Friday 18 September 2020

समीक्षा/आलोचना

साहित्य का इतिहास एवं वर्तमान स्वरूप 11.07.2020
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अस्मिता बचाने विडम्बनाओं से लड़ती कविताएँ : नगाड़े की तरह बजते शब्द - 20.08.2020
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'नगाड़े की तरह बजते शब्द' सुप्रसिद्ध संथाली कवयित्री, लेखिका और सोशल एक्टिविस्ट निर्मला पुतुल जी का बहुचर्चित काव्यसंग्रह है।इनकी अन्य प्रमुख कृतियों में'अपने घर की तलाश में'; 'बांस'; 'अब आदमी को नसीब नहीं होता आम'; 'फूटेगा एक नया विद्रोह'; 'मैंने अपने आँगन में गुलाब लगाए'; 'बाघ'; 'एक बार फिर'; 'अपनी जमीन तलाशती बेचैन स्त्री'; आदि शामिल है।इनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी, नेपाली आदि भाषाओं में हो चुका है।पुतुल जी सामाजिक विकास,मानवाधिकार और आदिवासी महिलाओं के उत्थान के लिए लगातार कार्य कर रहीं है।इन्हें राज्य एवं राष्ट्र स्तरीय अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुका है।इस काव्य संग्रह में पुतुल जी की कुल 38 कविताएँ संकलित हैं।काव्यसंग्रह में संकलित उनकी सभी कविताएँ देश के नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
              इस काव्यसंग्रह पर अपने विचार प्रगट करते हुए सुप्रसिद्ध कवि श्री अरुण कमल जी ने सटीक टिप्पड़ी दी है जो कि पुस्तक के कव्हर पेज़ के अंदर पहली एवं आखिरी पृष्ठ पर दर्ज है।वे लिखते हैं-"मूलतः संथाली भाषा में लिखी सुश्री निर्मला पुतुल की कविताएँ एक ऐसे आदिम लोक की पुनर्रचना है जो आज सर्वग्रासी वैश्विक सभ्यता में विलीन हो जाने के कगार पर है।आदिवासी जीवन, विशेषकर स्त्रियों का सुख-दुख अपनी पूरी गरिमा और ऐश्वर्य के साथ यहाँ व्यक्त हुआ है।आज की हिंदी कविता के प्रचलित मुहावरों से कई बार समानता के बावजूद कुछ ऐसा तत्व है इन कविताओं में,संगीत की ऐसी आहट और गहरा आर्तनाद है,जो अन्यत्र दुर्लभ है।"1 श्री अरुण कमल जी निर्मला पुतुल के काव्यसंग्रह में संकलित कविताओं की भावभूमि और कविताओं में निहित दुनियाँ के बारे में लिखते हैं कि-" इन कविताओं की दुनियाँ बाहामुनी, चुड़का सोरेन, सरोजनी किस्कू और ढेपचा कई दुनिया है,फूलों-पत्रों-मादल और पलाश से सज्जित एक ऐसी कठोर, निर्मम दुनियाँ जहाँ रात के सन्नाटे में अँधेरे से मुँह ढाँप रोती है दुनियाँ।यह दुनियाँ सिद्धू कानू और बिरसा के महान वंशजो की भी दुनियाँ है,पहाड़ पर अपनी कुल्हाड़ी पिजाती दुनिया।यह ऐसी कविता है जिसमें एक साथ आदिवासी लोकगीतों की सांद्र मादकता,आधुनिक भावबोध की रुक्षता और प्रतिरोध की गंभीर वाणी गुंफित है।"2
                  निर्मला पुतुल जी का काव्यसंग्रह 'नगाड़े की तरह बजते शब्द' की कविताओं में मुझे तीन तरह की चिन्तनधारा दिखाई पड़ती है--
1.स्त्री विमर्श की चिन्तनधारा 
2.आदिवासी विमर्श की चिन्तनधारा
3.पर्यावरणीय विमर्श की चिन्तनधारा
आज यद्यपि स्त्री उत्पीड़न, आदिवासी उत्पीड़न और पर्यावरण के गिरते स्वास्थ्य पर अनेक लेख लिखे जा रहे हैं।विचार गोष्ठियाँ आयोजित की जा रही है तथापि स्त्री एवं आदिवासी उत्पीड़न तथा पर्यावरण ह्रास के समाचार समानांतर रूप से देखने -सुनने को मिलते रहे हैं।आदिवासियों के विकास के नाम पर सरकार द्वारा नित नई-नई योजनाएँ बनाई जाती है पर सच्चाई यह है कि इन योजनाओं के आड़ में बिचौलिए न केवल आदिवासियों के जल,जंगल, जमीन का दोहन करते हैं बल्कि आदिवासी स्त्रियाँ भी उनके शोषण के शिकार होते रहे हैं।झारखंड के संथाल आदिवासी परिवार में जन्मी,पली-बढ़ी निर्मला अपने बचपन से आदिवासियों की समस्याओं को देखी ही नहीं बल्कि स्वयं महसूस भी की है,झेली है।पुतुल जी अपनी कविताओं में यह मानती है कि आदिवासी अपनी समस्याओं के लिए स्वयं भी जिम्मेदार हैं मगर मूल समस्या व्यवस्थादारों द्वारा थोपी गई हैं।
1.स्त्री विमर्श की चिन्तनधारा :--- 'क्या तुम जानते हो ' कविता में पुरूष प्रधान के पुरुषों से सवाल करती हुई दिखती है।कहने को तो समाज रूपी गाड़ी को चलाने के लिए स्त्री-पुरूष रूपी दो पहियों की जरूरत होती है।मग़र पुरुष प्रधान समाज में स्त्री अपने ही घर में अपनी वजूद तलाशती रह जाती है।समाज में गढ़े गए सारे मान-मर्यादा ,नियम,शर्तें सभी कुछ केवल स्त्रियों पर लागू होती है।स्त्री स्वयं रोज़ टूटती और विखरती है लेकिन रिश्तों की बुनियाद को मजबूती प्रदान कर उसे कभी विखरने नहीं देती।वह कविता में कहती है--
"बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को उसके घर का पता
सपनों में भागती एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में
अपने आप से लड़ते?
तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के मन की गांठें खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास
अगर नहीं !
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में...?"3
'आदिवासी स्त्रियाँ कविता'  में  भोली-भाली आदिवासी स्त्रियों की संकुचित सी दुनियाँ को चित्रित करती है।यद्यपि आदिवासी स्त्रियाँ अपनी दुनियाँ तक सीमित होती है पर आश्चर्य होता है कि कैसे वे और उनकी चीजें राजधानी तक पहुंच जाती हैं।आख़िर इन साजिशों के पीछे कौन है? वह इशारों ही इशारों में ही सब कुछ कह देती हैं--
" उनकी आँखों की पहुँच तक ही
सीमित होती उनकी दुनियाँ
वे नहीं जानती कि
कैसे पहुँच जाती है उनकी चीजें दिल्ली
तस्वीरें कैसे पहुँच जाती हैं उनकी महानगर
नहीं जानती वे ! नहीं जानती !!"4
'बिटिया मुर्मू के लिए' कविता के माध्यम से पूरी नारी जाति को सचेत करती हुई उनके ख़िलाफ़ हो रहे साजिशों के विरुद्ध खड़े होने के लिए प्रेरित करती है।यह सच है कि स्त्री उत्पीड़न के कारणों में उनकी चुप्पी महत्वपूर्ण कारण है।स्त्रियों  पर सहनशील होने का ठप्पा लगाकर पुरुष हमेशा से उन पर अत्याचार करते आया है।कवयित्री स्त्रियों को अपनी चुप्पी तोड़ने और बवंडर की तरह अत्याचारों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने के लिए कहती है--
"उठो कि अपने अँधेरे के ख़िलाफ़ उठो
उठो अपने पीछे चल रही साजिश के ख़िलाफ़
उठो, कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो
जैसे तूफान से बवंडर उठता है
उठती है जैसी राख में दबी चिनगारी।"5
विकास के नाम पर आदिवासियों के बीच आए शहरी पाखंडियो की  बुरी नियत आदिवासी स्त्रियों पर होती है।वे सीधी-सादी ,भोली-भाली आदिवासी लड़कियों को नौकरियों और सुख-सुविधाओं का सब्ज़बाग दिखाकर किस तरह उनका दैहिक शोषण करते हैं, इसी बात की ओर संकेत करते हुए 'चुड़का सोरेन' कविता में चुड़का सोरेन को आगाह करती है--
"कहाँ गया वह परदेशी जो शादी का ढोंग रचाकर
तुम्हारे ही घर में तुम्हारी बहन के साथ 
साल दो साल रहकर अचानक गायब हो गया ?
