इस दुनियां में
बहुत सारे जीव
अपनी ही प्रजाति के जीवों को
खा जाते हैं-निगल जाते हैं
प्रत्यक्षतः
आदमी उन जीवों में शामिल नहीं होता
जैसे
बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है
सांप सपोले को
ये दुनियां बड़ी है
बड़े-बड़े हैं लोग
सपने भी हैं बड़े-बड़े
आकांक्षाएं बहुत-बहुत बड़ी-बड़ी
मगर
यह दुनियां छोटी हो जाती है
छोटे हो जाते हैं लोग
सपने भी सिमटकर छोटे रह जाते हैं
आकांक्षाएं बौनी रह जाती हैं
जब लोगो में बड़प्पन
और सोच छोटी होती है।
पिता से मांगने पर
कुछ भी तो नहीं मिले
जो कुछ मैंने
अपनी आवश्यकता समझकर मांगा
उसने कभी भी
मेरी उन मांगों को आवश्यक नहीं समझा
बहुत दिन बाद अब
जब मैं पिता बन गया हूँ
अपने बच्चों के ग़ैर ज़रूरी मांगों को
साफ-साफ मना कर देता हूँ
यह भलीभांति समझ गया हूँ
कि मेरी बचपन की वे मांगें
मेरे बच्चों की मांगों की तरह
ग़ैर ज़रूरी थे
मांगा मैंने
भरपूर पैसे,खिलौने और कपड़े
नहीं मिले मन मुताबिक़
मैंने कभी नहीं मांगा
फिर भी बिन मांगे ही दिए
अपने वक्त में से थोड़ा हिस्सा वक्त का
मेरी नींद के लिए दिए अपनी नींद
अपने अनुभवों से निकालकर दिए अनुभव के अंश
अपनी सीखों से दी कुछ जरूरी सीखें
दिए उसने जरूरत भर डांट-फ़टकार
मैं अनगढ़ था दिए उसने आकार
जितनी थी ज़रूरत दिए प्यार
मुझे मेरी पत्नी में माँ की कुछ आदतें,कुछ व्यवहार और कुछ ढंग दिखाई पड़ते हैं
मेरी पत्नी की कुछ आदतें, कुछ व्यवहार और कुछ ढंग हुबहू मेरी बेटीयों में दिखाई देते हैं
मुझे नहीं पता कि आख़िर मेरी माँ,पत्नी और बेटियों में
मेरे नाना,दादा या पिता या फ़िर उनके नाना,दादा या पिता के गुण क्यों नहीं आए ?
क्या बेटियों को कभी पुरुषों के गुणों की जरूरत ही नहीं होती
या कि बेटियां अपनी स्त्रियोचित गुणों में ही होती हैं परिपूर्ण
28..तुम पर्याप्त हो ! (12.04.2020)
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तुम जो हो जैसे हो
उतना ही होना तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं लग रहा हैं
तुम जो भी हो उसमें और 'होने' के लिए
कुछ लोगों को और भी जोड़ना चाहते हो
बहुत सारे या अनगिनत व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व में लाना चाहते हो
ताकि तुम अपने को साबित कर सको
इस फेर में असंख्य व्यक्तियों से भर गए हो तुम
और जिस दिन तुम्हें लगेगा
कि तुम अपने होने को याने नए वजूद को लगभग साबित करने वाले हो
तभी तुम्हें यह अहसास होगा
कि तुम वो बिलकुल भी नहीं हो जो साबित कर रहे हो।
तुम जैसे हो
उससे बिलकुल भी सन्तुष्ट नहीं हो
तुम हर पल वैसा होना चाहते हो जैसा हो नहीं
शायद तुम वैसा बन भी न पाओ जैसा बनना चाह रहे हो
वैसा बनने की यात्रा में तुम्हें अपनी कितनी सारी पहचाने
मिटाने भी पड़ेंगे
और जिस दिन तुम्हें लगेगा
कि जैसा बनना चाहते थे लगभग वैसा बनने ही वाले हो
तभी तुम्हें अहसास होगा
कि तुम बिलकुल भी वैसे नहीं हो जैसा बनना चाह रहे थे।
तुम पहले ही पर्याप्त थे
मग़र अपनी असंतुष्टि के दौड़ में
तुम वो नहीं रहे, तुम वैसे भी नहीं रहे
अब अपर्याप्तता की इस बिंदु पर दौड़ समाप्त हो चुकी है
पूर्णता की इस तलाश में समय भी निकल चुका है
तुम्हें अब आधे-अधूरे ही जीना होगा यह अभिशप्त जीवन।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
27..ग्रहों की बात ! (09.04.2020)
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साथ छोड़कर जाते हुए
चांद, सूरज, ग्रहों और नक्षत्रों से
उसने पूछा---
क्यूँ भई क्यूँ
मुझे छोड़कर यूं अकेला
भला क्यों जा रहे हो..?
