Sunday 21 June 2020

'जूठन' आत्मकथा की समीक्षा

असह्य आत्मिक पीड़ा की यथार्थ अभिव्यक्ति : जूठन
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सहृदय रचनाकार जहाँ एक ओर अपने परिवेश को लेकर संवेदनशील होता है तो दूसरी ओर निजी संवेदनाओं की आत्माभिव्यक्ति भी करता है।साहित्यकारों का समाज के साथ सरोकार होने के कारण वह अपने साहित्य में सामाजिक कुरीतियों को यानी सामाजिक ,धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी पहलुओं को कृतिबद्ध करना शुरू करता है।दलित साहित्य की रचना करनेवाला साहित्यकार स्वयं दलित हो सकता है या फिर ग़ैर दलित हो सकता है। दोनों के द्वारा रचित साहित्य में 'यथार्थ और अनुभूति' को लेकर अंतर हो सकता है। जहाँ गैर दलित साहित्यकार दलित जीवन की पीड़ा को दूर से महसूस करता है वहीं एक दलित साहित्यकार अपने भोगे हुए यथार्थ को लिखता है।दलित साहित्यकार द्वारा लिखे हुए साहित्य में उन सारी बातों का चित्रण होता है जिसे रचनाकार स्वयं देखा है,अनुभव किया है,सोचा है समझा है और महसूस किया है। हिन्दी साहित्य में ऐसी कोई विधा नहीं है जो दलित अनुभवों से अनछुआ हो। आज कविता,कहानी, नाटक, उपन्यास,आत्मकथा आदि विधाओं में दलित साहित्य उत्कृष्ट रूप में देखे जा सकते हैं। 
               हिंदी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश
बाल्मीकि जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है उन्होंने दलितों की पीड़ा को शब्द देते हुए कविता,कहानी,आत्मकथा एवं आलोचना विधा में दलित साहित्य को संमृद्ध किया है। उनकी प्रमुख रचनाओं में सदियों का संताप ,बस्स बहुत हो चुका, अब और नहीं, शब्द झूठ नहीं बोलते, चयनित कविताएँ (कविता संग्रह) ; 'जूठन' दो भागों में (आत्मकथा) ; सलाम,घुसपैठिये,,अम्मा एंड अदर स्टोरीज, छतरी (कहानी संग्रह);  दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र , मुख्यधारा और दलित साहित्य, दलित साहित्य:अनुभव, संघर्ष और यथार्थ(आलोचना);सफाई देवता(सामाजिक अध्ययन) आदि हैं। 
            'जूठन' ओमप्रकाश बाल्मीकि जी की सबसे चर्चित कृति रही है जो कि आत्मकथा है।यह आत्मकथा दो भागों में है। आत्मकथा का पहला भाग 1997 में और दूसरा भाग 2015 में प्रकाशित हुआ था। आत्मकथा के संबंध में बाल्मीकि जी का कहना था कि " सचमुच जूठन लिखना मेरे लिए किसी यातना से कम नहीं था। जूठन के एक-एक शब्द ने मेरे जख्मों को और ज्यादा ताजा किया था,जिन्हें मैं भूल जाने की कोशिश करता रहा था।" वे यह भी कहते हैं कि " उपलब्धियों की तराजू पर यदि मेरी इस व्यथा कथा को रखकर तौलोगे तो हाथ कुछ नहीं लगेगा।" फ़िल्म ' आर्टिकल-15' के लीड एक्टर आयुष्मान खुराना ने एक इंटरव्यू में कहा है कि इस रोल की तैयारी करने के क्रम में उन्होंने जूठन किताब को पढा और उन्हें कई रातों तक नींद नहीं आई।कल्पना कीजिए उस व्यक्ति के बारे में जिसने ये जिंदगी जी होगी। मैंने जब लॉकडाउन के दौरान जूठन आत्मकथा पढ़ने का मन बनाया तो संयोग ऐसा हुआ कि मुझे जूठन के दूसरे भाग को पहले पढ़ना पड़ा। दरअसल मैंने आत्मकथा की राधाकृष्ण पेपरबैक्स वाली किताब के दोनों भागों का एक साथ ऑनलाइन आर्डर किया किंतु दूसरा भाग पहले पहुँच गया। सो उत्सुकता बस दूसरे भाग को पहले पढ़ डाला। उनके आत्मकथा के दूसरे भाग में देहरादून की आर्डिनेंस फैक्ट्री में अपनी नियुक्ति के साथ-साथ नई जगह पर अपनी पहचान को लेकर आई समस्याओं एवं मजदूरों के साथ जुड़ी अपनी गतिविधियों का ज़िक्र करते हुए अपनी साहित्यिक सक्रियता का विस्तार से उल्लेख किया है।जबकि आत्मकथा के पहले भाग में हज़ारों वर्षों से चले आ रहे जातिप्रथा के कुचक्र के बीच कथित तौर से क्षुद्र जाति चूहड़ा (मेहत्तर या भंगी) परिवार में जन्म लेने वाले बालक को किस तरह से हीन भावना के साथ संघर्ष करते हुए जीवन का पथ तलाशना पड़ता है,उसका जीवंत चित्रण किया है। 