उस दिलावर सिंह को मिलकर ढूंढों चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी ही बस्ती की रीता कुजूर को
पढ़ाने-लिखाने का सपना दिखाकर दिल्ली ले भागा
और आंनद भोगियों के साथ बेच दिया।"6
स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी खाप पंचायत तथा धर्म, जाति एवं समाज के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा फैसले लेकर
स्त्रियों के साथ दण्डनीय बर्ताव किया जाता है।स्त्रियों पर हो रहे अत्याचारों को दूर करने में आज भी हमारे सांविधानिक निकाय लाचार दिखाई पड़ते हैं।'कुछ मत कहो सरोजनी किस्कू' कविता में कुछ इसी तरह की घटना के बारे में लिखती हैं---
"हक की बात न करो मेरी बहन
मत माँगो पिता की संपत्ति पर अधिकार
ज़िक्र मत करो पत्थरों और जंगलों की अवैध कटाई का
सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की
चर्चा न करो बहन
अपने मगजहीन पति द्वारा
भरी पंचायत में डायन करार दंडित की जावोगी
इन गूँगे-बहरों की बस्ती में
किसे पुकार रही हो सरोजनी किस्कू..?"7
'क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए' कविता में पुरूष प्रधान समाज के पुरुषों से सवाल करते हुए पूछती है कि तुम बताओ तो सहीं
आख़िर एक स्त्री तुम्हारे लिए क्या मायने रखती है ? वह अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहती है कि मेरा वजूद तुम्हारे लिए महज़ इस्तेमाल कर फेंक दिए जाने वाली चीजों (यूज एन्ड थ्रो) से अधिक नहीं है --
"क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
एक तकिया
कि कहीं से थका मांदा आया
और सिर टिका दिया
कोई डायरी 
कि जब चाहा 
कुछ न कुछ लिख दिया
ख़ामोश खड़ी दीवार
कि जब जहाँ चाहा
कील ठोंक दी
कोई गेंद
कि जब तब
जकीसे चाहा उछाल दी
या कोई चादर
कि जब जहाँ जैसे-तैसे
ओढ़-बिछा ली ?
चुप क्यों हो !
कहो न, क्या हूँ मैं
तुम्हारे लिए ??"8
दरअसल एक स्त्री घर,परिवार और समाज में निरंतर अपना अस्तित्व तलाशती रहती है।इसे स्त्री होने की विडम्बना कहें या अभिशाप उसे समाज में कहीं भी अपना अस्तित्व नज़र नहीं आता।'अपने घर की तलाश में' कविता के माध्यम से कवयित्री ने एक स्त्री के इसी दर्द को रेखांकित किया है--
"अंदर समेटे पूरा का पूरा घर
मैं बिखरी हूँ पूरे घर में
पर यह घर मेरा नहीं है
घर के बाहर लगी नेमप्लेट मेरे पति की है
मैं धरती नहीं पूरी धरती होती है मेरे अंदर
पर यह नहीं होती मेरे लिए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुठ्ठी भर सवाल लिए मैं
दौड़ती-हांफती-भागती
तलाश रही हूँ सदियों से 
निरंतर अपनी ज़मीन अपना घर
अपने होने का अर्थ !"9
तमाम बंदिशों और वर्जनाओं के बावजूद एक स्त्री चुपचाप मशीन की तरह खटती रहती है।स्त्री भले ही खुश न हों पर घर परिवार के सभी सदस्यों की खुशी के लिए झोंक देती है
अपनी खुशी।'पहाड़ी स्त्री' कविता का यह दृश्य दृष्टव्य है--
"पहाड़ी स्त्री
अभी अभी जाएगी बाज़ार
और बेचकर सारी लकड़ियाँ
बुझाएगी घरभर के पेट की आग
चादर में बच्चे को पीठ पर लटकाए
धान रोपती पहाड़ी स्त्री
रोप रही है अपना पहाड़-से दुख
सुख की एक लहलहाती फ़सल के लिए।"10
'ढेपचा के बाबू' कविता के माध्यम से यह बताया गया है कि पति के बाहर कमाने चले जाने के बाद घर में अकेली स्त्री को
मनचलों द्वारा बुरी नज़र से देखा जाता है।आज भी महिलाएँ अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित नज़र आती हैं।चिता का कारण है पुरुषों का कलुषित चरित्र।कुछ अनहोनी घटनाएँ घट जाने पर आज भी दोषी ठहराई जाती हैं तो केवल स्त्रियाँ। जमाने भर की तोहमत, लानत और बेवफ़ाई के बावजूद स्त्री ही है जो पुरुषों के सारे अपराधों के लिए क्षमा कर देती है और एकमेव समर्पण दर्शाती है अपने पति के प्रति।कविता की पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"गांव-घर का हाल जानते ही हो
जिसका मरद साथ नहीं होता
उसे कैसे-कैसे सताते हैं
गोतिया भाय आस पड़ोस के लोग।"
"वह जो तुम्हारे साथ आता-जाता था
ईंट भट्ठे वाला
अभी भी आ जाता है अनचाहे
करता है तुम्हें लेकर भद्दा मज़ाक
उसकी नियत कुछ ठीक नहीं लगती मुझे।"
"इतनी दुख तकलीफ़ काटी
तोड़ा नहीं तुम्हारा विश्वास
तुम्हारी याद में भूली नहीं खोंसना रोज़
खोपा में कपूरमुली के फूल।"11
कवयित्री पुरुषों की स्याह मानसिकता और बदनीयत को अपनी कविता 'मैं वो नहीं हूँ जो तुम समझते हो' में ज़ोरदार जवाब देती हैं।वे इस कविता के माध्यम से दैहिक आकर्षण से उपजे दिखावे के प्रेम और सहानुभूति का पर्दाफाश करती है।काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"मैं जानती हूँ कि तुम क्या सोच रहे हो मेरे बारे में
वही जो एक पुरूष एक स्त्री के बारे में सोचता है
अभी-अभी जब मैं तुमसे बतिया रही हूँ
संभव है मेरी बातों में
महसूसते देह-गंध रोमांचित हो रहे हो तुम।"
"अनचाहे जब कर रहे होते हो मदद
दे रहे होते हो बिन माँगी सलाह 
मैं समझ रही होती हूँ तुम्हारी अनबोली मंशा।"12
कहते है स्त्रियाँ अपने लिए तारीफ़ सुनना बहुत पसंद करती है।पुरुषों ने स्त्रियों की प्रशंसा सुनने की चाह में छिपे मनोविज्ञान को भलीभांति समझकर ख़ूब भुनाया है।अपनी 'सुगिया' शीर्षक कविता में कवयित्री यह स्पष्ट की है कि पुरुषों द्वारा स्त्री के लिए किए जाने वाला प्रशंसा आंतरिक न होकर मांसल केंद्रित होता है।जो की उसकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा होता है।काव्य पंक्तियाँ प्रस्तुत है--
"तुम्हारे होठ सुग्गा जैसे हैं 
तुम्हारी बड़ी-बड़ी आँखें
बड़ी खूबसूरत है सुगिया
बिलकुल हिरणी के माफ़िक।"
"सुबह से शाम तक
दिनभर मरती खटती सुगिया
सोचती है अक़्सर--
यहाँ हर पाँचवां आदमी उससे
उसकी देह की भाषा में क्यों बतियाता है।"13
इसी तरह इस काव्यसंग्रह की हर पाँचवी-छठवीं कविता स्त्री
विमर्श पर लिखी गई है।पुतुल जी कविता के माध्यम से स्त्रियों के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करती हुई लगती है।
2.आदिवासी विमर्श की चिन्तनधारा :--- निर्मला पुतुल जी की इस काव्यसंग्रह में संकलित कविताओं में आदिवासी विमर्श के अंतर्गत आदिवासियों की मूलभूत समस्याओं के चित्रण के साथ-साथ विकास के नाम पर स्वार्थी तत्वों के द्वारा हो रहे शोषण का जीवंत चित्रण भी मिलता है।कविता के बहाने कवयित्री ने आदिवासियों की पीड़ा और उसके मूल कारणों को यथावत चित्रित करती हैं।आदिवासी जन-जीवन का जो दुख दर्द उनकी कविताओं में है,वह केवल आँखों देखी नहीं बल्कि स्व-अनुभूत दुखदर्द है।'बाहामुनी' कविता में जहाँ एक ओर आदिवासी स्त्री के निश्छल रूल को चित्रित करती है तो दूसरी ओर उसके जीवन के विडम्बनाओं को भी उकेरती है।विडम्बना भी ऐसी कि मेहनत के बाद भी भरपेट खाना नसीब नहीं हो पाता ।काव्य पंक्तियां देखिए---
"इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते
कितनी सीधी हो बाहामुनी
कितनी भोली हो तुम
कि जहाँ तक जाते है तुम्हारी नज़र
वहीं तक समझती हो अपनी दुनियां।"
"तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हजारों
पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट।"14
'आदिवासी लड़कियों के बारे में' कविता के माध्यम से ईर्ष्या, राग-द्वेष भावों से अनभिज्ञ भोली-भाली आदिवासी लड़कियों का सुंदर चित्र उकेरी है--
"ऊपर से काली
भीतर से अपने चमकते दांतों 
की तरह शांत धवल होती हैं वे।"
जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ
जब नाचती हैं कतारबद्ध
मांदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसंत।"15
'चुड़का सोरेन' कविता सहीं मायने में आदिवासी अस्मिता को
बचाने के लिए ख़तरों से आगाह करती,सचेत करती कविता है।कविता के माध्यम से चुड़का सोरेन के बहाने समूचे आदिवासी पुरूष जाति को हड़िया (शराब) पीने की बुरी लत से बचने के लिए कहती है।दरअसल शराब पीने की लत वह कमज़ोरी है जिससे व्यक्ति अपना घर-द्वार,इज्ज़त-मान सब कुछ दांव पर लगा देता है।उनकी इसी कमज़ोरी को स्वार्थी ताकतें हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं।काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं--
"तुम्हारे पिता ने कितनी शराब पी यह तो मैं नहीं जानती
पर शराब उसे पी गई यह जानता है सारा गाँव
इससे बचो चुड़का सोरेन !