सभी ने मिलकर एक साथ कहा---
तुम पहले ख़ुद का हो जाओ
हम सब तुम्हारे हो जाएंगे।
26..मगर से बैर - 09.04.2020
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जब तक तारीफ़ करता हूँ
उनका होता हूँ
यदि विरोध में
एक शब्द भी कहूँ
उनके गद्दारों में शुमार होता हूँ
हक़ीक़त तो यही है
न मैं उनका था
न कभी वो मेरे थे
साम्राज्यवादी चमचे
मुझे समझाते हैं
बंदूक की नोक पर
अबे! तेरे समझ में नहीं आता
जल में रहता है
और मगर से बैर करता है।
25..आज उसका काम बोलता है -02.03.2020
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वह बचपन से ही
कुछ करने से पहले
अपने आसपास के लोगों से
बार-बार पूछता था
...यह कर लूं ? ...वह कर लूं ?
लोग उन्हें हर बार
चुप करा देते थे
माँ से पूछा-पिता से पूछा
दादा-दादी और भाई-बहनों से पूछा
पूछा पूरे परिवार से
सारे सगे संबंधियों से
दोस्त-यार और शिक्षकों से भी पूछा
किसी ने भी उसे जवाब में
करने या न करने के संबंध में
कुछ भी नहीं कहा
आज वह बड़ा हो गया है
अब वह किसी से कुछ भी नहीं पूछता
सब कुछ अपने मन से करता है
लोग उसकी करनी देख
कुछ भी नहीं बोल पाते
रहते हैं बिलकुल मौन
लोग अब उन्हें सब कुछ करते हुए
आश्चर्य भरी निगाहों से
सिर्फ देखते हैं
अब वह बोलता कुछ भी नहीं
पूछता कुछ भी नहीं
बस कर्मलीन
काम करता है चुपचाप
आज उसका काम बोलता है।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
24..आपके कान बजते हैं ! - 01.04.2020
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अक़्सर मुझे
मेरे कानों में
सुनाई दे जाती है
मेरे नाम से पुकारती हुई
मेरी दिवंगत माँ की आवाज़
और घर के दूसरे कमरे में सो रहे
बाबूजी की पुकार
माँ की पुकार सुन
महज़ अपना वहम समझकर
मौन संतुष्ट हो जाता हूँ
पर जब जब बाबूजी के
पुकारने की आवाज़ आती है
मेरे कानों में,
हड़बड़ाकर चला जाता हूँ
उनके कमरे में
और पूछता हूँ-
क्या हुआ बाबूजी..?
बाबूजी सिर हिलाते हुए
कहते हैं-कुछ नहीं
पत्नी से पूछता हूँ-
कि आख़िर मुझे
मेरे नाम की पुकार
क्यों सुनाई देती है बार-बार
पत्नी कहती है-कुछ नहीं
आपके कान बजते हैं !
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
23..अपना घर घर नहीं चिड़ियाघर है
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हम सुरक्षित बंद हैं
अपने अपने घरों में
अपना घर घर नहीं है
चिड़िया घर है
बाहर का पानी
बाहर का राशन
बस जिंदा हैं पर भरोसे
चिड़िया घर के जानवरों की तरह
उनके ही नियम
हम पर लागू होंगे
हम बस चुपचाप रहेंगे
अपने घर में चिड़ियाघर की तरह
हमें नहीं पता
हम कब तक अंदर रहेंगे
और कब बाहर आएंगे
चिड़िया घर के
पींजरे से बाहर जो निकले तो
आदमखोर जानवर की तरह
पुलिस की लाठियों से
घिरकर पीटे जाएंगे
अपनों की मेहरबानी से
अच्छा है कुछ दिन
चिड़ियाघर ही कहेंगे
22..कितना कुछ बदल गया इन दिनों...(24.03.2020)
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कितना कुछ बदल गया इन दिनों...
