति के गुणों को महसूस करने की प्रकृति
मैंने दोनों में समान पाया है

दोनों की प्रकृति समान है
मगर दोनों बंटे हुए हैं
कृत्रिम धर्म के लबादों में

दरअसल रोज हमें कृत्रिमता से संवारी जा रही है
हममें रोज भरे जा रहे हैं कृत्रिम भाव
धीरे-धीरे कृत्रिम होती जा रही है हमारी प्रकृति
हम अपनी प्रकृति में जीना
धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं।

- नरेंद्र कुमार कुलमित्र
  9755852479