Monday 7 September 2020

कथा/कहानियां-लेख

लघुकथा-2                          माँ की तबीयत

देव गांव से सौ किलोमीटर दूर एक बड़े शहर में जॉब करता था। वह कार्यालय से ही अपनी पत्नी सुनीता को फोन कर दो घण्टे पहले ही बता दिया था कि मैं दो बजे घर पहुँच रहा हूँ।तुम तैयार रहना हमें तुरंत गांव निकलना होगा,माँ की तबीयत अचानक खराब हो गई है ।पति के इस बात से कि दो बजे गांव निकलना है,पत्नी को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। वह सोचने लगी कि आज तीन बजे अपनी सहेलियों के साथ मूवी देखने जाने वाली थी। बड़ी ही मुश्किल से कितने दिनों के बाद समय मिला था वो भी....। मन ही मन उसे गुस्सा आ रहा था। इनकी तबीयत को भी आज ही खराब होनी थी। इन्हें तो बस अपनी माँ की ही पड़ी रहती है। हमारी खुशियों के बारे में तो कभी सोचते ही नहीं। जब देखो कभी माँ,कभी दीदी, कभी बुआ तो कभी.....। खैर कुढ़ते हुए जैसे-तैसे अपनी सहेलियों को फोन कर बताने लगी कि वह आज साथ नहीं जा पाएगी और गांव के लिए बेमन तैयार होने लगी। दोपहर एक बजे सुनीता का फोन बजा,जाकर देखी। अरे ! पापाजी का फोन।फोन रिसीव करते हुए बोली--हां पापा कैसे हैं आप ? दो बजे हम लोग तो....। सुनीता की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि पापा बोले--"सुनीता हम लोग बस शहर पहुँचने ही वाले हैं,आज सुबह तुम्हारी माँ की तबीयत अचानक खराब हो गई थी,हम रास्ते में हैं।" सुनीता पापा की बात सुनकर चौक पड़ी,बोली--क्या..?
"हाँ मैं दो घंटे पहले ही देव को फोन कर बता दिया था। वह गांव आने वाला था--पापा बोले।
सुनीता निःशब्द हो चुकी थी। वह आत्मग्लानि की आग से भर गई।
_____________________________________________



लघुकथा-3       राष्ट्रवाद पर कार्यक्रम (05.04.2020)

   मिस्टर अनंत देसाई जो जिला राष्ट्रवादी एकता मंच के सचिव हैं अपने सभी साथी कार्यकर्ताओं को 25 नवम्बर को होने वाले जिला स्तरीय कार्यक्रम के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी देते हुए कहा- "मित्रों आज देश के सामने राष्ट्रवाद एक बेहद अहम मुद्दा हो गया है।आप सभी ने टी वी समाचारों के माध्यम से यह देखा होगा कि किस तरह से देश की एकता और अखंडता को तार-तार करने की गहरी साज़िश हो रही है। देश भर में फैले टुकड़े-टुकड़े गैंग राष्ट्र की एकता और अस्मिता को चुनौती देते हुए लोगों में वैमनस्यता की ज़हर फैलाने में लगे हुए हैं। देश के नामचीन विश्वविद्यालय जे एन यू में सरकारी खर्चे पर मुफ़्त में शिक्षा पाने वाले कुछ विद्यार्थी देशद्रोह जैसे कार्यों में संलिप्त हो चुके हैं।ऐसे में राष्ट्रवादी सोच रखने वाले हम सबको एकजुट होकर इन देशद्रोही ताकतों के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा।"