देशभक्ति कभी इतनी आसान न थी
सीमा पर लड़ने की जरूरत नहीं
घर की चार दीवारी सीमा में
बाहर जाने से ख़ुद को रोके रहना देशभक्ति हो गई
ऑफिस जाने की जरूरत नहीं
बिना काम घर में बैठे रहना ही
आपकी कर्तव्यनिष्ठा,त्याग और समर्पण का
प्रमाण हो गया
मलूकदास जी
बड़े ही मर्मज्ञ और दूरदर्शी संत थे
इसी समय के लिए उसने पहले ही कहा था-
''सबके दाता राम''
हे संत कवि हम तो अज़गर भी नहीं हैं
और पंछी भी नहीं
हम तो चाकरी और काम वाले लोग हैं
आख़िर कब तक दाताराम के भरोसे जिंदा रहेंगे?
माता-पिता,पत्नी और बच्चों की वर्षों पुरानी
परिवार को समय न देने की शिकायत दूर हो गई
न जाने कितने दिनों बाद
परिवार के साथ गपियाया
बच्चों के साथ खेला
पत्नी को छेड़ा
समझ नहीं आ रहा कि ये अच्छे दिन है या बुरे दिन
अब तक देख लिया नई और पुरानी उन सारी फ़िल्मों को
जो समयाभाव के कारण अनदेखी रह गई थी
अक़्सर मेरे पिताजी कहते थे
भीड़ के साथ नहीं चलना
भीड़ से बचना
भीड़ से रहना दूर
भीड़ में पहचान खो जाती है
अस्तित्व मिटा देती है भीड़
पिताजी आप सहीं थे,हैं और रहेंगे भी
भीड़ अपना हिस्सा बना लेती है
पर कभी साथ नहीं देती
अजीज़ दोस्त सारे
दोस्ती के ग़ैर पारंपरिक तरीकों से तौबा कर
अस्थायी तौर पर थाम लिए हैं पारंपरिक तरीकों का दामन
समाजिक उत्थान,आर्थिक विकास,राजनीतिक गहमागहमी की बातें गौण हो गई
और सूक्ष्म,अदृश्य की बातें सरेआम हो रही
वाह्य धर्म और कर्म पर अल्पविराम लग गया
सारे अनुष्ठान, सारी प्रार्थनाएं और नमाज़ अंतर्मुख हो गईं
''मोको कहाँ ढूँढे बंदे मैं तो तेरे पास में''
कबीर को बांटने वाले कबीर के दर्शन पर जीने लगे
सुना था जो हँसता है उसे एक दिन रोना है
नियति के इस बटवारे में
एक दिन
मुझे रोना है
तुम्हें भी रोना है
सब को रोना है
हाँ सब कोरोना है।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
21..ज़रूरत - 17.03.2020
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कभी किसी चीज़ को खरीद लेना
ख़रीददार की ज़रूरत नहीं होती
बल्कि कई बार
बेचने वाले की जरूरत होती है
आपकी अनावश्यक खरीददारी।
20..थूकना और चाटना -16.03.2020
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उसके मुँह के सारे थूंक
अब सूख चुके हैं
ढूंढ-ढूंढकर वह
पहले थूंके हुए जगहों पर जाकर
उन थूंको को चाटकर
फिर से गीला कर रहा है अपना मुँह
उन्हें अपने किए ग़लती
का एहसास हो चुका है अब
बेहद पछतावा है उसे
कि आखिर बात-बात पर
क्यूं थूंका करता था ?