               उनके आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव दग्ध हैं।आज भी समाज में डोम, चमार,मेहत्तर, चूहड़ा, भंगी, नट आदि  वर्ण या जाति में पैदा हुए लोगों के लिए ये शब्द गाली की तरह उच्च वर्गों के लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है।सच तो यह है कि दलित परिवार में जन्में लोगों को आदमी भी नहीं समझा गया। अपनी आत्मकथा को उज़ागर करने वाली  इस आत्मकथा के बारे में ख़ुद ओमप्रकाश बाल्मीकि जी कहते हैं-"दलित जीवन की पीड़ाएँ असहनीय और अनुभव दग्ध हैं।ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान न पा सके। एक ऐसी समाज व्यवस्था में हमने साँसे ली है,जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी ...। अपनी व्यथाक्रम को शब्दबद्ध करने का विचार काफी समय से मन में था। लेकिन प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिल पा रही थी।...इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे।एक लंबी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों,यातनाओं, उपेक्षाओं,प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा,उस दौरान गहरी यंत्रणाएँ मैंने भोगी।स्वयं को परत दर परत उघेड़ते हुए कई बार लगा कि कितना दुखदाई है यह सब ! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।"1 
               इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मेरा मन जातिगत समाज और उससे उपजे विद्वेष के प्रति और अधिक आक्रोश से भर गया। मुझे मेरे गाँव के नट समाज के वे लोग याद आने लगे जिन्हें मैं बचपन से अछूत के रूप में देखते आया था।वे आज भी समाज में अछूत समझे जाते हैं। तथाकथित उच्च वर्गों के घर सुख या दुख वाले कार्यक्रमों में महज़ बचे हुए खाना लेने के लिए आज भी मांगने जाते हैं।वे आज भी मूलभूत सुख सुविधाओं से दूर हैं।वे आज भी अस्पृश्य माने जाते हैं,उन्हें कोई भी सामाग्री दूर से प्रदान की जाती है।वे आज भी गरीबी,बेकारी,अशिक्षा आदि के चंगुल में जकड़े हुए हैं। बाल्मीकि जी की आत्मकथा के शब्दों में चमत्कार तो नहीं है पर भोगे हुए यथार्थ की सच्ची अनुभूति है। आत्मकथा पढ़ते हुए उनके अनुभवजन्य सामाजिक दुर्व्यवहारों के प्रसंगों को पढ़कर मेरा दिल भर जाता था।कितने बार मेरी आँखें नम हो गईं थी और आँसू भी निकल पड़े थे।जूठन के कुछ प्रसंग बिल्कुल रुलाने वाले और न भूलने वाले हैं-" तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया।थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, "अबे, ओ चूहड़े के, मादरचोद कहाँ घुस गया...अपनी माँ..." हेडमास्टर ने लपकलकर मेरी गर्दन दबोच ली थी।उनकी उंगलियों का दबाव मेरे गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है।कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका।चीख़कर बोले, "जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू...नहीं तो गांड में मिर्ची डाल के स्कूल से बाहर निकाल दूँगा।"2  ऐसी विषम परिस्थितियों में जहां दलित के लिए शिक्षा प्राप्त करना सपना था, तमाम उपेक्षाओं और अपमानों को सहते हुए लेखक ने शिक्षा प्राप्त की। 