बचाओ इसमें डूबने से अपनी बस्तियों को
देखो तुम्हारे ही आँगन में बैठ
तुम्हारे हाथों बना हड़िया तुम्हें पिलाकर
कोई कर रहा है तुम्हारी बहनों से ठिठोली
बीड़ी सुलगाने के बहाने बार-बार उठकर रसोई में जाने
उस आदमी की मंशा पहचानों चुड़का सोरेन।"16
'संथाल परगना' कविता के माध्यम से संथाल परगना की
भौगोलिक, सांस्कृतिक पहचान मिटती जा रही है,इस पर गहरी चिंता व्यक्त की गई है।जहाँ एक ओर बाज़ारवाद के गिरफ्त में इनके प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट हो रहे हैं, पेड़ काटे जा रहे हैं,हवा प्रदूषित होने लगी है,नदियाँ अपवित्र होने लगी है,पहाड़ वीरान होने लगे हैं तो दूसरी ओर इनकी वेशभूषा, खान-पान,रहन-सहन,भाषा-बोली,नाच-गान, तीर-धनुष,मांदल जैसे संस्कृतिगत पहचान ख़त्म होते जा रहे हैं।काव्य पंक्तियाँ दर्शनीय है--
"संथाल परगना 
अब नहीं रह गया संथाल परगना
बहुत कम बचे रह गए हैं
अपनी भाषा और वेषभूषा में यहाँ के लोग।"
"बाज़ार की तरफ़ भागते
सब कुछ गड्ड मड्ड हो गया है इन दिनों यहां
उखड़ गए हैं बड़े-बड़े पेड़
और कंक्रीट के पसरते जंगल में 
खो गई है इसकी पहचान।"17
कवयित्री ने अपनी अलग-अलग कविताओं के माध्यम से 
आदिवासियों में होती ठण्डी दिनचर्या के लिए शहरी अपसंस्कृति को जिम्मेदार मानती है।साथ ही अपने आदिवासी भाई-बहनों से दिखावे वाली शहरी संस्कृति से बचने की गुहार लगाती है।उनकी कविता 'मेरे बिना मेरा घर' ; 'मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में' ; 'आओ मिलकर बचाएँ' आदि में शहरी संस्कृति के दुष्प्रभावों पर चिंता प्रगट की है।काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"चूहों की बिलों ली और संकेत करता बताता है
कि किस तरह अंदर ही अंदर कुतर रहे हैं
कुछ शहरी चूहे
हमारे घरेलू रिश्तों की बुनियाद।"18
"वे घृणा करते है हमसे
हमारे कालेपन से
मज़ाक उड़ाते है हमारी भाषा का
उनका तर्क है कि
सभ्य होने के लिए ज़रूरी है उनकी भाषा सीखना
उनकी तरह बोलना-बतियाना
उठना-बैठना
ज़रूरी है सभ्य होने के लिए उनकी तरह पहनना-ओढ़ना।19
"अपनी बस्तियों को 
नंगी होने से 
शहर की आबोहवा से बचाएँ उसे
ठंडी होती दिनचर्या में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन
भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी।20
3.पर्यावरणीय विमर्श की चिन्तनधारा :-- एक सजग रचनाकार अपने आसपास के भौगोलिक परिवेश से अछूता नहीं रह सकता।साहित्यकार प्रायः प्रकृति प्रेमी होते हैं और यह स्वाभाविक है कि उनकी रचनाओं में प्रकृति और पर्यावरण कभी सायास तो कभी अनायास आ ही जाते हैं।कवयित्री पुतुल जी कविताओं में प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण न होकर उसके नैसर्गिक स्वरूप शहरी हस्तक्षेप की कारण हो रहे बदलावों की चिंता है।विकास के नाम पर बढ़ते औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण के कारण जल,जंगल और जमीन आदि प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता पूर्वक दोहन किया जा रहा है।आज आदिवासियों के प्राकृतिक आवासों पर शहरीकरण के निशान(दंश) देखे जा सकते हैं।'बाहामुनी' कविता की ये पंक्तियां दर्शनीय है--
"जिन घरों के लिए बनाती हो झाड़ू
उन्हीं से आते हैं कचरे तुम्हारी बस्तियों में।"-21
विकास के रथ पर सवार स्वार्थी मनुष्य अपने अनधिकृत हस्तक्षेप से धरती की प्राकृतिक संतुलन बिगड़ डाला है।इसी बात की चिंता दिखाई पड़ती है 'बूढ़ी पृथ्वी का दुख' कविता में--
"क्या तुमने कभी सुना है
सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से 
पेड़ों की चीत्कार ?
सुना है कभी
रात के सन्नाटे में अँधेरे से मुँह ढाँप
किस कदर रोती हैं नदियाँ ?
थोड़ा सा वक्त चुराकर बतियाया है कभी
कभी शिकायत न करने वाली
गुमसुम बूढ़ी पृथ्वी से उसका दुख ?
अगर नहीं तो क्षमा करना !