आख़िर उसे ही अब
अपना ही थूंका हुआ
चाटना पड़ रहा है
बड़ी मुसीबत है उसके सामने
कि कब-कब और कहाँ-कहाँ अपना थूंका हुआ चाटे
कि कब-कब और कहाँ-कहाँ खुद पर दूसरों को थूंकने से रोके।
लोग थूकते ही जा रहे हैं
आज वह थूंको से घिरा हुआ है
थूंको से भरा हुआ है
थूंको में डूबा हुआ है
अब सूख चुके हैं
उसके मुँह के सारे थूंक
जो वक्त-बेवक़्त थूंका करता था दूसरों पर।
19.पुकारहीन पुकार - 16.04.2020
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पुकारा उसने बार-बार
पर वे नहीं आए
आख़िरकार
थम गई
उसकी पुकार
यह देखने कि कैसे थम गई पुकार
आए सब
रस्म अदायगी में
बड़े जोर-जोर से
सभी मिलकर एक साथ
पुकारहीन को
पुकारने लगे समवेत स्वर में।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852478
18..मित्रों ! तोड़ो मौन - 04.03.2020
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जब-जब निर्वात-मौन
सम्प्रेषणहीन होकर
पड़ा होता है लाचार
तब-तब
वाणी का स्वर
माध्यम बनकर
जोड़ता है
दिलों के दो पुलों को
जब-जब बर्फ़ीला-मौन
जम जाता है
माइनस डिग्री पर
तब-तब
बर्फ़-सी जमी मौन के कणों को
अपनी ऊष्मा से
पिघलाती है
ध्वनि-मिश्रित साँसों की गर्मी
जब-जब अपाहिज-मौन
रुक जाता है-ठहर जाता है
चलने में होता है असमर्थ
तब-तब
शब्दों की बैशाखी
थामकर मौन की ऊँगली
पग-पग आगे
बढ़ाता है ज़बान तक
मित्रों ! तोड़ो मौन
हमेशा ज़रूरी होता है
चट्टानी-मौन को तोड़ने के लिए
हथौड़े-संवादों का प्रहार।
17..बचाकर रखो मौन - 03.02.2020
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कभी किसी को
सुनने के लिए
कभी किसी को
कुछ कहने के लिए
कभी किसी को
पुकारने के लिए
किसी के लिए कभी
गाने के लिए
तुम्हें मौन की ज़रूरत होगी
अपने लिए
और
अपनों के लिए
सुरक्षित
बचाकर रखो मौन
बुरे वक़्त में अक़्सर
आवाज़ें काम नहीं आती
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
16.कवि निमंत्रण - 23.02.2020
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मित्रों तुम आना
आज मेरी कविता पाठ है
कविता पाठ के बाद
तुम्हारे आने-जाने का खर्चा दूँगा
शाम को पार्टी होगी
मिलकर जश्न मनाएंगे
जैसे हर बार मनाते हैं
बस एक गुज़ारिश है
महफ़िल में
जब मैं कविता पढूँगा
मेरी हर पंक्तियों के बाद
तुम सभी एक साथ
वाह- वाह जरूर कहना
कविता पढ़ने के बाद
जब मैं धन्यवाद बोलूँ
तुम ज़ोरदार तालियां बजाना
वैसे तुम सभी अभ्यस्त हो
'वाह-वाह' और 'तालियों' का महत्त्व
भलीभांति जानते हो
मुझे पता है
तुम जरूर आवोगे
मना नहीं करोगे
क्योकि हम सभी कवि मित्र हैं
हम एक दूसरे की जरूरत हैं
कल तुम्हे भी तो मेरी ज़रूरत होगी
मैं भी तो वही करूँगा
जो तुम मेरे लिए करोगे
इसलिए हे कवि मित्र !