             'जूठन' का एक-एक शब्द चीख़ता है-आख़िर हमारा कसूर क्या है? क्यों युगों से पशुतर हैं हम?कब बदलेगी नियति हमारी?कब हम थोथे वादों से उबरेंगे?संविधान में दिए गए अधिकार हमें कब मिलेंगे?हमारी गिनती राष्ट्र के अहम हिस्से के रूप में कब होगी? क्या हम भारतीय नागरिक होने का गर्व महसूस कर पाएंगे? ये सारे सवाल आज भी शासन-प्रशासन के सामने अनुत्तरित खड़े हुए हैं।जूठन भले ही एक व्यक्ति(बाल्मीकि जी) की आत्मकथा है किंतु यह उन समस्त दलितों की आत्मकथा है,जो पीड़ा को सहते तो हैं मगर अभिव्यक्त नहीं कर पाते। बाल्मीकि जी की आत्मकथा का शीर्षक 'जूठन' अपने आप में चौकाने वाला है।इस नाम को रखने के पीछे लेखक का जो दर्द छिपा है उसे उन्होंने बताते हुए अपने बचपन के दिनों को याद किया है।इस पुस्तक के शीर्षक चयन में वे सुप्रसिद्ध कथाकार राजेन्द्र यादव जी के प्रति आभारी दिखते हैं।उनके अनुसार-"पुस्तक का शीर्षक चयन करने में श्रद्धेय राजन यादव जी ने बहुत मदद की।अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर पांडुलिपि को पढा।सुझाव दिए।जूठन शीर्षक भी उन्होंने ही सुझाया।उनका आभार करना मात्र औपचारिकता होगी।"3 बचपन के दिनों को वे बताते हुए कहते हैं कि कैसे उनके माता और पिता हाड़तोड़ मेहनत करते थे उसके बाद भी दोनों समय निवाला मिलना दुष्कर था,उनकी माता कई तथाकथित ऊँचे घरों में झाड़ू-पोंछे का काम करती थी और बदले मिलती थी रूखी-सूखी रोटियाँ जो जानवरों के भी खाने लायक नहीं होती थीं, उसी को खाकर गुजारा करना पड़ता था।भोजन के बाद फेंके जाने वाले पत्तलों को उठाकर वे घर ले जाते और उनके जूठन को एकत्र करके कई दिनों तक खाने के काम में लाते।"पूरी के बचे-खुचे टुकड़े, एकाध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बांछे खिल जाती थी।जूठन चटखारे लेकर खायी जाती थी।"4
                  'जूठन' दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का यथार्थ दस्तावेज है।जीवन के रोजमर्रा की छोटी-छोटी सुविधाओं से वंचित दलितों की त्रासदी व्यक्तिगत वजूद से लेकर घर-परिवार और पूरी सामाजिक व्यवस्था तक फैली हुई है।लेखक अपने बचपन में जिस सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिवेश में पला-बढ़ा वह वह किसी की भी मानसिक दशा को विचलित कर देने वाला है।एक छोटे से बच्चे के लिए जब उसके आसपास की सारी परिस्थितियां प्रतिकूल हों उससे संस्कारवान होने की अपेक्षा करना सामाजिक बेमानी से कम नहीं है।जीवन के जद्दोजहद और विपरीत हालातों से लड़ते हुए लेखक कीचड़ में खिले कमल की भांति लगते हैं।अपने बचपन के आसपास की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए कहते हैं- "जोहड़ी के किनारे चूहड़ों के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें ,जवान लड़कियाँ,बड़ी-बूढ़ी यहाँ तक की नव नवेली दुल्हनें भी इसी डब्बेवाली के किनारे खुले में टट्टी फ़रागत के लिए बैठ जाती थीं।तमाम शर्म लिहाज़ को छोड़कर वे डब्बेवाली के किनारे गोपनीय जिस्म उघाड़कर बैठ जाती थीं।चारों तरफ़ गंदगी भरी होती थी।ऐसी दुर्गंध की मिनट भर में साँस घुट जाए।तंग गलियों में घूमते सूअर,नंग धड़ंग बच्चे,कुत्ते,रोज़मर्रा कर झगड़े, बस यही था वह वातावरण, जिसमें बचपन बीता।इस माहौल में यदि वर्ण व्यवस्था को आदर्श कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए,तो राय बदल जाएगी।"5 आत्मकथा के इन शुरूआती वाक्यों से उनकी पीड़ा और बेबसी का अनुमान लगाया जा सकता है।