          मीटिंग में उपस्थित अपने सभी कार्यकर्ताओं को देसाई जी संबोधित कर ही रहे थे कि बीच में से एक कार्यकर्ता जिसका नाम देबू भाई था अचानक उठकर बोलने लगा-"भाइयों अब समझाने बुझाने का वक्त चला गया है।हमें इन देशद्रोहियों के ख़िलाफ़ कुछ कड़े कदम उठाने ही होंगे।वो कहते हैं न Tit For Tat यानी 'जैसे को तैसा' जवाब देना ही होगा।राष्ट्र की एकता सर्वोपरि है हम इसको बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं चाहे हमें देशद्रोहियों का ख़ून ही क्यों न करना पड़े।देश के अमन के लिए इनका खात्मा बहुत ज़रूरी है।हम हरगिज़ पीछे नहीं हटेंगे।बोलो भारत माता की जय।
          देसाई ने इशारे से देबू को बिठाते हुए कहा-" देबू भाई आपने बिलकुल सहीं फ़रमाया है।राष्ट्र सर्वोपरि है और इसकी हिफ़ाजत की चिंता हम सभी राष्ट्रवादियों का परम कर्तव्य है।
आप सभी कार्यकर्ताओं को गाँव-गाँव जाना होगा।गाँव के लोगों को प्रेरित कर 25 नवम्बर को होने वाले कार्यक्रम के लिए अधिक से अधिक संख्या में भीड़ जुटाना होगा। गाँव के लोगों के आने-जाने के लिए मुफ़्त गाड़ी की व्यवस्था होगी और यहाँ कार्यक्रम के बाद सबको लंच का पैकेट भी दिया जाएगा। 25 तारीख को सर्वप्रथम हम सभी राष्ट्रवादी शहर के एकता चौक पर एकत्रित होंगे फिर देशभक्ति गानों के साथ पूरे शहर में 'राष्ट्रीय जागरूकता रैली निकालेंगे।रैली के बीच-बीच मे उपस्थित हमारे कार्यकर्ता राष्ट्रवाद पर नारे लगवाएंगे ।रैली में कुछ लोग अपने हाथों में राष्ट्रीय एकता के स्लोगन की तख़्ती भी रखे होंगे। रैली समाप्त होने के बाद मंचीय कार्यक्रम होगा जिसमें 'जिला राष्ट्रवादी एकता मंच' के अध्यक्ष श्री मदनलाल दिवाकर जी के द्वारा राष्ट्रवाद के महत्व पर व्याख्यान दिया जाएगा।
         25 नवम्बर को सुबह साढ़े नौ बजे राष्ट्रीय जागरूकता रैली निकाली गई।साढ़े तीन घंटे बाद अपार जनसमूह वाली रैली एकता चौक पर समाप्त हुई।मंचीय कार्यक्रम में विशाल जनसमुदाय को संबोधित करते हुए दिवाकर जी ने कहा-" राष्ट्रीय एकता के भावों से भरे हुए मेरे प्यारे भाइयों एवं बहनों।राष्ट्रीय एकता को मजबूती प्रदान करने के लिए तन मन धन से समर्पित मेरे प्यारे राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं।आप सभी को मेरा सादर वंदे मातरम। सर्वप्रथम आप सभी को जो अपना समय निकालकर इस पवित्र कार्य में उपस्थित हुए हैं इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और हार्दिक बधाई।
           मुझे अपने साथी कार्यकर्ताओं से यह जानकर बेहद दुख हुआ कि कुछ किसान भाई यहां आने से साफ मना कर दिए हैं। उनका जवाब था-"हमारे खेत में भी बहुत काम है इसलिए हम नहीं आ सकते।" आप ही बताइए जो राष्ट्रीय एकता के लिए एक दिन खेत के काम को नहीं छोड़ सकता उनसे हम क्या उम्मीद करें।इसी तरह और भी कुछ मजदूर भाई, कुछ दुकानदार भाई अपने एक दिन के काम को छोड़कर यहाँ आने से मना कर दिए हैं,ख़ैर हम उनको बाद में देख लेंगे।आप ही ज़रा सोचिए की राष्ट्रीय एकता ज़्यादा ज़रूरी है कि काम ज़्यादा जरूरी है? ज़रा ज़ोर से बोलिए भाइयों!
