Thursday 6 October 2022

जाने कहां गए वो दिन.... (हरेली विशेष)

जाने कहां गए वो दिन....                 (हरेली विशेष)
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आज हरेली है, हरेली छत्तीसगढ़ का पहला तिहार (त्योहार) माना जाता है। मुझे आज भी याद है  गांव में गुजरा मेरा वह बचपन। हम हफ्तों पहले हरेली तिहार के आने का इंतजार करते थे। हमारे इंतजार का मकसद हरेली तिहार में उत्सव मनाना नहीं होता था। हम तो बस इसलिए दिन गिनते रहते थे कि कब  हरेली आए और हम गेड़ी खपवाएं। हमें दिन तिथि का ज्ञान तो नहीं था सो हम रोज सुबह उठते ही अपने दादा (बबा) से पूछते थे-"हरेली तिहार कब हे बबा..? हरेली तिहार की सुबह हमें गेड़ी खपवाने की बड़ी जल्दी होती थी। जिसका गेड़ी पहले खप जाता था वह बड़े शान से घूमता था और सब को दिखाता था जैसे उसने कोई बड़ी जीत हासिल कर लिया हो। हमारे घर में कोठार के पीछे बांस का भीरा था (आज भी है) इसलिए हमारे घर बांस की कमी नहीं थी। हमारे पास पड़ोस के लोग भी हमारे घर बांस मांगने आते थे। जब हमारे दादा जी बसूला,बिंधना, बांस, रस्सी लेकर गेड़ी बनाना शुरू करते थे तो हम बस बगल में बैठे बैठे टुकुर टुकुर उनकी ओर देखते रहते थे। इस दौरान उन्हें बीड़ी पीना होता तो वे बोलते-"छोटू जा रे आगी लाबे बीड़ी पीबो।"और मैं दौड़ कर उनके लिए चूल्हे से आग लाता था। अपने गांव और पड़ोस के गांव को मिलाकर मैंने गांव में 10वीं तक की पढ़ाई की थी। अपने सब भाइयों में गांव में सबसे ज्यादा मैं ही रहा हूं। सो बचपन में गेड़ी चढ़ने का लंबा अनुभव मेरे पास ही है। मैंने अपने बचपन में चार पांच फीट से लेकर दस ग्यारह फीट तक ऊंची गेड़ी चढ़ा है। जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई मेरे लिए गेड़ी की ऊंचाई भी बढ़ती गई। उस जमाने में कुछ लोग अपनी गेड़ी के "पउवा" और "डांड़" में जहां  पउवा खपता है के पास बाल और कोयला लगाते थे, इससे उनकी गेड़ी से चर्र चर्र  की बड़ी मधुर आवाज आती थी। जिनकी गेड़ी से चर्र चर्र  की आवाज आए उनके क्या कहने। उनके जलवे होते थे सबकी निगाह उनकी ओर होती थी। दो चार बड़े लड़के जिनके गेड़ियों से चर्र चर्र की आवाज आती थी,जब वे एक साथ गेड़ी पर मंचते हुए चलते थे तो  चर्र चर्र की मधुर आवाज से समां बंध जाता था। मुझे याद नहीं की कभी मेरी गेड़ी से चर्र चर्र की आवाज आई हो। उन दिनों हमारे गांव की गलियों में बहुत कीचड़ हुआ करता था। हमारे घर के सामने घुटने भर कीचड़ होता था। हम गेड़ी पर चढ़कर गली के इधर से उधर कीचड़ को पार करते थे, कीचड़ से तेज पार करने की रेस लगाते थे। कई बार कीचड़ में गेड़ी के गहरे धंस जाने से हम गेड़ी नहीं निकाल पाते थे और मजबूरन कीचड़ में ही उतरना पड़ता था। बाकी साथी खिल्ली उड़ाते हुए खूब जोर जोर से हंसते थे।इस तरह कीचड़ में फंस जाने की घटना अपने साथियों के बीच अपमानजनक होता था। गेड़ी चढ़ने का इतना उत्साह होता था कि सुबह होते ही गेड़ी चढ़ना शुरु कर देते थे। स्कूल में शाम होते-होते छुट्टी की बड़ी बेसब्री से इंतजार करते थे। गेड़ी चढ़ने का सबसे ज्यादा मजा स्कूल से छुट्टी होने के बाद शाम में ही आता था। उस समय मोहल्ले के सारे बच्चे गेड़ी में ही दिखते थे। आज के दिन गांव के सभी घरों में चीला जरूर बनता था। हमारे घर में नूनहा चीला (नमक वाला) गुड़हा चीला (गुड़ वाला)और बरा (बड़ा) भी बनता था। घर में मौजूद सारे कृषि औजारों की हमारे दादा जी पूजा करते थे। नागर (हल) कुदारी (कुदाल) हंसिया,रापा (फावड़ा), गैंती सभी औजार धोकर आंगन में रखे जाते थे । गांव के उम्र में बड़े लोग नारियल फेंक प्रतियोगिता भी करते थे। उन दिनों इस दिन शर्त लगा कर चुनौती पेश करना आम बात थी। हमारा गांव कोई बहुत बड़ा गांव नहीं था उस समय करीब सात आठ सौ जनसंख्या रही होगी। इस दिन गांव में तीन से चार बकरे काटे जाते थे। मैंने बचपन में शायद पहली बार इस दिन ही शराब पीने वालों को देखा होगा। उन दिनों गांव में दाई बहिनी (मां बहन) की गालियां   देना बिल्कुल आम बात थी। हमारा गेड़ी चढ़ने का सिलसिला पूरा एक माह चलता था-हरेली अमावस्या से लेकर पोरा अमावस्या तक। पोरा तिहार के दिन हम लोग तालाब जाते थे और गेड़ी के पउवा को तालाब के पार में गड़ा देते थे। बचपन में हमारे लिए गेड़ी का त्यौहार एक दिन ( केवल हरेली के दिन का) का नहीं होता था अपितु पूरे एक माह का होता था। गांव में बच्चे शायद आज भी गेड़ी चढ़ते होंगे। पर मुझे अपने गेड़ी चढ़ने के वे दिन आज भी याद है, मेरी स्मृतियों में आज भी ताजा बना हुआ है। अब मन मसोसकर रह जाता है, जाने कहां गए वो दिन.........

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