मेरा निमंत्रण स्वीकार करना
तुम जरूर आना
यह धमकी नहीं
मेरा निवेदन है।
15..झाड़ू - 19.02.2020
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हमने देखा है
फूल-झाड़ू से
फैले हुए कचरे
जमी हुई धूल
हमेशा
बुहारे जाते रहे हैं
पर
सच्चाई,प्रेम,हिम्मत और विश्वास
के सीकों से बने झाडू को
अहंकार, दंभ और झूठ की
जमी हुई धूल
अविश्वास से भरे
तथ्यविहीन
थोथे आदर्शों के कचरे को
एकदम साफ़
बुहारते हुए
अपनी आँखों के सामने
पहली बार देखा है।
14.स्त्री के लिए...17.02.2020
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मैं पुरुष हूँ
अपने झूठ,दंभ और
अहम के दायरे में
बिलकुल सुरक्षित
हमेशा की तरह
अब भी बाकी हूँ
दरअसल
मैं चाहता ही नहीं
कि तुमसे पूरा-पूरा मिलूँ
जैसे तुम मिलती हो मुझसे
ये फ़ितरत है मेरी
ख़ुद को तुमसे मिलने से
हर बार बचा लेता हूँ
अपने जरूरत के मुताबिक
तुमसे मिलता हूँ
थोड़ा-थोड़ा
तुम स्त्री हो
जब भी मिलती हो
एकदम पूरा-पूरा मिलती हो
तुम अपने अहम के
सारे दायरों से
बाहर निकलकर
बिलकुल असुरक्षित
लुटा देती हो सब कुछ
तन-से,मन-से और हृदय-से
हो जाती हो समर्पित
मैं पाकर
तुम्हारा प्यार
तुम्हारा समर्पण
तुम्हारा त्याग
इठलाता हूँ
असल में तुम चुकाती हो
जीवनभर
सब कुछ लुटा देने का कर्ज
पर फिर भी
कहती हो--
बस निभा रही हूँ अपना फर्ज।
ऐ स्त्री !
तुम अपने लिए
आख़िर कुछ भी
क्यों नहीं बचाती ..?
13- सुविधा-असुविधा 14.02.2020
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आदमी जानवर हो सकता है
पर उसे
जानवर कहलाना स्वीकार नहीं है
मसलन
आदमी कुत्ता नहीं होना चाहता
सुअर भी नहीं होना चाहता
न गदहा न ही भैंस होना चाहता
गैंडा या भेंड़-बकरी भी नहीं
सांप,बिच्छू या कीड़े तो कतई नहीं
ये और बात है
कि आदमी में कुत्ता,सुअर, गदहा या भैंस
या फिर गैंडा,भेंड़,बकरी, सांप, बिच्छू या कीड़े
सभी के गुण
थोड़े या अधिक मिल ही जाते हैं
कभी कभार
बड़ी विनम्रता से
आदमी गाय होना स्वीकार लेता है
पर ताज्जुब तो तब होता है
जब आदमी शेर कहने पर
गर्व से भर जाता है
फुला नहीं समाता
ये अलग बात है
कि आदमी में
शेर के वो गुण बिल्कुल नहीं होता
जिसके लिए वह शेर कहलाना चाहता है
आख़िरकार आदमी
अपनी सुविधा के लिए
शेर न सहीं
जानवर तो बन ही जाता है।
12.शिकार और शिकारी - 07.08.2020
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जनता जाल में फंसी लालची चिड़िया है
चालाक शिकारी है हमारे जनप्रतिनिधि
शिकारी हर बार जंगल आता है
जाल फैलाता है
दाने का लोभ दिखाता है
और बेवकूफ लालची चिड़िया को
हर बार अपने जाल में फंसा लेता है
चिड़िया रटंत विद्या में माहिर है
वह शिकारी के जाल में फंसी हुई
नैतिकता के पाठ को रट लगाती है
जाल में फंसी हुई
बार-बार दुहराती है
कि शिकारी जंगल में आता
जाल फैलाता है
दाने का लोभ दिखाता है
हमें जाल में नहीं फंसना चाहिए
शिकारी उसकी बेवकूफ़ी पर बड़ा प्रसन्न है।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
11.भला वह सरपंच कैसे बनता ! 7.02.2020
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उसने वोट मांगा
जनता के हित के लिए
कहा---
गांव का चहुमुखी विकास करूँगा
सड़के और मकान बनवाऊँगा
तुम्हारे दुःख-दर्द में काम आऊँगा
हरपल गांव के भला के लिए सोचूँगा
सरकार का एक पैसा नहीं खाऊँगा
पूरा गांव के विकास में लगाऊँगा
जनता समझदार थी
उसे नहीं दिए वोट
वह हार गया
जनता को ख़ुश करने के लिए
उसने शराब नहीं बांटी
उसने खिलाए नहीं बकरे और मुर्गे