'राष्ट्रीय एकता जरूरी है'--भीड़ की ओर से सभी ने एक साथ जोर से कहा।
आप सभी के समन्वित प्रयास और इसी तरह की एकजुटता से हम जरूर राष्ट्रविरोधी ताकतों को सबक सिखाएंगे।हम देश को तोड़ने के उनके मंसूबों को कभी सफल नहीं होने देंगे।भविष्य में जब भी राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने वाले इस तरह के कार्यक्रम होंगे तो आप सभी अपना काम छोड़कर बड़ी संख्या में अवश्य पधारेंगे। आप सबका सहयोग इसी तरह बनी रहे।बोलो भारत माता की जय।बोलो भारत माता की जय।बोलो भारत माता की जय।बहुत-बहुत धन्यवाद।
         कार्यक्रम के अंत में राष्ट्रीय एकता के क्षेत्र में जिलेभर में उल्लेखनीय कार्य करने के लिए 'सर्वोत्कृष्ट कार्यकर्ता' का पुरस्कार जोशीले कार्यकर्ता देबू भाई को स्मृति चिन्ह एवं प्रमाणपत्र प्रदान किया गया।इस तरह राष्ट्रवाद पर एकदिवसीय कार्यक्रम समाप्त हुआ।




हास्य व्यंग लेख --
           तुम कब जाओगी कोरोना !  (13.04.2020)
   ----------------------------------------------------------------
कल मैं अपने गाँव के एक मित्र से फोन पर बात कर रहा था तभी उसने मुझे सुझाव दिया कि'मित्र आप केवल कविता लिखते हो कभी गद्य की विधा लेख आदि क्यों नहीं लिखते ? उनकी बातों से मैं जोश में आ गया और 'कोरोना' जो कि ज्वलंत मुद्दा बनी हुई है को बिषय बनाकर लिखना शुरू किया।
           अभी देश में परदेश में यानी हर जगह कोरोना काल चल रहा है।कोरोना होम मेड नहीं है बल्कि शुद्ध रूप से आयातित बीमारी है।जैसे इम्पोर्टेड मॉल का अलग क्रेज़ होता वैसे ही इस बीमारी का क्रेज़ भी धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है।जैसे ही हम विदेशी वस्तुओं को इम्पोर्टेड मॉल कहकर भाव देना शुरू करते हैं वैसे ही वह शीघ्रता से पूरे देश में ये फैल जाता है।विदेशी चीजों का प्रयोग उच्च वर्ग से शुरू होकर मध्यम वर्ग होते हुए निम्न वर्ग तक धड़ल्ले से पहुँच जाता है।इम्पोर्टेड माल सोचकर इसके प्रयोग को हम अपने गर्व (प्राइड) की भावना से जोड़ लेते हैं और जब हम इन्हीं विदेशी चीजों की आदि हो जाते हैं फिर "विदेशी भगाओ, स्वदेशी अपनाओ" का नारा लगाते हुए बहिष्कार करते हैं।जैसा की इतिहास रहा है कि विरोध का स्वर हमेशा मध्यम वर्ग से उठता है।उच्च वर्ग तो हमेशा जिसका विरोध करना है उसमें खुद भी शामिल होता है सो विरोध करने का सवाल ही नहीं उठता।जहां तक निम्न वर्ग की बात है ये बड़े संतोषी जीव होते हैं।इन्हें न तो उधौ का लेना है न माधव का देना है।इस वर्ग के लोग जितना 'प्राप्तियों' में संतुष्ट होते हैं उतना ही 'अभावों' में भी संतुष्ट नज़र आते हैं।लगता है कि इनके जीन्स में विरोध के गुण ही नहीं होते।हाँ, यह वर्ग भीड़ बढ़ाने में ज़रूर काम आते हैं चाहे इनका उपयोग मध्यम वर्ग वाले आंदोलन के लिए करे या फिर उच्च वर्ग वाले इनका प्रयोग अपने काम साधने के लिए करे। इन्हें तो बस पीना-खाना मिल जाए और एक दिन की रोज़ी फिर जिधर चाहे जोत लो इन्हें भीड़ या भीड़ का हिस्सा बनने में कोई परहेज़ नहीं होता। 