मुझे तुम्हारे आदमी होने पर संदेह है !!22
'उतनी दूर मत ब्याहना बाबा' कविता के माध्यम से हमारे जीवन के लिए पेंड़ कितना ज़रूरी है,इसका संकेत करती हुई लिखती है--
"और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाए।"23
मानव द्वारा उत्पन्न तमाम प्राकृतिक संकटों के बाद भी जहाँ आदिवासी रहते हैं उस परिवेश में हवा में ताज़गी, नदियों में निर्मलता, मिट्टी में सोंधापन, पहाड़ों में शांति आज भी विद्यमान हैं।कवयित्री प्रकृति प्रदत्त इन उपादानों को समय रहते उसके मूल स्वरूप में बचाने की गुहार लगाती है।उनकी कविता'आओ मिलकर बचाएँ' की पंक्तियाँ दृष्टव्य है--
"जंगल की ताज़ा हवा
नदियों की निर्मलता
पहाड़ों का मौन
मिट्टी का सोंधापन
फ़सलों की लहलहाहट
आओ मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा है,अब भी हमारे पास।"24
निर्मला पुतुल जी के इस काव्यसंग्रह में संकलित कविताएँ जहाँ एक ओर संकटों के लिए चिंता व्यक्त करती है तो दूसरी ओर उन संकटों के लिए जिम्मेदार लोगों को चुनौती भी देती है।कविताओं के मूल में खूबसूरत आदिवासी संस्कृति और प्रकृति को बचाए रखने की अपील है।संग्रह की कविताएं अत्यंत पठनीय ,प्रशंसनीय और चिंतनीय है।
कविता संग्रह -- 'नगाड़े की तरह बजते शब्द'
      कवयित्री -- निर्मला पुतुल    
      प्रकाशक -- भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली 110003
           मूल्य  -- 40 रुपए ; पृष्ठ -- 95 
प्रकाशन वर्ष  --  2005 दूसरा संस्करण
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची :--
  1. पुतुल, निर्मला,नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, सामने कव्हर पृष्ठ
  2. वही,सामने कव्हर पृष्ठ
  3. पुतुल, निर्मला,नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली,क्या तुम जानते हो ; पृ. सं.-7,8
  4. वही, आदिवासी स्त्रियाँ ; पृ. सं.-11
  5. वही, बिटिया मुर्मू के लिए ; पृ. सं.-14
  6. वही,चुड़का सोरेन से  ; पृ. सं.-21
  7. वही, कुछ मत कहो सरोजनी किस्कू ; पृ. सं.-24
  8. वही, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए ; पृ. सं.-28,29
  9. वही, अपने घर की तलाश में ; पृ. सं.-30
  10. वही, पहाड़ी स्त्री ; पृ. सं.-36
  11. वही, ढेपचा के बाबू ; पृ. सं.-41,42,45
  12. वही, मैं वो नहीं जो तुम समझते हो ; पृ. सं.-55
  13. वही, सुगिया ; पृ. सं.-80,81
  14. वही, बाहामुनी ; पृ. सं.-12
  15. वही, आदिवासी लड़कियों के बारे में  ; पृ. सं.-17
  16. वही,चुड़का सोरेन से  ; पृ. सं.-19
  17. वही,संथाल परगना  ; पृ. सं.-26
  18. वही, मेरे बिना घर ; पृ. सं.-69
  19. वही, मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में ; पृ. सं.-72,73
  20. वही,आओ मिलकर बचाएँ  ; पृ. सं.-76
  21. वही, बाहामुनी ; पृ. सं.-12
  22. वही, बूढ़ी पृथ्वी का दुख ; पृ. सं.-31,32
  23. वही,उतनी दूर मत ब्याहना बाबा  ; पृ. सं.-50
  24. वही, आओ मिलकर बचाएँ ; पृ. सं.-77
                              ---   नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
                                      सहायक प्राध्यापक
                            शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
                            कवर्धा,जिला-कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
                                मो. 9755852479













2.दुर्दमनीय सृजनशीलता की दृढ़ अनुभूति : हानूश(12 जुलाई,2020)
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भीष्म साहनी जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे।हिंदी गद्य लेखन में उनकी गिनती अग्रिम पंक्ति में होती है।साहनी जी उत्कृष्ट कोटि के कथाकार, उपन्यासकार के रूप में स्थापित तो हैं ही साठोत्तरी हिंदी नाटककारों में भी उनका विशिष्ट स्थान है।भीष्म साहनी जी सजग युगदृष्टा रचनाकार थे।उन्होंने जो महसूस किया, युग में जो भी देखा,अनुभव किया साहित्य के माध्यम से समाज के सामने रखा।उनके सारे साहित्य चाहे वह कहानी हो या उपन्यास या फिर नाटक की विधा सभी में उनके देखे,भोगे और महसूस किए गए यथार्थ दिखाई पड़ते हैं।स्वयं भीष्म साहनी जी 'अपनी बात' में लिखते हैं,-" मैं समझता हूँ, अपने से अलग साहित्य नाम की कोई चीज़ नहीं होती।जैसा मैं हूँ,वैसी ही मेरी रचनाएं भी रच पाऊँगा।मेरे संस्कार, मेरे अनुभव, मेरा व्यक्तित्व, मेरी दृष्टि सभी मिलकर रचना की सृष्टि करते हैं।इनमें से एक भी झूठी हो तो सारी रचना झूठी पड़ जाती है।...लेखक का सत्य दो अलग-अलग सत्य होते हैं।एक ही सत्य होता है और वह जीवन सत्य होता है।उसी को साहित्य वाणी देता है।"1
         साहनी जी की रचनाओं में यथार्थवादिता एवं युगबोध प्रवृति होने के कारण ही साहित्य मनीषी उन्हें मुंशी प्रेमचंद जी एवं यशपाल जी की परंपरा का लेखक मानते हैं।साहनी जी का रचना संसार हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोधर है।उनकी प्रमुख रचनाओं में भाग्यरेखा,पहला पाठ, भटकती राख,पटरियां, वाङ्चू, चीलें, शोभायात्रा, निशाचर, पाली,डायन(कहानी संग्रह); तमस,झरोखे, कड़ियाँ, बसंती, मय्यादास की माड़ी, कुंतो, नीलू नीलिमा नीलोफर(उपन्यास); हानूश-1977,कबीरा खड़ा बाज़ार
में-1981,माधवी-1984,मुआवजे-1993,रंग दे बसंती चोला-1996,आलमगीर-1999(नाटक); आज के अतीत (आत्मकथा); बलराज माय ब्रदर(जीवनी); गुलेल का खेल(बालकथा) है।
            भीष्म साहनी जी को नाटक और रंगमंच के प्रति बचपन से गहरी रुचि थी।वे इसका उल्लेख अपनी आत्मकथा 'आज के अतीत' में करते हुए लिखते हैं,-"मैं चौथी कक्षा पढ़ता था जब स्कूल में खेले गए एक नाटक में पहली अदाकारी की।नाटक का नाम श्रवण कुमार था और मैं श्रवण कुमार की भूमिका ही निभा रहा था।"2 साहनी जी कुछ वर्षों तक 'भारतीय जन नाट्य संघ'(इप्टा) के सदस्य के रूप में भी कार्य किया।वे अपने साक्षात्कार में नाटक के प्रति अपने लगाव पर कहते हैं कि"नाटक की दुनियां बड़ी आकर्षक और निराली है।किस तरह धीरे-धीरे नाटक रूप लेता है और रूप लेने पर कैसे एक नए संसार की सृष्टि हो जाती है।यह अनुभव बहुत ही सुखद और रोमांचकारी होता है।नाटक खेलनेवालों के सिर पर एक तरह का जुनून छाया रहता है,जिसका मुकाबला नहीं।"3
          भीष्म साहनी जी के बारे में यह बताना जरूरी है कि उन्होंने साहित्य लेखन की शुरुआत स्वतंत्रता प्राप्ति के दौर से की और नाट्यलेखन की शुरूआत आपातकालीन परिस्थितियों से।'हानूश' भीष्म साहनी का प्रथम नाटक है जो 1977 ई. में आपातकाल के दौरान लिखा गया।उन्होंने 'आज के अतीत' में लिखा है कि -"नाटक अभी खेला ही जा रहा था जब मुझे एक दिन प्रातः अमृता प्रीतम का टेलीफोन आया।मुझे मुबारकबाद देते हुए बोलीं-"तुमने एमरजेंसी पर ख़ूब चोट की है मुबारक़ हो।"4 यद्यपि भीष्म साहनी जी इस नाटक के विषय और आपातकाल में कोई साम्य स्वीकार नहीं करते।नाटक का मूल उद्देश्य आपातकाल से बिलकुल भिन्न है।आगे वे लिखते हैं,-"पर हाँ, इसमें संदेह नहीं कि निरंकुश सत्ताधारियों के रहते,हर युग में, हर समाज में, हानूश जैसे फ़नकारों-कलाकारों के लिए इमरजेंसी ही बनी रहती है और वे अपनी निष्ठा और आस्था के।लिए यातनाएं भोगते रहते हैं।"5