                         भारतीय समाज में सामाजिक विकास के लिए जाति व्यवस्था का समर्थन करने वालों को डॉ भीमराव अंबेडकर जी की किताब 'जाति प्रथा का विनाश' (Annihilation of Caste) जरूर पढ़ना चाहिए। ठीक इसी तरह संविधान में कानून बनने के बाद भी जातिवाद की जड़ें भारतीय समाज में किस हद तक जमीं हुई है इसे साक्षात जानने के लिए बाल्मीकि जी की आत्मकथा 'जूठन' अवश्य पढ़नी चाहिए।जूठन का नायक समाज में गहराई तक सदियों पुरानी जमीं 'जातिवाद' की जड़ों को खोदने का प्रयास करता है।वह जाति द्वारा तय नियति को बार-बार ललकारता है,उससे जूझता है।सच मानिए महाभारत का नाबालिग अभिमन्यु चक्रव्यूह में केवल एक बार प्रवेश करता है और मारा जाता है लेकिन 'जूठन' का अभिमन्यु(लेखक) के सामने बार-बार यह चक्रव्यूह उपस्थित होता है  और उसे तोड़कर वे आगे बढ़ते हैं। वे अपनी प्रतिभा और संघर्ष के बलबूते पर उस शीर्ष पर पहुंच जाते हैं जहाँ तथाकथित सवर्णों का हजारों वर्षों से बर्चस्व रहा है।उनकी उपस्थिति से आसपास के लोगों को भूकंप सा झटका महसूस होता है।न चाहते हुए भी उन्हें ऐसे व्यक्ति को बर्दाश्त और स्वीकार करना पड़ता है,जिसके नाम से ही वे नफ़रत करते हैं।उसके साथ रहना व जीना कौन कहे,वे उसका नाम भी नहीं सुनना चाहते।इस तरह 'जूठन' आत्मकथा हिंदी साहित्य में ज्वालामुखी की लावे की तरह जलते हुए यथार्थ का पर्दाफ़ाश करता है।
                 'जूठन' के माध्यम से बाल्मीकि जी जहाँ एक ओर अपनी आत्मिक पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं तो दूसरी ओर वर्षों पुरानी जाति व्यवस्था के उस पहाड़ को ढहाना चाहते हैं जो समाज में समता,स्वतंत्रता और बंधुता के लिए बाधक रहे हैं।वे अपनी आत्मकथा में जो बातें लिखी है वह हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। उनकी बातों को झुठलाने के मायने है,भरी दुपहरी में अपनी आंख पर काली पट्टी बाँधकर कहना कि सूरज उगा ही नहीं है। बाल्मीकि जी द्वारा आत्मकथा लिखे जाने के निर्णय पर कुछ मित्रों द्वारा हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया था- " ख़ुद को नंगा करके आप अपने समाज की हीनता को बढाएंगे।" और यह भी " आत्मकथा लिखकर आप अपनी प्रतिष्ठा ही न खो दें।"
इसके बावजूद भी आत्मप्रेरित होकर उनके द्वारा आत्मकथा लिखा जाना साहसिक कार्य का परिचायक है।उनके द्वारा लिखे गए एक-एक शब्द जहाँ एक ओर ज़ख्म से कराहते हुए लगते हैं तो दूसरी ओर ज़ख्म देने वालों के ख़िलाफ़ ललकारते हुए भी लगते हैं।यह आत्मकथा किसी को बहुत पसंद आ सकता है तो किसी को शूल की तरह चुभ भी सकता है क्योंकि सच्चाई किसी को अच्छी भी लगती है तो किसी को बुरी भी। मैं इस आत्मकथा की यथार्थता और संप्रेषणीयता दोनों से अत्यधिक प्रभावित हूँ।

सन्दर्भ सूची :---
1.बाल्मीकि ओमप्रकाश, जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन,नई     दिल्ली, भूमिका, पृ. सं.- 7,8
2.वही पृ. सं.-15
3.वही पृ. सं.- 9        
4.वही पृ. सं.-19
5.वही पृ. सं.-11   

                              ---   नरेन्द्र कुमार कुलमित्र 
                                      सहायक प्राध्यापक
                         शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय 
                          कवर्धा,जिला-कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
                                मो. 9755852479

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