            ख़ैर,मैं अपनी बात निगोड़ी कोरोना से स्टार्ट किया था और वर्गभेद वर्णन के चक्कर में उलझ गया।सबसे अहम सवाल तो ये है कि देश में कोरोना को हवाई रास्ते से ससम्मान लाने वाले'भद्रजन' आख़िर कौन थे? उन मेज़बानों का आखिर क्या हुआ जो मेहमान कोरोना को इतने बड़े देश में लाकर रास्ते पर छोड़ दिया है?कोरोना को लाने वाले चालाक लोग तो बच निकले और चंगुल में फंस गई है देश की भोली-भाली जनता।ये कोरोना भी ऐसी ढीठ मेहमान है कि एक बार आने के बाद जाने का नाम नहीं ले रही है।आदरणीय शरद जोशी जी ने शायद कोरोना जैसे निपट चिपकू मेहमान के लिए ही अपना लेख "तुम कब जाओगे अतिथि ! लिखा रहा होगा। कोरोना दुष्टा ने तो हमारे अपनों में ही बड़ी चतुराई से फूट डालने का काम कर रही है। कोई अपने घर का सदस्य ही क्यों न हो यदि एक बार छींक मार दे तो हम उसे बड़ी संदेह भरी नज़रों से देखने लग जाते हैं।भले ही वह बेचारा नाक में मच्छर घुस जाने के कारण छींक मारा हो।हम इस चिपकू मेहमान के डर से दरवाज़े पर कुंडी लगाकर घर में ऐसे घुसे रहते हैं कि कहीं कोरोना हमारे घर में दस्तक़ न दे जाए। दूधवाला भी घर की घंटी बजाता है तो यह शंका होने लगती है कि कहीं यह हरक़त कोरोना का तो नहीं है।कुलमिलाकर हम अपने ही घर में कैदियों की तरह डरे-सहमे जैसे-तैसे दिन काट रहे हैं।इस समय लोग डर के मारे न्यूज़ चैनलों को लगभग देखना ही बंद कर दिया है।जो व्यक्ति रोज़ शाम में न्यूज़ चैनल पर डिबेट सुनने का आदी था अब वह उस समय में भी सीरियलों और फिल्मों के चैनल देखकर ही दिन बिता रहा है।मनोरंजन चैनल भी अपने ब्रेक को 'कोरोना ब्रेक' कहकर डराने लगे हैं।इसी बीच दूरदर्शन चैनल ने मौका देख ज़ोरदार चौका मारा है।जहाँ एक ओर रामायण-महाभारत दिखाकर डरे -सहमे लोगों में धार्मिकता और आत्मविश्वास को ज़िंदा रखने का काम किया है वहीं दूसरी ओर अपनी लूटी-पीटी टी आर पी को भी पटरी पर ले आया है।
           कवियों और लेखकों को जैसे अचानक नया विषय मिल गया है।वे कोरोना पर कविता ,कहानी, लेख आदि लिखकर खूब कलम चला रहे हैं।पूरा साहित्कार बिरादरी वही पुराने विषयों कश्मीर,अनुच्छेद-370 ,एन आर सी और शाहीन बाग़ पर लिख-लिखकर बड़े बोर हो चुके थे।अभी हालात ऐसे हो गए हैं कि राजनीति में भी नए मुद्दों का टोटा लग गया है।राजनेताओं का मुंह खुजला रहा होगा कि उन्हें आख़िर पैर खींचने और कीचड़ उछालने जैसे शुभ अवसर कब मिलेंगे।वे मन ही मन कोरोना बैरी को यह सोचकर कोस रहे होंगे कि उसने सारे मुद्दों को दबाकर ख़ुद अकेले अहम मुद्दा बने बैठी है। 