            भीष्म साहनी जी को हानूश लिखने की प्रेरणा चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग की एक छोटी-सी घटना पर आधारित है।वे इस नाटक के प्रारंभिक भूमिका 'दो-शब्द' में लिखते हैं,-"बहुत दी पहले लगभग 1960 के आसपास मुझे चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में जाने का सुअवसर मिला था।मेरे मित्र निर्मल वर्मा उन दिनों वहीं पर थे, और चेक भाषा तथा संस्कृति की उन्हें अच्छी-ख़ासी जानकारी थी।सड़कों पर घूमते-घामते एक दिन उन्होंने मुझे एक मिनारी घड़ी दिखाई जिसके बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित थी कि यह प्राग में बनाई जाने वाली पहली मीनारी घड़ी थी,और इसके बनाने वाले को उस समय के बादशाह ने अजीब तरह से पुरस्कृत किया था।"6 चेकोस्लोवाकिया की यात्रा के बाद लेखक के दिलो दिमाग में मीनारी घड़ी वाली वह बात गूँजती रही।हानूश को अपनी कला प्रति जो जुनून सवार था वही जुनून लेखक के मन में हानूश की उस पीड़ा को शब्द देने के लिए सवार था।वे इस नाटक की भूमिका 'दो-शब्द' में लिखते हैं,-"बात मेरे मन में अटकी रह गई,और समय बीत जाने पर भी यदा-कदा मन को विचलित करती रही।आखिर मैंने इसे नाटक का रूप दिया जो आपके हाथ में है।यह नाटक ऐतिहासिक नाटक नहीं है,न ही इसका अभिप्राय घड़ियों की आविष्कार की कहानी कहना है।कथानक के दो-एक तथ्यों को छोड़कर लगभग सभी कुछ ही काल्पनिक है।नाटक एक मानवीय स्थिति को मध्ययुगीन परिप्रेक्ष्य में दिखाने का प्रयासमात्र है।"7
          इस नाटक में कुल तीन अंक हैं।पात्रों की संख्या मुख्य और गौण मिलाकर उन्नीस हैं पर प्रमुख पात्र जिनके संवादों के इर्दगिर्द कहानी रची गई है उनमें हानूश,हानूश का पादरी भाई, बूढ़ा लोहार,एमिल और जेकब प्रमुख हैं।नाटक की कथा हानूश के घड़ी बनाने के प्रेम और जुनून पर केंद्रित है।दरअसल वह मिनारी घड़ी जो प्राग की नगरपालिका पर सैकड़ों वर्ष पहले लगाई गई थी,चेकोस्लोवाकिया में बनाई जाने वाली पहली घड़ी मानी जाती थी।इस मिनारी घड़ी के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित थी कि इसे बनाने वाला एक साधारण कुफ्लसाज था।वह अपने जीविकोपार्जन के लिए मूलतः ताला बनाने का काम करता था पर उसे जुनून था घड़ी बनाने की।उसे घड़ी बनाने में सत्रह साल लगता तो है पर आख़िरकार सफ़ल हो जाता है।जब घड़ी बनकर तैयार हुई तो राजा ने उसे अंधा करवा दिया ताकि वह ऐसी कोई दूसरी घड़ी न बना सके।महाराज आदेशित करता है कि -"इस आदमी को और घड़ियां बनाने की इजाज़त नहीं होगी।इस हुक़्म पर अमल करवाने के लिए...(थोड़ा ठिठककर) हानूश 
कुफ्लसाज को उसकी आँखों से महरूम कर दिया जाए।उसकी आँखें नहीं होगी तो और घड़ियाँ नहीं बना सकेगा।"8
            मूल कथानक की घटना समय लगभग पाँच सौ वर्ष पुराना है जिसमें कथा नायक हानूश ताला बनाने का काम करता है।परिवार में पत्नी कात्या और एक बेटी थी।हानूश का बड़ा भाई पादरी था।बाद में एक आश्रयहीन जेकब नाम के एक युवक को आश्रय दिया गया जो हानूश को ताला बनाने में मदद करता था।कात्या ताले को बाज़ार बेचने जाती थी,इस प्रकार घर का निर्वाह होता है।जब हानूश ने घड़ी के बारे में सुना तो उसके मन में भी घड़ी बनाने का ख़्याल पनपने लगा।इसके लिए उन्होने गणित  सीखा साथ ही लुहार से ज़रूरी औज़ार भी बनवाए।पर इस कार्य के लिए सबसे ज़्यादा जरूरी था पैसे की सो उसके पादरी भाई ने चर्च से कुछ अनुदान दिलवाया।हानूश अपने घड़ी बनाने की धुन में घर-गृहस्थी का कार्य लगभग भूल से गया।वह ताला बनाने के कार्य में समय नहीं दे पाता था।पत्नी कात्या को हानूश का घड़ी बनाना बिलकुल पसंद नहीं था क्योंकि इससे घर का निर्वाह करना मुश्किल हो गया था।इसी संबंध में कात्या और हानूश के बीच शाब्दिक झड़प होती रहती थी।कात्या हानूश का अनादर करते हुए उसके पादरी भाई से कहती है,-"उसमें पति वाली कोई बात हो तो मैं उसकी इज्ज़त करूँ।जो आदमी अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकता,उसकी इज्ज़त कौन औरत करेगी?"9 जेकब के आ जाने से हानूश को सहायता और हिम्मत मिली फिर पुनः अपने काम में जुट गया।सत्रह वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद घड़ी बस बनने ही वाली थी कि एक बार फिर आर्थिक समस्या आड़े आ गई।इस बार नगरपालिका के कुछ शुभचिंतकों ने इस शर्त पर कि घड़ी बन जाने पर उनके कहे स्थान पर घड़ी स्थापित की जाएगी, आर्थिक मदद की।आखिरकार वह दिन भी आया जब एक स्वप्न दृष्टा,जुनूनी कलाकार का स्वप्न साकार हुआ यानी हानूश मिनारी घड़ी बनाने में सफल हुआ।ततपश्चात व्यावसायिकों ने शर्त के अनुसार घड़ी को शहर के ब्यस्त चौराहे की मीनार पर लगाने का निश्चय किया।इस प्रकार व्यापारी एक तीर से कई निशाना लगाना चाह रहे थे।पहला घड़ी गिरजाघर में नहीं लगेगी तो उनका प्रभाव कम होगा।दूसरा घड़ी को देखने दूर-दूर से आएंगे तो बाज़ार की रौनक बढ़ेगी।तीसरा बादशाह प्रसन्न होकर व्यापारियों को दरबार में नुमाईंदगी देंगे जिससे रुतबा बढ़ेगी। ख़ैर, बादशाह द्वारा आखिरकार घड़ी का उद्घाटन किया गया।चारों ओर हानूश की चर्चा आम थी।बादशाह द्वारा हानूश को खूब पुरस्कार और सम्मान दिए जाने की घोषणा की गई।फिर महाराज ने एलान किया कि-" हम खुश हुए।इसे एक हज़ार सोने के मोहरे दे दिये जाए।इसका महीना बाँध दो और यह घड़ी की देखभाल किया करे।आज से इस आदमी का रुतबा एक दरबारी का रुतबा होगा।"10 हानूश बादशाह के घोषणा से गदगद था तभी राजा ने उसकी दोनों आँखे निकाल देने का भी एलान कर दिया।राजा का तर्क था कि ऐसी नायाब घड़ी मुल्क़ में और दूसरी न बनें।बादशाह की आदेश से हानूश की आँखे निकाल दी गई।उसके जीवन में अंधेरा छा गया।अंधेपन के कारण वह विक्षिप्त सा हो गया।वह अपने अंधेपन का कारण घड़ी को मानते हुए उसे नष्ट करने के लिए सोचने लगा।इसी बीच जेकब घड़ी बनाने का भेद अपने भीतर छुपाए प्राग से चुपचाप दुश्मन देश तुला चला गया।घोर निराशा के क्षणों में हानूश स्वयं को ख़त्म कर देने के लिए असफ़ल प्रयास भी करता है।तभी हानूश को घड़ी खराब होने की सूचना मिलती है।हानूश के पास घड़ी को नष्ट करने का अवसर होते हुए भी वह घड़ी को नष्ट नहीं करता बल्कि सुधारकर पुनः उसे ठीक कर देता है।वस्तुतः हानूश क्या कोई भी सच्चा कलाकार विषम हालातों में भी अपनी कलाकृति को नष्ट नहीं कर सकता।हानूश अपने कलाप्रेम को प्रगट करते हुए कला के प्रति उदात्त प्रेम का परिचय देता है।अन्तर्द्वंद से उबरकर उसका चरित्र कुंदन की भांति निखर उठता है।
                हानूश को सर्जन प्रक्रिया में पारिवारिक, आर्थिक संकटों से गुजरना तो पड़ता ही है साथ ही धर्म से भी टक्कर लेने पड़ती है।विज्ञान की तार्किक और वस्तुनिष्ठ दृष्टि से धार्मिक वर्ग अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस करता है।इसी हानूश का विरोध करते हुए कहते हैं,-"तुम शैतान की औलाद हो घड़ी बना रहे हो।घड़ी बनाना इंसान का काम नहीं, शैतान का काम है।घड़ी बनाने की कोशिश करना ख़ुदा की तौहीन करना है।भगवान ने सूरज बनाया है,चाँद बनाया है,अगर उन्हें घड़ी बनाना मंजूर होता तो क्या वह घड़ी नहीं बना सकते थे?उसके लिए क्या मुश्किल था?इस वक्त आसमान में घड़ियाँ ही घड़ियाँ लगीं होती।सूरज और चाँद ही भगवान की दी हुई घड़ियाँ है।जब भगवान ने घड़ी नहीं बनाई तो इंसान का घड़ी बनाने का मतलब ही क्या है?"11 इस प्रकार लाट पादरी हानूश को ईश्वर विरोधी ठहराकर उसके आविष्कार का विरोध करता है और आर्थिक मदद बंद कर देता है।यहाँ लेखक ने उस संकीर्ण मानसिकता की ओर संकेत किया है जिसके कारण बुद्धिजीवी वर्ग जो नयी बात या नया सिद्धांत प्रस्तुत करना चाहता है उसे इसी प्रकार घोर विरोध का सामना करना पड़ता है।मध्ययुगीन यूरोपीय समाज में ऐसे ही कितने वैज्ञानिकों को यह कहकर मौत के घाट उतार दिया गया कि तुम ईश्वर विरोधी हो।
              यह नाटक एक सृजनशील समर्पित सच्चे कलाकार की विवशता और तमाम विरोधों से जूझते हुए अन्तर्द्वंद में उलझे दशा को दिखाता है।सत्ता संघर्ष, शक्ति संरक्षण, संतुष्टिकरण की नीति और कूटनीतिक चालों की कारण हमेशा कलाकार पीसता रहा है।यह नाटक मध्ययुगीन परिवेश पर लिखा गया है पर सामयिक परिवेश भी इससे कुछ अलग नहीं है।वर्तमान में भी राजनीति और राजनेताओं के आपसी कलह में सच्चा कलाकार,प्रतिभावान खिलाड़ी,वैज्ञानिक आदि कई बार हाशिये में रह जाते हैं।इस नाटक को पढ़ते हुए मुझे श्री फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी 'पहलवान की ढोलक' की याद ताज़ा हो गई।सत्ता परिवर्तन का शिकार आखिर एक कलाकार को क्यों होना पड़ता है ?
