गुड्डू की यादों में रामधीन -01.06.2020
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मेरे मस्तिष्क के एक हिस्से में
आज भी मौजूद है
रामधीन गोंड़ का
हँसता-खिलखिलाता
वह निष्कलंक काला चेहरा
मैं बहुत छोटा था तब
बमुश्किल छ: या सात बरस का
पर आज भी
अमिट-सी उसकी तसवीर
यादों में बसी हुई है
बियाबान जंगल में
भूत बंगला सा
डिप्टी रेंजर बाबूजी को मिला
सरकारी मकान था वह
वन विभाग का
जहां सुबह-शाम
खाना बनाने के लिए
आता था वह रोज़
उस बियाबान में
वही था मेरा साथी
सुबह-शाम रोज़
उसके आने का
करता था मैं इंतिजार
मेनगेट की आवाज़ सुनकर
दौड़ पड़ता था
बाहर की ओर..
वह छोटे बच्चों की तरह
घुलमिल जाता था मुझसे
मेरे मनोरंजन के लिए
मुझे ख़ुश करने के लिए
वह निकालता था
तरह-तरह के जंगली जानवरों
और पक्षियों की
बिलकुल हुबहू आवाज़
वह लंबे स्वर में
गुड्डू-s-s-s कहकर बुलाता था मुझे
गुड्डू संबोधन में उसके
टपकता था अपरमित
प्यार का रस
एक दिन वह
कुछ ज़्यादा ही
पुचकार रहा था
बार-बार चुम रहा था मुझे
उसके मुँख से
अजीब-सी गंध
आ रही थी
तब मैं समझा नहीं था
वह शराब की गंध थी
वह पिया हुआ था
रामधीन अपने घर में
ख़ुद के लिए
कभी स्वादिष्ट खाना
बनाता था या नहीं
मुझे नहीं पता
पर हमारे लिए
बड़ा स्वादिष्ट खाना
बनाता था वह
मूँग के दाल में
उसके लगाए
जीरे की छौंक की खूशबू
मेरी स्मृति के नाक में
बिलकुल वैसी ही
आज भी बैठी हुई है
तब मुझे पता नहीं था
कि वह आदिवासी है
गोंड़ है-बनवासी है
अपने अधिकारों से वंचित
नियति के हवाले एक ग़रीब है
तब मैं भी पढ़ा-लिखा नहीं था
रामधीन भी अनपढ़ था
हम दोनों
महज़ भोलेपन के साथ
स्नेह के डोर में बंधे हुए थे
अब जबकि बयालिस साल
बीत चुकी हैं सारी बातें
फिर भी
'गुड्डू' की यादों में
आज भी जीवित है रामधीन।
-- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479
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