          कोरोना का दुःसाहस तो इतना बढ़ गया है कि अपने प्रताप से देशव्यापी लॉकडाउन तक करवा दी है फिर भी मानने को तैयार नहीं है।देश में सभी जगह ताले लग चुके हैं।कोर्ट बंद है,दफ़्तर बंद है,दुकानें बंद है,मोटर-गाड़ी बंद है,आना-जाना बंद है यहाँ तक लोगों की बोलती भी बंद हो गई है।रोड पर पुलिस वाले भी बात नहीं कर रहे हैं ज़रूरत के मुताबिक बस डण्डा चमका रहे हैं।अस्पताल में डॉक्टर केवल इशारों से काम चला रहे हैं।अब तो ज़बान की कोई क़ीमत ही नहीं बची है उसकी क़ीमत लगभग माइनस पर जा चुकी है।अब सड़कें भी बिलकुल बेआवाज़-सूनी हो गई हैं जिसके किनारे-किनारे कभी रेहड़ी, गुमटी, खोमचे और ठेलावालों के पास गरमी की शाम में गुपचुप, पिज़्ज़ा, बर्गर, चाउमीन और मंचूरियन का लुफ़्त उठाते लोगों की भीड़ वाली रौनक बनी होती थी वह गायब हो चुकी है।
           कोरोना ने दिल्ली जैसे महानगरों में रोज़ की कमाई कर रोज़ खाने वाले मज़दूरों का जीना हराम कर रखा है।फैक्टरियों के बंद हो जाने पर काम से हकाले गए मजदूर रातोंरात सड़क पर आ गए हैं।दरबदर भटकते इन मजदूरों को जैसे कोरोना से कोई भय ही नहीं है।ये खुलेआम बड़े आराम से सड़कों पर 'सोशल डिस्टेंसिंग' जैसे आयातित शब्द से अंजान और 'लॉकडाउन' का मख़ौल उड़ाते हजारों की झुण्ड में दिखाई पड़ते हैं। सच तो यही है कि इन मज़दूरों के लिए पापी पेट के सवाल और भूख रूपी वायरस से लड़ना ही सबसे बड़ी चुनौती है जिसके सामने कोरोना की चुनौती छोटी नज़र आती है।
            दिल्ली के मुख्यमंत्री को एक चीज़ के लिए कोरोना को जरूर धन्यवाद कहना चाहिए वो ये कि दिल्ली के प्रदूषण को दूर करने एवं आसमान पर छाए धूएं के ग़ुबार को कम करने के लिए गाड़ियों को ऑड-इवन चलाने जैसे जतन ख़ूब किए पर पसीने छूट गए लेक़िन धुएं कम नहीं हुए। वहीं कोरोना के आशीर्वाद से मात्र इक्कीस दिन का लॉकडाउन करना पड़ा  और देखते ही देखते बीमार पर्यावरण का स्वास्थ्य एकदम से चंगा हो गया है।गंगा और यमुना को अपना साफ पानी देखकर यक़ीन ही नहीं हो रहा है कि यह उसका ही पानी है।दोनों को यह याद नहीं कि आखिरी बार इतना साफ़ पानी कब देखा था।
              जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र की विविधता वाले इस देश को कोरोना से यह तो जरूर सीखना चाहिए कि आदमी सब एक समान होता है।हम बेवज़ह भेदभाव और अलगाव की बेकार बातों में पड़े होते हैं। कोरोना को देखो वह कैसे सभी जाति और धरम वालों को बिलकुल समान भाव से निपटा रही है।हम मान गए कोरोना तुमने साबित कर दिया है कि तुम्ही सच्ची समदर्शी हो"समदर्शी नाम तिहारो।"
              हमारे देश का बाज़ार चीन से बनी हुई चीज़ों से भरी पड़ी है।चायनीज मोबाईल, चायनीज खिलौने, चायनीज इलेक्ट्रॉनिक गुड्ज़, चायनीज लाइट्स-झालरें, चायनीज फटाके-फुलझड़ियां आदि आदि बड़े धड़ल्ले से बेचे और ख़रीदे जाते रहे हैं।इतना ही नहीं चायनीज फूड और चायनीज मसालों के इतने दीवाने हो गए हैं कि हम अपने देशी खानों को भूलते जा रहें हैं।हमें हर चीज में चायनीज माल प्रयोग करते देख वक़्त ने उपहार स्वरूप बीमारी भी चायनीज दे दिया है। यह बताने की जरूरत नहीं कि चीन कितना दगाबाज़ मुल्क़ है जो पूरी दुनियां को कोरोना में झोंक दिया है और खुद स्वान्तः सुखाय में लिप्त हो गया है।