दरअसल सत्ताधीशों का कलाकार और कला की महत्ता से कोई कोई सरोकार नहीं होता।उनके लिए अपने अहम को संतुष्ट करना और स्वार्थ को सिद्ध करना ज़्यादा जरूरी होता है ।इसी तरह सृजनात्मकता का संकट मोहन राकेश जी के नाटक 'आसाढ़ का एक दिन' में भी देखा जा सकता है। राजा अपनी शक्ति और शान को बनाए रखने के लिए कलाकार की प्रतिभा को सम्मानित करने के बजाय कलाकर की कला पर अपना अधिकार जमाना चाहता है।वह इस दंभ में जीता है कि यदि एक कलाकार,कलाकार है तो उसका वज़ह स्वयं राजा है।शाहजहां ने बेगम मुमताज की याद में सुंदर ईमारत 'ताजमहल' बनाने वाले कारीगर का हाथ कटवा दिया था ताकि वह मिस्त्री ताजमहल जैसी कोई दूसरी ईमारत न बना सके।निसंदेह राजा कलाकार के लिए पूरी सुख-सुविधा का इन्तिज़ाम तो करता है पर इसके साथ ही उसकी प्रतिभा,अप्रतिम कारीगरी की हत्या भी कर देता है।यह विडंबना है कि संसार नायाब कला को अंजाम देने वाले कलाकार को याद नहीं करता।इतिहास में उसका नाम दर्ज नहीं होता बल्कि याद किया जाता है क्रूर,हिंसक राजा जो कलाकार की हूनर को ख़त्म करता है।हानूश के साथ भे यही होता है।उसे राजदरबार में जगह तो मिल जाता है पर उसकी नियति पींजरे में बंद उस पक्षी की तरह होता है जिसे सारी सुविधाएं तो मिलती है पर स्वतंत्रता नहीं।परकटे पक्षी की विडंबना यह है कि वह उड़ना तो जानता है पर उड़ नहीं सकता।
                भीष्म साहनी जी ने नाटक के संवादों में जीवन के लिए जरूरी अपने अनुभवजन्य सन्देशों को कहीं-कहीं सूक्तियों की तरह दर्ज किया है।पहले अंक में हानूश के पादरी भाई द्वारा निराश कात्या को धैर्य रखने एवं सकारात्मक बने रहने की सीख देते हुए कहता है,-"सारा वक्त पीछे की ओर ही नहीं देखते रहते,कात्या।कभी भविष्य की ओर भी देखना चाहिए।सियाने कह गए हैं:पीठ अतीत की ओर और मुँह भविष्य की ऒर होना चाहिए।"12 इसी तरह एक और प्रसंग में कात्या को समझाते हुए कहता है,-"पैसे वाले कौन-से खी हैं, कात्या ? अगर पैसे से सुख मिलता हो तो राजा-महाराजों जैसा सुखी ही दुनियाँ  में कोई नहीं हो।"13  एक अन्य प्रसंग में जब हानूश यह समाचार सुनता है कि गिरजेवालों ने माली-इमदाद देना बंद कर दिया है तो वह व्यग्र होकर नकारात्मक सोचने लगता है तभी उसका बड़ा भाई समझाते हुए कहता है,-"तुम बहुत ज़्यादा उत्तेजित रहते हो, यह ठीक नहीं ।आदमी के मन में स्थिरता होनी चाहिए।मन शांत रहे तो इंसान बहुत कुछ सोच सकता है।"14 एक और प्रसंग में कात्या को समझाते हुए अपने पति हानूश का हौसला अफजाई करने का सलाह देते नज़र आते हैं,-"तुम नहीं जानती कात्या,अगर आदमी को उसकी पत्नी का विश्वास मिले तो उसके हौसले दुगुने हो जाते हैं,उसका उत्साह दुगुना हो जाता है।"15
         नाटक की भाषा सरल-सहज बोलचाल की हिंदी भाषा है किंतु कहीं-कहीं ऊर्दू शब्दों का प्रयोग भी किया गया है।नाटक की भाषा में प्रवाहमयता और नाटकीयता का जबरदस्त समन्वय दिखाई पड़ता है।
           निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि हानूश नाटक जहां एक ओर शोषणकारी सत्ताधारी वर्ग का सत्य है तो दूसरी ओर दुर्दमनीय सृजनात्मकता से भरे विक्षुब्ध कलाकारों का भी वर्ग सत्य है।नाटक का विषय ऐतिहासिक कम काल्पनिक
अधिक है पर जो विसंगतियां नाटक में दर्ज है वह हमेशा समकालीन बना रहेगा।यूं तो भीष्म साहनी जी कथाकार के रूप में विख्यात हैं पर नाटककार के रूप में भी उनका योगदान अविस्मरणीय रहेगा।
सन्दर्भ सूची :---
  1. अपनी बात, भीष्म साहनी ,पृ. सं.- 26,27
  2. आज के अतीत,भीष्म साहनी,राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,प्रथम संस्करण,2013,पृ. सं.-44
  3. भीष्म साहनी:व्यक्ति और रचना,राजेश्वर सक्सेना एवं प्रताप ठाकुर, वाणी प्रकाशन,दिल्ली,प्रथम संस्करण,1997,पृ. सं.-16
  4. सम्पूर्ण नाटक, भीष्म साहनी,भाग एक, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली प्रथम संस्करण,2011,पृ. सं.-8
  5. वही पृ. सं.-8
  6. भीष्म साहनी,हानूश,राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली,दो शब्द,पृ. सं.-07
  7. वही पृ. सं.-07
  8. भीष्म साहनी ,हानूश,राजमहल पेपरबैक्स, नई दिल्ली,द्वितीय अंक,पृ. सं.-99
  9. वही पहला अंक पृ. सं.-11
  10. वही ,दूसरा अंक,दृश्य तीन,पृ. सं.-96
  11. वही,दूसरा अंक,दृश्य एक,पृ. सं.-52,53
  12. वही, पहला अंक, पृ. सं.-14
  13. वही, पहला अंक, पृ. सं.- 15
  14. वही, पहला अंक, पृ. सं.- 22
  15. वही, पहला अंक, पृ. सं.- 16
--- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
सहायक प्राध्यापक
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
कवर्धा,जिला-कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
मो. 9755852479





1.असह्य आत्मिक पीड़ा की यथार्थ अभिव्यक्ति : जूठन (22 जून,2020)
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सहृदय रचनाकार जहाँ एक ओर अपने परिवेश को लेकर संवेदनशील होता है तो दूसरी ओर निजी संवेदनाओं की आत्माभिव्यक्ति भी करता है।साहित्यकारों का समाज के साथ सरोकार होने के कारण वह अपने साहित्य में सामाजिक कुरीतियों को यानी सामाजिक ,धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी पहलुओं को कृतिबद्ध करना शुरू करता है।दलित साहित्य की रचना करनेवाला साहित्यकार स्वयं दलित हो सकता है या फिर ग़ैर दलित हो सकता है। दोनों के द्वारा रचित साहित्य में 'यथार्थ और अनुभूति' को लेकर अंतर हो सकता है। जहाँ गैर दलित साहित्यकार दलित जीवन की पीड़ा को दूर से महसूस करता है वहीं एक दलित साहित्यकार अपने भोगे हुए यथार्थ को लिखता है।दलित साहित्यकार द्वारा लिखे हुए साहित्य में उन सारी बातों का चित्रण होता है जिसे रचनाकार स्वयं देखा है,अनुभव किया है,सोचा है समझा है और महसूस किया है। हिन्दी साहित्य में ऐसी कोई विधा नहीं है जो दलित अनुभवों से अनछुआ हो। आज कविता,कहानी, नाटक, उपन्यास,आत्मकथा आदि विधाओं में दलित साहित्य उत्कृष्ट रूप में देखे जा सकते हैं। 
               हिंदी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश बाल्मीकि जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है उन्होंने दलितों की पीड़ा को शब्द देते हुए कविता,कहानी,आत्मकथा एवं आलोचना विधा में दलित साहित्य को संमृद्ध किया है। उनकी प्रमुख रचनाओं में सदियों का संताप ,बस्स बहुत हो चुका, अब और नहीं, शब्द झूठ नहीं बोलते, चयनित कविताएँ (कविता संग्रह) ; 'जूठन' दो भागों में (आत्मकथा) ; सलाम,घुसपैठिये,,अम्मा एंड अदर स्टोरीज, छतरी (कहानी संग्रह);  दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र , मुख्यधारा और दलित साहित्य, दलित साहित्य:अनुभव, संघर्ष और यथार्थ(आलोचना);सफाई देवता(सामाजिक अध्ययन) आदि हैं। 