उसने रुपयों से गरम नहीं किए ज़ेब
भला वह सरपंच कैसे बनता
जो जनता को खिला-पिलाकर खुश नहीं कर सकता
जो नहीं जानता 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' का अर्थ
यानी खुद ख़ुश रहे
और खुश रहे जनता भी
अधिकांश जनता के पास थी
गांव के सरकारी जमीनों पर अवैध कब्ज़े
गाँव के विकास के लिए
उन्हें छोड़ना पड़ता वह ज़मीन
भला वह सरपंच कैसे बनता
जो जनता को उनके स्वार्थ से अलग कर
चाह रहा था गाँव का विकास।
10. बदलाव
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वह साधारण था
साधारण लोगों के बीच में
साधारण लोगों के लिए
सोचता था हरपल
अब वह नेता है
तमाम जनप्रतिनिधियों के बीच में रहता है
अब वह हर पल
जनप्रतिनिधियों के लिए सोचता है
अब वह साधारण नहीं है
उसका सोच साधारण नहीं है
अब वह जनप्रतिनिधि है
अब नेता है वह।
9. मुआवज़ा
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ज़मीन के लिए
मुआवजे में मिले पैसे
मकान के लिए
मुआवज़े में मिले पैसे
मौत के लिए भी
मुआवज़े में मिले पैसे
मुआवज़े के पैसे से
ज़मीन ख़रीद ली गई
मकान बना लिए गए
पर मुआवज़े के उस पैसे से
न ख़रीदी गई जिंदगी
न बसाए गए जीवन।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
8.बसंत - 31.01.2020
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जब
पेड़ों के
पीले हो चुके
पत्तों का
होगा
बस अंत
तब
आएंगे
नए पत्तों में
बसंत।
7.अच्छे दिन - 29.01.2020
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कहा था उसने
'अच्छे दिन आएंगे'
एक दिन मैंने पूछा--
भाई कहाँ है अच्छे दिन ?
उसने कहा-- 'है'
पर मैं उस
अदृश्य-अलौकिक-रहस्यमयी
'अच्छे दिन' को देख न सका।
6. कमीने 29.01.2020
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सुनाई नहीं देती अब
'कमीने' जैसी गालियां
बस दिखाई देते हैं
यहाँ-वहाँ...।
5.बाकी सब ठीक है - 29.01.2020
----------------------------------------------/
ग्राहक ने टी वी मैकेनिक से कहा--
टी वी में आवाज़ नहीं आती
टी वी में पिक्चर नहीं आता
बाक़ी तो सब ठीक है
ठीक वैसे ही हम
अपना सारा हालचाल बताने के बाद
अक़्सर कहते हैं--
और...तो बाकी सब ठीक है।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
4.. उसकी दुआ - 29.01.2020
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लोग मुझे बद्दुआ देते रहे
फिर भी
मेरा बाल बाका न हुआ
महफ़ूज ही रहा सदा
क्योंकि
उसने मेरे लिए मांगी थी दुआ
कि मुझे किसी की बद्दुआ न लगे।
3.. तर्क - 27.01.2020
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कुत्ता भौकता है
इसलिए वह कुत्ता है
फिर जब-जब आदमी भौकता है
तब -तब वह भी कुत्ता होता है।
कुत्ता वफादार है
इसलिए वह कुत्ता है
फिर जब-जब कुत्ता वफादार नहीं होता
तब-तब वह आदमी होता है।
2.तन्हाई और लोग 25.012020
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मेरे साथ थी दुनियां
मेरे साथ थे लोग
मेरे साथ थे सारे रिश्ते-नाते
पर साथ कहीं न थी तन्हाई
मैंने छोड़ी दुनियां
मैंने छोड़े लोग
मैंने छोड़े सारे रिश्ते-नाते
पर साथ नहीं छोड़ी तन्हाई
1.असली चेहरा 25.01.2020
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वह जो आईने के सामने था
जैसा दिख रहा था
वैसा नहीं था
वह जैसा था
वैसा वह नहीं दिख रहा था
वह जानता है
अपना असली चेहरा
जो है आईने से बिल्कुल अलग
जिसे आईना कभी नहीं दिखा पाता।
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