           यूं तो कोरोना ने  सारे महाद्वीपों पर अपने पांव जमा लिए हैं फिर भी अमेरिकी और योरोपीय उन देशों के नाक पर दम कर रखी है जिन्होंने विकसित राष्ट्र होने का तमगा पहन रखा था।कोरोना के वार से अमेरिका,इटली, स्पेन, ब्रिटेन जैसे दंभी देशों की हेठी निकलकर बाहर आ गई है।अपने ज्ञान-विज्ञान और आर्थिक विकास पर इतराने वाले सारे शक्तिशाली देश छोटी-सी कोरोना जो ढंग से दिखाई भी नहीं देती के सामने असहाय दिखाई पड़ रहे हैं।
            धार्मिकों ने भी अपने सारे धार्मिक क्रियाकलापों पर कुछ दिन के लिए विराम लगा दिया है।पुजारियों, मालवियों और पादरियों की दुकानें चल नहीं रही है।हालात देखकर उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई है उन्हें लग रहा है कि कहीं लोगों के मन से धार्मिकता ही न उठ जाए । कहीं ऐसा हुआ तो उनका तो व्यवसाय ही बंद हो जाएगा।मन ही मन सोच रहे होंगे कि "हम हैं तो निठल्ले कोई काम करने की आदी भी नहीं हैं फिर करेंगे क्या ? 
                  ऐसे डरे-सहमे,हताश-निराश और उदासी के इस आलम में प्रधानमंत्री जी देश की जनता को बार-बार संदेश का कैप्सूल दे रहें हैं।उन्हें यह विश्वास है कि उनका यह संदेश जनता में एनर्जी सोर्स की तरह 'सप्लीमेंट्री फ़ूड' का काम करेगी।जनता बड़ी कृतज्ञता से घंटी-थाली बजाकर और दीये-मोमबत्ती जलाकर अपने एनर्जी लेबल का सबूत भी दे रही है।इस बीच फेसबुकी और वाटसेपी ज्ञानियों द्वारा ख़ूब ज्ञान और उपदेश बांटा जा रहा है।वही-वही मैसेज घूम फिरकर बार-बार पढ़ने और सुनने को मिल रहा है कि "घर में रहिये, सुरक्षित रहिये।" इतने बार याद दिलाने से कभी-कभी ख़ुद पर भी भ्रम हो जाता है कि कहीं मैं सचमुच घर से बाहर तो नहीं आ गया हूँ।
                    बहरहाल यह बड़ी कठिन परीक्षा की घड़ी है। इस घड़ी में हमारे संकल्प और संयम दोनों को खरा उतरना होगा। वैसे तो हम भारतीय विपरीत और कठिन परिस्थितियों में भी हास्य निकाल लेने की कला में माहिर होते हैं।बस कुछ दिन और कमरों में रहे ताकि घरवाली की यह शिकायत भी दूर हो जाए कि "आप तो जी हमेशा बाहर रहते हो,घर में रहते ही नहीं।" इस भौतिक संसार में हर चीज़ क्षणभंगुर है,अस्थाई है,परिवर्तनशील है,आनी-जानी है अतः यह तय मानिए जो कोरोना संकट बनकर आई है वह एक दिन जरूर जाएगी भी..। तब तक बस यही दोहराते रहिए--"तुम कब जाओगी कोरोना !?"
                          -- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
                               9755852479




















एक समय था जब लोग जंगलों में भटकते हुए जीवन बिताते थे।वे गुफ़ाओं में रहते थे।वे जंगली कन्दमूल, फल -फूल, पत्तियां आदि खाकर पेट भरते थे।यदा-कदा जंगली जीवों का शिकार करके भी खा लेते थे।
                हमारे पूर्वज आदिमानव कहे जाते थे ।डार्विन ने हमें बंदरों का वंशज कहा है।

No comments:

Post a Comment