            'जूठन' ओमप्रकाश बाल्मीकि जी की सबसे चर्चित कृति रही है जो कि आत्मकथा है।यह आत्मकथा दो भागों में है। आत्मकथा का पहला भाग 1997 में और दूसरा भाग 2015 में प्रकाशित हुआ था। आत्मकथा के संबंध में बाल्मीकि जी का कहना था कि " सचमुच जूठन लिखना मेरे लिए किसी यातना से कम नहीं था। जूठन के एक-एक शब्द ने मेरे जख्मों को और ज्यादा ताजा किया था,जिन्हें मैं भूल जाने की कोशिश करता रहा था।" वे यह भी कहते हैं कि " उपलब्धियों की तराजू पर यदि मेरी इस व्यथा कथा को रखकर तौलोगे तो हाथ कुछ नहीं लगेगा।" फ़िल्म ' आर्टिकल-15' के लीड एक्टर आयुष्मान खुराना ने एक इंटरव्यू में कहा है कि इस रोल की तैयारी करने के क्रम में उन्होंने जूठन किताब को पढा और उन्हें कई रातों तक नींद नहीं आई।कल्पना कीजिए उस व्यक्ति के बारे में जिसने ये जिंदगी जी होगी। मैंने जब लॉकडाउन के दौरान जूठन आत्मकथा पढ़ने का मन बनाया तो संयोग ऐसा हुआ कि मुझे जूठन के दूसरे भाग को पहले पढ़ना पड़ा। दरअसल मैंने आत्मकथा की राधाकृष्ण पेपरबैक्स वाली किताब के दोनों भागों का एक साथ ऑनलाइन आर्डर किया किंतु दूसरा भाग पहले पहुँच गया। सो उत्सुकता बस दूसरे भाग को पहले पढ़ डाला। उनके आत्मकथा के दूसरे भाग में देहरादून की आर्डिनेंस फैक्ट्री में अपनी नियुक्ति के साथ-साथ नई जगह पर अपनी पहचान को लेकर आई समस्याओं एवं मजदूरों के साथ जुड़ी अपनी गतिविधियों का ज़िक्र करते हुए अपनी साहित्यिक सक्रियता का विस्तार से उल्लेख किया है।जबकि आत्मकथा के पहले भाग में हज़ारों वर्षों से चले आ रहे जातिप्रथा के कुचक्र के बीच कथित तौर से क्षुद्र जाति चूहड़ा (मेहत्तर या भंगी) परिवार में जन्म लेने वाले बालक को किस तरह से हीन भावना के साथ संघर्ष करते हुए जीवन का पथ तलाशना पड़ता है,उसका जीवंत चित्रण किया है। 
               उनके आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव दग्ध हैं।आज भी समाज में डोम, चमार,मेहत्तर, चूहड़ा, भंगी, नट आदि  वर्ण या जाति में पैदा हुए लोगों के लिए ये शब्द गाली की तरह उच्च वर्गों के लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है।सच तो यह है कि दलित परिवार में जन्में लोगों को आदमी भी नहीं समझा गया। अपनी आत्मकथा को उज़ागर करने वाली  इस आत्मकथा के बारे में ख़ुद ओमप्रकाश बाल्मीकि जी कहते हैं-"दलित जीवन की पीड़ाएँ असहनीय और अनुभव दग्ध हैं।ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान न पा सके। एक ऐसी समाज व्यवस्था में हमने साँसे ली है,जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी ...। अपनी व्यथाक्रम को शब्दबद्ध करने का विचार काफी समय से मन में था। लेकिन प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिल पा रही थी।...इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे।एक लंबी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों,यातनाओं, उपेक्षाओं,प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा,उस दौरान गहरी यंत्रणाएँ मैंने भोगी।स्वयं को परत दर परत उघेड़ते हुए कई बार लगा कि कितना दुखदाई है यह सब ! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।"1 
               इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मेरा मन जातिगत समाज और उससे उपजे विद्वेष के प्रति और अधिक आक्रोश से भर गया। मुझे मेरे गाँव के नट समाज के वे लोग याद आने लगे जिन्हें मैं बचपन से अछूत के रूप में देखते आया था।वे आज भी समाज में अछूत समझे जाते हैं। तथाकथित उच्च वर्गों के घर सुख या दुख वाले कार्यक्रमों में महज़ बचे हुए खाना लेने के लिए आज भी मांगने जाते हैं।वे आज भी मूलभूत सुख सुविधाओं से दूर हैं।वे आज भी अस्पृश्य माने जाते हैं,उन्हें कोई भी सामाग्री दूर से प्रदान की जाती है।वे आज भी गरीबी,बेकारी,अशिक्षा आदि के चंगुल में जकड़े हुए हैं। बाल्मीकि जी की आत्मकथा के शब्दों में चमत्कार तो नहीं है पर भोगे हुए यथार्थ की सच्ची अनुभूति है। आत्मकथा पढ़ते हुए उनके अनुभवजन्य सामाजिक दुर्व्यवहारों के प्रसंगों को पढ़कर मेरा दिल भर जाता था।कितने बार मेरी आँखें नम हो गईं थी और आँसू भी निकल पड़े थे।जूठन के कुछ प्रसंग बिल्कुल रुलाने वाले और न भूलने वाले हैं-" तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया।थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, "अबे, ओ चूहड़े के, मादरचोद कहाँ घुस गया...अपनी माँ..." हेडमास्टर ने लपकलकर मेरी गर्दन दबोच ली थी।उनकी उंगलियों का दबाव मेरे गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है।कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका।चीख़कर बोले, "जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू...नहीं तो गांड में मिर्ची डाल के स्कूल से बाहर निकाल दूँगा।"2  ऐसी विषम परिस्थितियों में जहां दलित के लिए शिक्षा प्राप्त करना सपना था, तमाम उपेक्षाओं और अपमानों को सहते हुए लेखक ने शिक्षा प्राप्त की। 
             'जूठन' का एक-एक शब्द चीख़ता है-आख़िर हमारा कसूर क्या है? क्यों युगों से पशुतर हैं हम?कब बदलेगी नियति हमारी?कब हम थोथे वादों से उबरेंगे?संविधान में दिए गए अधिकार हमें कब मिलेंगे?हमारी गिनती राष्ट्र के अहम हिस्से के रूप में कब होगी? क्या हम भारतीय नागरिक होने का गर्व महसूस कर पाएंगे? ये सारे सवाल आज भी शासन-प्रशासन के सामने अनुत्तरित खड़े हुए हैं।जूठन भले ही एक व्यक्ति(बाल्मीकि जी) की आत्मकथा है किंतु यह उन समस्त दलितों की आत्मकथा है,जो पीड़ा को सहते तो हैं मगर अभिव्यक्त नहीं कर पाते। बाल्मीकि जी की आत्मकथा का शीर्षक 'जूठन' अपने आप में चौकाने वाला है।इस नाम को रखने के पीछे लेखक का जो दर्द छिपा है उसे उन्होंने बताते हुए अपने बचपन के दिनों को याद किया है।इस पुस्तक के शीर्षक चयन में वे सुप्रसिद्ध कथाकार राजेन्द्र यादव जी के प्रति आभारी दिखते हैं।उनके अनुसार-"पुस्तक का शीर्षक चयन करने में श्रद्धेय राजन यादव जी ने बहुत मदद की।अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर पांडुलिपि को पढा।सुझाव दिए।जूठन शीर्षक भी उन्होंने ही सुझाया।उनका आभार करना मात्र औपचारिकता होगी।"3 बचपन के दिनों को वे बताते हुए कहते हैं कि कैसे उनके माता और पिता हाड़तोड़ मेहनत करते थे उसके बाद भी दोनों समय निवाला मिलना दुष्कर था,उनकी माता कई तथाकथित ऊँचे घरों में झाड़ू-पोंछे का काम करती थी और बदले मिलती थी रूखी-सूखी रोटियाँ जो जानवरों के भी खाने लायक नहीं होती थीं, उसी को खाकर गुजारा करना पड़ता था।भोजन के बाद फेंके जाने वाले पत्तलों को उठाकर वे घर ले जाते और उनके जूठन को एकत्र करके कई दिनों तक खाने के काम में लाते।"पूरी के बचे-खुचे टुकड़े, एकाध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बांछे खिल जाती थी।जूठन चटखारे लेकर खायी जाती थी।"4
                  'जूठन' दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का यथार्थ दस्तावेज है।जीवन के रोजमर्रा की छोटी-छोटी सुविधाओं से वंचित दलितों की त्रासदी व्यक्तिगत वजूद से लेकर घर-परिवार और पूरी सामाजिक व्यवस्था तक फैली हुई है।लेखक अपने बचपन में जिस सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिवेश में पला-बढ़ा वह वह किसी की भी मानसिक दशा को विचलित कर देने वाला है।एक छोटे से बच्चे के लिए जब उसके आसपास की सारी परिस्थितियां प्रतिकूल हों उससे संस्कारवान होने की अपेक्षा करना सामाजिक बेमानी से कम नहीं है।जीवन के जद्दोजहद और विपरीत हालातों से लड़ते हुए लेखक कीचड़ में खिले कमल की भांति लगते हैं।अपने बचपन के आसपास की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए कहते हैं- "जोहड़ी के किनारे चूहड़ों के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें ,जवान लड़कियाँ,बड़ी-बूढ़ी यहाँ तक की नव नवेली दुल्हनें भी इसी डब्बेवाली के किनारे खुले में टट्टी फ़रागत के लिए बैठ जाती थीं।तमाम शर्म लिहाज़ को छोड़कर वे डब्बेवाली के किनारे गोपनीय जिस्म उघाड़कर बैठ जाती थीं।चारों तरफ़ गंदगी भरी होती थी।ऐसी दुर्गंध की मिनट भर में साँस घुट जाए।तंग गलियों में घूमते सूअर,नंग धड़ंग बच्चे,कुत्ते,रोज़मर्रा कर झगड़े, बस यही था वह वातावरण, जिसमें बचपन बीता।इस माहौल में यदि वर्ण व्यवस्था को आदर्श कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए,तो राय बदल जाएगी।"5 आत्मकथा के इन शुरूआती वाक्यों से उनकी पीड़ा और बेबसी का अनुमान लगाया जा सकता है।
                         भारतीय समाज में सामाजिक विकास के लिए जाति व्यवस्था का समर्थन करने वालों को डॉ भीमराव अंबेडकर जी की किताब 'जाति प्रथा का विनाश' (Annihilation of Caste) जरूर पढ़ना चाहिए। ठीक इसी तरह संविधान में कानून बनने के बाद भी जातिवाद की जड़ें भारतीय समाज में किस हद तक जमीं हुई है इसे साक्षात जानने के लिए बाल्मीकि जी की आत्मकथा 'जूठन' अवश्य पढ़नी चाहिए।जूठन का नायक समाज में गहराई तक सदियों पुरानी जमीं 'जातिवाद' की जड़ों को खोदने का प्रयास करता है।वह जाति द्वारा तय नियति को बार-बार ललकारता है,उससे जूझता है।सच मानिए महाभारत का नाबालिग अभिमन्यु चक्रव्यूह में केवल एक बार प्रवेश करता है और मारा जाता है लेकिन 'जूठन' का अभिमन्यु(लेखक) के सामने बार-बार यह चक्रव्यूह उपस्थित होता है  और उसे तोड़कर वे आगे बढ़ते हैं। वे अपनी प्रतिभा और संघर्ष के बलबूते पर उस शीर्ष पर पहुंच जाते हैं जहाँ तथाकथित सवर्णों का हजारों वर्षों से बर्चस्व रहा है।उनकी उपस्थिति से आसपास के लोगों को भूकंप सा झटका महसूस होता है।न चाहते हुए भी उन्हें ऐसे व्यक्ति को बर्दाश्त और स्वीकार करना पड़ता है,जिसके नाम से ही वे नफ़रत करते हैं।उसके साथ रहना व जीना कौन कहे,वे उसका नाम भी नहीं सुनना चाहते।इस तरह 'जूठन' आत्मकथा हिंदी साहित्य में ज्वालामुखी की लावे की तरह जलते हुए यथार्थ का पर्दाफ़ाश करता है।
                 'जूठन' के माध्यम से बाल्मीकि जी जहाँ एक ओर अपनी आत्मिक पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं तो दूसरी ओर वर्षों पुरानी जाति व्यवस्था के उस पहाड़ को ढहाना चाहते हैं जो समाज में समता,स्वतंत्रता और बंधुता के लिए बाधक रहे हैं।वे अपनी आत्मकथा में जो बातें लिखी है वह हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। उनकी बातों को झुठलाने के मायने है,भरी दुपहरी में अपनी आंख पर काली पट्टी बाँधकर कहना कि सूरज उगा ही नहीं है। बाल्मीकि जी द्वारा आत्मकथा लिखे जाने के निर्णय पर कुछ मित्रों द्वारा हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया था- " ख़ुद को नंगा करके आप अपने समाज की हीनता को बढाएंगे।" और यह भी " आत्मकथा लिखकर आप अपनी प्रतिष्ठा ही न खो दें।"
इसके बावजूद भी आत्मप्रेरित होकर उनके द्वारा आत्मकथा लिखा जाना साहसिक कार्य का परिचायक है।उनके द्वारा लिखे गए एक-एक शब्द जहाँ एक ओर ज़ख्म से कराहते हुए लगते हैं तो दूसरी ओर ज़ख्म देने वालों के ख़िलाफ़ ललकारते हुए भी लगते हैं।यह आत्मकथा किसी को बहुत पसंद आ सकता है तो किसी को शूल की तरह चुभ भी सकता है क्योंकि सच्चाई किसी को अच्छी भी लगती है तो किसी को बुरी भी। मैं इस आत्मकथा की यथार्थता और संप्रेषणीयता दोनों से अत्यधिक प्रभावित हूँ।
सन्दर्भ सूची :---
  1. बाल्मीकि ओमप्रकाश, जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन,नई दिल्ली, भूमिका, पृ. सं.- 7,8
  2. वही पृ. सं.-15
  3. वही पृ. सं.- 9       
  4. वही पृ. सं.-19
  5. वही पृ. सं.-11   

                              ---   नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 
                                      सहायक प्राध्यापक
                            शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय 
                            कवर्धा,जिला-कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
                                मो. 9755852479
            




भीड़तंत्र। (असग़र वज़ाहत जी की कहानी संग्रह)
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1.'भगदड़ में मौत' -- इस कहानी में कोई भी पात्र नहीं है जैसे की पारंपरिक कहानियों में पात्र होते हैं।कहानी संग्रह की भूमिका में ही अपने विचार स्पष्ट कर दिए हैं कि वे अब कहानियों में पात्रों का होना ज़रूरी नहीं मानते।भगदड़ में मौत कहानी भगदड़ के बाद ऊपजे तमाम परिस्थितियों को अलग-अलग दृश्यों में हास्य और व्यंग्य के साथ परोसा गया है।कहानी में छोटे-छोटे दृश्यों के माध्यम से  घर, परिवार, समाज, जाति, धर्म, शासन, प्रशासन, लोग और लोकतंत्र में मौजूद कटु यथार्थ का पर्दाफाश किया जाता है।
2.किरच-किरच लडक़ी - यह एक ऐसे प्रेमी जोड़े की कहानी है जो बड़े अरमान पाले यू पी से दिल्ली पढ़ने के लिए आते हैं और पढ़ लिखकर बेरोजगारों की भीड़ में शुमार हो जाते हैं।जीवन के जद्दोजहद में उनके जीवन के सुनहरे सपने टूट जाते हैं और महज़ रोजी रोटी के जुगाड़ में ही खूबसूरत काल्पनिक प्रेम का अंत हो जाता है।
3.

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